अपनी भाषा पर विचार / रामचन्द्र शुक्ल
भाषा का प्रयोग मन में आई हुई भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए होता है।
इससे यह समझना कि संसार की किसी भाषा द्वारा मनुष्य के हृदय के भीतर की सब भावनाएँ ज्यों की त्यों बाहरी सृष्टि में लाई जा सकती हैं सो ठीक नहीं। किन्तु किसी भाषा की श्रेष्ठता निश्चित करने के लिए यह विचार करना आवश्यक होता है कि वह अपने इस कार्य में कहाँ तक समर्थ है अर्थात् हृदयस्थित भावनाओं का कितना अंश वह प्रतिबिम्बित करके झलका सकती है। अभी तक मानव कल्पना में ऐसे ऐसे रहस्य छिपे पड़े हैं जिनको प्रकाशित करने के लिए कोई भाषा ही नहीं बनी है। स्मरण रखिए कि यह बात मैंने भावनाओं (Impressions) के विषय में कही है, विचारों (General notions) के विषय में नहीं।
भाषा की व्यंजक शक्ति दो वस्तुओं पर अवलम्बित है'शब्द विस्तार' और 'शब्द योजना'।
शब्द विस्तार
जिस भाषा में शब्दों की कमी है उसका प्रभाव मनुष्य के कार्य कलाप पर बहुत थोड़ाहै। उस भाषा का बोलनेवाला बहुत सी बातों को जानता हुआ भी अनजान बना रहता है। यद्यपि शब्दों की बहुतायत से भाषा की पुष्टि होती है तथापि कई बातें ऐसी हैं जो उसकी सीमा स्थिर करती हैं। जिस जलवायु ने हमारे स्वभाव और रूपरंग को रचा उसी ने हमारे शब्दों को भी सृजा। ये शब्द हमारे जीवन के अंश समान हैं; इनमें से हर एक हमारी किसी न किसी मानसिक अवस्था का चित्र है। इनकी ध्वमनि में भी हमारे लिए एक आकर्षण विशेष है। निज भाषा के किसी शब्द से जिस मात्र का भाव उद्भूतहोता है उस मात्र का समान अर्थवाची किसी विदेशीय शब्द से नहीं। क्योंकि पहिले तो विजातीय शब्दों की ध्वंनि ही हमारी स्वाभाविक रुचि से मेल नहीं खाती, दूसरे वेविस्तार में हमारे मानसिक संस्कार के नाप के नहीं होते। आजकल हिन्दी की अवस्था कुछ विलक्षण हो रही है। उचित पथ के सिवाय उसके लिए तीन और मार्ग खोले गए हैं एक, जिसमें बिना किसी विचार के संस्कृत के शब्द और समास बिछाए जाते हैं; दूसरा, जिसको उर्दू कहना चाहिए; इनके अतिरिक्त एक 'तृतीय पथ' भी खुल रहा है जिसमें अप्रचलित अरबी, फारसी और संस्कृत शब्द एक पंक्ति में बैठाए जाते हैं। मैं यह नहीं चाहता कि अरबी और फारसी आदि विदेशीय भाषाओं के शब्द जो हमारी बोली में आ गए हैं, जिन्हें बिना बोले हम नहीं रह सकते, वे निकाल दिए जायँ। किन्तु क्लिष्टऔर अप्रचलित विदेशीय शब्दों को व्यर्थ लाकर भाषा के सिर ऋण मढ़ना ठीक नहीं। सहायता के लिए किसी अन्य विदेशीय भाषा के शब्दों को लाना हानिकारक नहीं; किन्तु उनकी संख्या इतनी न हो कि स्थानीय भाषा के आधीन रहकर काम करने के स्थान पर,वे उसी को अधिकारच्युत करने का यत्न करने लगें। अब यहाँ पर प्रश्न हो सकताहै कि अरबी वा फारसी के कौन शब्द हिन्दी में लिए जायँ और कौन न लिए जायँ। मेरी समझ में तो हिन्दी में वे ही अरबी फारसी शब्द लिए जा सकते हैं जिनको वेलोग भी बोलते हैं जिन्होंने उर्दू कभी नहीं पढ़ी है, जैसे ज़रूर, मुक़दमा, मज़दूर। जो शब्द लोग मौलवी साहब से सीखकर बोलते हैं उनका दूर होना ही हिन्दी के लिए अच्छा है।
राजा शिवप्रसाद मुसलमानी हिन्दी का स्वप्न ही देखते रहे कि भारतेन्दु ने स्वच्छ आर्य हिन्दी की शुभ्र छटा दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर दिया। लोग चकपका उठे, यह बात उन्हें प्रत्यक्ष देख पड़ी कि यदि हमारे प्राचीन धर्म, गौरव और विचारों की रक्षा होगी तो इसी भाषा के द्वारा। स्वार्थी लोग समय समय पर चक्र चलाते ही रहे किन्तु भारतेन्दु की स्वच्छ चंद्रिका में जो एक बेर अपने गौरव की झलक लोगों ने देख पाई वह उनके चित्त से न हटी। कहने की आवश्यकता नहीं कि भाषा ही जाति के धार्मिक और जातीय विचारों की रक्षिणी है; वही उसके पूर्व गौरव का स्मरण कराती हुई, हीन से हीन दशा में भी, उसमें आत्माभिमान का स्रोत बहाती है। किसी जाति को अशक्त करने का सबसे सहज उपाय उसकी भाषा को नष्ट करना है। हमारी नस नस से स्वदेश और स्वजाति का अभिमान कैसे निकल गया; हमारे हृदय से आर्य भावनाओं का कैसे लोप हो गया? क्या यह भी बतलाना पड़ेगा? इधर सैकड़ों वर्ष से हम अपने पूर्व संचित संस्कारों को जलांजलि दे रहे थे। भारतवर्ष की भुवनमोहिनी छटा से मुँह मोड़कर शीराज और इस्फहान की ओर लौ लगाए थे: गंगा जमुना के शीतल शान्तिदायक तट को छोड़कर इफ़रात और दजला के रेतीले मैदानों के लिए लालायित हो रहे थे; हाथ में अलिफलैला की किताब पड़ी रहती थी, एक झपकी ले लेते थे तो अलीबाबा के अस्तबल में जा पहुँचते थे। हातिम की सख़ावत के सामने कर्ण का दान और युधिष्ठिर का सत्यवाद भूल गया था; शीरीं फरहाद के इश्क ने नलदमयन्ती के सात्विक और स्वाभाविक प्रेम की चर्चा बन्द कर दी थी। मालती, मल्लिका केतकी आदि फूलों का नाम लेते या तो हमारी जीभ लटपटाती थी या हमको शर्म मालूम होती थी। वसन्त ऋतु का आगमन भारत में होता था, आमों की मंजरी से चारों दिशाएँ आच्छादित होती थीं पर हमको कुछ खबर नहीं रहती थी, हम उन दिनों गुले लाला और गुले नरगिस के फिष्राकष् में रहते थे; मधुकर गूँजते और कोइलें कूकती थीं, पर हम तनिक भी न चौंकते थे, अड्डे पर कान लगाए हम बुलबुल का नाला सुनते थे।
यहाँ पर एक बात हम स्पष्ट रूप से कह देना चाहते हैं। हम हिन्दू हैं, हिन्दुस्तान हमारा देश है, हिन्दी हमारी भाषा है। इस भाषा में अवश्यमेव हिन्दुओं के आचार विचार का आभास रहेगा, इसमें अवश्य उनके प्राचीन गौरव की गंध रहेगी क़ुढ़ने वाले भले ही कुढ़ें। वह सहायता के लिए भरसक संस्कृत ही का मुँह देखेगी। मुट्ठी भर मुसलमानों के लिए हम कदापि अपनी भाषा को लांछित न करेंगे। यदि मुसलमान लोग उसे नहीं समझना चाहते तो न समझें, हमारी कोई हानि नहीं। मुसलमान लोगतो तनिक भी शीन कषफ़ के बाहर न हों और हम भौंदू बने उनके पास खसकते जायँ ऐसी कौन सी आफ़त आई है। यह भी कोई राजनीतिक युक्ति नहीं है कि एक तरफ तो मुसलमान लोग ऐंठे जा रहे हैं, दूसरी तरफ हमारे माननीय लोग अपनी भधुर वक्तृताओं में उन्हें लपेटते जा रहे हैं। यदि कहिए की इस प्रान्त के अधिकांश शिक्षित लोगों की एक भाषा बन गई है उसी को चटपट ग्रहण कर लेने से समय की बचत होगी तो भी ठीक नहीं, क्योंकि वह भाषा एक अस्वाभाविक शिक्षा से बनी है और उसी शिक्षा ही के साथ हवा हो सकती है। यदि आज से हमारे बच्चों के हाथ में खालकबारी के स्थान पर अमरकोशदे दिया जाय और ऍंगरेजी के साथ उन्हें संस्कृत या हिन्दी का अभ्यास कराया जाय तो यही हिन्दी बीस वर्ष के भीतर ही गली गली सुनाई देने लगे। क्या बंगला देश में मुसलमान नहीं हैं? क्या संस्कृत मिश्रित बंगला भाषा के लिए वहाँ राह नहीं निकल गई? क्या छोटे छोटे बंगालियों के बालक उन संस्कृत शब्दों को भधुरता से उच्चारण करते नहीं पाए जाते जिनको सुनकर हमारे मुंशी लोग इतना चौंकते हैं? जबकि देश में राष्ट्रीयता की इतनी चर्चा फैल रही है, जब नागरी को राष्ट्रलिपि और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का उद्योग बंगाल और महाराष्ट्र प्रदेशों में भी हो रहा है, उस समय हिन्दी को इन प्रदेशों की भाषाओं से दूर हटना ठीक नहीं वरन् उसको अपने उस अंश की कुछ वृद्धि करनी चाहिए जो उन सब भाषाओं में सम्मिलित (Common) है। यह सम्मिलित अंश संस्कृत शब्दों का समूहहै।
जब एक बार राजा शिवप्रसाद की मुसलमानी हिन्दी को दबाकर भारतेन्दु की हिन्दी अग्रसर हुई और आज तक बराबर निर्विवाद रूप से स्वीकृत होती आई तब इस फ़ारसीदार हिन्दी की चर्चा फिर कैसे आरम्भ हो गई इसका विचार करना है। इसका दूसरा उत्थान फिर काशी के तिलस्मी उपन्यासों में देख पड़ा जिनकी रचना उर्दूदाँ 'क ख' पहिचानने वालों को भी फँसाने में समर्थ हुई। एक को लाभ उठाते देख दूसरे ने भी उसी मार्ग पर पैर रक्खा वही ऐय्यारी, वही तिलस्म, वही भाषा, वही सब कुछ। कई लोग साहसपूर्वक आगे बढे और उर्दू नावेलों को सामने रख और उन्हें नागरी अक्षरों में उतारकर नाम और दाम कमाने लगे। किन्तु तब तक यह हवा और श्रेणी के लेखकों को नहीं लगी थी। सहसा प्रयाग की सरस्वती के मालिकों का ध्या न सरलता की ओर जा पड़ा; ग्राहक बढ़ाने के हेतु प्रत्रिका को सरल और कौतूहल प्रदायिनी बनाने की चेष्टा होने लगी। इस सरलताका जाज्वल्यमान उदाहरण पहिले पहल 1904 ई. में 'नास्तिक आस्तिक संवाद' प्रकाशित हुआ। इसमें मजाज़, तकष्रीर, दक़ीक़ा, महदूद, ऐब-जोई, हकीर और कोताह बुद्धिक्वआदि शब्दों द्वारा भाषा एकबारगी सरल कर दी गई। उसी में ये वाक्य देख पड़ेज़िस समय ईश्वर, जिसकी हस्ती की बाबत आपको शंका है, आपकी ज्ञान लब दुर्विदग्धाता को खो देगा...
कहिए यह भाषा को सरल करना है या उसको और भी कठिन बनाना है। ऐसी भाषा लिखने के पहिले 'करीमुल्लुग़ात' का एक नागरी संस्करण छापना चाहिए। जो लोग केवल हिन्दी वा संस्कृत ही जानते हैं वे इस 'हस्ती' को 'हाथी' समझें या और कुछ।
यह पत्रिका सरलता के इतना पीछे पड़ी है कि कभी कभी साधारण प्रचलित शब्द भी बिना अरबी टीका के नहीं जाने पाते, देखिए
यदि वह बात वा राय सर्वथा सच नहीं है, केवल उसका कुछ ही अंश सच है तो भी यदि वह प्रगट न की जायगी ज़ाहिर न की जायेगी।
तथापि वे कृतकार्य नहीं हुए उनको कामयाबी नहीं हुई। यह बात विधि विरुद्ध है ज़ाब्ते के ख़िलाफ़ है। जो मनुष्य 'सर्वथा' और 'अंश' को समझ सकता था क्या वह 'प्रगट' को न समझता जो फिर से 'ज़ाहिर' लिखने की जरूरत हुई? इस प्रकार की भाषा लिखना मानो उर्दू वालों को यह कहने का अवसर देना है कि उर्दू इतनी आमफ़हम है कि बिना उसकी सहायता के हिन्दी किसी को एक बात भी नहीं समझा सकती। मेरी जान में तो फ़ौक़ियत, जुहला, मजामीन, मुहक्क़िक़ीन, तमस्खुर आदि शब्द साधारण हिन्दी जाननेवाले लोग नहीं समझ सकते।
गवर्नमेंट तथा शिक्षा विभाग की अर्भिरुचि का कुछ अंश भी इस प्रवृत्ति का परिचालक है। सरकार कोई निज की स्वतन्त्र सम्मति तो रखती नहीं; जो हाकिमों और नवाबों ने सुझाया वही उसका अटल सिद्धान्त हो गया, उसी पर वह जम गई। यदि कोई और प्रान्त होता तो सरकार को अपनी इस कुरुचि का फल चखाने में
क्व आश्चर्य की बात है कि एक महीने पहिले द्विवेदीजी ने नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'भौगोलिक परिभाषा' के 'थाह मापक' सूत्र की आलोचना इस प्रकार की थीथाह' प्राकृत और 'मापक' संस्कृत! इस तरह का समास, हमने सुना था, नहीं होता।' हम नहीं समझते कि फिर 'कोताह' फ़ारसी और 'बुद्धि' संस्कृत का समास कैसे हो गया।
कुछ देर लगती पर यह सर सैयद अहमद और राजा शिवप्रसाद की जन्मभूमि कब उसको मीठा कहकर बाँटनेवाले लोगों से खाली रह सकती है।
ऐसे अप्रचलित फ़ारसी शब्दों के बिना हमारा कोई काम नहीं अटकता; क्योंकि उनके स्थान पर रखने के लिए हमें न जाने कितने संस्कृत क्या हिन्दी ही शब्द मिल सकते हैं। हाँ, जिन विचारों के लिए हिन्दी वा संस्कृत शब्द न मिलें उनको प्रगट करने के लिए हम विजातीय शब्द लाकर अपनी भाषा की वृद्धि मान सकते हैं। एक ही वस्तु के लिए अनेक शब्दों के होने से भाषा की क्रिया में कुछ उन्नति नहीं होती। जैसे सूर्य के लिए रवि, र्मात्ताण्ड, प्रभाकर, दिवाकर और चन्द्रमा के लिए शशि, इन्दु, विधा, मयंक आदि बहुत से शब्दों के होने से भाषा की व्यंजक शक्ति में कुछ भी वृद्धि नहीं होती, केवल ध्वानि की भिन्नता वा नवीनता से हमारा मनोरंजन होता है और भाषा में एक प्रकार का चमत्कार आ जाता है जो कविता के लिए आवश्यक है। इन अनेक नामों में से साधारण गद्य में उसी शब्द को स्थान देना चाहिए जो सबसे अधिक प्रचलित है, जैसेसूर्य, चन्द्रमा। 'रवि उदय होता है', 'भास्कर अस्त होता है', 'विधु का प्रकाश फैलता है', ऐसे ऐसे वाक्य कानों को खटकते हैं और कृत्रिम जान पड़ते हैं। हाँ, जहाँ 'प्रचण्ड मार्तण्ड की उद्दण्डता', दिखाना हो वहाँ की बात दूसरी है पर मैं तो वहाँ भी ऐसे शब्दों की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं समझता। शब्दालंकार केवल कविता के लिए प्रयोजनीय कहा जा सकता है। गद्य में उसकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं है, गद्य में तो उसके और और गुणों के अन्वेषण ही से छुट्टी नहीं मिलती। गद्य की श्रेष्ठता तो भावों की गुरुता और उनके प्रदर्शन प्रणाली की स्पष्टता वा स्वच्छता ही पर अवलम्बित है; और यह स्पष्टता और स्वच्छता अधिकतर व्याकरण की पाबन्दी और तर्कना की उपयुक्तता से सम्बन्ध रखती है। सारांश यह कि आधुनिक शैली के अनुसार गद्य में शब्द और अर्थ ही का विचार होता है, ध्वानि¹ का नहीं।
शब्द योजना
यहाँ तक तो शब्द विस्तार की बात हुई। आगे भाषा के इससे भी गुरुतर और प्रयोजनीय अंश अर्थात् शब्द योजना पर ध्या न देना है। भाषा उत्पन्न करने के लिए असंख्य शब्दों का होना ही बस नहीं है। क्योंकि पृथक् पृथक् वे कुछ भी नहीं कर सकते। वे कल्पना में इन्द्रिय कम्प द्वारा खचित एक एक स्वरूप के लिए भिन्न भिन्न संकेत मात्र हैं। कोई ऐसा पूरा विचार (Complete notion) उत्पन्न करने के लिए जो मनुष्य की प्रकृति पर कोई प्रभाव डाले अर्थात् उसकी भौतिक वा मानसिक स्थिति में कुछ फेरफार उत्पन्न करे, हमें शब्दों को एक साथ संयोजित करना पड़ता है।
क्व यहाँ ध्वलनि से मेरा अभिप्राय 'यत्रा वाच्याविशयि व्यंग्य स ध्वेनि:' नहीं वरन् नाद से है।
जैसे कोई मनुष्य सड़क पर चला जाता है, यदि हम पीछे से उसको सुनाकर कहें कि 'मकान', तो वह मनुष्य कुछ भी ध्याहन न देगा और चला जायगा; किन्तु यदि पुकारें कि 'मकान गिरता है' तो वह अवश्य चौंक पड़ेगा और भागने का उद्योग करेगा। शब्द योजना का प्रभाव देखिए! प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि वह इस कार्य में बड़ी सावधानी रक्खे। बहुत से शब्दों को जोड़ने ही से भाषा उत्पन्न नहीं होगी, उसमें उपयुक्त क्रम, चुनाव और परिमाण का विचार रखना होता है। निश्चय जानिए कि शब्दों के मेल में बड़ी शक्ति है। एक भावुक मनुष्य थोड़े से शब्दों को लेकर भी वह वह चमत्कार दिखला सकता है जो एक स्तब्ध चित्त का मनुष्य चार भाषाओं का कोश लेकर भी नहीं सूझा सकता। कुछ दिन पहिले हमारी हिन्दी की स्थिति ऐसी हो गई थी कि उसका विचार क्षेत्र में अग्रसर होना कठिन देख पड़ता था। बने बनाए समास, जिनका व्यवहार हजारों वर्ष पहिले हो चुका था, लाकर भाषा अलंकृत की जाती थी। किसी परिचित वस्तु के लिए जो जो विशेषण बहुत काल से स्थिर थे, उनके अतिरिक्त कोई अपनी ओर से लाना मानो भारतभूमि के बाहर पैर बढ़ाना था। यहाँ तक कि उपमाएँ भी स्थिर थीं मुख के लिए चन्द्रमा, हाथ पैर के लिए कमल, प्रताप के लिए सूर्य, कहाँ तक गिनावैं। जहाँ इनसे आगे कोई बढ़ा कि वह साहित्य में अनभिज्ञ ठहराया गया अर्थात् इन सब नियत उपमाओं का जानना भी आवश्यक समझा जाता था। पाठक! यह भाषा की स्तब्धता है, विचारों की शिथिलता है और जाति की मानसिक अवनति का चिह्न है। अब भी यदि हमारे कोरे संस्कृतज्ञ पंडितों से कोई बात छेड़ी जाती है तो वे चट कोई न कोई श्लोक उपस्थित कर देते हैं और उसी के शब्दों के भीतर चक्कर खाया करते हैं, हजशर सिर पटकिए वे उसके आगे एक पग भी नहीं बढ़ते। यदि कोई जाल वा धोखे से किसी की सम्पत्ति हर ले तो पंडितजी कदाचित् उसके सम्मुख उसके कार्य की आलोचना इसी चरण से करेंगे'स्वकार्यं साधायेध्दीमान्'। उनकी विचार शक्ति इन श्लोकों से चारों ओर जकड़ी हुई है, उसको अपना हाथ पैर हिलाने की स्वच्छन्दता कभी नहीं मिलती। ऐसी दशा में उन्नति के मार्ग में एक पग भी आगे बढ़ना कठिन होता है।
इसी प्रकार अनुप्रास से टँकी हुई शब्दों की लम्बी लम्बी लरी इस बात को सूचित करती है कि लेखक का ध्या न विचारों की अपेक्षा शब्दों की ध्वानि की ओर अधिक है। आरम्भ ही में कहा गया कि भाषा का प्रधान उद्देश्य लोगों को भावों व विचारों तक पहुँचाना है न कि नाद से रिझाना जो कि संगीत का धर्म है। शब्दमैत्री वा यमक दिखलाने के उद्देश्य से ही लेखनी उठाना ठीक नहीं; यदि आपकी कल्पना में सद्गुण की कोई मनोहारिणी छाया देख पड़ी हो तो आप उसे खींचकर संसार के सन्मुख उपस्थित कीजिए, यदि आपके हृदय में विचारों के रगड़ से कोई ऐसी ज्योति उत्पन्न हुई हो जिसके प्रकाश में जीव अपना भला बुरा देख सकते हों, तो आप उसे बाहर लाइए; अन्यथा व्यर्थ कष्ट न उठाइए। हम देखते हैं कि इसी रुचि वैलक्षण्य के कारण हमारे हिन्दी काव्य का अधिक भाग हमारे काम का न रहा। वहाँ विचित्र ही लीला देखने में आती है। घनाक्षरी, कवित्ता और सवैया के 'कविन्दों' ने कुछ शब्दों का अंग भंग कर दो? एक ('सु' ऐसे) अक्षरों की अगाड़ी पिछाड़ी लगाकर बलात् और निष्प्रयोजन उन्हें एक में नाथ रखा है। वर्णन शक्ति की शिथिलता के कारण रसों (Sentiments) के उद्रेक के लिए अत्यन्त अधिकता से ध्वकनि का सहारा लिया गया है। ऋंगार रस की कविता में 'सरस' 'मंजु' 'मंजुल' आदि शब्दों के हेतु कुछ स्थान खाली करना पड़ा हैमंजुल म्रूलद गुंजै मंजरीनमंजु मंजु मुदित मुरैली अलबेली डोलैं पात पात। कविजी ने न जाने किस लोक में मुरैलियों को पत्तों् पर दौड़ते देखा है। इसी प्रकार जहाँ वीररस की चर्चा है वहाँ द्वित्व और वर्ग का विस्तार है, जैसेड़रि डरि ढरि गये अडर डराय ढह ढरढर ढर के धाराधार के धारके किन्तु इस 'खडड बडड' के बिना भी वीर रस का संचार किया जा सकता है, इस बात के उदाहरण शेखर कवि का 'हम्मीर हठ', भारतेन्दु की 'विजयिनीविजयवैजयन्ती' और 'नीलदेवी' विद्यमान हैं। आज सैकड़ा पीछे कितने आदमी मतिराम, भूषण और श्रीपति सुजान के कविताओं को अनुराग से पढ़ते तथा उनके द्वारा किसी आवेग में होते हैं? पर वहीं सूर, तुलसी, केशव, रहीम और बिहारी आदि की कविता हमारे जातीय जीवन के साथ हो गई है। उनकी एक एक बात हमारे किसी काम में अग्रसर होने वा न होने का कारण होती है। इस भेदभाव का कारण क्या है? वही एक में शब्दों का व्यर्थ आडम्बर और दूसरी में भावों की स्वच्छता तथा वर्णन की उपयुक्तता। वे 'चटकीले मटकीले' शब्द लाख करने पर भी हमारे हृदय पर अधिकार न जमा सके; निकलकर हवा में मिल जाना ही उनके कार्य का शेष होता है। क्योंकि सृष्टि के नियमानुसार स्वर्गीय पदार्थ ही एक दूसरे में लीन होने को झुकते हैं; जल ही जल की ओर जाता है, इसी प्रकार चित्त की उपज ही चित्त में धंसती है।
प्रत्येक साहित्य के अर्थालंकार में, प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष, उपमा का प्रयोग बहुत अधिक होता है क्योंकि भौतिक पदार्थों के व्यापार, विस्तार, रूप रंग तथा मानसिक अवस्थाओं की स्थिति, क्रम, विभेद आदि का सम्यक् ज्ञान उत्पन्न करने के लिए बिना उसके काम नहीं चल सकता। इसका प्रयोग जान व अनजान में हम हर घड़ी किया करते हैं; छोटे छोटे विचारों को व्यक्त करने में भी हम बिना उसका सहारा लिए नहीं रह सकते हैं, यहाँ तक कि हमारे सब अगोचर पदार्थवाची शब्द आरम्भ में इसी (उपमा) की क्रिया से बने हैं; यह भाषा की बनावट के इतिहास से प्रमाणित है। जब शब्दों का यह हाल है तब फिर इस प्रकार की अपार्थिव भावनाओं का क्या कहना है। उनका अनुभव तो हम पार्थिव पदार्थों ही के गुण और व्यापार के अनुसार करते हैं। अर्थात् भौतिक वस्तुओं के गुण और धर्म को अपार्थिव वस्तुओं में स्थापित करके ही हम आध्यातत्मिक विषयों की मीमांसा करते हैं। साधारण दृष्टान्त लीजिएदया ने प्रतीकार की इच्छा को दबा दिया। उसके प्रेम से परिपूर्ण हृदय में प्रिय के दुर्गुणों के विचार की जगह न रही। पहिले में भौतिक पदार्थों के गुरुत्व और अपने से हलके पदार्थों को दबाकर उभड़ने से रोकने की क्रिया का आभास है; इसी प्रकार दूसरे में पदार्थों के स्थान छेंकने का धर्म स्थापित किया गया है। बात यह है कि इन नियमों से पार्थिव और आध्याात्मिक दोनों सृष्टियाँ समान रूप से बद्धा हैं।
उपमा का कार्य सादृश्य दिखलाकर भावना को तीव्र करना है। जिस वस्तु के लिए हम कोई शब्द नहीं जानते उसका बोध उपमा ही द्वारा कराते हैं, जैसे जो मनुष्य हारमोनियम का नाम नहीं जानता वह उसकी चर्चा करते समय यही कहेगा कि वह संदूक के समान एक बाजा है। यदि किसी वस्तु का विस्तार इतना बड़ा है कि हम उसे निर्दिष्ट शब्दों में नहीं बतला सकते तो हम चट उतने ही वा उससे बहुत अधिक विस्तृत अन्य पदार्थ की ओर इंगित करते हैं, जैसेहरियाली चारों ओर समुद्र के समान लहराती देख पड़ी। ज्वालामुखी से भाप और राख उठकर बादल के समान आकाश में छा गई। हम यह न देखने जायँगे कि समुद्र का विस्तार हरियाली के फैलाव से नाप में न जाने कितना वर्गमील बड़ा है; इसकी हमें कोई आवश्यकता नहीं, यह बात निरीक्षण के समय हमारी दृष्टि की पहुँच के बाहर की है। अतएव जब तक हम विवेचना शक्ति का सहारा न लें, वह हमारी प्राप्त भावनाओं में अन्तर नहीं डाल सकती। निरीक्षण के समय हमारी दृष्टि की पहुँच के भीतर इन दोनों (हरियाली और समुद्र) का अन्त नहीं होता यही इनमें समानता है। यदि किसी महाविशाल पिंड के आकार का परिज्ञान कराना रहता है तो उसकी तुलना हम समान आकार वाले किसी छोटे पदार्थ से करते हैं; तदनन्तर उस छोटे पिंड में उस आकार के गुण धर्म को दिखलाकर हम उनकी स्थापना बड़े पिंड में करते हैं, जैसेस्क़ूलों में लड़कों से कहा जाता है कि लड़को! पृथ्वी नारंगी के समान गोल है; क्योंकि ऐसी उपमा से हमारा कुछ काम नहीं निकलता। पदार्थों के व्यापार, गुण और स्थिति को स्पष्ट करके उनका तीव्र अनुभव कराना उपमा का काम है, और कुछ नहीं। अतएव एक ही वस्तु के लिए पचीसों उपमाओं का तार बाँध देना, उपमा कथन के हेतु ही किसी वस्तु को वर्णन करने बैठ जाना और उससे किसी अंश में समानता रखनेवाले पदार्थों की सूची तैयार करना उचित नहीं है। जैसे प्रभातकालीन सूर्यमंडल को देख यही बकने लगना कि यह थाली के समान है अथवा शोणित सागर में बहता हुआ स्वर्ण कलश है वा स्वर्गलोक की झलक दिखलाने वाली गोल खिड़की है किंवा होली की महफिल में रखे हुए लैम्प का ग्लोब है यह वाणी का सदुपयोग नहीं कहा जा सकता। मेरा अभिप्राय यह है कि उपमा का प्रयोग आवश्यकतानुसार ही होता है; उसका अनावश्यक और अपरिमित प्रयोग प्रलाप है। अकेले वा पृथक् रूप में वह इस योग्य नहीं कि उसे भरने के लिए हम एक प्रबन्ध वा पुस्तक लिख डालें। यही बात सब अलंकारों के लिए कही जा सकती है। किसी वस्तु को उसकी सीमा के बाहर घसीटना उसको उसके गुण से च्युत करना है। यह बात हमारी हिन्दी कविता में प्रत्यक्ष देखने में आती है। किसी नीतिज्ञ ने अन्योक्तियों ही का कल्पवृक्ष लगाया है; किसी नायिका भेद के भक्त ने अकेली नवोढ़ा ही का आदर्श दिखलाया है; किसी नखसिख निहारने वाले ने 'अलक' और 'तिल' ही पर शतक बाँध है। आप ही कहिए कि इतने संकुचित स्थान में भीतरी और बाहरी सृष्टि के कितने अंश का व्यापार दिखलाया जा सकता है और पाठक का ध्यान बिना ऊबे हुए कब तक उसमें बद्धा रह सकता है।
धर्म वा व्यापार के पूर्णतया प्रत्यक्ष न होने के कारण जब किसी वस्तु की भावना धुधँली वा मंद होती है तब उसको तीक्ष्ण और चटक करने के लिए समान धर्म और गुणवाले अन्य अधिक परिचित पदार्थों को हम आगे रखते हैं। किन्तु काव्य की उपमा में एक और बात का विचार भी रखना होता है। वह यह है कि सादृश्य दिखलाने के लिए जो पदार्थ उपस्थित किए जायँ वे प्राकृतिक और मनोहर हों, कृत्रिम और क्षुद्र नहीं, जिसमें ज्ञानदान के अर्थ जो रूप उपस्थित किए जायँ वे रुचिकर होने के कारण कल्पना में कुछ देर टिकें और हमारे मनोवेगों (sentiments) को उभाड़ें जो हमें चंचल करके कार्य में प्रवृत्त करते हैं। उपमान और उपमेय में जितनी ही अधिक बातों में समानता होगी उतनी ही उपमा उत्कृष्ट कही जायगी।
(आनन्द कादम्बिनी, ज्येष्ठ से अग्रहायण सं. 1964 वि. 1907 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-3 ]