अपने-अपने चेहरे / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
कथासार / समीक्षा
सन् १९९६ में किताबघर, नई दिल्ली से प्रकाशित प्रभा खेतान का 'अपने-अपने चेहरे` उपन्यास अपनी जमीन तलाशती हुई स्त्री की कहानी है। अन्य रचनाओं की मानिंद इस उपन्यास में भी लेखिका के स्वयं के जीवन की घटनाओं के अंश भी मौजूद हैं।
उपन्यास की मुख्य स्त्री पात्र रमा विवाहित पुरुष राजेन्द्र गोयनका से प्रेम करती है। रमा राजेन्द्र के परिवार को खुश रखने के लिए हर संभव प्रयास करती है। वह जितना त्याग उसके लिए कर सकती है, उससे भी ज्यादा त्याग करने के प्रयास हमेशा करती है, फिर भी राजेन्द्र का परिवार उसे नहीं अपना पाता। रमा हमेशा उन लोगों को बाहरी लगती है। समाज उसके चेहरे पर दूसरी औरत होने का लेबल चिपका देता है। हर कहीं उसकी तरफ नजरें उठती हैं और उन नजरों में वह दूसरी औरत होती है।
रमा इस दूसरी औरत की भूमिका से निकलने का प्रयास भी करती है। वह अपना अस्तित्व स्थापित करने के लिए रात-दिन परिश्रम करती है, अपने व्यापार को मजबूत करती है, अपना अलग घर बनाती है। रमा बिना पति और बच्चों के भी पूर्ण स्त्री है और अपने नौकरों के साथ प्यार से रहना उसे परिवार की पूर्णता देता है।
पत्नी, बेटे, बहू, पोते सहित राजेन्द्र गोयनका का भरा-पूरा घर है मगर वह परिवार नहीं बन पाता। कोई एक-दूसरे के लिए नहीं जीता, सब अपने-अपने कोने ढूंढ़ते हैं। किसी को किसी से प्यार नहीं। एक छत के नीचे भी अजनबियों की भांति रहते हैं।
रीतू (राजेन्द्र की बेटी) १८वर्ष अवधि की शादी के बाद अपना घर छोड़कर आ जाती है। उसके पति कुणाल के जीवन में भी दूसरी औरत है। अपने ही पिता के घर रीतू का कोई सहयोग नहीं करता, सब अपनी-अपनी असमर्थता बताते हुए पीछे हट जाते हैं। अंत में रमा ही रीतू को अपनाती है, वही उसका सहयोग करती है।
मूल रूप से इस पुरुष-सत्तावादी समाज में स्त्री सुखी नहीं है, वह शोषित होती है- कभी रमा के रूप में, कभी मिसेज गोयनका के रूप में तो कभी रीतू के रूप में। इन सबके बीच लेखिका ने बड़े सलीके से यह साबित करने का प्रयास किया है कि पुरुष की खोज से अलग हटकर स्त्री अस्तित्व का निर्माण कर सकती है और उसके पास पूरी दुनियां मौजूद रह सकती है। स्त्री स्वयं की पहचान भी होनी चाहिए। वास्तव में प्रभा ने इस पूरे उपन्यास में स्त्री को सशक्त होने का संदेश दिया है। आगे बढ़ने के लिए स्त्री के अपने पैर मजबूत होने जरूरी हैं। न सिर्फ पैर ही, जिस जमीन पर स्त्री खड़ी है वो जमीन भी उसकी स्वयं उपार्जित हो तभी वह पुरुषवादी सत्ता का सामना कर सकेगी। यही बात प्रभा अपने एक पात्र से कहलवाती हैं-
पुरुष की जमीन पर खड़े होकर पुरुषों के खिलाफ बोलोगी तो उठाकर फेंक दी जाओगी। अपनी जमीन तैयार करो।``
स्त्री अपना कमाने भर से स्वतंत्र नहीं हो जाती। जरूरत तो स्त्री के प्रति सदियों से बनी इस परिवार व्यवस्था की सोच में परिवर्तन लाने की है। औरत उस अवस्था से उबरे, जिसमें स्त्री को हर प्रकार से कमजोर माना जाता है। जब स्त्री स्वयं अपने-आप को इन भ्रमों के मायाजाल से ऊपर उठकर स्वतंत्र समझेगी तभी वह मुक्त हो पायेगी। ऐसा ही कुछ इस उपन्यास का एक पात्र कहता है-
मुक्ति केवल आर्थिक नहीं होती। जरूरत तो है कि औरत अपनी मानसिक जकड़न से निकले।``