अन्न से अनेक / कुबेर

Gadya Kosh से
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मोर्चा ठंड के विरूद्ध है। अगहन-पूस का महीना है और योद्धा है, सुरजा।

सुरजा आश्वस्त था, अंततः जीत उसी की होगी। अब तक वह चालीस मोर्चों पर जीत हासिल कर चुका है। इस वर्ष भी, चाहे जैसे हो, वह ठंड को पराजित करके ही रहेगा। उसने अपने निश्चय को टटोला। अपनी तैयारी का जायजा लिया, इस काम के लिये उसके पास मात्र दो हथियार हैं, पहला - पुराना उधड़ता हुआ कंबल और दूसरा - अंगीठी।

ठंड पूरे शबाब पर है। उसने कंबल को अपने शरीर पर अच्छी तरह लपेट लिया। कंबल जगह-जगह से फट चुका था। उसके शरीर के कई हस्से, कंबल पर अनचाहे खुल आये, इन झरोखों से झांक रहे थे। फिर भी उसने हिम्मत कम नहीं होने दिया। अपनी ताकत को तौला। शरीर में अब पहले सी ताकत कहाँ? उसने जी कड़ा किया, अपने संकल्प को मजबूत किया, दीवार पर कोने में टिका कर रखे हुए सटका-लउठी को मजबूती से थामा और जमीन में पटकता हुआ घुप काली-अंधियारी, हड्डी तक को कंपकंपाने वाली, ठंडी रात में घर से निकल पड़ा।

निकलते वक्त रधिया ने ताकीद किया - “देख के जाहू।”

अंधियारी रात में रास्ता चलते समय सटका बड़े काम की चीज होती है। जमीन पर उसे पटकने से फटर-फटर की होने वाली आवाज से कीड़े-मकोड़े, साँप-बिच्छू सब, रास्ता छोड़कर भग जाते है। सुरजा कान और सिर को गमछे से अच्छी तरह बांधा हुआ है। फटे हुए कंबल से शरीर को लपेटा हुआ है, फिर भी वह ठंड से कंप रहा है। रास्ते में मिलने वाले संगी-जहुँरिया को राम-रमउआ कहते हुए वह अपने बियारा की ओर बढ़ रहा है। अंधेरे की वजह से कभी- कभी पहचानने में गलती हो जाती है। फिर तो मजाक करने का बहाना ही मिल जाता है। अभी-अभी उसने जिसे राम-राम किसन भैया कहा था, वह मुसुवा कका निकला। कब चूकने वाला था मुसुवा कका, कहने लगा - “वाह रे ननजतिया, मोसा ल नइ पहिचानस?”

सूरजा भी कहाँ चूकने वाला था, नहले पर दहला मारते हुए कहा - “अरे! कका हरस गा। आज कइसे संझकेरहा पहुँच गे हस? काकी ह बिना खवाय-पियाय खेदार दिस तइसे लगथे।”

मुसुवा ह कहिथे - “घोर कलजुग आ गे। बाप सन दिल्लगी करथे ननजतिया मन ह।”

सुरजा ने कुछ नहीं कहा, कुलकते हुए आगे बढ़ गया। सुरजा जब भी खुश होता है, गाने लगता है। अब वह गला खोलकर, पूरे सुर में, रेडियो में रायपुर टेसन पर बजने वाला एक गीत (डॉ. जीवन यदु की कालजयी रचना) गाने लगा -

मोर छत्तीसगढ़ ल कहिथे भइया,

घान के कटोरा

भइया, धान के कटोरा।

मोर लक्ष्मी दाई के कोरा

भइया, धान के कटोरा।

इस गीत को गाते-गाते सुरजा इतना मगन हो जाता है कि, राह चलते भी उसके पैर थिरकने लगते है। सचमुच, लक्ष्मी जइसेछत्तीसगढ़ महतारी के कोरा के समान दुनिया में और कहीं ठौर होगा? गीत में आगे क्या कहा गया है -

चमरू, चैतू, कचरू, केजू माटी के नाव जगाथें।

फुलबतिया, सुखिया, फुलबासन गाँवे ल सरग बनाथें।

जांगर के करमा मेहनत के, हो.....

जांगर के करमा मेहनत के, सुवा-ददरिया गाथें।

मोर राम अस हे खोरबाहरा, सीता अस मनटोरा -

भइया, धान के कटोरा ...।

मनटोरा का नाम आते ही सुरजा का मुँह लाज के मारे ललिया जाता है। क्या कहा है, ’सीता अस मनटोरा’? उसकी घरवाली रधिया भी तो मनटोरा ही है, बिलकुल, सीता जैसी।

धान की सोने जैसी फसल कट चुकी है। अब वह ध्यानमग्न किसी तपस्वी-योगिनी की तरह, बियारा में खरही के रूप में स्थापित है। खरही के नीचे बैठने पर सुरजा के मन को बड़ी शांति मिलती है, लगता है, माँ की गोद में बैठा हो। सुरजा का बियारा बस्ती से बाहर है, जहाँ उसके जैसे और भी बहुतों के बियारे हैं। घर बस्ती के बीचों-बीच पड़ता है। अन्नमाता को बाहर, बियारा में छोड़कर वह घर में कैसे सो सकता है, नींद आयेगी क्या उसे? जेवन करके रोज वह फसल की रखवारी करने बियारा में चला आता है। यहीं सोता है। दो खरही के बीच खाली जगह में उसने झाला बना रखा है। सोते समय झाला के मुँह को वह खरिपा से बंद कर देता है, मजाल हैं फिर, कतरा भर भी ठंडी हवा भीतर आ सके। फिर तो खूब गरमता है। नन्हा शिशु इसी तरह ही तो अपनी माँ की गोद से लिपटकर ऊष्णता पाता होगा।

बियारा के राचर के पास पहुँचकर सुरजा ठहर गया। बियारा के आसपास का जायजा लिया। कहीं कोई हरहा गाय-गोरू तो नहीं होगा? अँधेरे में कुछ दिखता है क्या? पर आवाज से, आरो लेकर तो पता किया ही जा सकता है। वाह! भगवान ने भी क्या रचना रचा है? आश्वस्त हो जाने पर उसने राचर उठाकर अंदर प्रवेश किया। बियारा में नीम अंधेरा पसरा हुआ था। एक ओर से दाऊ के बियारा में जल रहे सौ पावर के बल्ब की और दूसरी ओर से गली के बिजली खंभें के बल्ब की रोशनी आ रही थी। हाथ सुन्न हए जा रहे थे; सोचा, अलाव में थोड़ा सेंक लिया जाय। अलाव में झोंके गये बबूल के मोटे-मोटे तने लगभग बुझ से गये थे। उसने अंगारे पर से राख की परतों को झड़ा कर अलाव को फिर से जलाने का प्रयास किया। मोटी लकड़िया आसानी से जलती कहाँ है? पास ही रखे पैरे की ढेर से उसने एक मुट्ठी पैरा उठाकर अलाव में झोंक दिया। कुछ देर धुँए का गुबार उठने के बाद पैरा भभक उठा। बियारा में रक्ताभ रौशनी फैल गई। सुरजा ने देखा, बीचोंबीच गोबर से लिपा, साफ-चिकना बियारा है और उसके चारों ओर खड़े हैं खरही। सब खैरियत से हैं।

अन्न माता जब तक घर की कोठी में न आ जाय, किसान की नहीं होती। सुरजा को रजवा पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था। मिंजाई में सपरिहा बनने के लिए हामी भरा था, परन्तु अब तक वह आजकल में टरकाते आ रहा है। अब वह उसकी और अधिक प्रतीक्षा नहीं करेगा। उजला पाख आते ही, जब चंदा की भरपूर रोशनी मिलने लगेगी, मिंजाई शुरू कर देगा, रजवा चाहे साथ दे या न दे, रधिया तो है ही।

अंगीठी में पैरा झोंकर उसने फिर भुर्री जलाया। भुर्री के अंजोर में झाला के अंदर जाकर अपना बिस्तर ठीक किया। नींद नहीं आ रही थी, आकर फिर अंगीठी के पास बैठ गया। दाऊ के बियारा में ठेला-बेलन चल रहा है। हाँकने वालों में मन्ना भी तो है। हाकने वालों की ओ..हो......त...त.. की आवाजें आ रही थी। कभी-कभी कोर्रा-तुतारी भी चल जाता था और ठेला-बेलन जब अपने सही लय पर आ जाता, मन्ना के गले से ददरिया का झरना फूट पड़ता।

बिरबिट करिया रात हे, दिखत नइ हे रस्ता।

गरीब के जिनगी भइया, भैंसा-बइला ले सस्ता।

अलबेला रे, बेलबेलहा रे।

अलबेला रे, बेलबेलहा रे, इतरावत रहिबे न।

चारेच दिन के जिनगी संगी, हाँसत-गोठियावत रहिबे न।

अलबेला रे, बेलबेलहा रे।

दाऊ के घर चरवाही करते-करते मन्ना अब बूढ़ हो गया है। बचपन के संगी-साथी जब बस्ता लेकर स्कूल जाते, वह दाऊ के खेतों पर मजदूरी कर रहा होता। दाऊ की मजदूरी में पूरी उमर गुजारकर क्या पाया उसने? सिर छिपाने के लिये झोपड़ी भी तो नहीं बना पाया। तन ढंकने के लिये ढंग के कपड़े भी तो नहीं है उसके पास। पर उसने कभी इसका हिसाब नहीं लगाया। बस इतना ही काफी है कि बेईमानी का दाग उस पर कभी नहीं लगा। छोटी-मोटी गलतियों पर माँ-बहिन की इज्जत के चिथड़े उड़ाने वाले दाऊ लोग भी अब उससे सम्मानपूर्वक बात करते हैं, ये क्या कम है? पढा़-लिखा नहीं है तो क्या हुआ, रामायण तो बाँच लेता है। गाँव की रामायण मंडली का मुखिया भी तो वही है। क्या हुआ, पंडितों के समान वह रामायण की चौपाइयों का टीका नहीं कर सकता, पर जब वह टीका करने बैठता है तो वाहवाही तो खूब मिलती है, श्रोता मुग्ध हो जाते है। गाँव ही नहीं आसपास के लोग भी इसी कारण उसकी इज्जत करते हैं।

सुरजा भी उनकी खूब इज्जत करता है। सोचता है, मन्ना दादा पिछले जनम में जरूर कोई संत-महात्मा रहा होगा, तभी तो इस जनम में उसके पास ज्ञान का इतना भंडार है। फिर सोचता है,पिछले जनम में अच्छा आदमी रहा होगा, इस जनम में भी अच्छा आदमी है, तब भगवान ने उसे धन दौलत क्यों नहीं दिया? क्यों इतना गरीब है वह? सुरजा ने यही बात एक बार एक बड़े पंडित से पूछा था। पंडित जी ने जवाब में कहा था - “घर-द्वार, महल-अटारी, जमीन-जायदाद तो माया है सुरजा, असली धन तो ज्ञान है, चरित्र है, जिसे कोई छीन नहीं सकता, जो कभी समाप्त नहीं होता, भगवान ने मन्ना को यही धन दिया है।” सुरजा को पंडित जी की इस बात में गुलाझांझरी जैसा कुछ लगता है। सोच-सोचकर सुरजा का दिमाग चकराने लगता है। यही बात उसने एक बार मन्ना से भी पूछा था। मन्ना ने कहा था - “बइहा हो जी तुम, हमारा काम है करम करना, देना नहीं देना उसके हाथ में है। ज्यादा क्यों सोचते हो?”

लेकिन अब बात सुरजा की समझ में आ गई है। नहीं सोचते हैं, इसीलिए हम लोग गरीब हैं। उसने धान की खरही की ओर देखा, जैसे उनकी सम्मति जानना चाहता हो। लगा कि लक्ष्मी माता साक्षात प्रगट होकर आशीष दे रही है। उसका मन आनंद से भर उठा।

मन्ना की बातें फिर उसके मन को मथने लगी। मन्ना कहता है - “सुरजा, अन्न से अनेक होथे बाबू रे। अन्न हे तब जन है, दुनिया हे।”

मन्ना की यह ऊक्ति वह बचपन से सुनता आ रहा है। खूब सोचता है वह, कैसे होता होगा अन्न से अनेक? तब उसे इसका यह अर्थ समझ में आया था। अन्न से अनेक होता है मतलब अन्न से अनेक प्रकार के भोजन बनते हैं, जैसे - भात, बासी, अंगाकर रोटी, मुठिया रोटी, चिलारोटी, फरा रोटी, ठेठरी, खुरमी, और न जाने क्या, क्या। सच ही तो है, अन्न से अनेक होता है।

समय बीता, इस कथन का उसे एक और अर्थ समझ में आया। अन्न तो एक है, पर खाने वाले अनेक हैं। पशु-पक्षी भी तो खूब मौज करते हैं, अनाज जब खेतों में होता है। और दुनिया के करोड़ों आदमी तो हैं ही। मन्ना बाबा सच ही कहते हैं - “अन्न से अनेक होता है।”

पर आज उसने इस ऊक्ति का एक और अर्थ समझा है। उसकी अर्न्तआत्मा कराह उठी। किसान के पास एक अन्न ही तो होता है जिसके बूते वह रोटी, कपडा़, मकान, दवाई, तीज-त्यौहार, लेन-देन करता है। पहले किसान गर्व से फूला न समाता होगा, जब अन्न के बदले वह दुनिया की अनेक वस्तुएँ मोल ले सकता होगा। अब तो इस एक अन्न से एक का ही पेट भरना मुश्किल हो रहा है। रोटी, कपड़ा अैेर मकान का जुगाड़ कैसे हो?

अचानक सुरजा का मन अवसाद से भर गया। कल ही सेठ का तकादा आया है। “उधार की रकम जल्दी पटा दे, वरना ब्याज पर ब्याज शुरू हो जायेगा। ज्यादा देर किया तो घर की नीलामी हो जायेगी।” महीना भर भी तो नहीं हुआ है, और अब तकादा? सामान बेचते वक्त कितनी मीठी-मीठी बातें करतें हैं सेठ लोग, और अब जहर बुझे तीर के समान घुड़की।

वह स्वयं को कोसने लगा, उधार की ओखली में सिर ही क्यों दिया उसने? पुराने कपड़ों में दीवाली क्यों नहीं मना लिया? उस क्षण का दृश्य उनकी आँखों के सामने नृत्य करने लगा।

इस साल भरपूर बरसात हुई थी। खेतों में माड़ी-माड़ी इतना पानी भरा था। धान के पौधे भी सिर ढंक जाय, इतना बढ़े थे। सुरजा के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, अरमान पूरे होने दिन जो आ रहे थे। पत्नी कब से रट लगाये बैठी है कि कलाई राड़ी-रेठवा जैसे लगता है, एैंठी बनवा दे। करधनी घिसकर टूट गया है, बदली करवा दे। और न जाने क्या-क्या।

सुरजा ने तब पत्नी को भरोसा दिलाया था कि इस साल वह उनकी कम से कम एक फरमाइश जरूर पूरा करेगा। बैल बूढ़े हो गए हैं, उसे भी बदल देगा। पर अभी तो सामने दीपावली है, कपडा़-लत्ता और तेल-फूल तो पहले चाहिए। सबके बच्चे नये कपड़े पहनेंगे, फटाका चलायेंगे, सबके घर बरा-सोहारी चुरेगा तो बच्चे रेंध नहीं मतायेंगे? बड़ों को समझाया जा सकता है, पर बच्चों को भुरियाना आसान नहीं है। चाहे जो हो, इस साल वह बच्चों के लिये, उसकी माँ के लिये, मनपसंद कपड़े खरीदेगा, गहने भी खरीदेगा।

और वह गाँव के बड़े सेठ का कर्जदार हो गया।

सुरजा को अब स्वयं पर गुस्सा आ रहा है। क्यों देखा उसने सपना? सपने बस उसे देखने चाहिए, जो सुख की नींद सोते हैं। उसे तो सपने में भी जांगर तोड़ना पड़ता है। दिन भर खटने के बाद रात भर दुखती रगों को सहलाते, कराहते ठंड से अकड़ जाना पड़ता है।

कोशिश करने पर भी उसे नींद नहीं आ रही है। मन्ना बाबा ने उसे दुखी देखकर कल ही समझाया था, “धीरज रख बेटा, रात कतरो लंबा हो जाय, पर पहाथे जरूर।”

सुरजा को पूरा विश्वस है कि मन्ना बाबा का कहा कभी झूठ नहीं होता। पर कहने भर से क्या होगा? सोचे हुए को पूरा करने के लिए कुछ उदिम भी तो करना पड़ता है।