अपनी खबर / अपनी खबर / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
मनकि बेचन पाँडे, वल्द बैजनाथ पाँडे, उम्र साठ साल, क़ौम बरहमन, पेशा अख़बार-नवीसी और अफ़साना-नवीसी, साक़िन मुहल्ला सद्दूपुर चुनार, ज़िला मिर्ज़ापुर (यू.पी.), हाल मुकाम कृष्णनगर, दिल्ली-31, आज ज़िन्दगी के साठ साल सकुशल समाप्त हो जाने के उपलक्ष्य में उन्हें, जो कि मुझे कम या बेश जानते हैं, अपने जीवन के आरंभिक बीस बरसों की घटनाओं से कसमसाती कहानी सुनाना चाहता हूँ।
विक्रमीय संवत् के 1957वें वर्ष के पौष शुक्ल अष्टमी की रात साढ़े आठ बजे मेरा जन्म यू.पी. के मिर्ज़ापुर ज़िले की चुनार तहसील के सद्दूपुर नामक मुहल्ले में बैजनाथ पाँडे नामक कौशिक गोत्रोत्पन्न सरयूपारीण ब्राह्मण के घर पर हुआ। मेरी माता का नाम जयकली, जिसे बिगाड़कर लोग ‘जयकल्ली’ पुकारते थे। मेरे पिता तेजस्वी, सतोगुणी, वैष्णव-हृदय के थे। मेरी माता ब्राह्मणी होने के बावजूद परम उग्र, कराल-क्षत्राणी स्वभाव की थीं। मेरे एक दर्जन बहन-भाई थे जिनमें अधिकतर पैदा होते ही या साल-दो साल के होते-होते प्रभु के प्यारे हो गए थे। पहले भाइयों के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्यामाचरण, रामाचरण आदि थें। इनमें अधिकतर बच्चे दग़ा दे गए थे, अत: मेरे जन्म पर कोई ख़ास उत्साह नहीं प्रकट किया गया। शायद थाली भी न बजाई गई हो, नौबत और शहनाई तो दूर की बात। मैं भी कहीं दिवंगत अग्रेजों की राह न लगूँ, अत: तय यह पाया कि पहले तो मेरी जन्म-कुंडली न बनाई जाए, साथ ही जन्मते ही मुझे बेच दिया जाए। सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला। और किस क़ीमत पर? महज़ टके पर एक! उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था। अपने पल्ले उस पर टके में से एक छदाम नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का सम्पूर्ण दाम था। अलबत्ता ‘जन्मजात बिका’ का बिल्ला-जैसा नाम तौक की तरह गले मढ़ा गया— बेचन! बेचन नाम ऐसा नहीं जिसे ओमप्रकाश की तरह भारत-प्रचलित कहा जाए। यह तो उत्तर भारत के पूरबी ज़िलों में चलनेवाला नाम है, सो भी अहीरों, कोरियों, तथाकथित निम्न-वर्गीयों में प्रचलित। ब्राह्मण के घर में पैदा होने पर भी मुझे यह जो मंद नाम बख़्शा गया उसकी बुनियाद में मेरी बहबूदी, ज़िन्दगी-दराज़ की कामना ही थी। किसी भी नाम से बेटा जिए तो! आज जीवन के 60वें साल में मैं साधिकार कह सकता हूँ कि मुझे ही नहीं, मौत को भी यह नाम नापसन्द है। लेकिन, अब, इस उम्र में तो ऐसा लगता है यह नाम नहीं, तिलस्मी गंडा है, जिसके आगे काल का हथकण्डा भी नहीं चल पा रहा है।
इस तरह—मैं शिकायत नहीं करता—देखिए तो जहाँ मैं पैदा हुआ वह परिवार तो ग़रीब था ही, नाम भी मुझे जगन्नाथ, भुवनेश्वर, राजेश्वर, धनीराम, मनीराम, सूर्यनारायण, सुमित्रानन्दन, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन जैसा नहीं मिला! और गोया इससे भी मेरे दुर्भाग्य को सन्तोष नहीं हुआ तो मैंने अभी तुतलाना भी नहीं सीखा था कि पिता का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद मैं अपने बड़े भाई के अण्डर में आया जो विवाहित थे और पिता के बाद घर के पालक थे। मेरे बड़े भाई ने विधि से कुछ भी पढ़ा नहीं था, फिर भी बुद्धि उनकी ऐसी तीव्र थी कि वह हिंदी तो बहुत ही अच्छी, साथ ही संस्कृत और बंगला भी ख़ासी जानते थे; वैद्यक और ज्योतिष में भी टाँग अड़ाने की योग्यता रखते थे। वह समस्या-पूर्ति-युग के कवि और गद्य-लेखक भी ख़ासे थे। प्रूफ-शोधन तथा पत्रकार-कला से भी उनका घनघोर सम्बन्ध था। मेरे यह बड़े भाई साहब जब जवान थे तभी सनातक धर्म के भाग्य में, परिवार-पद्धति के भाग्य में, सर्वनाश की भूमिका लिखी हुई थी। अतएव जाने-अनजाने युग के साथ भाई साहब को भी इस सर्वनाश नाटक में अपने हाथों पाँव में कुल्हाड़ी मारने का उन्मत्त पार्ट अदा करना पड़ा। हम नज़दीक थे, अत: भाई साहब का काम हमें अधिक दुखदायी एवं बुरा लगा। लगा, दुनिया में उन-जैसा बुरा कोई था ही नहीं। लेकिन ज़रा ही ध्यान से देखने से पता चल जाएगा कि मेरे घर में जो हो रहा था वह अकेले मेरे ही घर का नहीं, कमोबेश समाज के घर-घर का नाटक था।
और मैं उस गली की कहानी बतला दूँ जिसमें मैंने जन्म लिया था। सद्दूपुर मुहल्ले की एक गली—बँभन-टोली। गली के इस सिरे से उस सिरे तक ब्राह्मणों ही के मकान एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ भी एक तेली तथा दो-तीन कोरियों के घरों को छोड़ बाकी ज़मीनें ब्राह्मणों की। दो-तीन घरों को छोड़ बाक़ी सभी ब्राह्मण खाते-पीते ख़ासे। एकाध तो पूँजीवाले भी। दक्खिनी नाके पर भानुप्रताप तिवारी, जिनके बड़े-बड़े दो-दो मकान। फिर ग़रीब मुसई पाठक, फिर मेरे पिता की योग-क्षेम गृहस्थी, चचा भी हमीं-जैसे लेकिन वैद्य होने से उनके हाथ में कल्पवृक्ष की डाल-जैसी अलौकिक विभूति हमेशा ही रही, जिससे वह प्रभाववाले और अभावहीन थे। इसके बाद हमारे पट्टीदार भाई विन्ध्येश्वरी पाँडे का परिश्रमी, प्रसन्न परिवार। फिर ब्रह्मा मिश्र की हवेली। जयमंगल त्रिपाठी का घर और अंत में बेचू पाँडे का सहन। एक भानुप्रताप तिवारी को छोड़ बाकी सभी ब्राह्मण जजमानी वृत्ति वाले थे। हवेलीवाले ब्रह्मा मिश्र की जजमानी सबसे ज़्यादा थी। बाग-बगीचे, खेती-बाड़ी, लेन-देन भी होता था। बेचू पाँडे उनके आधे के भागीदार थे। हम लोगों की जजमानी यूँ ही जयसीताराम थी। कहिए हम शानदार भिखारी सड़क पर कपड़े फैला या गलियों में हाथ पसारकर भीख माँगता है, लेकिन हमें ग़रीब और बाह्मण जानकर जाने लोग हमारे घर भीख पहुँचा जाते थे। यह भीख भी शानदार थी, तब तक जब तक बाह्मणों के घर में बाह्मण पैदा होते थे। लेकिन जब ब्राह्मणों के घर में ब्रह्मराक्षस पैदा होने लगे तब तो यह जजमानी वृत्ति नितान्त कमीना धन्धा—स्वयं नीचातिनीच होकर भी दूसरों से चरण पुजवाना—रह गई थी। यह कथा आज से 55 वर्ष पूर्व की है। तभी तथाकथित सनातन धर्म के नाश का आरंभ उसी के अनुगामियों—धर्म के ठेकेदार ब्राह्मणों—द्वारा हो चुका था। मानो तो देव नहीं पत्थर! धर्म विश्वास पर पनपता है। जिस जनरेशन में मेरे बड़े भाई साहब पैदा हुए थे उसका विश्वास धर्म से उठ रहा था। मुहल्ले के हरेक घर में एक-न-एक ऐसा जवान पैदा हो चुका था जो पुरानी मर्यादाओं और धर्म को ताक पर रखकर उच्छृंखल आचरण में रत रहा रहता था। और घरवाले मारे मोह के परिवार के उस प्राणी का विरोध करने में असमर्थ थे। शास्त्रों में विधान है कि कुल-धर्म-विरुद्ध आचरण करनेवाले को सड़ी अँगुली की तरह काटकर समाज-जन से अलग कर देना चाहिए। हम जब तक ऐसा करते रहे तब तक समाज का स्वास्थ्य चुस्त–दुरुस्त था।
ग़लतीवश, मोहवश, दुर्भाग्यवश जब से हमने गलितांग को अपना अंग जानकर काट फेंकने से इन्कार कर गले से लगाना शुरू किया है, तभी से विष सारे शरीर में व्याप्त हो गया है। अब से पचास-साठ वर्ष पहले अखिल-भारतीय स्तर पर सहस्र-सहस्र ऐसे ब्रह्मराक्षस पैदा हुए थे, जिन्होंने कुकर्मों के स्लो-पॉयज़न द्वारा मारते-मारते सनातन धर्म को मार ही डाला। इस पूर्णता से कि वह सनातन धर्म तो अब पुन: जागने-जीनेवाला नहीं जिसके सरग़ना ब्राह्मण लोग थे। ब्राह्मण-कुल में मैं भी पैदा हुआ हूँ। कोई पूछ सकता है कि सनातन धर्म या ब्राह्मण धर्म के इस विनाश पर मेरी क्या राय है। मेरी क्या राय हो सकती है? मैं कोई व्यावसायिक ‘राय’ साहब नहीं। जो वस्तु नष्ट होने योग्य होती है, जिसकी उपयोगिता सर्वथा समाप्त हो जाती है, वही नष्ट होती है, उसी का अंत होता है। रहा मेरा बाह्मण-कुल में पैदा होना, सो उसे मैं नियति की भूल मानता हूँ। जब से पैदा हुआ तब से आज तक शूद्र-का-शूद्र हूँ। ‘जन्मना जायते शुद्र’; मनु का वाक्य है कि नहीं— ‘संस्कारात् द्विजमुच्यते।’ जन्म से सभी शूद्र होते हैं, बाद को संस्कार द्वारा नव-प्रज्ञा प्राप्त कर द्विज बनते हैं। वह संस्कार पाण्डेय बेचन शर्मा के पल्ले न तो बचपन में पड़ा था, न जवानी में और न आज तक। आदि से आज तक एक दिन भी जो ब्राह्मण रहा हो उसे फिर मनुष्य-जन्म मिले, फिर टट्टी की हाजत सताए, फिर राम-राम के पहर आबदस्त लेने की घृणित घड़ी उसके हाथ में आए। और अब इस साठ वर्ष की वय में यदि मैं शिकायत करूँ कि हाय रे, मैं सारे जीवन शूद्र-का-शूद्र ही रहा तो मुझ-सा मतिमन्द टॉर्च लाइट लेकर ढूँढ़ने पर भी दुनिया में नहीं मिलेगा। सो, जैसे मैं स्वयं को बुरा नहीं मानता, वैसे ही शूद्र को भी नहीं मानता। मैं जैसे स्वयं को भला ही समझता हूँ, वैसे ही शूद्र को भी भला ही समझता हूँ। शूद्र द्विज (या ब्राह्मण) का पूर्व-रूप है, वैसे ही जैसे मूर्ति का पूर्व-रूप अनगढ़ पत्थर। और मैं अपनी अनगढ़ता को गर्व से देखता हूँ, इसलिए कि जब तक अनगढ़ हूँ तभी तक विश्वविराट् की मूर्तियों की सम्भावनाएँ मुझमें सुरक्षित हैं। गढ़ा गया नहीं कि एकरूपता, जड़ता गले पड़ी। श्रीकृष्ण की मूर्ति का पत्थर श्रीकृष्ण ही की मूर्तिभावना का प्रतीक रह जाता है। उसे राधा बनाना असम्भव है। सो, लो! मैं ऐसा अनगढ़ पत्थर जिसमें रूप नहीं, रेखा नहीं। और न ही विकट-विकट भविष्य में कुछ बनता-बनाता ही दिखाई देता है। फिर भी, मैं परम सन्तुष्ट इस कल्पना-मात्र से कि मुझे कोई एक बड़ा-से-बड़ा रूप नहीं मिला तो बला से मेरी, मैं अपनी अनगढ़ता से ही खुश हूँ। यह अनगढ़ता जब तक है तब तक कोई भी यानी सभी रूप मुझमें हैं। ख़ैर, इन बातों में क्या धरा है! मैं यह कहना चाहता था कि आज भी, मैं निस्संकोच शूद्र हूँ और ब्राह्मणों के घर में पैदा होने के सबब—साधारण नहीं—असाधारण शूद्र हूँ। ब्राह्मण-ब्राह्मणी से मुझे शूद्र-शूद्राणी अधिक आकर्षक, अपने अंग के, मालूम पड़ते हैं। यहाँ तक कि आज भी जब मैं खानाबदोशों, बंजारों, जिप्सियों का गन्दगी, जवानी, जादू और मूर्खता से भरा गिरोह देखता हूँ तब मेरा मन करता है कि ललककर उन्हीं में लीन हो जाऊँ, विलीन। उन्हीं के साथ आवारा घूमूँ-फिरूँ, किसी हरजाई, आवारा, बंजारन युवती के मादक मोह में— नगर-नगर, शहर-शहर, दर-दर—छुरी, छुरे, मूँगे, कस्तूरी मग के नाफ़े, शिलाजीत बेचता।
मेरा ख़याल है अक्षरारम्भ से पहले ही मेरे कान में ‘वेश्या’ या ‘रण्डी’ शब्द पड़ चुका था। मैं पाँच-ही-छह साल का रहा होऊँगा जब मेरे घर में मिर्ज़ापुर की एक टकैल वेश्या का प्रवेश हुआ था। पुरुष-वेश में चूड़ीदार चपकन और पगड़ी पहनकर वह बाहरवाली कोठरी में रात में आई और तब तक रही जब तक मेरे चाचाजी हाथ में खड़ाऊँ लेकर उसे मारने को झपटे नहीं—यथायोग्य दुर्वचन सुनाते हुए। मुहल्ले के आधे दर्जन मनचले ब्राह्मण युवक उस वेश्या से मिलने मेरे यहाँ आ जमते थे। मकान के अन्दर की ब्राह्मणियाँ मेरी माँ और भाभी किंकर्तव्यविमूढ़ा हो गई थीं। भाभी तो रोने भी लगी थी। पर ये कुलीन औरतें मुखर विरोध करने में असमर्थ थीं, इसलिए कि मेरे उन्मत्त भाई साहब एक ही लाठी से दोनों ही को हाँकने में कोई ग्लानि या हानि नहीं समझते थे। वैसे वह मन्द जमावड़ा मेरे घर हुआ था, लेकिन हमप्याले लोग पड़ोसी ही थे। नेता (यानी मेरे पिता) के उठ जाने से मेरे घर में अखण्ड अराजकता थी। लेकिन वश चलता और मज़बूत सरपरस्तों का शासन न होता, तो दूसरे यार भी अपने घरों में वेश्या को टिकाकर सुरा-सुन्दरी-स्वाद लेने से बाज़ न आते। पाप पर मोहित सभी थे। सभी थे तत्त्वत: धर्म से विरहित। जुआ तो प्राय: मुहल्ले के किसी भी घर में खिलाया जाता था, जिससे उस घर के किसी-न-किसी प्राणी को नाल के रूप में एक-दो रुपए भी मिल जाते थे। मेरे घर में जुआ अक्सर हुआ करता। अक्सर जुए से जब नाल की रकम वसूल होती तब मेरे घर में भोजन की व्यवस्था होती थी; आटा, चावल, दाल और नमक आता था। मेरी माँ और भाभी को मकान के पिछले खण्ड में क़ैद कर मेरा भाई बिचले खण्ड में जुए का फड़ डालता, जिसमें मुहल्ले, कस्बा और आसपास के गाँवों के भी शातिर जुआरी जुड़ते। चरस और गाँजे की चिलमें लपलपातीं; ब्यौड़ा यानी विकट देसी दारू की दुर्गन्धमयी बोतलें खुलतीं। जब भी मेरे घर में जुआ जमता, भाई की आज्ञा से दरवाज़े पर बैठकर मैं गली के दोनों नाके ताड़ता रहता कि पुलिसवाले तो नहीं आ रहे हैं। ज़रूर इस ड़यूटी के बदले पैसा-दो पैसा मुझे भी किसी परिचित जुआरी से मिलता रहा होगा। जुए की इस ज़बरदस्त जकड़ में मेरा भाई इस क़दर पड़ गया था कि भाभी के सारे गहने बिक गए या अन्त में बिक जाने के लिए गिरवी रख दिए गए। फिर मेरी माँ के गहनों की बारी आई। जिसने अपना संचय सौंपने में ज़रा भी हिचक दिखलाई उसे भाई साहब ने जूतों, थप्पड़ों, घूसों, लातों से घूरा—अक्सर गाँजा-चरस या शराब के नशे में। यों तो भाई मुझे भी मारता-पीटता था, बेसबब, बहुत बुरी तरह, अक्सर, लेकिन वह जब मेरी माँ को मारता और वह अनाथा विवशा रोती-घिघियाती (लड़का अपना ही था, अत: खुलकर रो-घिघिया भी नहीं सकती थी) तब भाई का आचरण मुझे बहुत ही बुरा मालूम पड़ता था। पर मैं कर ही क्या सकता था! चार-पाँच साल का बालक! उसके सिर पर घर की सरदारी पगड़ी बाँधी गई थी। परिवार का नेता था वह। अन्नदाता था वह। सो, मेरी भाभी-आई के गहने जब जुआ-यज्ञ में स्वाहा हो गए तब घर के बरतन-भाँडों की शामत आई। जितने भी काम या दाम लायक बरतन थे, या तो अड़ोसी-पड़ोसी के घर गिरों धरे गए या पाँच रुपए की वस्तु रुपया-दो रुपया में बरबाद की गई। इसके बाद ब्राह्मण के घर में जो दो-चार धर्म ग्रन्थ थे— भागवत, गरुड़़पुराण, रामायण, गीता— मेरे भाई ने एक-एक को दोनों हाथों से बेचकर प्राप्त रक़म को या तो जुआ में अथवा गाँजा-चरस के धुआँ में उड़ा दिया। इसके बाद दो-चार बीघे दान-दक्षिणा में मिले जो खेत थे उनकी नौबत आई। खेतों को भी बन्धक या भोगबन्धक रखकर भाई साहब ने रुपए उतारे और उनका दुरुपयोग निस्संकोच भाव से किया। और कर्ज़ और कर्ज़ और कर्ज़! भाई के राज में परिवार ने जब जो भी पाया खाया कर्ज़ा।
उन्हीं दिनों, एक दिन, छापा मारकर चुनार की पुलिस ने सद्दूपुर मुहल्ले के जुआरियों और उनके संगियों को रँगे हाथ गिरफ्तार कर लिया था। जुआ उस दिन मेरे घर में नहीं, मेरे घर के पिछवाड़े अलगू नामक कुम्हार के घर में हो रहा था। उस दिन मेरे भाई साहब जुए में शामिल नहीं थे, एक दोस्त की बैठक में उपन्यास पढ़ रहे थे। लेकिन पुलिस-छापे के ठीक पहले अलगू के घर वह सूचना देने गए थे कहीं से खबर-सूराग पाकर कि भागो, पुलिस आ रही है, कि पुलिसवाले आ ही धमके! शायद सबसे पहले मेरे भाई साहब ही पुलिस की पकड़ में आए थे। गिरफ्तार दर्जन-भर जुआरी हुए होंगे। फिर भी, कई जान लेकर जूते छोड़कर भाग गए। उन जूतों की लम्बी माला अलगू कुम्हार से ही तैयार कराने के बाद उसी के गले में डालकर, जुलूस बनाकर जब पुलिसवाले राजपथ से जुआरियों को हवालात की तरफ़ ले चले तो बन्धुओं में मेरा भाई भी था। उस भयकारी जुलूस के पीछे काफ़ी दूर तक अपने भाई या अन्नदाता के लिए रोता हुआ मैं भी गया था। फिर घर लौटने पर देखा आई और भाभी रो रही थीं। काफ़ी दिनों मिर्ज़ापुर में केस चलने के बाद उस मामले में भाई को पचास रुपए जुरमाना हुआ।
और चुनार में रहने का अब कोई तरीका बच नहीं रहा। और कर्ज़दाताओं से बेइज्ज़त होने का प्रसंग पगे-पगे प्रस्तुत होने लगा। और घर में अबलाएँ और बच्चे दाने-दाने के मोहताज हो गए। तब और तभी मेरे बड़े भाई को देस छोड़ परदेस जाने और कमाने की सूझी। फलत: वह पहले काशी और बाद में अयोध्या की रामलीला मंडलियों में एक्टिंग करने लगे। तनख़्वाह पाते थे दोनों वक्त फ्री भोजन और तीस रुपए मासिक। इन रुपयों में से दस-पाँच अक्सर वह चुनार भी भेजते थे। पर चुनार में अक्सर चूहे डंड ही पेला करते थे, या जजमानी से भिक्षा मिल जाती थी, या मेरी आई किसी की मजूरी कर कूट-पीसकर लाती थी। बड़ी मुश्किलों से सुबह खाना मिलता तो शाम को नहीं, शाम मिलता तो सबेरे नहीं। जहाँ भोजन-वस्त्र के लाले वहाँ शिक्षा-दीक्षा की क्या हालत रही होगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शिक्षा-दीक्षा दूर, मेरे सामने तो आँखें खोलते ही जीवन-ग्रन्थ का जो पृष्ठ पड़ा वह शिक्षा-दीक्षा को चौपट करने वाला था। जीवन को स्वर्ग और नरक दोनों ही का सम्मिश्रण कहा जाए तो मैंने नरक के आकर्षक सिरे से जीवन-दर्शन आरम्भ किया और बहुत देर, बहुत दूर, तक उसी राह चलता रहा। इस बीच में स्वर्ग की केवल सुनता ही रहा मैं। मेरी कोशिश सही न होगी, स्वर्ग जीवन में मुझे कहीं नज़र आया नहीं। और नरक की तलाश में किसी भी दिशा में दूर तक नज़र भटकाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। सो, समय पर न मिले तो स्वर्ग के लिए भी कौन प्रतीक्षा करे! नरक लाख बुरा बदनाम हो, लेकिन अपना तो जीवन-संगी बन चुका है, सहज हो गया है, रास आ गया है। डालडा खाते-खाते जैसे शुद्ध घृत की सुध-बुध भी समाप्त हो जाती है, पहचान-परख तक भूल जाती है, वैसे ही लगातार सुलभ होने से नरक भी धीरे-धीरे परिचित, प्रिय, प्रियवर यानी प्रियतम हो जाता है। ग़ालिब ने अपने ढंग से कहा है— ‘क्यों न फिरदौस को दोज़ख़ से मिला दें या रब! सैर के वास्ते थोड़ी-सी फ़िजा और सही।’ जब मेरे पिता जीवित थे तभी न जाने कैसे मेरे दोनों बड़े भाइयों को रामलीला में पार्ट करने का चस्का लगा गया था। ये किशोरावस्था ही में ऐसे बेकहे हो गए थे कि कुल और पिता को धता बताकर चुनार से मिर्ज़ापुर भागकर रामलीला में राम-लक्ष्मण का अभिनय करने लगे। क्रोध और भविष्य के भय से काँपते हुए पिता, जब मिर्ज़ापुर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि दोनों सपूत राम-लक्ष्मण बने रंगमंच पर शोभायमान हैं। कहते हैं वह दृश्य पिता से देखा न गया। जनता को भूल, स्टेज पर झपट लौंडों के माथे से मुकुट-किरीटादि नोच-फेंक वहीं से उन्हें झपड़ियाते भूले बछड़ों की तरह बाँधकर चुनार ले आए थे। पिता के देहान्त के बाद चुनार की विजयदशमीवाली लीला में, अक्सर वह कोई-न-कोई पार्ट ही ‘प्ले’ किया करते थे। चुनार ही में एक-दो बार सीता बनाकर मुझे भी बड़े भाई ने इस घाट पर उतार रखा था। जब वह अयोध्या की रामलीला-मण्डली में थे तब मुझे उन्होंने बनारस की एक लीला-मण्डली में अपने किसी खत्री मित्र के हवाले कर रखा था। तब मैं आठ साल का रहा होऊँगा या नौ का। ज़ुल्फ़ों में तीन-तीन फूल-चिड़ी बनाता था। काफ़ी तेल लगाने के बाद बालों में सस्ती वेसलिन भी लगाता था। वह वेसलिन, जिसकी गन्ध पिता हाउस (बम्बई) या सरकटा गली (कलकत्ता) की सस्ती वेश्याओं के अंग से आती है। कुछ ही दिनों बाद भाई साहब ने बनारस वालों की मण्डली से मुझे भी साधुओं की रामलीला-मण्डली में बुला लिया था। भाई साहब की नज़र में मेरे उनके संग रहने में अनेक फ़ायदे थे। पहले तो घर में कोई शरारती नहीं रहेगा, दूसरे उनकी निगरानी में रामलीलावालों की बुरी हवा से मैं बचूँगा, तीसरे ‘ब्वॉय सरवेंट’ चौबीस घण्टे हाज़िर—बिला तनख़ाह। ऊपर से रामलीला में लक्ष्मण और जानकी बनकर आठ-दस रुपए मासिक कमा देने वाला। उन दिनों रामलीला के निश्चित पार्टों के संवाद बाज़बान करने के अलावा भाई का एक मित्र वैरागी पखावजी मुझे ताल और स्वर यानी पक्के रंग के संगीत की शिक्षा भी दिया करता था। उन्हीं दिनों नाचना नहीं, तो नाचने की चुस्ती से चंचल चरण चलाना, ठुमुकना, थिरकना, बल खाना वग़ैरह भी मुझे सिखलाया गया था। छुटपन में मेरी शिक्षा बिलकुल आरम्भिक क ख ग दरजों तक हुई थी। अभी थोड़ा ही बहुत अक्षर-शब्द-ज्ञान हो पाया था कि मुझे ऐसा लगा कि यह पढ़ना-पढ़ाना मेरे बलबूते की बात नहीं है। मगर इससे गला छूटे तो कैसे? सुना था हनुमानचालीसा का पाठ करने से सारे दुख दूर, मसले स्वयमेव हल हो जाते हैं। लेकिन हनुमानचालीसा मेरे पास कहाँ! साथ ही पास में ‘पीसा’ कहाँ कि हनुमानचालीसा ख़रीदा जा सके! मैं जिस दरजे में पढ़ता था उसी में एक काला-सा लड़का था किसी छोटी जाति का। वह अपने बस्ते में रोज़ हनुमानचालीसा की एक प्रति ले आता था। और मैं ललचाकर, तड़पकर रह जाता था उस दो पैसे की विख्यात पुस्तक के लिए। अन्त में मैंने चोरी करने का निश्चय किया। मैं ऊँच लड़का, वह नीच, लेकिन मैंने उसकी हनुमानचालीसा चुरा ली और बड़े चाव से मैं उसका पाठ करने लगा। मुझमें जो ब्राह्मण है वह आज भी यही सोचता है कि वह हनुमानचालीसा ही का प्रभाव था कि स्कूली शिक्षा से हटाकर मुझे रामलीला-मण्डली में डटाया गया। वहाँ पर मेरा परिचय श्रीरामचरितमानस से होना ही था, क्योंकि मैं जानकी, लक्ष्मण और भरत तक का पार्ट किया करता था। रामलीला-मण्डलियों ही में मैंने सुलझे ‘साधुओं’ के व्रत और निष्ठापूर्वक नवरात्रियों के नौ दिनों में रामायण का पाठ होते देखा। सुना, ऐसे पाठ के फल अनन्त। सो, मैंने नौ-दस-ग्यारह की वय में सामर्थ्यानुसार श्रद्धा-भक्ति से रामायण के नवाह्न पाठ किए। एक नहीं, अनेक। इन लीला-धारियों की मण्डली में फुरसत के अवसरों में लोग अन्त्याक्षरी-सम्मेलन भी अक्सर किया करते थे, जिनमें ज़्यादातर तुलसीकृत रामायण से ही उदाहरण दिए जाते थे। इन सम्मेलनों से भी मुझे रामायण का स्पर्श अधिकाधिक होने लगा था। उन दिनों रामायण के विविध अंश मेरे कंठाग्र, जिह्वाग्र रहा करते थे। और उन दिनों रामलीला में अभिनेता संवाद कैसे रहते थे? पहले रामायणी चौपाई या दोहा अर्ध-स्वर में सुनाता, फिर अभिनेता उसका (रटा या ज्ञात) अर्थ जनता को सुना देता था। रामायणी कहता- देवि, पूजि पद-कमल तुम्हारे, सुर-नर-मुनि सब होहिं सुखारे। तब सीताजी कहतीं—हे देवि! तुम्हारे सर्व-पूज्य पद-कमलों को पूज-पूजकर सुर, नर और मुनि सभी सुख पाते हैं। संवाद की इस विधि में अक्सर अभिनय और उसके प्रभाव का ख़ून हो जाता था, पर जो जनता लीला देखने आती थी वह रामलीला को थिएटर न समझ किसी भी भाव, भाषा या भेस में भगवान्-भगवती की भावना मात्र से प्रभावित होने वाली होती थी। एक बार कहीं भरत का पार्ट करने वाला हमारा संगी बीमार पड़ गया। अब मुश्किल यह सामने आई कि भरत का कठोर काम करे तो कौन? इस पर मेरे बड़े भाई ने मण्डली के मालिक महन्त को वचन दिया कि वह चिन्ता न करें, भरत का काम बेचन कर लेगा। मुझसे उन्होंने गाँजे के नशे में चूर आँखें दिखाकर कहा— भरत के काम में ज़रा भी भूल की तो याद रहे, लीला-भूमि से ही पीटते-पीटते तुझे डेरे पर ले चलूँगा। उनसे पिटने का मुझे इतना डर था कि भरत तो भरत, वह धमकाता तो मैं कमसिनी भूल दशरथ का पार्ट भी अदा करके रख देता, रावण का भी! उस दिन राम के वन-गमन के बाद ननिहाल से बेहाल लौटे भावुक भाई भरत का संवाद था कौशल्या के आगे। वसिष्ठ की सभा में परम साधु बड़े भाई के मोह में भरत को रोते चित्रित किया है तुलसीदासजी ने। मुझे रोना आया था बड़े भाई के क्रूर भय से। और मैंने बहुत सावधानी से भरत का अभिनय किया। रामायण मुझे याद ही थी, सो बिना रामायणी का मुख देखे संवाद की चौपाई-पर-चौपाई, दोहे-पर-दोह अर्थसहित मैं सुनाता गया। मैं रोता था भाई के भय से, जनता ने समझा भरतजी अभिनय-कला का शिखर छू रहे हैं। खूब ही जमा मेरा काम! महन्तजी प्रसन्न हो गए और स्टेज ही पर दस रुपए इनाम, तथा एक रुपया महीना तनख़ाह बढ़ने की घोषणा हुई। बधाइयाँ और इनाम के रुपए भाई साहब के पल्ले लगे। पाँव तो उस दिन भी मैं भाई साहब के दाबता रहा तब तक जब तक वह सो नहीं एक— हाँ उस दिन उन्होंने नित्य की तरह, पाँव दबवाते-दबवाते दो-चार लातें नहीं लगाईं कि मैं ठीक से क्यों नहीं दबाता? कि मैं झपकियाँ क्यों लेता हूँ?