अपना गांव / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
अरसे बाद... जी हाँ, कई वर्षों बाद... अपने गाँव में... अपनी जन्मभूमि में... अंतिम समय बिताने... अंतिम सांस छोड़ने... अपने पुरखों की माटी में अपने को मिटाने-मिलाने के लिए आए थे—एक चिड़िया और एक चिड़ी।
"आह...! अपना गाँव! जननी जन्मभूमिश्च...! अपनी माटी की कैसी खुशबू है।" चिड़ा ने लंबी सांस ली और कहा, "चलो मथा टेकाओ, इस माटी पर।"
"नहीं, यह हमारा गाँव नहीं हैं।" चिड़ी ने संदेह व्यक्त किया।
"धत् पगली! अपने गाँव को नहीं पहचान रही हो?"
"ये ऊंची-ऊंची इमारतें। कहाँ है माटी के घर? फूस की छत... छत के छाजों पर पक्षी के घोंसले?"
"अरी पगली, गाँव का विकास हुआ है।"
"पर घोंसला कहाँ बनाओगे? बड़े-बड़े वृक्ष कहाँ हैं? यहाँ तो कलम किए हुए छोटे-छोटे वृक्ष हैं।"
"हूँ।" चिड़ा को थोड़ी निराशा हुई। दोनों उड़-उड़कर पूरा गाँव देखने लगे। चिड़ी बोली, "देखते हो शाम की बैठकी भी नहीं होती यहाँ। सब अपने-अपने घर में घुसे हुए हैं।"
"हाँ, शहरीकरण का प्रभाव है।"
"और ये छोटे-छोटे परिवार... भाई-भाई में बातचीत नहीं... कैसा तनावपूर्ण परिवेश है।"
"हूँ।"
शाम को पक्षियों का चहचहाना एकदम नहीं। कैसा दमघोंटू वातावरण है। लगता है कोई श्मशान। "
चिड़े ने चुप रहने का इशारा किया। कोई व्यक्ति उनकी बातचीत को सुनकर उन पर लक्ष्य साथ रहा था। वे डर गए। मन निराशा से भर गया। दोनों झट से नीचे उतरे। जमीन पर माथा टिकाये और फुर्र से उड़ गये। दूर... बहुत दूर।