अपना-अपना आसमाँ / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी
(अनुवाद :सुकेश साहनी) तीन व्यक्ति एक 'बार' में मिले। इनमें एक जुलाहा, दूसरा बढ़ई और तीसरा कब्र खोदने वाला था।
जुलाहे ने कहा, "आज मैंने बारीक लिनेन का कफन दो सौ रुपये में बेचा है। आज हम जमकर पिएँगे।"
बढ़ई ने कहा, "आज मैंने एक कीमती अर्थी बेची है। आज शराब के साथ कबाब भी खाएँगे।"
मजदूर ने कहा, "मैंने केवल एक ही कब्र खोदी, लेकिन मृतक के परिवारवालों ने मुझे दूना मेहनताना दिया। आज हम मिठाई भी खाएँगे।"
उस शाम बार में काफी व्यस्तता रही, वे लगातार शराब, मीट और मिठाई मंगाते रहे। वे आनन्दित थे।
बार का स्वामी अपनी पत्नी की ओर देखते हुए बहुत खुश था क्योंकि वे जी खोलकर पैसे खर्च कर रहे थे।
जब वे मदिरालय से बाहर आए तो आधी रात बीत चुकी थी। वे सड़क पर गाते-चिल्लाते चले जा रहे थे। बार का स्वामी, उसकी पत्नी गेट पर खड़े उन्हें देखे जा रहे थे।
"आह!" पत्नी ने कहा, "ये भलेमानुस! कितने उदार और मौजी! अगर ये लोग इसी तरह हमारे यहाँ आते रहेंे तो हमारे बेटे को शराब की दुकान नहीं करनी पड़ेगी। तब हम उसे पढ़ा पाएंगे और हो सकता है वह एक पादरी ही बन जाए."