अपनी शर्तों पर जिए वीरेन्द्र सिंह / दयानन्द पाण्डेय
अपनी शर्तों पर ज़िदगी जीना आसान नहीं होता. हर कोई यह ज़िंदगी जी नहीं पाता. क्योंकि इस ज़िंदगी में अंतत; टूटने के खतरे ज़्यादा होते हैं. पर वीरेंद्र सिंह जीते थे. अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीना जानते थे वह. ताज़िदगी पत्रकारिता कर के भी वह पत्रकारों वाले ऐबों से बचे रहे. उन्होंने कभी किसी सरकार से अनुदान नहीं लिया. कभी किसी ट्रांसफ़र-पोस्टिंग के पचड़े में नहीं पडे. 'पत्रकारिता और भ्रष्टाचार' पर संपादकीय ज़रूर लिखते रहे और कई लोगों को बेपरदा करते रहे. क्योंकि वह काम और व्यवहार दोनों में कडि़यल थे. दलाली और चाटुकारिता की इस घटाटोप पत्रकारिता में ऐसे कम ही संपादक हुए हैं जिन्होंने व्यवस्था और सत्ता के आगे घुटने नहीं टेके. वीरेंद्र सिंह भी उन्हीं में से एक थे.
पत्रकारिता पेशे का भी उन्होंने कभी फ़ायदा नहीं उठाया. अपनी स्कूटर और नाम पट्टिका तक पर वह प्रेस या पत्रकार या संपादक जैसा कुछ नहीं लिखते थे. और अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में अपने प्रति भी वह कितने कडि़यल थे, इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि उनके निधन के बाद समाचार के साथ चित्र छापने के लिए लाख खोजने पर भी नहीं मिला. और इस आलेख के साथ भी जो चित्र आप देख रहे हैं, वह उन की फ़ेमिली एलबम से बहुत ढूंढने के बाद मिला है. वह भी श्वेत-श्याम. तो कारण बहुत साफ है कि वह दिखावे की ज़िंदगी या औपचारिक ज़िंदगी से ज़िंदगी भर कन्नी काटे रहे. कोई तीन दशक से भी ज़्यादा समय तक पत्रकारिता करने के बावजूद उनकी किसी छोटे बडे अफ़सर या नेता से दोस्ती नहीं हो पाई. क्योंकि वह यह सब न सिर्फ़ नापसंद करते थे, बल्कि जो लोग यह सब करते थे उन से वह बेहद घृणा भी करते थे. और जब-तब लड़ पडते थे.
वीरेंद्र सिंह से मेरी पहली भेंट तब हुई जब मैं दिल्ली जनसत्ता में था. उनको मेरी कुछ रिपोर्ट पसंद आई थीं. सो वह मुझे स्वतंत्र भारत ले आना चाहते थे. बातचीत शुरू होने के कुछ ही देर बाद उन्होंने कहा, 'आप स्वतंत्र भारत, लखनऊ चलेंगे?' मैंने छूटते ही कहा, 'वह तो बहुत मरा हुआ अखबार है.' मुझे तब तक पता नहीं था कि वह स्वतंत्र भारत के संपादक हैं. फिर जिन पत्रकार के साथ उनसे मिला था उन्होंने बताया, 'यह वीरेंद्र सिंह जी हैं और स्वतंत्र भारत के संपादक हैं.' तो मुझे अपना कहा कि 'वह तो मरा हुआ अखबार है' बड़ा अटपटा लगा. पर वीरेंद्र जी के चेहरे पर शिकन नहीं थी. वह बोले, 'मरा हुआ अखबार है. इसीलिए तो ज़िंदा करना चाहता हूं.' उनकी बात मुझे भा गई थी. और कुछ दिनों बाद मैं स्वतंत्र भारत, लखनऊ आ गया था. वह बातचीत में जितने खुले-खुले थे, व्यवहार में भी उतने ही खुले-खुले थे. पर उनका कडि़यलपन उन पर भारी पडता था. एक दिन स्वतंत्र भारत संपादकीय डेस्क पर स्केच पेन से बड़ा-बड़ा लिखा देखा- रूल नंबर वन : बास इज आलवेज़ राइट. रूल नंबर टू : इफ़ बास इज रांग, सी रूल नंबर वन.
जाहिर है यह इबारत वीरेंद्र सिंह के लिए लिखी थी. और बात भी सही थी. और ऐसा भी नहीं था कि उनका यह बास इज आलवेज़ राइट सिर्फ़ संपादकीय विभाग के लोगों के लिए ही लागू होता रहा हो. नहीं, वह तो सब के लिए एक सा नियम चलाते थे. उनकी दरअसल खासियत ही यही थी कि अकड़ गए तो अकड़ गए. और जो आप पर फ़िदा हो गए तो फ़िदा हो गए. तन, मन, धन से. पर अतिरेक दोनों ही स्थितियों में.
एक बार की बात है. तब विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनमोर्चा के दिन थे. मैंने एक खबर लिखी थी 22 हरिजन विधायक जनमोर्चा में. मुश्किल था इस खबर का छपना. पर वीरेंद्र जी ने छापी. फिर तो बवाल कट गया. तब के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को किसी ने समझा दिया कि संपादक को पटाओ. उन्होंने सूचना निदेशक से कहा. सूचना निदेशक ने एक सूचना अधिकारी को वीरेंद्र जी के पास इस संदेश के साथ भेजा कि मुख्यमंत्री जी आज आप के साथ भोजन करना चाहते हैं. वीरेंद्र जी ने छूटते ही उस सूचनाधिकारी से कहा, 'अगर आप के साथ भोजन करना हो तो चलिए मैं अभी चलता हूं. पर अगर मुख्यमंत्री के साथ भोजन करना हो तो उन्हें जा कर बता दीजिए कि कुछ तमीज़ सीखें कि भोजन का न्यौता खुद दिया जाता है, कारिंदों के मार्फ़त नहीं.'
सूचनाधिकारी भागे-भागे सूचना निदेशक के पास गए. वीरेंद्र जी की बात बताई. सूचना निदेशक भागे-भागे वीरेंद्र जी के पास आए. वीरेंद्र जी ने सूचना निदेशक से भी वही बात दुहराई. सूचना निदेशक उलटे पांव भाग कर मुख्यमंत्री के पास पहुंचे. फिर मुख्यमंत्री ने फ़ोन कर के वीरेंद्र सिंह से भोजन की बात कही. और कर्मचारियों को भेजने के लिए क्षमा मांगी. पर वीरेंद्र सिंह तो वीरेंद्र सिंह ठहरे! मुख्यमंत्री से वह बोले, 'आज तो मैं खाली नहीं हूं. फिर किसी रोज़ कहिएगा तो आ जाऊंगा.' एक दूसरे सहयोगी को पता चला तो वह वीरेंद्र जी के पीछे पड़ गए. कहने लगे, 'मैं चला जाता हूं.' वीरेंद्र जी ने कहा, 'पर बुला तो वह मुझे रहे हैं.' पर उन सहयोगी का कहना था, 'मैं प्रतिनिधित्व कर लूंगा.' तो वीरेंद्र जी ने उन्हें डांटा और कहा कि हरगिज़ मत जाइएगा.' तो बास इज़ आलवेज़ राइट वाली बात वीरेंद्र जी यहां भी साबित कर गए. तो ज़ाहिर है कि यह आसान नहीं था. खास कर तब और जब ज़्यादातर पत्रकार मुख्यमंत्री के यहां भोज की सूचना सूंघ कर ही उन के घर भीड़ लगा देते हों. वीरेंद्र जी को एक बार अमरीका जाना था. एक सहयोगी ने ऐन वक्त पर उनका पासपोर्ट रूकवा दिया. और उन से कहा, 'कहिए तो मैं जल्दी रिलीज़ करवा दूं.' उनके अमरीका जाने में कुछ ही दिन बाकी रह गए थे. पासपोर्ट न मिलने से उनकी यात्रा रद्द हो सकती थी. पर उन्होंने उन सहयोगी से साफ मना कर दिया कि 'आप के सहयोग की ज़रूरत नहीं है. भले ही मैं अमरीका नहीं जा पाऊं.' यह सहयोगी वीरेंद्र जी को फूटी आंख नहीं सुहाते थे. पर वह थे कि दबाव की रणनीति बराबर रचते रहते थे. इसी फेर में एक बार वह पहले वीरेंद्र जी का सामान भी घर से फेंकवा चुके थे. पर वीरेंद्र जी उन की रणनीति के दबाव में नहीं आए तो कभी नहीं आए. वह इधर-उधर से लाख कहलाते रहे. और अबकी जब 15 जून, 1995 को वीरेंद्र जी का निधन हुआ तो उनका शव साहिबाबाद से लखनऊ लाने की बात हुई. वह सहयोगी उनके निधन के बावजूद भी आदत से बाज़ नहीं आए. सबसे बताते फिरे कि स्टेट प्लेन का इंतज़ाम करवा रहा हूं. पर हकीकत यह थी कि स्टेट प्लेन तब लखनऊ में उपलब्ध नहीं था. एक था भी तो वह मुख्यमंत्री की ही सेवा में था. वास्तव में तो उक्त 'सहयोगी' स्टेट प्लेन की आड़ में वीरेंद्र जी का शव बाई रोड भी न आ पाए, इस इंतज़ाम में लगे पड़े थे. खैर, वीरेंद्र जी का शव बाई रोड लाने का इंतज़ाम तो हो गया पर उनके परिवार के लोगों ने ही शव लखनऊ लाने से मना कर दिया. आखिर वीरेंद्र जी ने सरकारी सुविधा जब जीते जी नहीं भोगी तो मरने के बाद भी कैसे भोगते भला? और फिर बास इज़ आलवेज़ राइट भी तो उन्हें साबित करना था. वह हुआ.
एक बार एक 'सेक्सालाजिस्ट' के खिलाफ़ मुझे खबर मिली. एक नाबालिग लड़का उस के यहां काम करता था. वह 'गायब' हो गया था. मैंने खबर की पड़ताल की पर सेक्सालाजिस्ट तब हर महीने 75 हज़ार रूपए का विज्ञापन अखबार में छपवाता था. अखबार मालिकों से कह कर उसने वह खबर रूकवा ली. कुछ दिन बीत गए इस बात को. तो उस 'गायब' लड़के का पिता मेरे पास आया. और चिल्लाने लगा, 'तुम बिक गए हो. खरीद लिया उसने तुमको और तुम्हारे अखबार को. तुम सब लोग उस ठगड़े जल्लाद का साथ दे रहे हो.' मैंने उसे रोका और कहा, 'एक मिनट!' और उसे ले जाकर वीरेंद्र जी के सामने खड़ा कर दिया.
वह फिर शुरू हो गया, 'तुम लोग बिक गए हो...' वीरेंद्र जी समझ गए. बोले, 'आप जाइए. कल खबर छप जाएगी.' और पलट कर हमसे कहा, 'आप खबर अभी लिखिए.' मैंने कहा, 'नोट्बुक तो मेरे पास अभी है नही, घर पर है.' वह बोले, 'आप जाइए घर से नोट बुक लेकर आइए. मैं बैठा हू.' मैं नोट बुक घर से ले आया. खबर लिखी. इतने में रात के ग्यारह बज गए. उन्होंने खबर जांची, कंपोज़ कराई, खुद पेज़ मेकअप करवाया और जब अखबार छपना शुरू हो गया तब वह घर गए. वह आखिर तक सिर्फ़ इसलिए रूके रहे कि कहीं किसी स्तर से खबर कोई 'रूकवा' न दे. दूसरे दिन उत्तर प्रदेश सरकार की एक कैबिनेट मंत्री धड़धड़ाती हुई आईं और वीरेंद्र जी से बोलीं, 'आपने यह खबर क्यों छापी?'
'क्या आप भी उससे अपना इलाज़ करवाती हैं? वीरेंद्र जी ने मुसकुराते हुए पूछा. उनका इतना पूछना भर था कि वह भाग खड़ी हुईं. अखबार मालिकों ने टोका और कहा, 'वह इतने का विज्ञापन देता है.'
वीरेंद्र जी बोले, 'विज्ञापन तो वह अब भी देगा और कहीं ज़्यादा का देगा. हां आप को चाहिए कि ऐसे गंदे आदमी का विज्ञापन छापना बंद कर दे.' मालिकों के पास इस के बाद चुप रहने के सिवाय कोई चारा न था.
वीरेंद्र जी का यही व्यवहार हर जगह होता था. उनका इकलौता बेटा पोलियोग्रस्त हो गया था. वह एक स्पेस्लिस्ट डाक्टर को दिखाने ले गए. डाक्टर ने बातचीत में कोई तथ्यात्मक गलती कर दी. वीरेंद्र जी बिगड़ गए. कहा कि जो आदमी मेडिकल साइंस पर बातचीत में गलती कर सकता है, वह मेरे बेटे को कैसे देख सकता है? लोगों ने समझाया भी कि वह बहुत बड़ा डाक्टर है. पर वह नहीं माने. उठ कर चल दिए. दरअसल ऐसे कम लोग होते हैं जो आपसे हर विषय पर चाहे वह साइंस हो, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, राजनीति, खेल, फ़िल्म, अर्थ या कोई भी विषय हो, उस पर अथारिटी के साथ बात कर सकें. वीरेंद्र जी उन में से ही एक थे.
पश्चिम एशिया के मामलों पर तो खैर वह अथारिटी थे. पर आप उनसे दुनिया के किसी भी विषय पर कभी भी बात कर सकते थे. और वह हमेशा पूरी तैयारी के साथ मिलते थे. वैसे भी उन का सारा समय पढ़ने-लिखने में ही बीतता था. दूसरा कोई काम उन के पास था ही नहीं. और वह सब को पढ़ने के लिए उकसाते भी रहते थे. उनकी कमाई का ज़्यादतर पैसा किताबें खरीदने में ही खर्च होता. उनकी व्यक्तिगत लाइब्रेरी में एक से एक नायाब किताबें होती थीं. और हिंदी पत्रकारिता में कम लोग हुए हैं जिनकी अंग्रेजी पर भी समान पकड़ हो. और ऐसा भी कम ही हुआ है कि हिंदी अखबार का संपादक अंग्रेजी अखबार में भी स्वीकार्य हो. पर वीरेंद्र जी स्वतंत्र भारत तथा पायनियर दोनों अखबारों के संपादक होने का गौरव एक साथ बढ़ा गए.
जैसे हर आदमी में कुछ कमजोरियां होती हैं, वैसे ही वीरेंद्र जी में भी थीं. जैसे कि वह कुछ गलत लोगों के मुंह में कान दे देते थे. साफ कहूं कि कान के कच्चे थे. जबकि संपदक चाहे जैसा भी हो उसे कान का कच्चा तो कतई नहीं होना चाहिए. तो वीरेंद्र जी ने इसका खामियाज़ा भी भुगता. जो लोग उन के मुंह लगे बन निरंतर उन के कान भरते रहे, उन्होंने वीरेंद्र जी की छवि और कैरियर को तो धक्का लगाया ही, समय आने पर उन्हें पहचानना भी भूल गए. पर वीरेंद्र जी ने कभी इसकी परवाह नहीं की. वह तो मस्त, गले में स्कार्फ़ बांधे मिठाई खाते- खिलाते रहे. मिठाई पर उन का ज़ोर बहुत होता. वह जैसे पूछते, 'वेज़ेटेरियन आदमी के पास मिठाई के सिवाय खाने को और क्या होता है?' और गरदन हिला कर कहते, 'लो तुम भी मिठाई खाओ!'
अब वीरेंद्र जी नहीं हैं तो सोचता हूं कि क्या आदमी को सचमुच इतना सादा, इतना अनौपचारिक जीवन जीना चाहिए? कि लोग पहचानने और जानने से ही इनकार कर दें. नहीं यह दुखद ही था कि जिस अखबार में उन्होंने अप्रेंटिस से शुरुआत कर संपादक की कुर्सी तक कोई 27-28 साल तक नौकरी की, वहीं उनके निधन पर दो मिनट का औपचारिक शोक भी नहीं जताया गया. न ही कोई औपचारिक रूप से उन के घर शोक जताने गया.
सचमुच वीरेंद्र जी अगर फिर से मिल जाते तो कतई उनसे मैं यह ज़रूर कहता, 'अब बहुत जी लिए अनौपचारिक ज़िंदगी, बहुत जी लिए अपनी शर्तों पर ज़िंदगी, अब कुछ औपचारिक बनिए. और मुंहलगों को दुत्कारिए.' पर अब तो वह मिलने से रहे. अफ़सोस इसी बात का है. बाद के दिनों में जब वह दिल्ली नवभारत टाइम्स में रेज़ीडेंट एडीटर हो कर गए तो उनसे पूछा, 'कैसी लगी दिल्ली?' वह कहने लगे, 'एक बात तो वहां अच्छी लगी कि वहां कोई यह पूछने वाला नहीं मिलता कि भाई साहब क्या कर रहे हैं, भाई साहब कहां जा रहे हैं?' वह मिठाई खाते-खाते बोले, 'तुमने नाहक दिल्ली छोड दी.' इस पर मैंने कहा, 'आप ने ही तो छुड़वाई.' तो वह बोले, 'तुम भी अब दिल्ली आ जाओ.' मैंने कहा, 'अब जाने भी दीजिए. मैं भुगत आया हूं अपने हिस्से की दिल्ली!'
सचमुच उम्र के उस उतार पर दिल्ली जा कर नए सिरे से संघर्ष करना और करियर तलाशना, वीरेंद्र जी के ही बूते की बात थी. नहीं तो बुढ़ौती में नौकरी ढूंढना या लखनऊ छोड़ कर दिल्ली जा कर फ़्रीलांसिंग की बात सोच कर ही कईयों के हाथ-पांव फूल जाते हैं. पर वीरेंद्र जी को दिल्ली जाने और रहने में कोई 'हिचक' नहीं हुई. ठीक वैसे ही जैसे प्रबंधतंत्र ने जब उन्हें काबू करने की सोची तो उन्हें इस्तीफ़ा देने में ज़रा भी देर नहीं लगी. उन्होंने उसी रोज़ आनन-फानन इस्तीफ़ा दे दिया. चाहे स्वतंत्र भारत रहा हो या नवभारत टाइम्स!
फिर वह एक आस्ट्रेलियन डेली में लिखने लगे. और कहने लगे, 'हिंदी माता की सेवा बहुत हो चुकी.' फिर वह देश की कुछ अंगरेजी फ़ीचर सर्विसों के लिए भी लिखने लगे. न्यूज़ लाइन नाम से अपना सिंडीकेट भी चलाया. जब राष्ट्रीय फ़ीचर्स नेटवर्क (मैं संस्थापक संपादक हूं. इस फ़ीचर एजेंसी का) की शुरुआत हुई 1994 में तो उनकी आंख का आपरेशन हुआ था. वह बोले, 'डाक्टर ने दो महीने तक कुछ भी लिखने-पढ़ने से मना किया है. पर जब लिखूंगा तो पहला लेख तुम्हारे लिए ही लिखूंगा.' फिर वह यहां नियमित रूप से लिखने लगे थे. और मैं समझता हूं कि राष्ट्रीय समाचार फ़ीचर्स नेटवर्क मे छपा लेख ही उनका लिखा अंतिम लेख था. सचमुच साक्षर और भ्रष्ट पत्रकारों की बढ़ती भीड़ में वीरेंद्र सिंह जैसा पढ़ा-लिखा पत्रकार और उदारमना व्यक्तित्व मिलना अब दूभर हो गया है.