अपनी ही मूर्ति / राजेन्द्र यादव

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वे उस मूर्ति के सामने खड़े थे। मूर्ति स्वयं उनकी अपनी थी।

कल इस मूर्ति को शहर के सबसे बड़े और व्यस्त चौराहे के बीच ऊँचे आधार–स्तम्भ पर प्रतिष्ठित किया जाएगा–क्रेनों की मदद से। स्वयं मूर्ति भी बीस फीट से कम क्या होगी। वे बड़ी मुश्किल से उसके घुटनों तक पहुँच पाते थे। हाँ, उसकी संपूर्ण गरिमा को दूर खड़े होकर ही देखा जा सकता था। दुनिया के बेहतरीन पत्थर के एक बड़े ब्लॉक को तराशकर उसे निकाला गया था–देश के सबसे बड़े शिल्पी द्वारा। उनके इशारे पर बड़े–बड़े पूंजीपतियों ने करोड़ों रुपए इस मूर्तिनिधि में दिए थे। अगर वे स्वयं इस मूर्ति में इतनी दिलचस्पी न लेते तो सचमुच यह प्रतिमा इतनी भव्य नहीं बन सकती थी। वे प्रसन्न थे।

दूर से उन्होंने मूर्ति को देखा था–चेहरे पर संकल्प, निष्ठा और त्याग का दिव्य तेज, वस्त्रों में सादगी और सुरुचि, खड़े होने की मुद्रा में आभिजात्य, विनम्रता की लय...आँखों का भाव इस तरह का कि किसी भी कोण से देखो, लगता था वह सि‍र्फ़ आपको ही मुखातिब हैं। देखकर स्वयं श्रद्धा से सिर झुकाने को मन करता। उन्हें लगता ही नहीं था कि उनकी अपनी मूर्ति है। लगता, जैसे वह कोई दूसरा है, बहुत दूर, बहुत बड़ा और बहुत महान...जब वे खुद विश्वास नहीं कर पा रहे तो क्या दूसरे लोग या आने वाली पीढि़याँ विश्वास करेंगी कि ऐसा महान ओर मानवोपरि इंसान सचमुच इस दुनिया में कभी रहा होगा।

स्वयं अपने जीते जी अपनी ही मूर्ति लगाई जाए ओर उसका अनावरण भी वे ही करें, यह बात कहीं भीतर उन्हें भी अनुचित लग रही थी, मगर फिर मन को समझा लिया कि दुनिया के अनेक देशों में ऐसी पसरम्पराएँ रही हैं। दक्षिणभारत में विशेषकर तमिलनाडु में तो अनेक नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं की मूर्तियाँ उनके जीवन काल में ही लगीं और स्वयं उन्होंने उन प्रतिमाओं का अनावरण किया। इसमें अशोभनीय कुछ नहीं है।

जिस क्षण से इस मूर्ति को उनके बड़े से लॉन में रखा गया था, तभी से वे एक अजीब रोमांच अनुभव कर रहे थे। दिन में, अनेक लोगों के सामने तो उन्होंने उदासीनता और तटस्थता का भाव बनाए रखा, मगर अब रात में इस अभिनय को साधे रखना असंभव हो गया। आधी रात को वे दबे पाँव निकले और पहले तो आड़ में खड़े होकर दूर से ही मूर्ति को मुग्ध–भाव से देखते रहे। उन्हें खुद याद नहीं कि वे कब खिंचे हुए से मूर्ति के ठीक नीचे आ खड़े हुए और ऊपर टकटकी लगाए देखते रहे...फिर उन्होंने हाथ ऊँचा करके उसको छूने की कोशिश की, सचमुच बहुत उचक कर ही घुटनों को छुआ जा सकता था। छूने पर महसूस हुआ कि पत्थर बहुत ठोस, सख्त और भारी है। वे घुटनों पर हाथ फेरते रहे।

वजन और घनत्व का अंदाजा लगाने के लिए उन्होंने हाथ लगाकर जोर लगाया। हिलने या कहीं भी डगमगाने का कोई सवाल ही नहीं था। उन्होंने दोनों हाथों से जोर लगाकर हिलाने की कोशिश की। जब इन अनमनी कोशिशों से कुछ नहीं हुआ तो भीतर चुनौती जैसा अहसास जागने लगा और वे सचमुच जोर आजमाने लगे। कग यह कोशिश एक जुनूनी जिद में बदल गई, उन्हें नहीं मालूम। वे पागलों की तरह दोनों हाथों से मूर्ति को आगे–पीछे हिलाने की कोशिश में जुटे थे। उन्हें लगा, मूर्ति कुछ हिली।

सुबह लोगों को गिरी हुई मूर्ति के नीचे दबा उनका शरीर निकालने के लिए क्रेनों की सहायता लेनी पड़ी।