अपनी बात / बेटी और अन्य लघुकथाएँ / पद्मजा शर्मा
लघुकथा में विचार, भाव, अनुभूतियों को संवेदना के साथ प्रस्तुत करने की बड़ी चुनौती होती है। यह चुनौती ही लघुकथा के स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण करती है। यह लेखक के रचनात्मक व्यक्तित्व की एक तरह से परीक्षा होती है। लघु कथाएँ कहानियों की तरह ही व्यवस्था पर चोट करती हैं। यह अलग बात है कि इनका हथौड़ा एक ही पड़ता है। लघुकथा में दो टूक बात होती है। लेखक की साफगोई अर्थात सीधे संवाद करने की कला ही लघुकथा है। कभी लगता है कि लघुकथा और गद्य कविता जुड़वां बहनें हैं। शरीर अलग आत्मा लगभग एक। लघुकथा लेखक में विवेक, समझ, अंतर्दृष्टि होनी चाहिए. ऐसी कि सीमित दायरे में असीमित को समेट ले।
लघु कथाएँ कटपीस की तरह होती हैं। हर रंग, हरपोत में शानदार होती हैं। कम में ज़्यादा कहती हैं। लघुकथा जैसे भोंहों के हलके से इशारे की कला। यहाँ अनावश्यक टीम टाम नहीं होती है।
ये चोट करती हैं तो उस पर मलहम भी लगाती हैं। यह तभी संभव है जब वे संवेदनाओं के साथ लिखी गई हों। सिर्फ़ यादों के सहारे सोच समझ कर ही नहीं बल्कि गुनकर लिखी होती हैं।
लघुकथा आकार में छोटी हो सकती है अर्थ में नहीं। लघुकथा में एक बांकपन होता है। अर्थात् 'ट्विस्ट इन द टेल' होता है। जिस से मन पर गहरी छाप पड़ती है। छोटी होते हुए भी लम्बे समय तक याद रहती है।
लघुकथा आसमान से औचक टूटता कोई सितारा है जो आपकी ख्वाइश पूरी करने का विश्वास दिलाता है। सितारा तो पल भर में अपनी चमक दिखा लुप्त हो जाता है पर लघुकथा नहीं। जाड़े में ठिठुरते किसी राहगीर को जंगल में दिख जाये एकाएक कोई अलाव-यह लघुकथा है।
पहले प्यार की पहली नजर, बच्चे की किलकारी या फिर पहला रोना। सीमा पर युद्ध के लिए जाते सिपाही की आँखों की चमक या फिर मुड़ कर देखने पर आँखों में दिखे झिलमिलाता सृष्टि भर स्नेह। जीवन की अटूट इच्छा। रात के सूनेपन में अचानक सुनाई पड़े, जैसे वह खिलखिलाहट जो बरसों पहले कभी सुनी थी। पर आज भी यूं ताजा है जैसे अभी-अभी सुनी है, यह लघुकथा है। वह दौड़ती-भागती बदली की तरह औचक तपती दोपहर में बरस जाती है और मन सौंधी खुशबू से भर उठता है। विभिन्न रंगों के खास पलों को मांडणों की तरह मांड देना ही लघुकथा है।
निचाट अकेलेपन में रह-रह कर वायदे, वाकये, किस्से बिजली की तरह कौंध जाते हैं। उनके इम्प्रेशन को लिखते हैं लघुकथा में। लघुकथा जैसे सैंडविच की स्लाइस और हर स्लाइस में वही स्वाद।
लघु कथाएँ वे कथाएँ हैं जो किसी एक स्थिति, व्यक्ति और वातावरण की ओर इशारा करती हैं। नए लेखक की अपार संभावनाओं को बताती हैं। उन्हें रेखांकित करती हैं और पुराने लेखक के माध्यम से अपना महत्त्व जताती हैं। बड़े लेखक कभी न कभी लघु कथाओं की ओर मुड़कर आते हैं।
लघु कथाएँ अपना समय लेती हैं। मैंने लघु कथाएँ 09 में लिखनी शुरू कीं, मगर इनके ड्राफ्ट तो दो दशक पहले ही बनने शुरु हो गए. वे दिमाग के कंप्यूटर में 'ऑटो सेव्ड' होते गए. कभी-कभी आप स्वयं नहीं जान पाते कि कितने चित्र, कितनी घटनाएँ आप साथ लिए डोल रहे हैं। मैंने 'ऑटो सेव्ड' लघु कथाओं को 'री कॉल' किया। 'ओपन' किया तो सारी घटनाएँ यूँ सामने आ-आ कर बोलने लगीं कि पहले मुझे, पहले मुझे सुनो, मुझे लिखो। जैसे कि ये पिछले रविवार की घटनाएँ हों। जैसे कि इसी सोमवार को घटित हुई हों। मेरे जैसी भुलक्कड़ के दिमाग में अगर किस्से 'सेव' हुए हैं और उन्हें इस रूप में सामने ला पाई हूँ तो इसलिए कि घटनाएँ भूलने जैसी थीं ही नहीं। उन्होंने मेरे भीतर अमिट बेचैनी को पैदा किया था। मुझे अपनी गिरफ्त में ले रखा था।
लघुकथा जगत में स्वर्गीय रमेश बतरा, चित्रा मृद्गुल, चैतन्य त्रिवेदी, असगर वजाहत, विष्णु नागर, जोगेंद्र पाल, बलराम, मुकेश वर्मा, महेश दर्पण, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज अपने समय के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।
आज कल हर पत्र पत्रिका में लघुकथा के लिए जगह होती है। 'वागर्थ' जैसी पत्रिका तो लम्बी कहानियों के बजाय छोटी कहानियों को छापना ज़्यादा पसंद करती है। इधर 'कथा देश' ने लघुकथा प्रतियोगिता के आयोजन किए हैं। धीरे-धीरे लघुकथा साहित्य की मुख्य धारा में आ रही है। अब तक इसे 'फिलर' मान कर इस्तेमाल किया जाता था। पर अब यह अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व ग्रहण कर चुकी है।
राजेन्द्र यादव लघुकथा को चुटकला कहते हैं और कहते हैं कि लघुकथा कहानी की बीज कथा है। यह लघु कथाओं के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाना है। इससे कोई भी लघुकथाकार इत्तेफाक नहीं रखता। अगर इस बात को सच माना भी जाये तो फिर उन प्रसिद्ध, बड़े लेखकों के लिए क्या कहेंगे जो बहुत बाद में मुड़कर इधर आते हैं। यह चुटकला भर नहीं है। यह चुटकी लेती है या फिर च्यूंटी काटती है जिससे व्यक्ति तिलमिला उठता है।
लघुकथा के तन-मन को परिभाषित करने का प्रयास किया है गौतम सान्याल ने। वे कहते हैं "लघुकथा की भाषा अपरिसीम भाषा है। इसमें पंचतंत्र का टेक्श्चर, बौद्ध जातक कथाओं का स्ट्रक्चर, कविता की तिर्या, संस्कृत श्लोकों की अचूक लघुता, महाकाव्य का विवेक, लोक गीतों की लय, स्थापत्य कला का रेफरेंशियल मूड, पेंटिंग्स का पिकटोरियल (चित्रोपमता) -सब चाहिए."
लघुकथा के शीर्षक के लिए सान्याल कहते हैं कि उसे पहाड़ी के शीर्ष पर अकेले मंदिर की तरह होना चाहिए जो दूर से स्पष्ट दिखे और जहाँ पहुँच जायें तो कथा की पूरी उपत्यका साफ-साफ दिखने लगे।
'लेखक कला और रचना कौशल' में तोल्स्तोय लघुकथा के विषय में लिखते हैं कि "आप उतना ही संक्षिप्त हो सकते हैं जितना एक कवि एक सॉनेट (चौदह पंक्तियों की कविता) में, 'परन्तु अपनी संक्षिप्तता सामग्री की सांद्रता का जो अति आवश्यक है' उसे चुन लेने का परिणाम होना चाहिए. लघुकथा को एक मुक्कम्मल कृति होना चाहिए."
रमेश बतरा कहते हैं-'कथ्य बहुमुखी है तो उसे विस्तृत फलक पर (कहानी) लिख लिया जाये और कथ्य किसी एक मन: स्थिति अथवा क्षण के व्यवहार की तरफ संकेत करता है, तो उसे थोड़े में (लघु कथा) लिख लिया जाये।'
सुकेश जी की पीड़ा है कि 'लघुकथा को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं मिल रही'। लेकिन अब लघुकथा के पक्ष में वातावरण बन रहा है। पत्रिकाओं के फ्रंट पेज पर लघु कथाकारों के नामों का उल्लेख होने लगा है। जिस तरह से लघुकथाकार सामने आ रहे हैं, अपने समय और समाज को प्रभावी तरीके से लिख रहे हैं, ऐसा लगता है लघुकथा का कल उजला होगा।
2009 में जब मैंने यह आलेख लिखा था तब से अब 2016 में ही लघुकथाओं की पूछ बहुत बढ़ी है। साहित्य के बड़े पुरस्कार लघुकथाकारों को दिये जा रहे हैं।
इस पुस्तक को रुचि लेकर, आगे बढ़कर जिस तरह समय पर राजस्थानी ग्रंथागार के सर्वेसर्वा श्री राजेन्द्र जी सिंघवी ने प्रकाशित किया है उसके लिए मैं उनका आभार व्यक्त करती हँू। श्री रियाजुद्दीन जी ने टाइपिंग का काम समय पर किया ही नहीं बल्कि समय-समय पर घर पहुंचाया भी। सो आपका भी शुक्रिया।
-डॉ. पद्मजा शर्मा