अपनी खबर / चुनार / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
रामचन्द्र भगवानद्य सरयू नदी के किनारे पैदा हुए थे, मैं पैदा हुआ गंगा सुरसरि के किनारे। मुझे सरयू उतनी अच्छी नहीं लगतीं जितनी नर, नाग, विबुध बन्दनी गंगा। रामचन्द्र भगवान् अयोध्या नगरी में पैदा हुए थे, जो पवित्र तीर्थ मानी जाती है। मैं चुनार में पैदा हुआ, जो काशी के कलेजे और गंगातट पर होकर भी त्रिशंकु की साया में होने से तीर्थ नहीं है। इतना ही नहीं, तीर्थ का पुण्य हरण करनेवाला भी है। फिर भी, चुनार मुझे तीर्थ और अयोध्या और साकेत से भी अधिक प्रिय है। यह अपनी जन्म-भूमि चुनार के बारे में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की राय है। अपनी जन्मभूमि अयोध्या के बारे में रामचन्द्र भगवान् मर्यादा पुरुषोत्तम की राय थी— ‘पावन पुरी रुचिर यह देसा, जद्यपि सब बैकुंठ बखाना, बेद पुरान विदित जग जाना। अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोउ।’ फिर मैं क्यों न कहूँ कि मुझे चुनार जितना प्रिय है उतनी अयोध्या नहीं? राम-भजिए अपने राम को अपने राम जितने पसन्द हैं उतने मर्यादा पुरुषोत्तम राम यानी रघुपति राघव राजाराम भी नहीं।
वाजि, रथ, कुंजरोंवाले महाराज दशरथ के काल में अयोध्या कुछ और ही थी—अमरावती से भी बढ़ी-चढ़ी नगरी। उसका वर्णन बाल्मीकि रामायण में पढ़िए और वर्तमान अयोध्या को जाकर देखिए। वैसे ही जैसे मेरे लकड़दादे ने घी खाया, मेरे हाथ सूँघिए। न हीं साकेत, न कहीं स्वर्ग। चतुर्दिक् सघन रज तमस तक। मुझे तो सरयू भी मटमैली, रजस्वला, नज़र आती है।
कुजा अयोध्या, कुजा चुनार। अयोध्या तीर्थ, चुनार तीर्थ-तेज को नष्ट करनेवाला। अयोध्या में सम्राट्, चक्रवर्ती, अवतारी, लीलाधारी लाख हुए हों, लेकिन वह पुरी प्रकृति की उस प्रफुल्ल कृपा, वरदान से बिलकुल विरहित है जो चुनार को अनायास ही प्राप्त है। आप जाइए अयोध्या, भाग आएँगे भाग मनाते। आप आइए चुनार, क्या मजाल कि घंटे-भर के लिए पधारकर कई दिन न ठहर जाएँ!
अयोध्या में कभी हरिश्चन्द्र अज थे, सो अब नहीं रहे। दिलीप थे, रघु थे, भगीरथ थे, सो भी नहीं रहे; इक्ष्वाकु, दशरथ, रामचन्द्र कोई नहीं रहे। एक सरयू है मटमैली फैली, अपने भूत की छाया से भीषण बाधित। असल में अयोध्या आदमी के बनाए बनी हुई थी, भले वे आदमी राम-जैसे शक्तिमान क्यों न रहे हों। वैसे आदमी नहीं रहे तो अयोध्या राँड हो गई। चुनार में आदमी रहें या न रहें, उसे प्रकृति-दत्त शोभा सुलभ है। आदमी आएँगे, आदमी जाएँगे, लेकिन आदमी क्या कोई भी जीव जब चुनार के आगे आएगा तो वह वहाँ कुछ दिन तक बसना, रमना चाहेगा। एक तरफ गंगा: भागीरथी, एक तरफ जरगो विन्ध्य-बालिका, चुनार दोआबा। कंकड़ फेंकिए तो विन्ध्याचल प्रचण्ड पहाड़ के आँगन में गिरे। चुनार विन्ध्याचल का आँगन ही तो है। मीठे जीवनप्रद कुएँ, निर्मल नीरपूर्ण तालाब, बावलियाँ बाग, उपवन, वन, सहस्र-सह्स्र वर्षों के इतिहासों के चरण-चिह्न चुनार में चतुर्दिक्। रामचन्द्र की अयोध्या में इनमें से एक भी नहीं, बस राम का नाम है।
चुनार से सटी विन्ध्याचल की सुखद घाटियों में पारिजात के, पलाश के, बहेड़े के, महुवे के वन-के-वन। जब शरद ऋतु में सारी घाटी पारिजात-पुष्पों की सुखद सुगंध से भर जाती है, लगता है, यही तो नन्दन-वन है। चुनार इतना स्मरणीक कि पहले सारे भारत से जो श्रद्धालु तपस्या करने के लिए काशी या प्रयाग पधारते थे, वे तत्वंत: तपते थे चुनार या मिर्ज़ापुर-विन्ध्याचल की उपत्यकाओं ही में। कहते हैं किशोर राम ने ताड़का और सुबाहु को चुनार के निकट ही कहीं मारा था। क्रान्तिकारी ब्रह्मर्षि वैत्तानिक विश्वामित्र का सिद्धाश्रम चुनार के निकट ही है। मेरा ख़याल है अयोध्या के आस-पास चुनार-जैसा कोई महामनोरम स्थान नहीं था—राम के ज़माने में भी। तभी ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ से आग्रह करके राम और लक्ष्मण को चुनार दिखलाने को ले गए थे। राम चुनार न गए होते तो शायद ही राम होते, क्योंकि विश्वामित्र ने चुनार ही के आस-पास उन्हें वे विद्याएँ दी थीं—शस्त्रास्त्रों के प्रयोग की शिक्षा, जो सारे जीवन रघुनन्दन के काम आती रहीं। क्या है राम की अयोध्या में? पुरी कहलाती है बड़ी। अयोध्या में मन्दिर हैं, मूर्तियाँ हैं। यानी पत्थर हैं अयोध्या में। मैं कहता हूँ सारी अयोध्या में जितने गढ़े-गढ़-मन्दिर-मूर्तियाँ हैं, उतनी और ऊपर से उतनी ही और चरणाद्रि (चुनार) की अनगढ़ पार्वतीय विभूति के बाएँ चरण की सबसे छोटी अँगुली के नाख़ून से निकाली जा सकती हैं।
आपने अयोध्या देखी है? नहीं? और चुनार? वह भी नहीं? बन्दा तो चुनार ही की मिट्टी है एक ओर, तथा दूसरी ओर किशोरावस्था में, साधुओं की रामलीला-मण्डली में, जानकी बनकर सावन के झूलनोत्सव में अयोध्याजी में झूला भी झूल चुका है। सो, ऊपर चुनार के साथ अयोध्या का नाम फोकट-फीके नहीं लिया गया है। त्रेता में जिस अयोध्या में राम बाम दिसि जानकी विराजा करती थीं, कलिकाल में उसी अयोध्या में, रामलीला में ही सही, कुछ दिनों बेचन पाँडे भी सीताजी बना करते थे। और हज़ार-हज़ार लोग-लुगाइयाँ, हज़ार-हज़ार मेरे किशोर सुकुमार चरणों की धूल आँखों में आँजा करती थीं। सो, जिसकी अपनी जोरू ज़िन्दगी-भर नहीं रही, वह ज़िन्दगी के आरम्भिक वर्षों में ही राम की जोरू बन चुका था। यानी यह जो आज बड़े तीसमारख़ाँ बनते हैं पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ दरअसल जोरू हैं राम की। मगर क्या होंगे! राम की जोरू थे कबीरदासजी:
बालम! आओ, हमारे गेह रे!
तुम बिनु दुखिया देह रे!
सब कोई कहै तुम्हारी नारी!
मोहि होत सन्देह रे!
एकमेक ह्वै सेज न सोहे
तब लगि कैसा नेह रे?
... ... ...
है कोई ऐसा पर-उपकारी
प्रिय सों कहै सुनाय रे!
अब तो बेहाल ‘कबीर’ भये हैं
बिनु देखे जिय जाय रे!
बालम, आओ हमारे गेह रे!
अयोध्या (जिससे युद्ध न किया जा सके—अजेय) का वर्णन करते हुए आदि कवि ने बतलाया है कि उस वर-नगरी के सभी निवासी धर्मात्मा, बहुश्रुत, अपने-अपने धन से सन्तुष्ट, अ-लालची और सत्य-वक्ता थे। उस नगरी में साधारण विभूतिवाला कोई भी नहीं था, कम परिवार-कुटुम्बवाला कोई नहीं था; ऐसा कोई नहीं था जिसकी मनोकामनाएँ पूर्ण न हो चुकी हों या जिसके पास गाय, घोड़े, धन-धान्य का अभाव हो। उस पुरी में कामी, कापुरुष, क्रूर, कुबुद्धि और नास्तिक चिराग़ लिये ढूँढ़ने पर भी दिखाई नहीं देते थे। वहाँ कोई भी शख्स कुण्डल, मुकुट और माला वगैर नहीं दीखता था...उस नगरी में असत्यवादी, अविश्वासी और अबहुश्रुत आदमी एक भी नहीं था। न कोई ग़रीब था, न विक्षिप्त; कोई किसी प्रकार से भी दुखी नहीं था। अयोध्या के चारों ओर आठ कोस तक एक-से-एक हाथी-ही-हाथी नज़र आते थे। अतएव उसके नाम का अर्थ होता था— अजेय। इक्ष्वाकुवंशी चक्रवर्ती सम्राट दशरथ की अयोध्या का यह वर्णन आदि कवि के शब्दों में है— बालकाण्ड में। अयोध्या काण्ड के आरम्भ में, रामचन्द्र के युवराजतिलकोत्सव की तैयारी के सिलसिले में भी, महाकवि ने अयोध्या की महत्ता का वर्णन गौरवशाली किया है: जब पुरवासियों ने सुना कि आज ही रामचन्द्र का अभिषेक होने वाला है तो सब लोग अपना-अपना घर सजाने लगे। धवल मेघ के शिखर की तरह शुभ्र देवालयों, चौराहों, मार्गों, बागीचों, अटारियों, विविध वस्तु-भरे बाज़ारों, परिवार-भरे भवनों, सभी सभा-भवनों तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्षों पर सचिह्न और अचिह्न पताकाएँ फहराई गईं...राज-मार्ग में जहाँ-तहाँ फूल-मालाएँ सजाई गई थीं और सुगन्धित धूप जलाई गई थी। रात्रि के समय रोशनी के लिए गली-कूचों तक में दीपकों के वृक्ष जगमगाए गए थे... इन्द्र की अमरावती पुरी के समान सुन्दर अयोध्यापुरी एकत्रित जन-समुदाय से मुखरित होकर जल-जन्तुओं से पूर्ण समुद्र के जल-जैसी जान पड़ने लगी... मन्थरा ने देखा, चारों ओर अमूल्य ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही हैं, रास्ते साफ-सुथरे हैं...चन्दन का छिड़काव चारों तरफ़ हुआ है, स्नान के बाद चन्दनादि लगाए अवधवासी परम प्रसन्न मटरगश्ती कर रहे हैं। ब्राह्मण हाथ में माला और मोदक लिये मंत्रोच्चार कर रहे हैं, सारे-के-सारे देव-स्थान चूने से उज्जवल कर दिए गए हैं। साथ ही सभी तरह के गाजे-बाजे बज रहे थे...हाथी-घोड़े हैं, गाय-बैल भी प्रसन्न बोल बोल रहे हैं। प्रमुदित पुरवासी ऊँची ध्वजाएँ फहराते दौड़ रहे हैं।
इतने बड़े उद्धरण का अभिप्राय यह है कि महाकवि ने पुरुष-रचित जिस अयोध्या का वर्णन किया है वह वस्तुत: आज नहीं, त्रेता युग की है। फिर भी, उसकी सफ़ाई, रोशनी, छिड़काव, जनता को तरह-तरह से सुख पहुँचाने का सक्रिय निश्चय आज के कतकत्ता-बम्बई ही नहीं लन्दन-न्यूयार्क के म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशनों के आगे आज भी प्रसन्न चुनौती-जैसा है।
अब मेरे चुनार का अहवाल सुनिए। त्रेता नहीं, द्वापर भी नहीं, चुनार की कहानी कलियुग की है। सन् 1905 ई. में चुनार मैंने कैसा पाया था, (तब मैं महज़ पाँच वर्ष का था) उसका वर्णन भी आज पचपन वर्ष बाद कम मनोरंजक नहीं है। तब वह छोटी-सी बस्ती पाँच-सात हज़ार प्राणियों की रही होगी। चुनार में चरण की आकृति की एक पहाड़ी है, जिसका तीन भाग गंगा में है और चौथा धरती की तरफ़। इस पहाड़ी के कारण चुनार का नाम ‘चरणाद्रि भी संस्कृज्ञों से सुना था। इसी पहाड़ का एक परम प्राचीन दुर्ग है। उसका सम्बन्ध द्वापर युग के प्रसिद्ध सम्राट जरासन्ध से जोड़ा जाता है। किले में एक विकराल तहख़ाना है— बड़े विस्तार-अपार अन्धकारवाला। कहते हैं जरासन्ध ने पराजित करने के बाद सोलह हज़ार राजाओं की रानियाँ छीन उन्हें चुनार दुर्ग के तहख़ानों में कैद कर रखा था। फिर, कहते हैं, उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने अपने राजा भाई भर्तृहरि के लिए इस दुर्ग का पुनरुद्धार कराया था। किले में योगिराज भर्तृहरि की समाधि है। किले के बाहर, दक्षिण तरफ़, पहाड़ी में गंगा-तरंग कल-सीकर-शीतलानि के निकट एक गुहा है। कहते हैं राजर्षि भर्तृहरि उसी में तप-स्वाध्याय-निरत रहते थे। विश्वासी लोग आज भी भर्तृहरि की आत्मा का आवास चुनारगढ़ के आस-पास मानते हैं। इस दुर्ग का इतिहास सर्वथा कौतूहल एवं रहस्यमय है। आल्हा-ऊदल नाम के वीर-बहादुर दोनों भाइयों का कभी इस किले पर क़ब्जा था—विदित बात है। वीर-रस के विख्यात हिन्दी-काव्य आल्हा-रामायण में इन्हीं भाइयों के शौर्य की गाथा है। इस किले से सम्राट हुमायूँ, शेरशाह सूरी, वारेन हेस्टिंग्स, विद्रोही राजा चेतसिंह, पंजाब की महारानी ज़िन्दा, वाजिद अली शाह का भी सम्बन्ध रहा है। गत द्वितीय महायुद्ध के युद्ध-बन्दियों को ब्रिटिश सरकार इसी किले में रखती थी। सन् ’42 के भारतीय महाजागरण में राष्ट्रीय कर्मी भी इसी किले में बन्द रखे गए थे। फिर स्वराज्य होने के बाद बंगाल के पुरुषार्थी चुनार गढ़ में बसाए गए थे। हिंदी के आदि-उपन्यासकार बाबू देवकीनन्दन खत्री के परम प्रसिद्ध उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ एवं ‘भूतनाथ’ में इस किले का ऐसा महामोहक वर्णन है कि पढ़ने वाले के हाथ से उपन्यास छूटते नहीं। चुनार दुर्ग के बाहर, पूर्व तरफ़, प्राय: पाव कोस पर, एक आचार्य कूप है। कहते हैं, श्री वल्लभ महाप्रभु जब भारत-भ्रमण को सपरिवार निकले थे तब, चुनार में उनके पुत्र विट्ठल महाराज का अवतार हुआ था। कहते हैं श्री वल्लभाचार्य ने नवजात शिशु उसी कूप को सौंप दिया था कि तब तक वही उसका लालन-पालन करे जब तक प्रभु देश-भ्रमण से लौट नहीं आते। कहते हैं प्रभु वल्लभाचार्य कई वर्ष बाद जब लौटे तब उस कूप ने उनका पूत उन्हें सही-सलामत सौंप दिया, जो अब शिशु नहीं, कई वर्ष का किशोर था। चुनार वल्लभ सम्प्रदायियों के पुण्य तीर्थों में है।
मुस्लिम ज़माने में चुनार के किले में हज़रत मुहम्मद की दाढ़ी का पवित्र बाल भी सादर सुरक्षित रहता था। चुनार के दर्शनीय स्थानों में एक दरगाह भी है — मशहूर मुस्लिम वली हज़रत क़ासिम सुलेमानी की। मेरे छुटपन में दरगाह का मेला हर साल जोरदार होता था, जिसमें बिना भेद-भाव मुसलमान-हिंदू, शहराती-देहाती सभी शामिल होते थे। मेरे बचपन में चुनार की आबादी में रुपए में पाँच आने मुसलमान थे, जिनमें रईस, साहबेफ़न और नवाबज़ादे भी थे।
उन दिनों किलों की कद्र थी, अत: चुनार में अंग्रेज़ आए। जब मैं पाँच-सात साल का था तब चुनार के किले में गोरा-तोपख़ाना पलटन रहती थी। रहते थे शत-शत अंग्रेज़ सोल्जर्स और आते-जाते रहते थे। चुनार के किले के पीछे एक पुरानी कब्रगाह है जिसमें देखिए तो ब्रिटेन के अनेक स्थानों के प्राणी कब के दफ़नाए दम-ब-खुद पड़े हैं। कब्रों पर उनके नाम-पते पढ़कर ताज्जुब होता है नियति के विलास पर, जो इंग्लैंड की मिट्टी को चुनार में दफ़नाने का विधान करती है। बहुत दिनों तक चुनार में रिटायर्ड गोरे सपरिवार रहा करते थे। ‘लोअर लाइंस’ नामक अपनी एक बस्ती उन्होंने कालों के कस्बे की पिछली सीमा पर बसा रखी थी। साथ ही, गंगा-तट के निकट बड़े-बड़े पार्क-बँगले बनवाकर उनमें समर्थ अंग्रेज़ अधिकारी या उनके गोरे सम्बन्धी रहा करते थे। ये बँगले नम्बरों से नामी थे, जैसे बँगला नं. 1, नं. 8, नं. 20। सन् 1905 ई. में चुनार की पाँच-सात हज़ार की आबादी के सिरहाने दो-दो गिरजाघर थे। एक परेड ग्राउण्ड की कब्रगाह के पास जर्मन मिशनरियों का रोमन कैथलिक चर्च और दूसरा प्रोटेस्टेण्ट चर्च शहर के बीच में था। ईसाई या अंग्रेज़ों की संख्या शहर में चाहे जितनी रही हो, पर उनका प्रभाव कितना था इसकी सूचना ये चर्च देते थे। मेरे स्वर्गीय पिता जिस मन्दिर में पूजन किया करते थे उसके चबूतरे पर खड़े होकर, पाँच-सात की वय में, मैंने गोरे सोल्जरों के तोपखाने की मार्च मज़े में देखी थी। किले से परेड ग्राउण्ड तक ये गोरे सिपाही मार्च करते हुए अक्सर जाया करते थे। मैदान में मिलिटरी बैण्डवालों की परेड तो मुझे आज भी भूली नहीं है। कई प्रकार के बाजेवाले, सभी गोरे, ड्रम—ओह! कितना बड़ा! इन बैण्डवाले सिपाहियों के बीच में बाघम्बर धारण किए, हाथ में गदा-जैसी कोई वस्तु हिलाता चलता था एक नाटा, गुट्ठल-सचमुच व्याघ्रमुख कोई दैत्य-देही गोरा! तब चुनारवालों को ये गोरे महाकाल के दामाद दसवें ग्रह-जैसे लगते थे। अक्सर लोग इनकी छाया से भी दूर भागते थे। लोअर लाइन्स से गुज़रनेवाले ग़रीब ग्रामीणों या चुनारियों को ये रिटायर्ड या सिपाही गोरे कारण-अकारण बेंतों से बुरी तरह सिटोह दिया करते थे। औरतें तो लोअर लाइन्स में जाने की हिमाक़त कर ही नहीं सकती थीं। जरगो नदी पार से शहर को विविध वस्तु बेचेने आने वाली अहीरिनों, कोरिनों, चमारिनों, को अक्सर, उन्मत्त गोरे दौड़ा लेते थे, रगड़-सगड़ देते थे पशुरत—रेप! सो, क्रिश्चियनों के मुहल्ले से कोई भी देसी स्त्री गुज़रने की हिम्मत नहीं करती थी। इस राह के बराबर, दूर के रास्ते, देर के रास्ते से बाज़ार पहुँचती थीं। उन दिनों नित्य ही सद्दूपुर मुहल्ले की बँभनटोली गली से सोल्जर्स, एंग्लो-इण्डियन गोरा-काला पादरी, और वह घोड़ी-सवार मेम विधवा मिसेज़ विल्सन गुज़रती थी। भयभीत कौतूहल से मुहल्ले के हम अधनंगे बच्चे ‘साहब, सलाम!’ और ‘मेम साहब, सलाम!’ किया करते थे। मेम साहब घोड़ी की एक तरफ़ बैठी, रोज़ ही बाज़ार लेने स्वयं जाती थीं। वह घोड़ी पर चढ़ी-ही-चढ़ी सारी चीज़ें ख़रीदती थीं। मछली, मुर्गी, मांस, तीतर-बटेर, साग-सब्ज़ी, ऋतु-फलों का उन दिनों चुनार में ढेर-ही-ढेर लगा रहता था। तब घी रुपया सेर बिकता था। लेकिन घी खाने योग्य पैसे तब अपनी गिरह में थे ही नहीं। घी जब इतना सस्ता था तो अनाज भी तो भूसा-भाव रहा होगा। अनाज, गुड़, खाँड, चीनी सभी पानी के मोल थे, फिर भी, अपने लिए दुर्लभ थे। ‘सुरसरि, तीर बिनु नीर दुख पाइहै, सुर-तरु तरे तोहि दारिद सताइहै’—तुलसी बाबा वाली बात हमारे सामने थी। दारिद्र्य में कष्ट होता है यह जानने लायक तो मैं हो गया था, पर दारिद्र्य में अपमान भी कुछ है, मुझे मुतलक पता नहीं था।
चुनार की एक कथा तो मैं भूल ही गया। उन दिनों बंगाल या काशी से एक-से-एक भद्र बंगाली परिवार दो-चार महीने रहकर स्वास्थ्य-लाभ के लिए अक्सर चुनार आते थे। अनेक बंगाली जन तो यत्र-यत्र बँगला या घर बनाकर बस भी गए थे। साल में कम-से-कम आठ महीने ये बंगाली चुनार के हर ख़ाली मकान में किरायेदार बनकर टिकते, जिससे कतिपय लोगों को कुछ आमदनी भी हो जाती थी। चुनार में अक्सर बंगाली संन्यासी या दार्शनिक सानन्द रहा करते थे। उनका वहाँ की जनता पर प्रेमपूर्ण प्रभाव था। एक-दो बंगाली बाबुओं का एलोपैथी दवाख़ाना भी था। एक-दो बंगाली महाशय प्रोफ़ेशनल न होने पर भी होम्योपैथी या आयुर्वेद के अच्छे अभ्यासी थे, जो लोगों का प्रेम से इलाज करने में सुख पाते थे। मगर मुझे बंगाली बन्धु उतने याद नहीं आते, जितने भयंकर, प्रचण्ड प्रताप वाले गोरे और उनके अनेक रिटायर्ड परिवारी। वह आयरिश बूढ़ा मिस्टर क्लार्क जो देहाती मजूरों से अच्छी हिन्दी बोलता था और बागवानी तथा खेती कराता था। चीते-सी आँखें, हनुमान-सा-मुखड़ा। कैसी हिन्दी बोलता वह कि मनोरंजक! और मिस्टर कूम जो लोअर लाइन्स का जनरल-मर्चेंट था। वे चीज़ें जो कलकत्ता-बम्बई-बनारस-इलाहाबाद ही में मिल सकती थीं, मिस्टर कूम के स्टोर्स में भी होती थीं। मिस्टर कूम रिटायर्ड सेना-अधिकारी थे। उनका बड़ा भारी बँगला लोअर लाइन्स के नाके ही पर था। मिस्टर कूम कुत्तों के बड़े शौकीन थे और जब घूमने निकलते थे तो उनके साथ चार-छह किस्म के कुत्ते ज़रूर होते थे। कूम साहब अक्सर हाथ में गेंद लेकर निकलते। गेंद वह दूर-सुदूर भरपूर ज़ोर से फेंकते कि कुत्ता ले आए और कुत्ता गेंद ले आता साहब। और हम अधगामड़िए छोकरे हैरत से हैरान रह जाते : ‘साहब, सलाम!’ कूम साहब के स्टोर्स में एक-से-एक शराबें मिलती थीं। उनके बँगले में गोरों के लिए एमर्जैंसी होटल-जैसा था। मिस्टर ओब्रायन नामक एक बूढ़े हथकटे गोरे सिपाही ही याद आती है जो नेवीकट दाढ़ी रखता था। चुनार नोटिफ़ाइड एरिया का वह सुप्रिंटेण्डेण्ड था। नगर की सफ़ाई वग़ैरह उसी के चार्ज में थी। उसका एक हाथ बिलकुल कट गया था। कोट की दाहिनी आस्तीन यों ही लटकती रहा करती थी। वह बाएँ हाथ में बेंत लेकर मिलिटरी फुरती से चलता था। किसी भी काले आदमी को गली में बैठकर लघुशंका वग़ैरह करते देखते ही दे बेंत, दे बेंत! सिटोहकर धर देता। फिर रिपोर्ट, ऊपर से जुर्माने होते थे। मेरी गली में चिंगन तेली पर मिस्टर ओब्रायन का बेंत कई बार बरसा था, क्योंकि चिंगन तेली सरे-राह बैठकर पेशाब करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता था। इस तीखे अंग्रेज़ को देखकर मेरे तो होश फ़ाख्ता हो जाते थे। मैं उससे कम-से-कम बीस गज़ दूर रहने की कोशिश करता था। चिट्टा-गोरा बिलाड़ जैसे सूट पहन ले। दाहना हाथ टूटा। बाएँ में चमड़ा-मढ़ा बेंत। तेज़, चालाक चाल। सपने में जैसे प्रेत! ‘टुटवा साहब’ हम उसे सभय पुकारते थे। अपने लिए टुटवा साहब-जैसा हेय प्रयोग सुनते ही कहने वाले को, ख़ाह वह बूढ़ा हो, जवान या बालक, बिना पकड़े, बिना पीटे, बे-सताये वह छोड़ता नहीं था।
घोड़ी पर सवार गली से बाज़ार गुज़रने वाली यूरोपियन विधवा मिसेज़ विल्सन का नाम आगे आ चुका है। एक दिन की बात है, मेरे चाचा छत पर बने पूजा-घर में ठाकुर की सेवा के सिलसिले में पूजा-पात्र वग़ैरह धो रहे थे कि मिसेज़ विल्सन अपनी घोड़ी पर छत के निकट से गुज़री। दुर्भाग्य से उसी समय ऊपर से गन्दे पानी की धारा यूरोपियन महिला पर बरस पड़ी। फिर क्या था! मेम साहब मेरे चचा पर बेहद गरजीं, बरसीं - ब्लडी, डैम-फ़ूल तक आईं। चचा से बरदाश्त नहीं हुआ। वह स्वाभिमानी और अच्छे वैद्य थे। चुनार में उनका आदर-मान था। मेम साहब को डाँट के स्वर में उन्होंने कहा — ख़बरदार, जो बदज़बानी की! इस पर मेम साहब बकबकाती चलती बनीं। लेकिन दो ही घंटे के भीतर चचा साहब को पुलिस थाने में हाज़िरी देकर विलायती मेम के दबदबे से दबना पड़ा था। बीसवीं सदी के आरम्भ में गोरी सेना, रिटायर्ड अंग्रेज़ और ईसाइयों के सबब वज्र ग्रामीण चुनार का एक भाग बम्बई और कलकत्ते के किसी स्वच्छ भाग की तरह तत्कालीन आधुनिकता से मण्डित था। नोटिफ़ाइड एरिया की ओर से सारे चुनार में अगर दो सौ लैम्प पोस्ट खड़े किए गए होंगे, तो उनमें से सौ से ऊपर केवल लोअर लाइन्स में लगाए गए होंगे, जहाँ गोरे बसते थे। छोटी बस्ती, सुथरी सड़कें, शान्ति-सुख-निवास की तरह छोटे-छोटे हरे-भरे बँगले, वज़नी और हलके-फुलके फ़रनीचर, फ़ैशनदार परदे, दरियाँ, गलीचे, अच्छी तरह पहन-खा-पीकर लोआपोआ गोरे बच्चे। गुड़ियों की बीबियों-जैसी हाथीदाँत के बने यूरोपियन बालक। गुलले, तमंचे, बन्दूकें, रैकेट, बैट, फुटबाल, स्टिक। कैसे-कैसे कुत्ते! पॉकेट डॉग, फॉक्स टेरियर, अल्सेशियन, बुलडॉग। कुत्तों की रखवाली पर नियुक्त नौकर-चमार, भंगी, मेहतर—जिनके तन पर ऐसे साफ़ कपड़े जैसे हमारी बंभनटोली में एक के भी नहीं। मेरी स्थिति तो कुछ पूछिए ही मत। सिवाय मैली, मारकीनी, मुफ्त मिली धोती और एकमात्र कुर्ते के बन्दे के सिर पर तो दो पैसेवाली दुपलिया भी मुहाल न थी। न ही चरणों में चमरौधा ही। पर उक्त स्थिति शिकायतजनक आज मालूम पड़ सकती है। उन दिनों तो घनघोर अभावों में भी मैं दुखी था, ऐसी बात नहीं। बल्कि सुखी ही था। बचपन और यौवन शायद स्वयं में इतने भरपूर होते हैं कि उस आलम में अभाव भी भावों-भरे भासते हैं। असल में अज्ञान में बड़ी गुंजायश होती है। मेरा ज्ञान मेरे गले पड़ा— लिखा कवि ‘देव’ ने— ‘याहि ते मैं हरि ज्ञान गँवायो।’ गाया गोस्वामी तुलसीदास ने— (यह ज्ञान) ‘परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं बाहर फिरत बिकल भयो धायो।’ ज्ञान सीमित होता है जब कि अज्ञान की (ईश्वर की तरह) कोई सीमा नहीं। समझिए तो, जीवन में जितना भी सुख है अज्ञान ही के सबब होता है। देखिए तो, जगत् में ज़्यादातर जीवधारी अज्ञानी ही होते हैं। फिर इस ज्ञान की कोई गारण्टी नहीं कि कब अज्ञान न साबित हो जाए। विलोकिये आधुनिकतम विज्ञान की तरफ़। कल तक पृथ्वी ध्रुवों की ओर नारंगी-जैसी चपटी मानी जाती थी, लेकिन अब पता चल रहा है कि विश्वगोलक का नक्शा कुछ और ही तौर का है। पृथ्वी सन्तरे-सी नहीं, सेब-जैसी है। ज्ञान के गिरगिटपन के ऐसे-ऐसे शत-शत उदाहरण सहज ही पेश किए जा सकते हैं। जीवन में मात्र परेशान होने के लिए ज्ञान का जिज्ञासु, मेरे जाने, अपनी आँखें अज्ञान में खोलता है; मूँदता है आँखें अपनी अनन्त अनाश अज्ञान में।