अपने-अपने घोंसले / गोवर्धन यादव
सीढ़ियाँ चढते और उतरते समय उसके पैर अब जवाब देने लगे थे। किसी तरह वह घुटनों पर हथेली से दबाव बनाते हुए सीढ़ियाँ चढ़ तो जाती, वहीं सॉंसें भी फूलने लग जाती थी। उतरते समय मन के किसी कोने में एक अज्ञात भय हमेशा की तरह ही समाया रहता कि गिर पडेगी। एक-एक सीढी, पूरी सावधानी एवं सतर्कता के साथ उतरती, सबसे पहले अपनी हथेली से रेलिंग की पकड़ मजबूत करती, फिर आहिस्ता से पैर उठाकर नीचे की पायदान पर रखती, जब तक वह पूरी तरह से इस प्रक्रिया में सफल नहीं हो जाती, पकड़ ढीली नहीं होने देती थी।
हमेशा की तरह वह सीढ़ियाँ चढ तो गई पर सॉंसें धोंकनी की तरह चलने लगी थी। कुछ अंधेरा भी आँखों के सामने घूमने लगा था। दीवार से पीठ टिकाए वह सॉंसों को नियंत्रित करने लग गई थी। काफी देर बाद वह नार्मल हो पाई थी।
पास पड़ी कुर्सी को उसने अपनी ओर खींचा और सिर को कुर्सी से टिकाते हुए आसमाँ की ओर ताकने लगी थी। आसमान एकदम साफ था। सूरज एक ओर खड़ा मुस्कुरा रहा था। उसकी नजरें अब भी पूरे नीलाकाश की अपरिमित सीमा को नाप रही थी। दूर कहीं से भटकता हुआ एक बादल का टुकडा हवा में तैरता दिखा। धीरे-धीरे वह नजदीक आता चला गया। अब उसने सूरज को पूरी तरह से अपने आगोश में ले लिया था। काफी देर तक सूरज बादल के साथ आँख-मिचौली खेलता रहा। कभी लगता सूरज तेज गति से भाग रहा है तो कभी बादल, आँख-मिचौली का यह खेल भी, ज्यादा समय तक नहीं चल पाया और अब वह सूरज से हटते हुए दूर निकल गया था।
काफी देर तक आसमाँ अलसाया सा पसरा पडा रहा। तभी कहीं दूर से पंखेरूओं का एक झुण्ड हवा को चीरता हुआ आता दिखलाई पडा। जब वह काफी दूर था तो लगता था कि आसमाँ पर भुनगे भिन-भिना रहे हैं। क्रमशः वह झुण्ड नजदीक आता चला गया और डैनों को फडफडाते हुए वह ठीक उसके सिर पर से गुजरते हुए दूर निकल गया था।
उसकी नजरें अब भी आसमान से चिपकी हुई थी, तभी चिडियों का एक दल चिंचियाता हुआ बाउण्ड्रीवॉल पर बैठ गया। वह वहाँ से उड़ता तो दूसरी तरफ आकर बैठ जाता था। चिडियों की चें-चें भी उसका ध्यान भंग नहीं कर पा रही थी। तभी कुछ चिड्डे-चिडिया उसके नजदीक आकर अठखेलियाँ करने लगे। सहसा उसे ध्यान आया कि उसने तो चिडियों के लिए मुट्ठीभर दाने ले आई थी। मुट्ठियाँ खोलकर दानों को फर्ष पर बिखेर दिये। कुछ दाने उसकी हथेली से चिपके पडे थे। शायद हथेली पसीने से गीली हो आई थी। दोनों हाथों को आपस में मलते हुए उसे चिपके हुए दानों को झाड़कर साफ किया। चिडियों की टोली अब दाना चुगने में तल्लीन हो गयी थी। यह इसका प्रतिदिन का नियम ही था कि जब भी वह छत पर आती, पंखेरूओं के लिये दाना अवश्य लेकर आती है या फिर बची हुई रोटी ही जिसे वह हथेली से चूराकर बिखेर दिया करती थी। दाना चुगते समय वे आपस में चिंचिंयाने सी लगती थी, शायद कृतघ्नता जतला रही हों।
उसका मन अब अवसार से भरने लगा था। वह सोचने लगी थी कि मूक पंखेरू भी अपनापन बतलाने लगते हैं पर आदमी! आदमी कहीं से भी ऐसा नहीं करता। बल्कि समय आने पर वह दंश करने से अथवा चोट पहुचाने से नहीं चूकता। उसे अपने बेटों की याद हो आई थी। कितना क्या कुछ नहीं किया उसने अपने बेटों के लिए चार-चार औलाद होने के बाद भी आज वह नितान्त अकेली जीवन काट रही है।
वह और कुछ सोचे, तभी उसके कान से ढोलक की थापों की आवाज और मंजीरों के धमक के मिश्रित स्वर आकर टकराने लगे थे।
उसे सहसा ध्यान आया कि रामदुलारी सुबह ही आई थी और उसने अपने नाती के जन्म दिवस के अवसर पर आने का निमंत्रण डाल गई थी और वह यह भी कह गई थी कि आज बरसों बाद ऐसा सुनहरा अवसर आया है जब हम और तुम मिल-बैठकर गायेंगे-बजायेंगे। बात ध्यान में आते ही वह अपने आपको धिक्कारने लगी थी और मन ही मन कहने लगी थी कि उसे आज छत पर चढना ही नहीं चाहिए था, जितनी शक्ति उसने आज छत पर चढने पर खर्च की है, शायद उतनी ही ताकत वे चलकर रामदुलारी के यहाँ तक जा सकती थी। फिर नये सिरे से सोचती कि उसने छत पर आकर गुनाह ही क्या किया है। अगर वह छत पर नहीं आयी होगी तो ढेरों सारी चिडिया आज फांके मारती। फिर पल-पल बदलते दृय को देखकर वह अपने गम को भूल तो जाती है। रही बात रामदुलारी की तो वहाँ रोज-रोज गम्मत होती है।
कुछ बातें ऐसी भी होती है कि उनके संदर्भ में ढेरों सारी किताबें छाननी पडती है, कई पन्ने पलटने होते हैं, पर मन एक ऐसी लायब्रेरी है जहाँ पुरानी किताबों के पन्ने पलटने नहीं पडते। बस जरा-सा ध्यान लगाया कि एक-एक पल जीवंत हो उठते हैं। ढोल-ढमाके की आवाज सुनकर उसे अपने बीते दिन की याद आने लगी थी। एक-एक लम्हा उसकी आँखों के सामने साकार हो लगा था।
उसका घर मोहल्ले की औरतों से अटा पडा था। ढोलक ढमकाई जा रही थी, मंजीरे पीटे जा रहे थे। औरतें घेरा बनाए बैठी झूम-झूमकर गा-बजा रही थी, इस दिन उसकी बहू का सतवासा किया जाना था, गर्भधारण किए हुए सात माह हो गए थे उसे। इस दिन को शुभ मानकर घर में उत्सव मनाया जाता है।
सास ने पूरे मुहल्ले को न्यौत आई थी, माँ-बाबूजी भी आए थे। आज के दिन मंगल-गीतों के चलते ही उसे नए कपडों में खूब सजाया संवारा गया था। फिर ननद के हाथ पकड कर वहाँ ले आई थी, जहाँ घर में गाना-बजाना चल रहा था उसे एक पीढे पर बैठा दिया गया था। सामने एक मंगलदीप सिलगा दिया गया था। कुछ छोटे-मोटे नेंग-दस्तूर के बाद उसकी ओली भरी जाने लगी थी। बडी-बूढी आशीषें देंगी- फूलो-फलो, दूधो-नहाओ के ढेरों सारे आशीषों की बौछारें होने लगी थी। बारी-बारी से वह सभी के चरण-स्पर्श भी करती जाती थी। पूरा दिन उत्सव मनाने में बिता, तबसे कुछ ज्यादा ही अपने होने वाले बच्चे के बारे में सोचने लगी थी। बच्चे होने की कल्पना मात्र से वह उस दिन रोमांचित हो उठी थी। जब उसे बतलाया गया कि वह माँ बनने वाली है, शायद इस बात की विधिवत घोशणा की जा चुकी थी। हालॉंकिवह स्वयं भी जानती थी कि वह पेट से है और यह होना भी निश्चित था क्योंकि माहवारी जो नहीं आई थी।
तबसे वह सुबह-षाम हर पल अपने होने वाले बच्चे के बारे में सोचते रहा करती, ऐसा होगा... वैसा होगा... बडी-बडी आँखें होगी... गोरा-नारा होगा... आदि, आदि। उसका अपना कल्पना संसार औरों से निराला ही था। वह दिन भी शीघ्र ही आ उपस्थित हुआ। जब उसने एक नन्हें शिशु को जन्म दिया था। उसकी बडी-बडी आँखों को देखते हुए उसने मन में गॉंठ बॉंध ली थी कि उसका नाम वह राजीव ही रखेगी। भले ही उसका जन्म नाम किसी अन्य अक्षर से निकले। राजीव अपनी हरकतें तेज करें इसके पूर्व ही उसे दूसरे गर्भ की चिन्ता सताने लगी थी। एक साल के अंतराल में उसने चार शिशुओं को जन्म दिया था। नाम भी सभी के प्यारे-मनभावन ही थे। पहला राजीव, दूसरा नीरज, तीसरा सूरज और चौथा सुन्दर।
बडी-बूढी अक्सर कहती ष्कुसुम तेरा नाम कुसुम नाहक ही रखा है, तेरा नाम तो कौशल्या होना चाहिये था... कौशल्या और वह फूली नहीं समाती थी, घर का कोना-कोना खुशियों से भरा पडा था। कब दिन ढलता और कब रात बीत जाती, पता ही नहीं चल पाता था।
खुशियों से आँगन महमता-दमकता ज्यादा दिन नहीं रह पाया। एक ऐसी घनी अंधेरी रात भी आई जिसमें उसे सारे चमकते दिन सदा-सदा के लिए लोप हो गए थे। उसके बाद वह सूरज उगा ही नहीं जो उसकी अंधेरी रातों को उजास से भर दें। केवल एक ही आशा अथवा अंतिम किरण मन में शेश थी कि किसी तरह चारों की परवरिश ढंग से हो जाए उन्हें ऐसा मकाम मिल जाए जहाँ पलटकर फिर कालिख अपनी जगह न बना सके।
सर ढकने को खपरेल वाली छत व दस-बारह एकड जमीन पास थी जो पेट के गड्ढे को पूरी तरह भर सकने में असमर्थ थी। मुख्य कारण तो यह था कि उसने जीवन के जीवित रहते हुए कभी उसर भूमि पर पैर ही नहीं रखा था। चाहती तो वह भी थी कि प्रत्छाया बन कर खेतों में काम करती रहे। पर वह उसे गंवारा नहीं था। नहीं जान पाई थी वह कब क्या बोना-उडाना है। कब नींदना-बखराना है। बटाईदार ने जो काट कर ले आया-सो ले आया। वह कितना माल मार रहा है। कितना जानवरों को खिला रहा है। उसका वह जाने। पर वह इतना ही जान पाई थी कि इतनी बडी जमीन उन पांचों का पेट नहीं भर पायेंगी। काफी समय तक तो उसने कपडा सिलकर तो कभी स्वेटरें बनाकर घर की गाडी खीची। पर लगता कि अब वह भी ज्यादा दिन खींच नहीं पायेगी।
पत्थर हो चुके दिल पर एक बडी सी चट्टान और रखते हुए-उसने खेत बेच दिया। लोग-बाग कहते, पगला गई है, जो बनी बनाई सम्पत्ति थी, उसे गण्डे में बेचने में जुटी है। कोई कहता और दिन सबर रखो। ज्यादा में बिकेगी पर उस पर क्या बीत रही थी वह उसका वह ही जान पाई थी, ज्यादा भरोसे एवं दिलासा के बोलों से वह तंग आ गई थी। अपने गिरधर की मूरत के सामने बैठकर वह बार-बार रोई थी और अच्छे दिन फेर लाने के लिए गुहार लगाती रही थी। अब उस पर भरोसा जतलाते हुए खेत नाप दिया था। जब तक जीना है तब तक सीना है। जो भी करना है, खुद के दम पर करना है। निर्णय गलत-सलत हों पर निर्णय खुद के हों। वह जान चुकी थी कि वह जो भी करने जा रही है उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार भी होगी। जब आदमी करो या मरो का निर्णय ले चुका होता है तब ही सफलता हाथ लगती है। शायद वह यह साबर मंत्र जान चुकी थी।
पुराना मकान ढहाया जाने लगा था और उसकी जगह सीमेंट कांक्रीट की ठोस आकृति उसकी जगह लेने लगी थी। दूसरी मंजिल पर उसने अपना आवास बना लिया था और शेश किराये पर उठा दिया था। उसने मन ही मन में गुणा भाग लगाकर ज्ञात कर लिया था कि आमदनी पहले से कहीं ज्यादा होने लगी थी। खेत को जब वह ठेके पर देती थी तो मुश्किल से दो हजार की रकम इकट्ठी हुआ करती थी जबकि इससे कहीं उपर वह मासिक किराया ले रही है। उसने अब पूरे जतन के साथ अपने बच्चों को पढाने-लिखाने और उन्नति के सोपान बढाने के पुनीत कार्य में जुट गई थी।
समय अपने डैने फैलाए द्रुतगति से उडा चला जा रहा था। बडे ने आई.एस.एस. करके विदेश जा चुका था। दूसरा कलेक्टर होकर, तीसरा सांख्यिकी अधिकारी व चौथा तहसीलदार होकर अन्यत्र चले गए थे। शेश बची रही वह अकेली खटने के लिए। ऐसा नहीं था कि वह बच्चों के पास रहने नहीं गई थी गई तो थी पर कटु अनुभव लेकर लौटी थी और उसने प्रण कर लिया था कि वह कभी भी किसी के भी पास जाकर नहीं रहेगी।
पुरानी यादें ताजा होते ही मन विषाद से घिरने लगा था। दुःख का घनत्व कुछ ज्यादा ही होता है, तभी तो सारे समय अंदर गहरे तक पसरा पडा रहता है। दुःख काफी हलका इत्र की तरह होता है जो जल्दी ही हवा के संग उड जाता है। दुःख के दरिया में पूरी तरह डूबने से तो अच्छा होगा कि पडोस में होने जा रहे कार्यक्रम में शामिल होकर वह सब कुछ भूल जाने की कोशिश करे। वह यह भी अच्छी तरह जानने लगी थी कि दुःख का एक ऐसा कीडा होता है जो तन को धीरे ही सही, पर पूरी तरह से कुरेद-कुरेद कर खोखला कर देता है। दुःख के कीडे को मारने का केवल एक ही तरीका है कि वह उसे भूल जाए। पर क्या भुला पाना भी इतना आसान होता है। उसने मन ही मन अपने से कहा था।
ढोल धमाके की स्वर लहरी कानों से आकर टकराने लगी थी। कुछ सामान्य होते हुए उसने देखा-सूरज पहाडों के पीछे उतर जाने के लिए व्यग्र हो रहा है और अपनी किरणों का जाल लपेटे की तैयारी में जुटा है। सामने पीपल के पेड पर पखेरू इकट्ठे होकर शोर मचा रहे हैं और पूरा आसमान सिन्दूरी रंग में नहा उठा है। वह उठ बैठी और आहिस्ता-आहिस्ता सीढियाँ उतरने लगी थी।
जब वह वहाँ से लौटी तो एकदम तरोताजा थी, अब वह अपने कमरे में बढने के लिए सीढियाँ चढने लगी थी। हथेली से घुटनों को दबाते हुए वह सीढियाँ चढ रही थी। दर्द की टीस ने उसे अंदर तक लहूलुहान कर दिया था। उसने मन ही मन सोचा कि अब वह दूसरी मंजिल पर न रहकर नीचे किसी कमरे में आकर टिक जाएगी। संभव हो तो किसी किरायेदार को कमरा खाली करने को भी कह देगी। ताला खोलकर अंदर प्रवेश करते हुए उसने स्विच ऑन कर दिया, पूरा कमरा अब दूधिया रंग से दमकने लगा था।
पलंग पर बैठकर सुस्ताते हुए वह अपने आप कह उठी हूँएक अकेली जान के लिए क्या खाना-क्या पकाना,उसने निर्णय ले लिया था कि वह अब चूल्हे-चौके में घुसकर समय नष्ट करने की बजाय बैठकर रामायण बाचेगी और एक ग्लास दूध पीकर सो रहेगी, पूजा-घर से वह रामायण उठा लाई और चश्मे के कॉंच को साडी के पल्लू से पोंछते हुए कान पर चढाकर रामायण बांचने लगी।
राम-लक्ष्मण, भरत-शत्रुघ्न के चरित्र बांचते-बांचते उसे अपने चारों बेटों की याद ताजा हो आई। मन फिर विषाद से घिरने लगा था, यादों की हिमशिलाएं, दुःख की उष्मा पाकर पिघलने-सी लगी थी। अंदर एक बवण्डर सा उठ खडा होने लगा था। अब तो ऐसा भी लगने लगा था कि यह तूफान सब कुछ नेस्तानाबूत कर देगा। उसकी एक-एक परत-दर-परत उखाड फेंकेगा। उसे ऐसा महसूस सा होने लगा था कि अंदर अब कुछ दरकने लगा है और उसकी किरचिंया माँस-पेशियों को छेदने लगी है। वह अब एक नए सिरे से सोचने लगी थी कि क्या कुछ नहीं किया था उसने अपने बच्चों के लिए। अपने जीवन का अर्क निचोड-निचोड कर पिलाया था, सभी को। उन्हें अच्छे संस्कार दिये थे और समाज में सम्मान से जीने का मार्ग दिखाया था, सब कुछ व्यर्थ ही गया, नेक काम करते-करते उसकी हथेलियों की रेखाएं तक घिस चुकी थी, शायद अब काली भी पडने लगी थी, उसने अपनी हथेलियों को फैलाकर देखा-सचमुच काली दिखने लगी थी। न चाहते हुए भी उसे वे क्षण याद हो आये जब वह बनी-ठनी अपने बडे बेटे के पास विदेश गई थी। उसकी शान-शौकत देखकर वह फूली नहीं समा पा रही थी। लगता था कि उसकी बगिया में असंख्य फूल खिले हैं, असलियत जब सामने आई तो लगा कि फूल तो फूल ही थे पर उनमें खुशबू थी ही नहीं। विदेशी बहू फूली-फूली सी दिखती। बोलती तो लगता था कि बादल फट रहे हों, गिटिर-पिटिर, पता नहीं क्या-क्या। उसका परिचय अपनी सहेलियों से बतलाते हुए उसने सर्वेन्ट शब्द का इस्तेमाल किया था। तब तो वह नहीं जान पाई थी कि आखिर सर्वेन्ट है किस बला का नाम। वह तो उसे सुनकर भी खुश हो रही थी कि वह मेरे शान में कसीदा पढ़ रही होगी। दोनों के वे रूखे व्यवहार को देखकर वह वापिस लौट पडी थी और यहाँ पहुचकर किसी से पूछा था कि सर्वेन्ट का अर्थ क्या होता है। अर्थ जानकर लगा था कि धरती फट जाती और वह उसमें समा जाती। पर क्या धरती ऐसे ही रोज-रोज फटती है। उसने मन में गॉंठ बांध ली थी, दुबारा वह उस धरती पर कदम भी नहीं रखेगी, जहाँ सब कुछ कदम-कदम पर छद्म भरा हुआ है। उसे हर चीज से नफरत-सी हो गई थी, जिसमें उसका संस्कारी लडका अपने शरीर से चिकाये पडा है। उसे तो वह घटना भी याद हो आई जब वह वापिस लौटी थी तो लोगों ने वहाँ के हालचाल जानने चाहे थे। वहाँ के ग्लैमर के बारे में सुनना चाहते थे। पर उसने चुप्पी साध ली कि पता नहीं क्या गिटिर-पिटर करते हैं वहाँ के लोग, जो समझ से बाहर के थे। खान-पान में माँस व शराब का ज्यादा सेवन करते हैं। वहाँ की औरतें सरेआम अपनी छातियाँ दिखाती घूमती हैं, वहाँ हम और कहाँ वहाँ की अधकचरी संस्कृति। न मुझ से रहा गया, न देखा गया, बस चली आई वापिस। इसके बाद से न तो लोगों ने कुछ पूछा और न ही उसने कुछ बतलाया ही। क्या वह यह बतलाती कि वह वहाँ नौकरों की हैसियत से रह रही थी। क्या वह यह बतलाती कि उसके लडके को बात करने तक की फुर्सत नहीं मिलती थी, क्या वह बतलाती कि उसने जितने भी संस्कार घुट्टी में मिलाकर चटाये थे, सब बेअसर रहे।
दूसरे और तीसरे बेटे के यहाँ भी माहौल कुछ ऐसा ही था। पर कुछ भिन्न-किस्म का था, बहू-बेटे सब मिलते तो तबियत से थे, पर उनमें बासीपन था। लगभग बनावटी अथवा दिखावा ही था। दरअसल समय की बडी कमी थी उनके पास। न बेटे के पास समय, न बहू के पास, हाय-हलो कहके घर से निकलते थे, फिर कब घर लौटते थे, वह नहीं जानती। उनके नौकर-चाकरों के बीच बैठती तो उनकी प्रेस्टीज खराब होती थी। न वहाँ कोई बोलने-बतियाने वाला था, न आत्मीयता दिखलाने वाले जन। सुबह से शाम तक नियम, कायदे-कानून, यस सर-नो सर वालों की भीड, लौट पडी थी वहाँ से भी उदासी ओढकर।
चौथे के यहाँ जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। माना कि उसने अब तक तीनों की तरह अंतर्जाति-विवाह नहीं किया था। उसकी यह धारणा ज्यादा पुष्ट हो आई थी कि जब चारों को ही उसने संस्कारित किया था, तीन उसमें खरे नहीं उतरे तो चौथा भी लगभग उन तीनों जैसा ही हो सकता है। काफी रात बीत चुकी थी। नींद अब भी आँखों से कोसों दूर थी। अंदर तोड-फोड-कोहराम मचा हुआ था। जी में तो यहाँ तक भी आया था कि रो लू, अंदर आँसुओं की बाढ आ रही थी और वह नहीं चाहती थी कि पलकों के तटबंध उसमें डूब जाएं। बहुत रो चुकी वह, जब उसका सूरज सदा-सदा के लिए उसे तन्हा-अकेला छोड गया था। बस, रोई थी उसी के याद में और जितने आँसू बहा सकती थी, वह बहा चुकी। अब न तो आँसुओं का कोई मोल ही रह गया है, न ही महत्व और फिर उनके लिए क्या आँसू बहाना, जो अपने न हो सके। आँसुओं के उमडते-घुमडते सैलाब को वह अपने आतप्त हृदय में समाती चली जा रही थी।
अपने अतीत की गहरी-अंधी खाई में उतरकर वह नुकीली चट्टानों से टकराती अपने-आपको लहूलुहान करती रही थी। कितनी देर वह इसमें भटकती रही थी। वह स्वयं नहीं जान पाई थी और कब नींद के आगोश में समा गई थी, वह नहीं जानती।
जब दूसरे दिन सोकर उठी तो सूरज सर पर चढ आया था। उसने आईने के सामने जाकर खडेहो कर देखा। आँखें सूज आईं थीं, चेहरा निस्तेज सा था। वह बाथरूम में जा पहुची। मल-मलकर शरीर धोया, तब जाकर लगा कि सारा शारीरिक कलुश धुल-धुलकर बह गया है, पर मन का कलुश तो अब भी चिपका पड़ा है।
खाना खाकर वह छत पर चढने लगी थी। पैर अब भी जवाब दे रहे थे। उपर छत पर बैठना उसकी मजबूरी थी। शायद नहीं भी। क्योंकि वहाँ बैठने से जो उसे पुरजोर सुकून मिलता है, वह वहाँ बंद कमरे में बैठने से नहीं। छत पर उसकी अपनी चिडियों की टोली है, खुला असीम आकाश है। बेदाग-एकदम शांत हल्का-फीका नीलापन लिए हुए, जो देखने में सुकून देता है। ओढ़ने में सुखदेता है। हल्की अथवा तेज चलने वाली हवा, शरीर से लिपट कर ठंडक तो देती है। बाहर पीपल का बूढा पेड है। वैसा ही बूढा जैसी कि वह स्वयं है। बात-बात में वह ताली बजाता रहता है, हॅंसता रहता है, डोलते रहता है। उसकी शाखों पर अब भी पक्षी वास करते-चहचहाते हैं। उसके अपने संगी-साथी है, उन्हीं के शब्दों को ओढता-उन्हीं की भाषा में तुतलाकर बातें करता। बूढ़ा पीपल अब भी जीने की राह दिखाता। हॅंसकर कहता, जड हूँ फिर भी जिन्दा हूँ, तू चल-फिर सकती है फिर भी अंदर से जड हो गई है। बार-बार चेताता, बार-बार हॅंसता-हॅंसाता।
छत पर चढते समय उसकी हाथों में सोमी अली की एक किताब थी। वह एक पक्षी विशेशज्ञ था। बहुत बारीक अध्ययन किया था उसने पखेरूओं का। धूप में कुर्सी पर बैठते हुए वह सोमी अली को पढ रही थी।
सोमी अली की एक बात उसके मन को छू गई। लिखा था कि पक्षी जब अपना जोडा बनाता है, तो अण्डे देने के लिए दोनों नर-मादा तिनका-तिनका जोडकर घोंसला बनाते हैं, घोंसला बन जाने के बाद मादा उसमें अण्डे देती है, घण्टों बैठकर अण्डों को सेती है, फिर अण्डों के फूटते ही बच्चे बाहर निकल आते हैं। दोनों मिलकर बच्चों को दाना-चुग्गा देते हैं। बच्चे जब तक बडे नहीं हो जाते, वे घोंसले का उपयोग करते रहते हैं। जब बच्चे उडना सीख जाते हैं, तो घोंसले की उपयोगिता नहीं रह जाती। जब वे बच्चे जवान होते हैं तो अपना जोडा स्वयं बनाते हैं और अण्डे देने के लिए फिर से एक नया घोंसला, पुराना घोंसला अपने आप ही बिखर जाता है। इस तरह हर पक्षी अपने-अपने घोंसले बनाते हैं। उनका उपयोग करते हैं, फिर हवा उन्हें तिनकों में बिखेर देती है।
उसे ऐसा लगने लगा था कि मन की बंद खिडकियाँ चरमराकर खुलने लगी है और ढेरों सारा प्रकाश अंदर उतरने लगा है।