अपनी अपनी ईमानदारी / कुबेर
सेठ जी की सारी आदतें पारंपरिक हैं, जैसे - परंपराओं को पीढ़ी दर पीढ़ी आगेबढ़ाने की जिम्मेदारी का निष्ठा व ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करना। बेदागश्वेत परिधान पहनते हैं जिसमें ऊपर कुर्ता और नीचे पायजामा होता है। कुर्ते के नीचे विशेष रूप से डिजाइन किया हुआ बंडी पहनते हैं जिसमें नगदीऔर कीमती सामानों को छिपाकर रखने के लिए कुछ गुप्त पाकिट बने होते हैं।हाथ में बड़ा सा झोला, रास्ते में मिलने वाले सस्ते पर कीमती सामानों कोसमेटने के लिए होता है। पाँव में चप्पल और चेहरे पर विशिष्ट भावाकृति कीपुराइन पत्ते के महत्व को कम करता हुआ एक ऐसा आवरण पहनते हैं, जिस पर सेमान-अपमान, लाज-शरम जैसी अति सामान्य मानवीय भावनाएँ पानी की बूंदों कीतरह बिना दाग छोड़े ढर जाते हैं।
सेठ जी पूर्णतः अहिंसक और शाकाहारी जीव हैं; यद्यपि सूदखोरी, मिलावटखोरी और मुनाफाखोरी उनका खानदानी व्यवसाय है। झूठ बोलना तो इनके व्यवसाय काअनिवार्य गुण है। भीमकाय शरीर के मालिक हैं। शरीर के खुले अंगों से पताचलता है कि उनका रंग काला है और काली चमड़ी पर सूअर के बालों की तरहकाले-काले घने बाल उगे हुए हैं। चेचक दाग वाले चेहरे पर बड़ी-बड़ी सफेदआँखें बच्चों के मन में भय पैदा करने के लिए पर्याप्त हंै। चेहरा डरावनाहुआ तो क्या, सेठ जी बड़े मिष्ठभाषी हैं, पर लोग न जाने क्यों उनकी मीठीबातों से हरगिज, हर हाल और हर कीमत पर बचना चाहते हैं। मिष्ठता के साथशायद दुष्टता का सोने पे सुहागा के समान योग हो ?
सेठ जी आज अपने पारंपरिक परिधानों में सज-धज कर निकले हैं। उन्हें कहींबाहर जाना है। बस में ज्यादा भीड़, ज्यादा तकलीफ और ज्यादा बकझक होती है।ऊपर से किराया भी ज्यादा। अतः उन्होंने भारतीय रेल को ही इस यात्रा केलिए निरापद समझा है। मरना यदि हुआ भी, तो खटारा बस में क्यों ? महानभारतीय परंपरा अनुसार भारतीय रेल में क्यों नहीं?
सेठ जी अप दिशा की ओर जाने वाली रेल के सामान्य दर्जे का टिकिट लेकरनिर्धारित प्लेटफार्म पर रेल के आने की प्रतीक्षा कर रहें हैं, जिसके आनेमं तीस मिनट की देरी रेल्वे की इलेक्ट्रानिक सूचना पटल पर दिखाई जा रहीहै, और जिसके एकाध घंटा और बढ़ जाने की पूरी संभावना है।
रेल-आगमन का समय जैसे-जैसे निकट आ रहा था, प्लेटफार्म पर भीड़ बढ़ती जा रहीथी। कुछ लोग जो अकेले थे, और जल्दी में थे, बड़ी व्यग्रता के साथ कंधे यापीठ पर बैग लटकाए इधर-उधर घूम रहे थे। कुछ लोग बड़े इत्मिनान के साथसीमेंट की बनी स्थायी बेंचों पर बैठे हुए थे। कुछ लोग अपने उन मित्रों यापरिजनों के साथ भावनात्मक वार्तालाप में रत थे जो उन्हें बिदा करने आयेथे।
सेठ जी अपने बड़े झोले को अपनी तोंद पर रखे सीमेंट की एक बेंच पर पसरे हुए थे। बेंच पर केवल उन्हीं का कब्जा था। बीच में कुछ लोग आकर उनके साथबैठे जरूर, लेकिन न जाने क्यों वे वहाँ से बहुत जल्दी उठ कर चले भी गए।
सामने से केला वाला ’दस के बारा, दस के बारा’ चिल्लाता हुआ निकल गया। जिसबेंच पर सेठ जी का आधिपत्य था उससे कुछ ही दूरी पर प्लेटफार्म परआने-जाने के लिए सीढ़ियों का सिलसिला शुरू होता था, जो ऊपर की ओर ओवर बृजसे जुड़ा हुआ था। सीढ़ियों के नीचे एक महिला झालमुड़ी बेंच रही थी। महिलाशायद ही पढ़ी-लिखी हो। उसके कपड़े काफी पुराने व चिकटाए हुए थे। अधेड़ उम्रमें भी उसके वक्ष खुले गले की ब्लाऊज में से लोगों को आकर्षित करने मेंसक्षम थे। टमाटर और प्याज काटने, फिर मुर्रे में नमक, मिर्च आदि मिलाकरझालमुड़ी तैयार करने तथा अखबारी कागज के छोटेे-छोटे चैकोर टुकड़ों कोशंक्वाकार मोड़कर, उसमें तैयार झालमुड़ी भर कर ग्राहक को पेश करने की उसकीदक्षता देखकर पता चलता था कि वह अपने काम में माहिर हैं और अर्से से इसीकाम में लगी हुई हैं। सेठ जी की बाईं ओर कुछ दूरी पर रेल्वे पुलिस का एककांस्टेबल और भद्र सा दिखने वाला एक नौजवान पुलिसिया शैली में बतिया रहेथे। बीच-बीच में ठहाका भी लगा रहे थे। तभी एकाएक प्लेटफार्म पर भूचाल आगया। सेठ जी माथा पीट-पीट कर चिल्लाने लगे - “हाय! मैं लुट गया, बर्बादहो गया, किसी ने मेरी जेब कांट ली।”
कांस्टेबल ने अपने मित्र युवक की ओर अर्थ भरी निगाहों से देखा। निगाहों-निगाहों में बातें हुई और इसके पहले कि भीड़ उग्र होती या सेठ जी केआस-पास एकत्रित होती, उसने तत्परता पूर्वक सेठ जी को अपने संरक्षण में लेलिया, मानो उन्हें इसी क्षण की प्रतिक्षा थी। पूछा - “कितने रूपये थे?”
“क्या बताएँ सरकार, पूरे हजार रूपये थे।” सेठ जी ने रूआँसे स्वर में जवाब दिया।
कांस्टेबल आश्वस्त हुआ परन्तु रौब जमाने, अज्ञात पाकिटमारों के प्रतिभद्दी-भद्दी पुलिसिया गालियों की बौछार करते हुए कहने लगे - “बहोत हौसलेबढ़ गये हैं ........ के।”
जब उन्हें लगा, उनका गाली-यज्ञ पूरा हो गया है, तब उन्होंने सेठ जी सेकहा - “जनाब ! चलिये आप, रपट लिखवाइये। इत्मिनान रखिये, बहोत जल्दी हमउन्हें पकड़ लेंगे। कितना कहा आपने, एक हजार ? चलिये।”
चैंकी पर पहुंचते ही भद्र सा दिखने वाला वह युवक जो कुछ देर पहले इसीकांस्टेबल के साथ गप्पे लड़ा रहा था, और जो पूरे समय कास्टेबल के ही साथबना हुआ था, कुछ परेशान दिखने लगा। अपनी जेब से एक बटुआ निकाल कर उसमेंरखे रूपयों को वह गिनने लगा। नोट गिन चुकने के बाद उसके चेहरे पर हवाइयाँउड़ने लगी। एक भद्दी सी गाली दी और सेठ से कहा - “सेठ जी झूठ काहे बोलतेहो यार।”
“बाबा हम झूठ काहे बोलेंगा।”
“यही है न तेरा बटुआ ?”
“अंय ......!”
“..........सौ रूपट्टी रखा है और हजार की बात करता है। अपना बटुआ रख औरभाग यहाँ से। हल्ला नहीं मचाने का, समझे ?”
ट्रेन आई और चली गई। सेठ जी भी चले गये। प्लेटफार्म पर भीड़ अब एकदम कम हो गई।
वह कांस्टेबल अब उस युवक के साथ गप्पें नहीं लड़ा रहा था। उस पर बुरी तरहझुंझला रहा था और उसे निहायत ह़ी भद्दी-भद्दी गालियाँ बकते हुए कह रहा था- “कब से हरिश्चन्द्र की औलाद हो गया बे?”
युवक ने बेधड़क कहा - “आप तो देख ही रहे थे न सा’ब, कितना चालाक था सालासेठ का बच्चा। सौ का हजार बता रहा था।”
“तो क्या ?”
“आप तो उन्हीं का यकीन करते न? हिस्से की बात आती तो कहाँ से लाता मैंहजार रूपये।”
फिर दोनों के बीच एक दीर्घ खामोशी छा गई।
स्टेशन पर भी खामोशी छाई हुई थी और इस खामोशी से उभर रहे थे अनेक सवाल।