अपने-अपने आसमान / गोवर्धन यादव
"बाबूजी sssssss..." उसकी आवाज़ में तल्ख़ी थी। वह चीखकर बोला था। बोलते समय उसके ओंठ कांपे थे। चेहरे पर तनाव की परछाइयाँ साफ़ देखी जा सकती थी। वह तमतमाया हुआ था। उसकी तर्जनी बाबूजी के तरफ़ तनी हुयी थी।
"बाबूजी... बस! बस बहुत हो चुका। जितना कहना था...कह चुके. हमें अब समझाने की ज़रूरत नहीं। बहुत समझा चुके आप। अब हम बच्चे नहीं रहे...हमें अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीने दें..."
रामप्रसाद का चेहरा फ़क्क पड गया था। आवाज़ गले में फ़ंसकर रह गयी थी। मुँह खुला रह गया था। वे अवाक थे। अजय के चेहरे पर क्रोध की परतों को कुरेदकर देखने लगे थे। मन में विचारों का तूफ़ान उठ खडा हुआ था। अंदर सब क्षत-विक्षत था। नजारा देखते हुए वे सोचने लगे थे।
"अजय में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी कि वह अपने पिता से ज़बान लडाने लगा। भूल गया वह किससे बात कर रहा है। अपने पिता से... वह भी इस लहजे में... वे अपने आपको टटोलने लगे थे। बोले गए शब्दों को मन ही मन दोहराने लगे थे। याद नहीं पडता कि उन्होंने अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। फिर एक बाप अपने बेटे से दोयम-दर्जे की बात क्यों कर कह सकेगा। वह तो वही बोलता है, जिसमें उसकी भलाई छुपी हुई होती है...वह उसके लिए कल्याणकारी हो...उसका हितवर्धन करती हो।"
उनकी अब तक की ज़िन्दगी पढने-पढाने में ही बीती है। कितने ही विध्यार्थियों को वे अब तक पढा चुके हैं...कितने ही विध्यार्थी उनके कुशल मार्गदर्शन में पी.एच.डी की उपाधियाँ हासिल कर चुके हैं। अपनी उच्च परम्परा, कर्तव्यनिष्ठा एवं आदर्श के लिए वे सदैव याद किए जाते हैं। आज भी उन्हें भिन्न-भिन्न विषयों पर आख्यान देने के लिए आदर के साथ बुलाया जाता है।
निश्चित ही अजय के कोमल मन में किसी ने विष-वृक्ष बो दिए हैं। कौन है वह? क्यों वह उनकी अमन-चैन की ज़िन्दगी में बवण्डर उठाना चाहता है? क्यों लोग चाहते है कि उनके नीड का तिनका-तिनका बिखर जाए? " तरह-तरह के प्रश्न उन्हें उद्वेलित-व्यथित कर जाते।
अजय के चेहरे से चिपकी नजरें हटाते हुए उन्होंने कामिनी की ओर देखा। वह एक ओर खडी नजारा देख रही थी। उसकी आँखों में एक विशेष चमक थी और होंठॊं पर कुटिल मुस्कान। वे समझ गए. समझने में तनिक भी देर नहीं लगी। झगडॆ की जड में शायद इसी का हाथ हो।?
सरस्वती के पुत्र हैं वे, जबकि कामिनी लक्ष्मी की दासी. एक करोडपति बाप की इकलौती संतान। जब सरस्वती और लक्ष्मी में नहीं निभी तो उनके अनुयायी के बीच तालमेल कैसे बैठ सकता है? । लक्ष्मीपुत्रों ने सदा से ही सरस्वती-पुत्रों का मखौल ही उडाया है। मन के कोने में संदेह के बीज पनपने लगे थे।
उन्होंने कातर नजरों से कांता कि ओर देखा। वे भी अजय के व्यवहार से नाखुश थी। वह भी स्तब्ध खडी थीं। ज़ुबान होते हुए भी गूंगी। ज़िंदा होते हुए भी जडवत, पाषाण-खण्ड की तरह।
कांता का मन घडी के पेण्डुलम की तरह दोलायमान हो रहा था। कभी इधर-कभी उधर। वह सोच रही थी।, किसका पक्ष लूँ, किसका नहीं। अजय का पक्ष लेती है तो पतिव्रत-धर्म आहत होता है। पति के नजरों में गिर भी सकती है। पति का पक्ष लेती है, तो ममता घायल होती है। दो भागों में बंटी औरत कितनी विवश, कितनी लाचार, कितनी अवश होती है। औरत तो सदा से ही खण्ड-खण्ड होती आयी है।
खण्ड-खण्ड होते हुए भी उसमें दया-ममता-करुणा के विविध स्रोत बने ही रहते हैं। सदियों से यह क्रम औरत जात का पीछ करता आया है। उन्हें सब कुछ लुटाना पडता है। यहाँ तक नेह भी, प्यार भी और देह भी। वे तरह-तरह से लूटी जाती रही हैं। लुटने का ढंग भिन्न-भिन्न हो सकता है।
फ़िर उसे कितने ही सम्बंधों के बीच से होकर गुजरना पडता है। कभी वह दुर्गा बना दी जाती है, तो कभी काली, कभी कुछ और। देवी बनकार आशीर्वाद भी तो लुटाने पडते हैं उसे। जब वह दांव पर चढा दी जाती है तो विवस्त्र भी किया जाता है उसे। कभी वह वैश्या बनाकर कोठे पर बिठा दी जाती है। देह लुटाने के बदले में उसे मिलती है चाँदी की खनक, जो बुढाते देह के साथ ही अपनी चमक खोने लगती है। किस का पक्ष ले कांता, किसका न ले? मन में अब भी चक्रवात सक्रिय था।
अजय के द्वारा कहे गए शब्दों की अनुगूंज अब भी इसके कानों में सुनाई पड रही थी। अजय की बातों से साफ़ झलक रहा था कि उसने अपना रास्ता चुन लिया है। अपना अलग घर बसा लेने का मानस बना लिया है।
माँ सब कुछ सह सकती है। दुनियाँ के सारे दुख-दर्द उठा सकती है। पर पुत्र वियोग की बात वह सहन नहीं कर सकती। उसका मन राई के दानों की तरह बिखर-बिखर गया था।
पुत्र की कामना ने कितना भटकाया था उसे। कितनी ही मनौतियाँ मांगने, कितने ही देवालयों की चौखट पर माता नवाने, पीर-पैगंबरों की मजारों पर सजदा करने के बाद उसने अजय को पाया था। अजय के लिए उसने अपने दिन का चैन और रातों की नींद सभी कुछ लुटा दिया था।
अपने जीवन का अर्क निचोडकर पिलाया था उसने। उसे संस्कार दिए. समाज में सम्मानपूर्वक जीने का हक़ दिया। पिता ने भी क्या कुछ नहीं दिया। पिता ने उसे शरीर-जमीन, आश्रय मिला। उसने उसे आसमां में उडने के लिए दीक्षित किया। आसमान से परिचय करवाया। आज वही अजय अपने पिता को धमकाने पर उतर आया। अखिर क्यों...क्यों...?
कांता कि नजरें कामिनी के चेहरे पर जा टिकी। रूप में वह खिले हुए कमल की तरह थी, तो रंग में धुली हुई चांदनी की तरह। कामिनी की आँखों में कौंधती बिजली की चमक और होंठों पर कुटिल मुस्कान देखकर वह अन्दर तक कांप-सी गई थी। एक अज्ञात भय मन की गहराइयों तक उतर आया था। कितना भला समझा था उसने कामिनी को। लेकिन वह तो गुड भरी हसियाँ निकली। उसके मन में कुछ न होता तो वह अजय को अपने दुष्कृत्य के लिए टोकती। उसे मना करती। उसके विरोध में खडी हो जाती। संदेह कुछ-कुछ यक़ीन में बदलता जा रहा था।
कामिनी नहीं चाहती थी कि उसका पति अपनी माँ का पल्लु पकडॆ-पकडॆ उसके पीछे डॊलता फ़िरे। वह यह भी नहीं चाहती थी कि वह अपने पिता कि डुगडुगी की आवाज़ पर पालतू रीछ की तरह नाचता रहे। वह तो कुछ और ही चाहती थी। वह चाहती थी कि अजय के संग तितली बनकर, हवा कि पीठ पर सवार होकर इठलाती-बलखाती डोलती फ़िरे। फिर महलों की रहने वाली शहजादी का दम घुटता था कच्चे मकान में। वह चाहती थी कि एक काबिल अफ़सर अपने स्टेटस के मुताबिक रहे। अजय एक हीरा है और वह चाहती थी कि उसे सोने के वृत्त में जडा जाना चाहिए.
इंसाफ़ के तराजू के पडले ऊपर-नीचे होते हुए आख़िर थिर हो गए. निर्णय पति के पक्ष में गया। कांता का मौन मुखर हो उठा। जड-देह चैतन्य होने लगी। होंठॊं पर शब्द फ़डफ़डाने लगे। आँखों में क्रोध उतर आया। अजय को उसकी औकात बतलाना भी ज़रूरी था। उसने अजय के गाल पर तडाक से एक चांटा जड दिया। चांटा जडने के साथ ही वह केवल इतना भर कह पायी-"अजय...अब चुप भी कर। क्या अधिकार है तुझे कि तू अपने देवतातुल्य पिता पर उंगली उठा सके. जिस देवता ने तुझे शरीर दिया... आत्मा दी... वाणी दी... तमीज सिखाई... समाज में सम्मानपूर्वक जीने का हक़ दिया। तू आज उन्हीं की बेइज्जती करने पर उतर आया" । बस...बस इतना ही वे कह पायी थी और उसे गले से लगाते हुए फ़बककर रो पडी थीं।
अजय के अदंर उमड-घुमड रहे विद्रोह का चक्रवात धीमा पडने लगा था। मन पर ज़मीं अहं की परतें और घमण्ड के हिमकुण्ड पिघलकर आँखों से बह निकले।
कामिनी को समझते देर न लगी। उसे अपना मायाजाल ध्वस्त होता नज़र आने लगा। वह सोचने लगी। "मांजी ने क्रोध जता दिया और अपनी ममता का सागर भी उलीच डाला" । सारा मामला लगभग शांत होता दिखा। अपनी विफ़लता देखकर वह क्रोध में भरने लगी थी। हारकर भी हार न मानते हुए उसने अपने तरकश में बचा आखिरी तीर, लक्ष्य साधकर चला दिया।
"अजय...खूब अपमान करा चुके तुम अपना और कितना अपमानित होते रहोगे? क्यों पडॆ हो मेंढक की तरह इस कुएँ में, जिसकी अपनी छॊटी-सी सीमा है।? तुम्हें तैरने के लिए तो एक समुद्र चाहिए. क्यों दुबके पडॆ हो अपनी माँ के पल्लु से, जबकि तुम्हें उडने के लिए एक आसमान चाहिए. क्यों घुट-घुट्कर जी रहे हो, जबकि तुम्हें धरती का-सा विस्तार चाहिए. ये तुम्हें कुछ नहीं दे सकते। ये दे भी क्या सकते हैं तुम्हें।? इनके पास देने को कुछ बचा भी क्या है।? इन्होंने तुम्हें आदर्शों का मोमजामा भर पहना दिया है। जबकि आज की दुनियाँ में इसकी कतई ज़रूरत नहीं है। खोखले हैं वे सारे शब्द। वे कभी के अपनी अर्थवत्ता, अपनी गरिमा, अपनी चमक, सभी कुछ खो चुके हैं। ठीक है...इनके सहारे तुम उस धरातल पर खडॆ तो हो सकते हो, लेकिन आकाश की ऊँचाइयों को कभी नहीं छू सकते। सुनने मात्र में अच्छे लगते हैं ये शब्द। अब भी समय है अजय...जागो! । तुम इस भुरभुरी ज़मीन पर कैसे खडॆ रह सकते हो? । तुम अब भी सूखे हुए वृक्ष की कोटर में रहना चाहते हो तो रहो। मैं एक पल भी यहाँ ठहरना नहीं चाहती। दम घुटता है मेरा यहाँ। तुम्हें अपमानित होने में मज़ा आ रहा हो तो शौक से रहो। मैं तुम्हें अपमानित होता हुआ नहीं देख सकती...हरगिज नहीं। मैं आज और अभी, इस घर को छॊडकर जा रही हूँ। तुम चाहो तो मेरे साथ चल सकती हो। बाद में आना चाहो तो, आ सकते हो। तुम्हें मेरी नजरों की कालीन हमेशा बिछी मिलेगी" ।
तीर लक्ष्य साधकर संधान किया गया था। तीर निशाने पर बैठा था। वह जानती थी कि तीर की तासिर। वह तीर बेहोश करेगा, मगर होश भी बना रहेगा। वह देखेगा भी तो उसे उसका अक्स नज़र आएगा। उसे दर्द भी होगा। आह भी निकलगी...पर आह के साथ उसका अपना नाम भी होगा। जानती है वह। वह तीर उसने उसके रुप-यौवन और मद के सम्मिश्रण के घोल में बुझाकर तैयार किया था। एक ऎसे ही तीर का संधान अप्सरा मेनका ने किया था, जिसकी घातक मार का सामना ऋषि विश्वामित्र को भी करना पडा था। उसके होंठों पर एक कुटिल मुस्कान तैरने लगी थी।
"क्या कह रही हो कामिनी तुम? क्यों हमारे विरोध में अजय को भडका रही हो? क्या हमने तुम्हें पराया समझा? । तुम्हें अपनी बहू नहीं, बेटी माना है हमने। क्या माँ-बाप को इतना भी अधिकार नहीं है कि वे अपने बेटे को डांट भी सकें।? तुम एक माँ-बाप होने का हक़ हमसे छीनना चाहती हो?" कांता के स्वर में हताशा के भाव सन्निहित थे। बोलते समय उसके होंठ भी कांपे थे।
"मुझे इस विषय में कुछ भी नहीं कहना है और न ही मैं कुछ कहना चाहूँगी।" पैर पटकते हुए वह अपने कमरे में जा समायी और अपना सूटकेस तैयार करने लगी थी।
एक विभाजन-रेखा स्पष्ट रूप से खींची जा चुकी थी। कामिनी जानती थी कि अजय उसके प्रेम-पाश में इस क़दर जकडा हुआ है कि देर-सबेर ही सही, उसके पास चला आएगा। अपने हृदय-कमल की पंखुडियों के भीतर, उसने अजय रुपी भौंरे को क़ैद करके जो रख लिया था।
कामिनी जा चुकी थी। उसे जाते हुए सभी देख रहे थे। रामप्रसाद एवं कांता अपने नीड को उजडते हुए देख रहे थे। वे जानते थे कि कामिनी रोके से रुकने वाली नहीं है। कामिनी के जाते ही एक बडा-सा शून्य सभी के मन में उतर आया था।
अजय का दिन का चैन व रातों की नींद छिन गई थी। भूख-प्यास से जैसे उसको कोई नाता ही नहीं रह गया था। वह खोया-खोया-सा रहता। बाबूजी समझाते। माँ समझाती। कामिनी को वापिस ले आने की कहते तो वह चुप्पी लगा जाता और कमरे में अपने आपको बंद कर लेता।
माँ अपने पुत्र की हालत देखकर परेशान हो जाती। भला वह अपने पुत्र को दुखी देख भी कैसे सकती थी। जानती थी कि कामिनी जिद्दी है। फिर एक करोडपति बाप की इकलौती संतान थी। उसने एक बार ज़िद पकड ली तो पूरा कराये बगैर वह कब मानती थी। उसके पिता उसकी जिद्द पूरी किये देते थे। माँ-बाप को हक़ है कि वह अपनी संतान की ज़िद पूरी करें, लेकिन उन्हें यह बात ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए कि ज़िद कहीं आदतों में शुमार न हो जाएँ। नदी को अपनी निर्बाध गति से अवश्य बहना चाहिए. पर यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि तटबंध मज़बूत हो, अन्यथा वह अपनी उद्दण्डता के चलते बस्तियाँ उजाड देती हैं।
वे नारी स्वतंत्र्यता कि प्रबल पक्षधर रही है। स्वतंत्रता कहीं स्वछन्दता में न ढल जाए, इस बात का ध्यान भी माता-पिता को रखना चाहिए. उन्हें समझाना चाहिए कि देह के भीतर और देह के बाहर भी बहुत कुछ होता है।
अजय को उन्होंने संस्कार दिये थे। पता नहीं...कहाँ कोई कमी रह गयी कि बीज ढंग से अंकुरित नहीं हो पाए. रह-रहकर एक बवण्डर-सा उठता। रह-रहकर बीती बातें याद आतीं। शादी से पूर्व उन्होंने कामिनी को लेकर जो अंदाजा लगाया था, वह शत-प्रतिशत सच निकला। "सम्बंध हमेशा बराबरी वालों से किया जाना चाहिए" का सिद्धांत जानते-बूझते हुए और फिर अजय की ज़िद के चलते उन्हें यह रिश्ता स्वीकार करना पडा था।
शाम को छत पर बैठी कांता सूरज को अस्ताचल में जाता देखती रही थी। ललछौंही किरणॊं से पीपल के पत्ते संवलाने लगे थे। पक्षियों के दल लौटने लगे थे। वे अपने मुँह में दाना-चुग्गा भर लाई थे, अपने शिशुओं के लिए. दाना-चुगा खिला देने के बाद वे आपस में बतियाने लगे थे। दूर-दूर तक उड कर जाते, फिर वापस लौट आते थे। शायद वे अपना कौशल दिखा रहे थे। सूरज अपनी किरणॊं के जाल को समेटकर पहाड़ के उस पार उतर जाना चाहता था एक सुरमयी अंधियारा-सा छाने लगा था। सारे पक्षी उसकी बिदाई में सांध्य गीत गाने लगे थे। बूढे पीपल के देह में झुरझुरी-सी भर आयी थी। वह भी तालियाँ बजा-बजाकर पक्षियों का उत्साहवर्धन कर रहा था...
अपनी अंतिम किरण समेट लेने से पूर्व, सूरज इस बात को देखता चला था कि उसका अपना परिवर आनन्दमग्न होकर गीत गा रहा है। सभी ख़ुशी में झूम रहे हैं। वह चाहता था कि इसी तरह सब कुछ चलता रहना चाहिए. वह इस आशा के साथ दक्षिणायन के पथ पर बढ चला था कि जब वह नए रूप में पूरब से उगेगा तो उसे उसका समूचा परिवार, इसी तरह आनन्द में डूबा मिले। हँसता-गाता मिले और पूरे जोश-खरोश के साथ उसका स्वागत करे।
छत पर सुबह-शाम टहलना-बैठना अब कांता कि दिनचर्या हो गयी थी। खगोलीय घटना को घटते देख उसे अपार ख़ुशी मिलती थी। पक्षियों की गतिविधियों को बारिकी से देखते रहने में उसे अपार प्रसन्न्ता होती थी। उसे यह जानकर बेहद ख़ुशी हुई थी कि भिन्न-भिन्न प्रजाति के मूक-पखेरु किस तरह आपस में हिलमिल कर रहते हैं। कैसे अपने परिवार को चलाते हैं, जहाँ लडाई-झगडा या फिर वाद-विवाद के लिए कोई जगह नहीं होती।
उसने देखा। पक्षियों के बच्चे जब अबोध होते हैं, अपने कोटर में ही रहते हैं। मादा, शिशु को चुगा-दाना देती रहती है। जब उनके पंख उगने शुरु होते हैं, तो वह उन्हें उडना भी सिखलती है। कभी-कभी तो वह अपने शिशु को घोंसले के बाहर धकेल देती है ताकि वे जल्दी उडना सीख जाएँ।
बच्चे जब जवान होते हैं तो अपनी पसंद का जीवन-साथी चुनते हैं। जोडा बनाकर ही वे गर्भाधान की प्रक्रिया अपनाते हैं। मादा के गर्भवती होते ही, दोनों मिलकर नीड बनाने में व्यस्त हो जाते है, तिनका-तिनका जोडकर घोंसला बनाया जाने लगता है।
नीड के बनते ही मादा अंडॆ देती है। उसे सेती है तब तक, जब तक शिशु बाहर नहीं आ जाता। अब नर पक्षी की ड्यूटी बनती है कि वह मादा कि देखभाल करे और उसके उदर पोषण की भी व्यवस्था करे।
उसने एक बात शिद्दत के साथ नोट की थी कि घोंसला केवल एक बार ही बनता है। उसका उपयोग बाद में नहीं होता। जब शिशु जवान होकर घोंसला छॊड चुका होता है, बेलगाम हवा उन घोंसलों को अपने थपेडॊं से तहस-नहस कर डालती है। अपने उजडते हुए घोंसलों को वे वैराग्यभाव से देखते जाते हैं। घोंसलॊं के प्रति उनका मोह तब तक बना रहता है, जब तक इनमें उनके बच्चे चहचहाते रहते हैं... " जिसे एक बार छॊड दिया, उसके प्रति फिर मोह कैसा? शायद यह निष्काम-भाव-वैराग्य का भाव, उन्होंने प्रकृति के सांनिध्य में रहकर ही सीखा होगा।
कांता को सूत्र मिल गया था। सूत्र इस प्रकृति की मूक भगवदगीता थी। वहाँ न तो अर्जुन था। न कौरवों की फ़ौज, । न वहाँ कोई मान-समान की भूख थी, न ही अपमानित होने पर प्रतिशोध के लिए धधकती ज्वाली थी, न राज था और न ही-ही पाट, वहाँ श्रीकृष्ण भी नहीं थे। होना भी नहीं चाहिए थे। वे वहाँ हो भी कैसे सकते थे। बिना सुने वे गीता का भाष्य सुन चुकी थीं। बिना देखे वे कृष्ण की उपस्थिति का अहसास भी कर चुकी थीं।
कांता ने रामप्रसादजी को छत पर बुलाया। कुर्सी पर बिठाते हुए प्रकृति की उत्तम व्याख्या कह सुनायी। नीड बनाते जोडॊं व नीड गिराती हवा को प्रत्यक्ष दिखलाने लगी थी।
रामप्रसादजी ने कांता कि आँखों में आँखें डालकर भीतर तक झांका। एक नीला, अनंत सागर, अन्दर अपने पूरे विस्तार के साथ फ़ैला हुआ था।
कुछ हद तक असहमत होते हुए भी उन्होंने अपनी सहमती प्रदान कर दी थी। वे इस बात पर सहमत हो गए थे कि अजय को भी अपना नीड बनाने की स्वतंत्रता है। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि सुबह होते ही वे अजय को बंधनमुक्त कर देंगे ताकि वह नीलगगन में अपनी उडान भर सके.
बादलों को बलात हटाते हुए एक नया सूरज आसमान के पटल पर मुस्कुराने लगा था।