अपनी गवाही / मृणाल पांडे / पृष्ठ 1

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जब वे सभी बच्चे थे तब कृष्णा की माँ पार्वती उन्हें लगातार तरह-तरह की कहानियाँ सुनाया करती थी। किस्से तो वह कुछ नसीहतें देने के लिए सुनाया करती थी लेकिन इस चक्कर में अक्सर कहानी अन्त से ही शुरू करती थी और कम्बख्त हितोपदेश जाने कहाँ खो जाता था।

इन कहानियों में एक रहस्यकथा इस बारे में थी कि कृष्णा की माँ के एक चाचा ने अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करने के कारण उसे कैसे मार डाला था ! इस बेचारी चाची को बड़ी लम्बी प्रसवपीड़ा हुई और आखिरकार माँ के पिता ने, जो सर्जन थे, उसका ऑपरेशन किया। तब एनेस्थिशिया का चलन आज की तरह नहीं था और जब उसे होश आया तो वह बहुत ही डरावने ढंग से कराहने-चिल्लाने लगी। थोड़ी देर में ही चाचा जो उससे बहुत प्रेम करते थे, उसकी तकलीफ देखकर इतने विचलित हो गए कि उसका पेट जोर-जोर से दबाने और मसलने लगे। और इस चक्कर में टाँके लगा पेट इतना दब गया कि कच्चे टाँके खुल गए और तीन दुधमुँहों की महतारी बेचारी चाची गोलोकवासी हो गई।


इस दन्तकथा की मार्फत माँ शायद उनको यह बताना चाहती थी कि औरतों के सन्तान पैदा होने के भारी कष्ट की घड़ियों में मर्द उससे प्रेम करे तो इसमें भी औरत का मरण ही है। वह कहना चाहे जो चाहती हो, उसके चेहरे की हल्की मुस्कान यही बताती थी कि और जो हो यह किस्सा पति-पत्नी के रिश्तों या सहज मानवीय प्रेम के बारे में तो नहीं ही है।

कृष्णा के नाना सुदूर कुमाऊँ में बसे एक छोटे से पहाड़ी शहर में डॉक्टर थे। अंग्रेज सरकार बहादुर ने यहाँ उनकी पोस्टिंग की थी और उसके बाद यह बात वह भूल सी गई थी। नाना का कार्यक्षेत्र आसपास की पहाड़ियों में बिखरे उन्नीस गाँवों तक फैला था। नानाजी खबर मिलते ही थ्री-पीस सूट और हैट पहने घोड़े पर सवार होकर आँधी-तूफान-बर्फ, सबके बीच बच्चे-बूढ़ों को देखने के लिए भरी रात में भी चल देते थे। साथ में उनका कम्पाउंडर, बुद्धिबल्लभ भी खच्चर लेकर विशेष लालटेन उठाए हुए चलता था।

डाक सा’ब जिस मकान में रहते थे वह अस्पताल के अहाते में ही था और पार्वती के अनुसार बचपन में वे लोग इस बात के अभ्यस्त हो गए थे कि देर रात आकर कोई दरवाजा खटखटाता, फिर धीमी आवाज में पूछताछ और आपसी राय-मशविरा होंगे, अलमारी खुलेगी, लालटेन में भरे जाने किरासन तेल की गन्ध आएगी और फिर उनके पिता के घोड़े और कम्पाउंडर के खच्चर के टापों की आवाज दूर होती जाएगी। अक्सर जमीन-जायदाद की लड़ाई में जख्मी लोग खाट पर लादकर अस्पताल लाए जाते थे। उनके जिस्म हँसिए, बल्लम, गँडासे, कुदाल जैसी उस किसी भी हथियार से बुरी तरह काट डाले गये होते थे जो उनके हमलावर के हाथ में झगड़ते वक्त रहा होता। कुछ इलाज से बच जाते थे, कुछ च बसते थे। डाक सा’ब जिनकी जान बचा पाते थे, वे लोग उनका उपकार मानते हुए बाद में वर्षो तक अपने खेत की ढेरों ताजा उपज-आलू, प्याज, हरी सब्जियाँ, संतरे, सेब घर में बने खुशबूदार घी से भरी लकड़ी की ठेकियाँ लेकर हाजिर हो जाते थे। इतना बढ़िया जमा दही वे लोग लाते थे कि आप चाहें तो उसे काटकर पॉकेट में रख लीजिए और उसमें से एक बूँद पानी निकलकर कपड़े को खराब नहीं करेगा ! यह कृष्णा की माँ, पार्वती का कहना था।

स्कूल में छुट्टी पाकर होमवर्क पूरा हो जाने के बाद पार्वती और उसके भाई-बहन वहीं अपने घर के छोटे अहाते में खेलते रहते थे। उनको अपने आसपास के नजारों और रोने-चीखने की आवाजों की आदत सी हो गई थी। अक्सर वे बड़े मनोयोग से पेशेवर लोगों द्वारा लाशों को शवघर से लाते-ले-जाते देखते। पार्वती ने यह भी बताया कि उन्होंने चुपचाप एक डायरी भी रखी हुई थी जिसमें उस अस्पताल में मरनेवालों की संख्या, मरने की तारीख और समय, वे नोट करते जाते थे। और जब सारा रिकार्ड देखा गया तो उनके नौकर-चाकर कहा करते थे वही बातें सही साबित हुई कि मनुष्य के जनम-मरण पर जितना असर चन्द्रमा का पड़ता है उतना किसी और चीज का नहीं। कृष्ण पक्ष की तुलना में उजले पाख में न सिर्फ ज्यादा मौतें होती हैं बल्कि ज्यादा बच्चे भी जन्म लेते हैं। माँ ने उनको बताया था कि नानी को अलबत्ता डॉक्टर की बीवी होना एकदम रास नहीं आता था। उसे लगता था कि हर आदमी उसके सर पर सवार घर को भ्रष्ट करने के कुचक्र में जुटा है। उनके अपने खाने का समय तय नहीं था क्योंकि डॉक्टर सा’ब को कोई भी कभी भी बुला लेता था और पतिपरायण नानी पति के खाए बगैर कैसे मुँह में अन्न डाल सकती थी ? देर-सबेर और हड़बड़ी में कुछ भी खा लेने के चलते वे लगातार पेट की तकलीफ झेलतीं। पर उन्होंने कभी भी एलोपैथिक दवाएँ नहीं खाईं। वे जड़ी-बूटियों और अपनी दवाई से ही अपना इलाज करती थीं। नानी की जिन्दगी का मात्र यही इलाका ऐसा था जिस पर नाना का कोई वश न चलता था।

नाना यह बात अपने रिश्तेदार मेहमानों के सामने कबूल भी करते थे- पर अपने बच्चों के आगे उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। उनके लिए तो वे आखिरी दिन तक एक सख्त और अनुशासनप्रिय घर के मुखिया बने रहे जिस कारण बच्चों के मन में उनके प्रति प्रेम से ज्यादा आतंक था।

पार्वती के मायके के ही किसी आदमी ने, जो सम्भवत: उसके पिता का कोई पुराना मरीज था, कृष्णा को बताया था कि नानाजी को हिन्दी से कितना अघोषित लगाव था, और यह भी कि शायद इसके पीछे स्वतन्त्रता आन्दोलन की प्रेरणा थी। उन्होंने ‘एडिटर’ बद्रीदत्त पांडे के प्रसिद्ध स्थानीय अखबार ‘शक्ति’ में छपी राष्ट्रभक्तिवाली कविताओं की एक फाइल बना रखी थी। मातृभाषा से उनका यह लगाव सम्भवत: 1920 के दशक का था और तब यह कोई छोटी चीज नहीं थी क्योंकि गांधीजी और स्वराजियों के प्रति जरा भी रुझान मालूम पड़ते ही आप जेल की हवा खा सकते थे। साथ ही अपनी स्थायी और पेंशनवाली सरकारी नौकरी से भी हाथ धो बैठते।

पार्वती को नाना ने ही हिन्दी में हस्तलिखित पत्रिका निकालने को प्रेरित किया था। पत्थरों से बने उस बड़े घर में पार्वती और उसके अनेक भाई-बहनों के साथ यह काम शुरू हुआ। बच्चे पत्रिका के जितने अंक निकालते, नानाजी हरेक के लिए उनको एक-एक रुपया देते थे। उस जमाने के लिए यह पैसा काफी था।

कृष्णा की माँ ने ही उसे बताया था कि उन दिनों माहौल में एक सनसनी सी महसूस होती थी, एक बिजली सी दौड़ती थी। अपनी मातृभाषा में पढ़ते-लिखते समय स्वाभिमान का बोध होता था और हाथ से बुनी मोटी खादी का कपड़ा पहनने में भी। ‘‘पर मोटे-खुरदरे रूमालों से मुश्किल आती थी।’’ पार्वती ने बताया, ‘‘मुझे अक्सर जुकाम हो जाता था और खुरदरे खादी से दो-चार बार नाक पोंछते ही लगता था कि बस अब नाक कटकर झड़ी।’’

किसी विलुप्त सभ्यता की तरह माँ के युग की वे पत्रिकाएँ, खादी की पोशाकें और रूमाल भी काल के गाल में कैसे समा गए, पता भी नहीं चला। लेकिन माँ के मन में अभी भी वे हिन्दी कविताएँ गूँजती थीं और उस युग की यादें अभी भी उसके लिए बहुत सुहावनी थीं।

ये तमाम किस्से सुन-सुनकर कृष्णा और उसके भाई-बहनों को लगता था कि उनकी माँ ने आदर्शवाद और रोमांच से भरा जीवन जिया होगा। पार्वती उनको बताती थी कि कैसे देर रात को भूखे और बीमार स्वराजी आते थे। कैसे उन्हें चुपचाप खाना खिलाया जाता था, उनकी सेवा-सुश्रूषा की जाती थी और फिर विश्वस्त पुराने नौकरों के साथ सुरक्षित ठिकानों पर भिजवा दिया जाता था। प्रतिबंधित हिन्दी पत्रिकाएँ जाने किन गुमनाम स्रोतों से उनके घर आ जाती थीं और उन्हें बड़े चाव से छुपकर शौचालय में कैसे पढ़ा जाता था और फिर युवकों और छात्रों की एक नामहीन टुकड़ी में बाँट दिया जाता था। उनके उस घर में अक्सर विस्फोटक साहित्य और परचे सुरक्षित रखने के लिए आते थे और इन्हें अस्पताल के तहे कपड़ों में लपेटकर या ऑपरेशन रूम की अलमारियों या फिर मरीजों के बिस्तरों के नीचे छुपाकर रखा जाता था।

कृष्णा को बहुत बाद में इस बात का एहसास हुआ कि उसकी माँ पार्वती शायद अंग्रेजी हुकूमत के एक अधिकारी की बीवी के रूप में जिए अपने जीवन की नीरसता को तोड़ने के लिए ही ये किस्से कल्पना की कूँची से तमाम तरह के रंगरोगन लगाकर सुनाया करती थी। उसे अपने वर्तमान की ऊब से बचने के लिए उन नाटकीय घटनाओं को याद करना जरूरी लगता होगा जो उसके बचपन को अविस्मरणीय बनाती थीं। 16 वर्ष की उम्र में ही विवाहित होकर उसे उन हिन्दस्तानी अधिकारियों की देसी मेमों की हर बात पर सिर हिलाना और मुस्कुराते हुए अनगिनत पकवान बनाना-परोसना भी सीखना पड़ा था। ये भूरी मेमसाहबें मानती थीं कि गोरे अंग्रेज और उनकी मेमसाहबें जो-जो काम अधूरे छोड़ गए हैं, वह सब उन्हें पूरे करने चाहिए। वे अपनी मजेदार अंग्रेजी में कभी नवीनतम पढ़े रोमांचित नावेलों की बातें सुनाती थीं या कभी यह किस्सा सुनाती थीं कि लखनऊ की फलाँ पूर्व महारानी ने किस तरह मुश्किल में पड़कर अपना माणिक का हार सस्ते में बेच दिया। उनके बच्चे एनिड ब्लाइटन और मार्क ट्वेन की किताबें पढ़ते हुए बड़े होते थे।

कृष्णा और उसके भाई-बहन बेसब्री से इन्तजार करते थे कि कब ये औरतें बिदा हों और कब पार्वती उनके असली रूप में उनके बीच वापस आकर उन्हें अपने बचपन की मजेदार कहानियाँ सुनाए। वह देखा करती थी कि इन मेमसाहबों के विदा होते ही उसकी माँ की आँखों की चमक तथा चेहरे के भाव बदल जाते थे। फिर वह अभी-अभी गए मेहमानों के हावभाव और भाषा की नकल करने के साथ-साथ उनकी आदतों की नकल भी हूबहू उतार देती थी। दस वर्ष की उम्र में पार्वती को एक महिला पाठशाला भेजा गया था जहाँ भले घर की लड़कियों को इंग्लिश और हिन्दी के साथ ही नागरिकशास्त्र और बुनाई-कढ़ाई की भी शिक्षा दी जाती थी। बुनाई-कढ़ाई में तो पार्वती के हाथ खास नहीं चलते थे लेकिन भाषाओं, खासकर हिन्दी में उसकी सहज रुचि थी। उसने बड़े गौरव के साथ अपने बच्चों को बताया कि कैसे वह बड़े आराम से पन्त, निराला, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद की कविताएँ धड़ाधड़ उद्धृत कर सकती थी और स्कूल में काव्यपाठ तथा वाद-विवाद के सारे पुरस्कार झटक ले जाती थी।