अपनी खबर / पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
यह चर्चा सन् 1920 और 21 ई. के बीच की होगी। यह सब मैं स्मरण से लिख रहा हूँ, क्योंकि डायरी रखने की आदत मैंने नहीं पाली, इस ख़ौफ़ से कि कहीं राजा हरिश्चन्द्र की तरह अपना ही सत्य या तेज, अपने ही को भस्म न कर डाले! यह चर्चा तब की है जब ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उपवास करके आयरलैंड के महात्मा मैक्स्विनी शहीद हुए थे। उन दिनों देश में राष्ट्रीयता की लहर तेज़ प्रवाहित हो रही थी, जिसमें मेरे भी प्राण प्रसन्न डुबकियाँ लगाने को लालायित रहते थे।
मैंने शहीद मैक्स्विनी पर एक लम्बी कविता लिखी। वह हिन्दू स्कूल के तेजस्वी हिन्दी अध्यापक पं. साँवलीजी नागर को मैंने सुनाई। सुनते ही वह प्रसन्न हो उठे। बोले—चलो, ज्ञानमण्डल, पराड़करजी से कहूँगा कि वह यह कविता ‘आज’ में छापें। उन दिनों ज्ञानमण्डल भाड़े के बँगले में दुर्गाकुण्ड मुहल्ले में था। शिष्य-वत्सल बेचारे नागरजी पक्के मुहल्ले से पैदल प्राय: एक कोस चलकर मुझे ज्ञानमण्डल ले गए। वहाँ पहुँचने पर मुझको दरवाज़े ही पर रुकने का संकेत कर वह अन्दर गए, जहाँ उस समय शिवप्रसादजी गुप्त और श्रीप्रकाशजी बैठे हुए थे। नागरजी का, उत्तम शिक्षक के नाते, काशी में आदर था। अच्छे-अच्छे जानते-मानते थे। ज्ञानमण्डल का श्रेष्ठिवर्ग भी उनका सम्मान करता था। उन्होंने गुप्तजी और श्रीप्रकाशजी को सम्मिलित सम्बोधित करते हुए कहा— श्रीमानजी, मेरा एक शिष्य एक कविता लेकर आया है। सामयिक है। कहिए तो उसे अन्दर बुलाऊँ। और अविलम्ब मैं बाबू शिवप्रसाद गुप्त और बैरिस्टर श्रीप्रकाशजी के सामने उपस्थित हुआ। नागरजी ने कहा — ‘सुनाओ अपनी कविता पढ़कर।’ मेरा दिल धड़क रहा था। साहस बटोरकर काशी के उन दिग्गज श्रीमानों को मैंने अपनी कविता सुना ही दी। और रंग जम गया। गुप्तजी भी प्रसन्न हुए, प्रकाशजी भी। गुप्तजी ने मैनेजर से पूछा — ‘क्या सवेरे निकलने वाले "आज" में इतनी बड़ी कविता के लिए स्थान निकल सकता है? पूछो फ़ोरमैन से।’ फ़ोरमैन ने बतलाया कि सातवें पृष्ठ के अन्तिम कालम में चाहें तो कविता दी जा सकती है। ‘आज’ में वह मेरी पहली कविता छपी थी।
इस वाक़या के कुछ ही दिनों बाद मैंने पहली कहानी लिखी— ‘गांधी आश्रम’—कि ‘आज’ ही में छपे। ‘आज’ के एक सहकारी सम्पादक श्री हरिहरनाथजी बी.ए. थे। बड़े ही सरल-चित्त कायस्थ। उन्होंने पढ़ने के बाद वादा किया कि कहानी पेपर में छपाने का उद्योग करेंगे। पूछना था श्रीप्रकाशजी से। मैं बैठा प्रतीक्षा करता रहा। श्रीप्रकाशजी आए रात के आठ-साढ़े आठ बजे। उन्हें देखते ही उनके रौब के मारे मैं उनकी कुरसी के ठीक पीछेवाली कोठरी में दुबक रहा। मौक़ा पाते ही हरिहरनाथजी ने मेरी कहानी श्रीप्रकाशजी की सरकार में पेश कर दी। ‘क्या है यह?’ पूछा उन्होंने। ‘एक कहानी है।’ ‘किसकी लिखी हुई है यह?’ ‘उसी लड़के की जिसकी कविता मैक्स्विनी पर आपने छापी थी।’ ‘लड़के की कहानी!’ लड़कों की रचनाओं के लिए ‘आज’ नहीं है।’ कहकर उन्होंने कहानी बिना पढ़े ही अस्वीकृत कर दी। उनका निर्णय सुन उनके पीछे-पीछे मैं सुन्न रह गया। लेकिन जय हो मुंशी हरिहरनाथ की! उन्होंने वह कहानी मुझे लौटाई नहीं, बल्कि पण्डित बाबूराव विष्णु पराड़कर के सामने उसे रख दिया। पराड़करजी ने रचना पढ़ी, आवश्यक सुधार किए, छपने को दे दी। छपने के बाद मुझे पता चला कि मेरा दिल टूटे नहीं, इसके लिए हरिहरनाथजी ने क्या उपाय किया था। वह कहानी पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के नाम से नहीं, मेरे एक अन्य — शशिमोहन शर्मा — नाम से छपी थी। तब तक मैंने ‘उग्र’ उपनाम नहीं रखा था। ‘उग्र’ उपनाम तो मैंने राष्ट्रीय गान-द्वन्द्व में सम्मिलित होने से पूर्व चुना था। आज मुझे अपने लिए उपनाम चुनना हो, तो सम्भव है —बुरा न होने पर भी — ‘उग्र’ मैं न चुनूँ। लेकिन आज से चालीस वर्ष पूर्व राष्ट्र-भक्त लेखक ऐसे कर्कश उपनाम इसलिए चुना करते थे कि बलवान ब्रिटिश साम्राज्य के नृशंस शासक नाम ही से दहल जाएँ। शायद शक्तिहीनता छिपाने के लिए लोग प्रचण्ड नामोपनाम चुना करते थे; जैसे— ‘त्रिशूल’, जैसे ‘वज्रपाणि’, जैसे ‘धूमकेतु’, जैसे ‘भीष्म’, ‘भीम’, ‘भयंकर’, ‘प्रलयंकर’ या अपना ढाई अक्षर का ‘उग्र’। क्या हुआ कि पण्डित पराड़करजी मेरी लेखनी की तरफ़ आकर्षित हुए — मुझे पता नहीं। वह रूखे दीखनेवाले महापुरुष थे, प्राय: चुप रहने वाले।
मेरी लेखनी में अंग्रेज़ी राज के प्रति घोर घृणा तथा क्रान्तिकारियों के लिए तरल महामोह जो था — मैं समझता हूँ — उसी पर वह मुक्त-प्राण महाराष्ट्रीय मोहित हुए होंगे। उन्होंने बे-बोले ही मानो मुझे गोद ले लिया। सारे ज्ञानमण्डल की कानाफूसी एक तरफ़ रख, अपना काम छोड़, घंटों तक वह मेरी कहानियों को व्याकरण की पटरी पर लाते, ग़लत-बयानियाँ सुधारते, बदशक़्ल शब्द या मुहावरे काट-छाँटकर, सुन्दरता सँवारकर वह मेरी शूद्र रचनाओं को दिव्य द्विजत्व दिया करते थे। जब वह मेरी कहानी पढ़ते-पढ़ते हँसने लगते अथवा सजल हो उठते, तब मुझमें, बिना बोले ही, आत्मविश्वास घट-घट उँडेल देते थे। अक्सर मैं घोर राजविद्रोह लिख मारता था, जिसे पढ़ते ही अस्वीकृति से माथा हिलाते वह कहते— ‘नहीं, नहीं, आपने लिखा सुन्दर है, सच है, पर कानून लोचदार होता है। संस्था श्रीमानों की है। इस तरह आप सबको संकट में डाल देंगे।’ फिर पराड़करजी उस रचना-रूपी बिच्छू को सुधारते यों कि बिच्छू का रूप तो बदल जाता, लेकिन शब्दों के (कामाफ़्लाज) मायाजाल में मारक डंक और विष बना-का-बना ही रहता। अक्सर मेरी रचनाओं की क्रान्तिकारी उग्रता से चमककर श्रीमान् लोग सावधान करते पराड़करजी को कि कहीं ‘उग्र’ की लेखनी संस्था को खड्डे में न खींच ले जाए। फिर भी, पराड़करजी छापते। यह द्वन्द्व तब तक चलता रहा — चार-पाँच बरसों तक — जब तक पराड़करजी की कृपा से रचनाकार की हैसियत से मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो गया। इस अरसे में उत्तर प्रदेश का यह जो भारत-प्रसिद्ध दैनिक अख़बार ‘आज’ है, मेरे अभ्यास का पूर्ण साधन बना रहा। इसके प्रमाणों से ‘आज’ की फ़ाइल-की-फ़ाइल भरी हुई हैं। मेरी लिखी पहली समालोचना ‘मर्यादा’ मासिक में इन्हीं दिनों छपी थी, जिसके सम्पादक थे श्रद्धेय सम्पूर्णानन्दजी। गर्वीले सम्पूर्णानन्दजी के ज्ञान-विज्ञान-चर्बीले चश्मों में भी मेरी लेखनी के लिए स्नेह पर्याप्त था। मैं कहानी, कविता, हास्य, आक्रमण, जो भी लिखता था वह पराड़करजी के प्रसाद से तुरन्त ही पब्लिक के सामने आ जाता था। ‘ऊटपटाँग’ शीर्षक से बरसों मैंने हास्य–व्यंग्य के नोट्स ‘आज’ में लिखे हैं — ‘अष्टावक्र’ उपनाम से।
इस लिखने-लिखाने की मज़दूरी मुझे शुरू-शुरू में दस आने कालम के हिसाब से मिलती थी। वह भी इस शर्त के साथ कि तीन रुपए मासिक से अधिक कालम मैं न लिखूँ। सौभाग्य का तेवर तो देखिए! बाल-अभ्यास के लिए पाँच लाख का प्रतिष्ठित दैनिक पत्र बाबा के माल की तरह अपना, पर जेब-खर्च के लिए रुपये तीस मासिक से अधिक की गुंजायश नहीं! लेकिन ‘आज’ की वजह से मेरी वह प्रचण्ड पब्लिसिटी हुई, नगर में, प्रदेश में, हिन्दी-हद तक सारे देश में कि ज्ञानमण्डल के वरदानों को मैं चाँदी के बटखरों से क्यों तोलूँ?
आपने पढ़ लिया कि मैं शिवप्रसादजी गुप्त के ‘सेवा उपवन’ से भीख के अन्न सिर पर लादकर ले आता था। ज्ञानमण्डल और ‘आज’ भी उन्हीं देवता-स्वरूप शिवप्रसाद के दिव्य प्रसाद थे। (हैं भी।) लेकिन शिवप्रसादजी मुझे ‘आज’ में उस ओज से न लिखने देते जिस तेज की महाराज पराड़कर ने सुविधा दे रखी थी। मौलिकता न हो न सही, पाठकों की नीरसता भंग करने के लिए तब के ‘आज’ में प्रकाशित दो-चार कविताएँ महज स्मरण से यहाँ उपस्थित करता हूँ।
परतन्त्र!
प्रभु, परतन्त्र हैं हम आज!
दलित हैं पर-पद प्रबल से गलित हैं सब साज। प्रभु.
देश पर, निज वेश पर, सर्वेश पर का राज,
पर-कृपा निर्भर स्व–पूजा, ध्यान और नमाज। प्रभु.
पर-उदर निज अन्न से भर हम रहें मुहताज...
पर-कुशल, निज अपकुशलहित देव विविध ख़िराज। प्रभु.
अपर-पर-बस जग न हम सम दास गन सिर ताज। प्रभु.
(सन् 1920-21 ई.)
कामना
भयंकर ज्वालाएँ
जाग उठें, सब ओर आग की हो जाये भरमार!
मधुर रागिनी नहीं चाहते—
और न स्वर सुकुमार!
वज्र-नाद-सा बोल उठे हम सबके उर का तार!
पावस की घनघोर घटाओं-सी
चारों ओर नभ में धुएँ की राशि व्याप उठे,
और उसमें से हमारी दिव्य आशाएँ
चंचला-सी चमकें अनन्त चिनगारियाँ!
ऐसे समय
ओ हो हो! आ हा हा!
उग्र-रूप विश्वामित्र,
दुष्ट-दल-नाशक भृगु,
रावण-दर्प-हारी राम,
कुरु-बल-वन-दावानल, कर्मवीर-कृष्ण ऐसा,
अथवा पिनाकी भूतनाथ श्री कपालभृत
ऐसा वीर-भारत हमारा उग्र नाच उठे!
एवमस्तु!
(सन् 1920-21 ई.)
व्यंग्य
‘मिस’ माधुरी को मुख ‘लोफ़र’ निहारि, हारि,
फीके पड़ गए मुँह नीके-नीके गुल के।
वसन सफेद वाके तन की सफेदी देख
मलिन बना ही रहा—साठ बार धुल के।
चूल्हे पड़े, जले, काहू काम के रहे न फिर,
देखि हलकाई वाकी फूले-फूले फुलके।
‘काऊ’, ‘किड’, ‘बुल’ के, हरिन चुलबुल के,
सुजात गड़ि पायन चरम बुलबुल के!
हास्य
खेत-खेत खाद खाय तपके तमाखू हुआ,
गया परदेस, कहो कैसी बुद्धिमत्ता है?
विकट मेशीन बीच पड़ उड़वाया लत्ता,
बना सिगरेट, फिर लौटा कलकत्ता है!
हाट में बिकाया, आया हाथ में उसी के फिर
ख़ाक़ भी हुआ, तो होठ ही पे! क्या महत्ता है!!
‘सत्ता’ हुआ ‘मिस’ पे बेचारा कवि ‘लोफ़र’ भी
बोल उठा विश्व : यह प्रेम अलबत्ता है!
पूज्य पराड़करजी का बंगाल के बड़े-बड़े बमबाज़ योगी-मिजाज़ क्रान्तिकारियों से सम्बन्ध था। दिल्ली के दफ़्तर में यह जो साक्षात् शहीद हैं गुप्त मन्मथनाथजी यह भी मेरे क्लास-भाई हैं। हिन्दू स्कूल के मन्मथनाथजी भी विद्यार्थी थे। प्रचण्ड और दार्शनिक षड्यन्त्रकारियों से मेरा सम्पर्क भी कम नहीं था, लेकिन पराड़करजी या मन्मथनाथ के सबब नहीं। मेरी लेखनी से चिनगारियाँ झड़ते देख दिवंगत श्री शचीन्द्रनाथजी सान्याल और फाँसी पा जाने वाले शहीद श्री राजेन्द्र लाहिड़ी ने ललककर मेरा संग्रह किया था। शचीन्द्र बाबू ने राजेन्द्र लाहिड़ी को मेरे घर भेजा, मेरी उग्रता की गहराई को जाँचने के लिए। मेरे स्वभाव में उत्सुकता, भावुकता जितनी गम्भीरता, दृढ़ता, उतनी नहीं थी। क़लम से लिखकर ‘रिस्क’ लेना हो तो (कायर होते हुए भी) शहीदों का पीछा मैं काले कोसों तक न छोड़ूँ। क़लम से मारना हो तो सारे विश्व के अनाचारियों को बिना नरक भेजे मैं न मानूँ, लेकिन बन्दूक, तलवार से प्राण लेना हो तो वह मेरा शेवा नहीं।
मेरी परिभाषा : चाणक्य ने नन्द साम्राज्य का नाश कर दिया लेकिन अपने हाथ से किसी को एक थप्पड़ भी लगाए बग़ैर। और मुझे बुलाया गया। तीन और बंगाली जवानों के साथ बनारस से इलाहाबाद सचमुच कोई षड्यन्त्रकारी उपद्रव: राजनीतिक डाका डालने के लिए! चला तो गया मैं बंगालियों के साथ बनारस से इलाहाबाद, लेकिन वैसे ही जैसे काली मन्दिर में नहलाए जाने के बाद बलि-पशु यूप की तरफ़ जाता है। इलाहाबाद में चौबीस घण्टे इन्तज़ार करने पर भी अन्य आदमियों के साथ जब योगेश बाबू नहीं आए तब एक प्रकार से जान-बची-लाखों-पाए भाव से हम तीनों छोटी लाइन से पुन: बनारस लौटे। लेकिन बीच के एक जंक्शन पर बनारस से आने वाली गाड़ी में आधा दर्जन तगड़े वीरों के साथ योगेश बाबू नज़र आए। उन्होंने हमें अपने डिब्बे में बुलाकर इलाहाबाद लौट चलने का जब आदेश दिया तब बन्देख़ाँ बेशर्म बहाने बनाने लगे : कि भाभी से दो ही दिनों में लौट आने का वचन देकर आया हूँ। इस पर बहादुर योगेश बाबू ने जिस घृणा-भरी दृष्टि से मेरी तरफ़ तरेरकर ताका था, वह आज भी मुझे भूली नहीं है। दोनों बंगाली बहादुर इलाहाबाद लौट गए। मैं बनारस बच आया। फिर भी श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल तथा क्रान्तिकारी मण्डल मेरा आदर करता था। शचीन बाबू ने तो अपने संस्मरण में एकाधिक बार मेरी चर्चा भी की है। वह मेरी लेखनी में जो आग थी उसी से परम सन्तुष्ट थे। मुझमें जो नहीं था उसके लिए तिरस्कार सान्याल महाशय के दर्शन में नहीं था। सान्याल बाबू दुखों के दाह से सुवर्ण की तरह दप्-दप् दहकते दार्शनिक थे। कसौटी की तरह श्याम। बड़ी-बड़ी, डोरीली, करुण, आँखें!