अन्य मतवाद / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
कुछ लोगों का खयाल है कि इन्हीं आधिभौतिक, आदिदैवत एवं आध्यात्मिक - तीनों - पक्षों का जिक्र गीता में किया गया है। उनके मत से गीता का यही कहना है कि हमें इन सभी पक्षों को जानना चाहिए। जिन्हें मुक्ति लेना है और जन्म-मरण से छुटकारा पाना है उन्हें इन सभी पक्षों का मंथन करना ही होगा। वे खामख्वाह इन सबों का मंथन करते हैं। सातवें अध्याय के अंत के जिन दो श्लोकों में ये बातें कही गई हैं और इसीलिए आठवें के शुरू में इनके बारे में पूछने का मौका अर्जुन को मिल गया है, उनमें पहले यानी 29वें श्लोक में तो उनके मत से कुछ ऐसा ही लिखा भी गया है। वह श्लोक यों है, 'जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥' इसका अर्थ यह है कि 'जो लोग भगवान का आश्रय लेकर जन्म, मरणादि से छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं वे उस ब्रह्म को पूरा-पूरा जान लेते हैं, सभी कर्मों को जान जाते हैं और अध्यात्म आदि को भी जानते हैं।' इससे वे लोग अपना खयाल सही साबित करते हैं।
मगर बात दरअसल ऐसी है नहीं। वस्तुओं के विवेचन के उक्त तीन तरीके हैं सही। इन्हें लोग अपनी-अपनी रुचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार ही अपनाते भी हैं। मगर यहाँ उन तरीकों तथा प्रणालियों से मतलब हर्गिज है नहीं। यदि इन श्लोकों से पहले के सिर्फ सातवें अध्याय के ही श्लोकों पर गौर किया जाए तो साफ मालूम हो जाता है कि आत्मा-परमात्मा की एकता के ज्ञान का ही वह प्रसंग है। इसीलिए वही बात किसी न किसी रूप में कई प्रकार से कही गई है। 16-19 श्लोकों में तो भक्तों के चार भेदों को गिना के ज्ञानी को ही चौथा माना है और कहा है कि 'ज्ञानी तो मेरी - भगवान की - आत्मा ही है' - “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्” (7। 18)। इसकी वजह भी बताते हैं कि 'वह तो हमसे - परमात्मा से - बढ़ के किसी को मानता ही नहीं और हमीं में डूब जाता है' - “आस्थित: सहि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्” (7। 18) लेकिन इसके बाद ही जो यह कहा है कि 'संसार में जो कुछ है वह सबका सब वासुदेव - परमात्मा - ही है, ऐसा जो समझता है, वह तो अत्यंत दुर्लभ महात्मा है' - “वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:” (7। 19), वह तो बाकी बातों को हवा में मिला देता है। उससे तो स्पष्ट हो जाता है कि यही एक ही चीज दरअसल जानने की है।
इतना ही नहीं। इसके आगे 20-27 श्लोकों में उन लोगों की काफी निंदा भी की गई है जो दूसरे देवताओं या पदार्थों की ओर झुकते हैं। उनकी समझ घपले में पड़ी हुई बताई गई है, 'हृतज्ञाना:' (7। 20)। 'इसीलिए तुच्छ एवं विनाशशील फलों को ही वे लोग प्राप्त कर पाते हैं।' - “अंतवत्तु फलं तेषां” (7। 23)। भौतिक दृष्टिवालों के बारे में तो यहाँ तक कह दिया है कि हमारे असली रूप को न जान के ही ऐसे बुद्धिहीन लोग स्थूल रूप में ही हमें देखते हैं -'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:' (7। 24)। आगे के तीन श्लोकों में इसी बात का स्पष्टीकरण हुआ है। अंत में तो यहाँ तक कह दिया है कि रागद्वेष के चलते जो अपने-पराए और भले-बुरे की गलत धारणा हो जाती है उसी का यह नतीजा है कि लोग इधर-उधर इस सृष्टि के भौतिक पदार्थों में भटकते फिरते हैं - 'इच्छाद्वेष समुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यांति परंतप' (7। 27)। इसके विपरीत जिन सत्कर्मियों में यह रागद्वेषादि ऐब नहीं हैं वे अपने-पराए आदि के झमेले में न पड़ के पक्के निश्चय एवं दृढ़संकल्प के साथ केवल हमीं - परमात्मा - में रम जाते हैं - 'येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रता:' (7। 28)। इसी के बाद वे श्लोक आए हैं। तब कैसे कहा जाए कि उनमें आधिभौतिक आदि विवेचनों पर जोर दिया गया है या ऐसे विवेचनों की जानकारी अवश्य प्राप्तव्य बताई गई है?
इसके सिवाय उक्त तीन बातों के अलावा ब्रह्म और कर्म की जानकारी की भी तो बात वही लिखी है। शंका भी इन दोनों ही के बारे में की गई है। उत्तर भी दिया गया है। भला अधियज्ञ को तो उन्हीं तीनों के साथ जैसे-तैसे जोड़ के वे लोग पार हो जाते हैं। मगर मरने के समय भगवान की जानकारी कैसे होती है, यह भी तो एक प्रश्न है। पता नहीं वे लोग इसे किस पक्ष में डालते हैं ऐसा तो कोई पुराना पक्ष है नहीं। और अधियज्ञवाला पक्ष तो बिलकुल ही नया है। फिर पुरानों के साथ इसका मेल कैसे होता है? खूबी तो यह है कि उनने 'अधिदेह' नाम का एक दूसरा भी पक्ष यहीं पर खड़ा कर दिया है और यह ऐसा है कि 'न भूतो न भविष्यति।' यदि वे लोग यह समझ पाते कि अध्यात्म शब्द में जो आत्मा शब्द है वह देह के ही मानी में है और जहाँ-तहाँ यह शब्द छांदोग्य, बृहदारण्यक आदि उपनिषदों या और जगह आया है इसी मानी में आया है, तो शायद अधिदेह की बात बोलने की हिम्मत ही न करते। ज्यादा तो नहीं, लेकिन हमारा उनसे यही अनुरोध है कि छांदोग्य के पहले अध्याय का दूसरा, खंड बृहदारण्यक के पहले अध्याय के पाँचवें ब्राह्मण का 21वाँ मंत्र तथा कौषीत की उपनिषद् के चौथे अध्याय के 9-17 मंत्रों को गौर से पढ़ जाएँ। तब उन्हें पता लगेगा कि अध्यात्म में जो आत्मा शब्द है वह शरीर का ही वाचक है या नहीं।
लेकिन जब कर्म, ब्रह्म और मरण काल का ब्रह्मज्ञान किसी पुराने पक्ष की चीज नहीं है तो फिर अध्यात्म वगैरह को ही क्यों पुराने पक्ष में घसीटा जाए? और इन पक्षों को जानने से लाभ ही क्या? किसी विश्वविद्यालय की न तो परीक्षा ही देनी है और न कोई उपाधि ही लेनी है। कोई पुस्तक भी नहीं लिखनी है कि पांडित्य का प्रदर्शन किया जाएगा या खंडन-मंडन ही होगा, जिसके लिए इन अनेक पक्षों की जानकारी जरूरी हो जाती है। यहाँ तो ब्रह्मज्ञान और मोक्ष का ही सवाल है। सो भी मरणकाल की जानकारी की बात उठा के यह भी जनाया है कि विशेष रूप से मरण समय के लिए जरूरी बातें यहाँ बता दी गई हैं। यही कारण है कि चार श्लोकों में ये बातें खत्म करके पाँचवें के ही 'अंतकाले च' आदि शब्दों से शुरू करके उसी अंतकाल या मरण समय की ही बातें अंत तक लिखी गई हैं। तरीका भी बताया गया है कि किस प्रकार उस समय आत्मा और ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। मरने पर लोग किन-किन रास्तों से हो के जाते हैं यह बात भी अंत में कही गई है। ऐसी हालत में आधिभौतिक आदि मतवादों का तो यहाँ अवसर ही नहीं है। इसीलिए मानना पड़ता है कि इन बखेड़ों से यहाँ कोई भी मतलब नहीं है।