अपने–अपने सन्दर्भ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
इस भयंकर ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूप–सी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–"जानते हो, यह कैसा दर्द है?" मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–"यह दर्दे–दिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।"
मैं मुस्करा दिया।
धीरे–धीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
"मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।" मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–"आज आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही है।"
"तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।" वेद बाबू ने हंसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–"लगता है आपकी तबीयत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?"
"मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।" वे हँसे
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर में कहा–"रात–रात–भर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए. कहते हैं–मकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।"
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–"उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ी–सी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएगी–" कहते–कहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए.