अपनी खबर / लाला भगवान ‘दीन’ / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
अरसा हुआ वाराणसी के दैनिक अखबार ‘आज’ में आदरणीय पं. श्रीकृष्णदत्तजी पालीवाल की चर्चा करते हुए मैंने लिखा था कि मेरे पाँच गुरु हैं, जिनमें एक पालीवालजी भी हैं। उन पाँचों में मैं अपने उन ज्येष्ठ अग्रज को भी मानता हूँ जिनकी पिछले पृष्ठों में मैंने भूरि-भूरि भर्त्सना की है। बेशक यह ग़ैर-ज़िम्मेदार, बदमाश, बदचलन, बिल्कुल बद व्यक्ति थे, लेकिन जब मैं क ख ग लिखना भी नहीं जानता था, तब उन्हें साहित्य पढ़ने ही नहीं यथाशक्ति लिखने का भी शौक़ था। तत्कालीन समस्यापूर्ति (‘रसिक रहस्य’, ‘प्रियंवदा’ आदि) मासिक पत्रों में अपने-तो-अपने मेरी भावज के नाम भी रचकर समस्यापूर्तियाँ प्रकाशित कराते थे। एक बंगाली डॉक्टर को हिन्दी पढ़ाते-पढ़ाते उन्होंने बँगला भाषा सहज ही सीख ली थी। फलत: बँगला पुस्तकों के सस्ते संस्करण तथा ‘भारतवर्ष’ नामक विख्यात बँगला मासिक पत्र भी वह मँगाया करते थे। वह हमारे सामने बैठकर कवित्त रचते, लेख लिखते। प्रत्यक्ष न सही, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से भाई साहब के इस विद्या-व्यसन का बेचन पर बहुत शुभ्र प्रभाव अवश्य पड़ा होगा। सो, वह ख़राब आदमी — मेरा बड़ा भाई —मेरा आदि-गुरु था। पालीवालजी के दर्शन तो बहुत बाद में प्राप्त हुए। बीच में पं. काशीपति त्रिपाठी, लाला भगवान ‘दीन’ और पण्डित बाबूराव विष्णु पराड़कर के शुभ नाम हैं। काशीपति त्रिपाठी और लाला भगवान ‘दीन’ मुझे तब मिल जब कमलापति त्रिपाठी से मेरा परिचय हुआ। वैसे कमलापतिजी हिन्दू स्कूल और मेरी ही कक्षा में पढ़ते थे, लेकिन मैं था फटे हाल अदना बालक और कमलापति थे प्रतिष्ठित पैसापति-पुत्र। ब्राह्मण हमारे ही रंग के लेकिन अधिक चटकदार। सरयूपारीणों में पंक्ति, यानी परम श्रेष्ठ। कमलापति धवल-नवल वस्त्र धारण कर माथे में भस्मी लगाए स्कूल आते। मैं जाता हीन-दीन मलीन कपड़े पहने — धूल उड़ती चेहरे पर। मुझमें और कमलापति में ऐसा कोई भी साम्य न था कि हम मिलते। वह तुंग हिमालय-श्रृंग, मैं धूलि धॅंसी धरती की। लेकिन एक घटना घटी, जिससे मैं रातों-रात हिन्दू स्कूल के विद्यार्थियों में विशेषत: विज्ञापित हो गया।
उन दिनों प्रधानाध्यापक थे रतिलालजी देसाई महोदय। अत: गांधीजी का जन्म-दिवस स्कूल में अधिक उत्साह से मनाया गया था। खचाखच भरे हॉल में सभा हुई थी; निमन्त्रित एवं स्कूल के विद्वानों के गांधीजी के आदर्शों पर भाषण हुए थे। उसी सभा में महात्माजी पर मैंने एक तुकबन्दी (रोला छन्द में) पढ़ी थी। बिलकुल गलत-सलत, रद्दी। लेकिन उसमें गांधीजी का नाम था, साथ ही, विदेशियों के विरुद्ध विचार थे। बस, फिर क्या था! वह तो राष्ट्रीय भावना से भरी संस्था थी ही। हो-हो, हा-हा! तालियों की गड़गड़ाहट। और दूसरे दिन बेचन पाँडे हिन्दू स्कूल में माननीय कवि! बनारस के स्कूली प्रतिभाशालियों की काव्य-शक्ति की उस परीक्षा में, जिसमें परीक्षा-पत्र की तरह रचना लिखकर यशस्वी महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त, शील्ड और प्रथम पुरस्कार जीतकर ले गए थे, उसी में मेरी तुकबन्दी मुकाबिले में दोयम मानी गई थी। मुझे भी द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था। यद्यपि रचना श्रेष्ठ पन्तजी की थी, मेरी कुछ भी नहीं थी, लेकिन स्कूल में प्रतिभा का अभाव होने से मुझ अंधे के हाथ भी बटेर लग गई थी। इन्हीं घटनाओं के निकट कभी कमलापति त्रिपाठी से मेरा परिचय हुआ होगा, जो पात्र परिचय नहीं, हम दोनों ही के जीवन में ज़बरदस्त मोड़ बनकर रहा। मेरा ठौर कहाँ, ठिकाना कहाँ; सो, बरसों मैं कमलापति ही के द्वार पर पड़ा रहता। विख्यात नाटककार श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र भी उन्हीं दिनों कमलापति ही के विशाल भवन में संभवत: किराएदार की तरह रहा करते थे। कमलापति के फाटकवाले कमरे में विशेषत: उन्हीं के घर की पुस्तकों से हमने एक पुस्तकालय खोला था— श्री लक्ष्मीनारायण पुस्तकालय। वहीं से हम ‘उग्र’ नाम का एक हस्तलिखित, सचित्र मासिक पत्र भी प्रकाशित करते थे। कमलापति के घर में मेरी क़द्र पहले उनके बड़े भाई काशीपतिजी ने समझी ही नहीं, यों विघोषित किया कि उनके परिवार में और पड़ोस में और परिचितों में भी ज़िक्र मेरा मुझसे बेहतर प्रमाणित होने लगा। काशीपतिजी को हम सब ‘बड़के भैया’ कहा करते थे। उनके गुरुदेव थे गदाधर शर्मा नाम सत्पुरुष, जिनका देहान्त हो चुका था। गदाधरजी को काशीपतिजी परम भावुकता से स्मरण किया करते थे। उनका अभाव उन्हें जैसे खटकता था। उन्हीं की वार्षिक तिथि आई और उस अवसर पर काशीपतिजी को प्रसन्न करने के लिए मैंने घनाक्षरी छन्द में गुरुजी के बारे में, काशीपतिजी की ओर से एक कवित्त रचना—
काहू करसी को मैं न रह्यौं, पर, जाकी कृपा
तनु-तरु माहिं बुद्धि पाई सुधा-फर-सी।
नेह दिन दूनों रात चौगुनो ठयो जो रह्यौ
भूलिहू न जाकी दृष्टि मो पै भई पर-सी।
वासना ज़हर-सी, हर-सी थी कामवासना न,
रही मुख-मण्डल पै छटा गदाधर-सी।
बरसी गयी है बिनु जाके मम-आस-लता
ताहि गुरुदेव जू की आई आजु बरसी।
लेकिन यह अध्याय काशीपतिजी अथवा कमलापतिजी का नहीं, यह तो श्रद्धेय गुरुदेव लाला भगवान ‘दीन’ जी का अध्याय है जो मेरे भाई के बाद, दूसरे पथदर्शक थे। असल में कमलापति के यहाँ पहुँचने के कारण ही मैं लालाजी के निकट पहुँच पाया था, अत: पति-भाइयों की चर्चा इस प्रसंग में आवश्यक हुई।
बात यों बनी। मैंने ध्रुवचरित पर एक खण्ड-काव्य लिखा था, फ़र्मे-सवा फ़र्मे का। कमलापति की विदुषी भानजी स्वर्गीया श्यामकुमारी मिश्र ने उसे छपाने-योग्य रुपए दिए थे। पाण्डुलिपि और रुपये लेकर जब मैं भूमिहार ब्राह्मण प्रेस में गया, तब उसे देखने के बाद प्रेस के योग्य संचालक ने बतलाया कि रचना में दोष अनेक हैं, अच्छा हो छपाने से पूर्व संशोधन करा लिया जाए। सो, मैं स्वरचित ‘ध्रुव-धारणा’ की पाण्डुलिपि लेकर जगन्नाथ शर्मा के बड़े भाई चण्डिकाप्रसाद शर्मा के साथ लालाजी के डेरे पर गया।
लाला भगवान ‘दीन’ जी की पर्सनेलिटी उनके उपनाम के अनुरूप ही थी। मुँह पर चेचक के दाग़, पक्का रंग, ठिगना क़द, मटमैला, भद्दा मुंशियाना लिबास। अलबत्ता लालाजी जब बोलने लगते थे तब उनके व्यक्तित्व की असाधारणता स्पष्ट हो जाती थी। लालाजी ने कई दिन तक परिश्रम कर मेरा खण्ड-काव्य प्रेस-योग्य तो बना ही दिया। वह काव्य महाकवि अयोध्यासिंह का ‘प्रिय प्रवास’ परम प्रेमपूर्वक कई बार पढ़ने के बाद प्राय: उन्हीं छन्दों में लिखा गया था। आरम्भ हुआ था कमलापति की ख़ुशामद से—
जिस प्रकार पयोदधि में सदा
कमल-लोचन श्री-युत शोभते
बस, उसी विधि से उर-‘उग्र’ में
निवसिये बसिये कमलापते!
लाल भगवान ‘दीन’ की ‘हॉबी’ थी पढ़ाना-पढ़ना, पढ़ना-पढ़ाना। एक विद्यालय खोलकर नियम से वह विद्यार्थियों को उसमें सम्मेलन का कोर्स, निष्काम पढ़ाया करते थे। लिखने-पढ़ने से फ़ुरसत पाते ही लालाजी विद्यार्थियों को घर भी पढ़ाया करते। हिन्दू विश्वविद्यालय के लेक्चरर तो थे ही। लालाजी अखाड़िया स्वभाव के दंगली विद्वान थे। भाष्य, समीक्षा, निबन्ध, काव्य —इ न सब कलाओं में लालाजी गम्भीर निपुण थे। सबसे ऊपर उनका हृदय सहज-कोमल स्नेहमय था। प्रसन्न-वदन ‘विनयपत्रिका’ विद्यार्थियों को पढ़ाते-पढ़ाते लालाजी भक्ति-विभोर, सजल-नयन, गद्गद-गिरा हो जाते थे। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र, सलोने लेखक श्रीकृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब’, कोशकार स्व. मुंशी कालिकाप्रसाद लालाजी के शिष्यों में से हैं। मुझमें यदि कुछ प्रतिभा थी तो उसे लालाजी के मात्र आशीर्वाद का पोष प्राप्त हुआ। पढ़ा वह मुझे न पाए।
पढ़ा भी कहीं हर जन्म में जाता है? किसी जन्म में पढ़ लिया — बस; जन्म–जन्मान्तरों के लिए बस हो गया। ‘गुरु-गृह गये पढ़न रघुराई, अल्पकाल विद्या सब पाई’ गाया गोस्वामीजी। तुलसी के राम सारी विद्याओं से पूर्व (जन्म के) परिचित थे, सो उन्हें अल्पकाल ही में सारा ज्ञान उपस्थित हो गया था। दूसरी बात यह कि यदि प्रेम के महज़ ढाई अक्षर पढ़ लेने से पण्डिताई का बिल्ला मिल सकता हो तो ढाई हज़ार पुस्तकें पढ़ने के बाद हज़ारीप्रसाद बने वह — मेरा मतलब वही — जो अक़्ल का जहाज़ हो।
एक बात बताऊँ? मधुर महाकवि श्री जयशंकर प्रसाद की तम्बाकू-जर्दा की दुकान वेश्याओं के मोहल्ले के सिंह-द्वार पर थी। ‘प्रसाद’ जी की दुकान पर आध घंटा बैठने ही से वेश्या बाज़ार की बानगी बहुत-कुछ मिल जाया करती थी। लाला भगवान ‘दीन’ का भाड़े का मकान तो बिलकुल ही पिछवाड़े था, उस आकर्षक दाल मण्डी के। जयशंकरजी वैसे गोवर्धन सराय में रहते थे, लेकिन दुकान से आते-जाते शत-शत मंगला-मुखियों का दर्शन वेश्यागामी का बिल्ला लगाए बगैर ही मिलता था। लाला भगवान ‘दीन’ हमेशा तम्बाकू जयशंकर ही की दुकान की पीते थे। ‘प्रसाद’ जी जब-जब दुकान पर होते तब-तब सुखद हास्य-व्यंग्य की दो-दो चोंचें ज़रूर होती थीं।
मुझ पर तत्कालीन महारथियों की कृपा भूरि-भूरि थी। ‘ध्रुव-धारणा’ के बाद दूसरी कृति जब मैंने ‘महात्मा ईसा’ के रूप में प्रस्तुत की तब उसका सम्यक् संशोधन लालाजी ने किया था। पुनर्वाचन प्रेमचन्दजी ने। प्रेमचन्दजी ने वह राय लिखी ईसा नाटक के बारे में कि कोई आज भी पुस्तक के आरम्भ में पढ़ ले। श्रद्धेय सम्पूर्णानन्दजी की स्पष्ट सम्मति भी छपने के पूर्व ही मुझे प्राप्त हो चुकी थी। पहले सौ-में-सौ साहित्यिक ऐसे होते थे जो कहीं ज़रा भी प्रतिभा, ज़रा भी प्रसाद देखते ही उसका यथोचित आदर करते थे। आज जैसे वह चीज़ चली ही गई है। आज भी पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ को लिखना ख़ाक-पत्थर आता है, आप जानते हैं — लेकिन आज से प्राय: चालीस वर्ष पूर्व विख्यात पत्रकार और कलामर्मज्ञ ‘अभ्युदय’ के सम्पादक पं. कृष्णकान्त मालवीय महोदय जब मुझ पर मुग्ध हुए तब काशी आने पर ‘मर्यादा’ कार्यालय, ज्ञान-मण्डल, बुलवाकर उन्होंने श्रद्धेय सम्पूर्णानन्दजी से आग्रह किया था कि वह मुझ पर कृपालु रहें, ‘क्योंकि इनमें जो लेखक है वह असाधारण है।’
उन्हीं दिनों एक घटना और विचित्र ही घटित हुई थी। कानपुर से, ‘प्रताप’ पत्र से, श्री बेनीमाधव खन्ना नामक किन्हीं सज्जन ने हिन्दी-कवियों से एक राष्ट्रीय-गान-रचना प्रतिद्वन्द्विता में शामिल होने का आग्रह किया था। विजयी को हज़ार रुपए पुरस्कार की घोषणा थी। प्रतियोगिता के जजों में पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, (सी. पी. के) जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’, रामदासजी गौड़-जैसे परमाचार्य लोग थे। इस प्रतिस्पर्धा के लिए लालाजी ने भी जब एक गान प्रस्तुत किया, तब मेरे मन में भी आया कि अँधेरे में एक तीर मारने में घाटा ही क्या है। मैंने भी एक गीत गढ़कर भेज दिया। जब परिणाम प्रकट हुआ, तब जजों ने एक भी रचना राष्ट्रीय-गान होने योग्य नहीं मानी। वैसे हज़ार रचनाओं में चार रचनाएँ एक श्रेणी की मानी गई थीं। उन चारों रचनाकारों के अब नाम सुनिए— मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय, कुल पहाड़ के एक कोई शिवकुमार शर्मा, और पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’। लालाजी की रचना रसज्ञों को स्पर्श न कर पाई। मेरा नाम बड़़े-बड़ों के साथ विज्ञापन में आया। इस वाकया से गुरु गुड़ ही रहते हैं, पर चेले के चीनी बन चलने की चाशनी में तार-पर-तार पड़ने लगते हैं।
नीचे मैं उस काल की लिखी एक-दो घनाक्षरियाँ उद्धृत करता हूँ, जिन्हें ज़रा इधर-या-उधर छूकर लालाजी ने चमका दिया होगा, साथ ही, जिनमें न जाने क्या पाकर वह मुझ पर वरद हो उठे होंगे।
सुख का पता
बागन में, वारिज में, वल्लरी में, वापिका में,
बौर में, बसन्त–द्रुमहू के खोजि डार्यों मैं।
वृन्दावन कुंज, वन व्रजबनितान-पुंज,
गुंजरत मंजुल मलिन्द पंखि हार्यों मैं।
वाराणसी धाम, वामदेवजू को नाम, दिव्य
देवसरि धार में न देखि निरधार्यों मैं—
विश्व बीच है न सुख। ‘उग्र’, पर इते माहिं
कारागार श्रृंखलानिहार में निहार्यों मैं!
ज्ञानमण्डल
‘उग्र’ तप करि कै उदारता रिझायौ विधि
माँगो वरदान— ‘मोहि अमर बनाइए!’
बोले कमलासन— ‘न मेरो अधिकार इतो’
जाइ, पति कमला सन विनय सुनाइए।
कहे हरि तूठि— ‘हर पास चलि जाँचै किन?’
शम्भु भाखे ‘शिव परसाद* पास जाइए।’
शिव परसाद— ‘एवमस्तु!’ कहि बोले,
‘अब, बैठि ज्ञानमण्डल अखण्ड गीत गाइए।’
बर्फ़ और परस्त्री : पूर्ण रूपक
काम गरमी में दिखरात वह ज्योंही ‘उग्र’,
त्यों ही चलि जात मन पाइबे को ललचात।
दरस-परस में सुरूपवान, सीतल है,
हीतल में जाइ—अनुभावी कहें—होत तात!
अधर लगाइ रस लेत ठरि जात रद,
बुध बतरावैं छुइवेते गात गरि जात!
प्यास न बुझात, अधिकात दिन-रात बरु,
बरफ़ हमें तो पर-नारी सम है जनात।
(ये कवित्त सन् 1921-22-23 की रचनाएँ हैं। ज्ञानमण्डल वाला छन्द गणेशजी द्वारा सम्पादित ‘प्रताप’ में छपा था।)
- विख्यात दिवंगत दानी, समाज-सुधारक, ज्ञानमण्डल के संचालक-संस्थापक।