अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल

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लाला जी छिटक कर एक ओर जा बैठे। क्षण भर सोचने के बाद फिर उठे चिलम भर कर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। हुक्के के श्वास-निश्वास की धमाचौकड़ी से स्पष्ट झलकता था कि लाला जी के मन में कोई बहुत बड़ा तूफान उठ खड़ा हुआ था जिसे वह नियन्त्रण में नहीं ला पा रहे थे। अस्तित्व की नपुंसकता ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया था।

यह संयोग मात्र ही था कि उनके तीनों लड़के आज अचानक उनसे मिलने आ गए थे। लगभग ग्यारह बजे होंगे जब मंझला लड़का अशान्त अपनी पत्नी सहित आ पहंुचा था। पिता के चेहरे पर उदासी के चिन्ह देखकर उसे दुःख हुआ परन्तु फिर स्थिति की गम्भीरता एवं सम्बन्धों की तरलता को समझता हुआ वह चुप ही रहा। माँ ने तुरन्त चाय के पानी रख दिया तथा फिर अपने पति से बोली- कुछ नमकीन ले आओ।


लाला जी ने आग्नेय नेत्रों से अपनी पत्नी की ओर देखा। फिर बाले- नमकीन? अपना सिर देकर ले आऊं? आज पन्द्रह हो गई है परन्तु साहिबजादों में से किसी को भी ध्यान नहीं आया कि पैसे भेज दें। जैसे इनके बाप ने रोकड़े जमा कर रखी हों।


‘तो कर लेते रोकड़ें जमा। किसी ने रोका था क्या? मुझे भी तुम्हारी वजह से ही लड़कों को मुंह ताकना पड़ता है।’ माँ के स्वर में खीझ थी।

‘अशान्त से बहुत आशाऐं थीं परन्तु इसने सब कुछ गड़मड़ कर दिया। योवन मैं मैंने जो भविष्य का सपना संजोया था, वह चकनाचूर कर दिया। पति-पत्नी दोनों लगभग दो हज़ार रुपये प्रति माह कमाते हैं, परन्तु माँ-बा पके लिए पचास रुपये से ज्यादा कभी एक कौड़ी नहीं निकालते।’ लाला जी का अभी मूड था भाषण देने का परन्तु उनकी पत्नी स्थिति को भाँपते हुए दो का नोट निकाल कर दे दिया।

लाला जी के चेहरे पर क्षण भर के लिए सन्तोष फैल गया और वह नमकीन लेने बाजार चले गए। माँ ने स्थिति की गम्भीरता को हल्का करने के लिए कहा- बेटा, अपने पिता की बातों का बुरा नहीं मानना। इन को तो ऐसी आदत ही लग गई है। किसी भी बात से सन्तुष्ट नहीं होते। जरा-जरा बात पर झगड़ा। यह तो मैं ही हूँ जो काट रही हूँ। कोई ओर होती तो कब की चली गई होती।

अशान्त अपनी माँ की दार्शनिक मुद्रा पर खुब कर मुस्करा दिया। उसने यही वार्तालाप माँ से पिछले पन्द्रह साल में कई बार सुना था। बहु को भी हंसने की मुद्रा बनी परन्तु वह हंसी को टाल गयी।

अभी चाय बनी ही थी कि अशान्त का छोटा भाई आ पहुंचा। सुभाष के आगमन से लाला जी का चेहरा खिल उठा। वही तो है तीनों में से जो माँ-बा पके खान-पान पर अथिकाँश खर्च करता है। उस के आने से वैसे भी घर चहकाने लगता है।

भाभी ने देवर से कहा- तुम्हें लड़की पसन्द आ गई, हमें आश्चर्य हुआ, बधाई हो।

सुभाष ठहका लगाकर हंसा। फिर गम्भीर होता हुआ बोला- मुझे तो अब भी लड़की पसन्द नहीं। हाँ, पिता जी को पसन्द है।

‘अरे विवाह तुम करवा रहे हो, पिता जी नहीं।’ अशान्त ने तीर छोड़ा। ‘अपनी लड़कियों जैसी तो है।’ माँ ने बीच-बचाव किया। ‘पता नहीं आजकल के लड़के अपने आप को क्या समझते हैं पाँच सौ रुपये क्या मिलने लगता है, बस दिमाग ही आसमान पर चढ़ जाता है। इतने नखरे इस सुभाष ने कोई चालीस-पैंतालीस लड़कियां देखी होंगी और पसन्द कोई नहीं। लड़की का कद इतना होना चाहिए, रंग रूप ऐसा हों, नाक इतनी लम्बी हो, कान बाहर निकले हुए न हों, मुख पर कोई दाग न हों, रंग गुलाब की तरह दहकना चाहिए......... और न जाने क्या-क्या। जैसे लड़की आर्डर दे कर बनवानी हो। अशान्त। इसे कहो यह शीशे में अपनी शक्ल तो देख ले।’ लाला जी फुँफकारते हुए कहा।

सुभाष ने चीरती नजर से अपने पिता को देखा तथा कुछ सोचते हुए कहा- पिता जी, आप पढ़े लिखे होकर भी अन-पढ़ों सी बाते करते हैं। वक्त को भी पहचानना चाहिए। बेटा मैं वक्त से पिछड़ गया हूँ। क्योंकि मेरी गाँठ में पैसे नहीं, इस लिए मैं अनपढ़ हो गया हूं। वाह बेटा। इसी दिन की प्रतीक्षा में तो मैं बूढ़ा हो गया। जानते हो सन् अठाईस में सारे क्षेत्र में मैं ही केवल बी. ए. पास था। रात नाथ के लड़के को मैंने ही इंग्लैण्ड जाने की सलाह दी थी। अब देखो राम नाथ के पुत्र एवं उसके पौत्र कितना धन कमा कर लाए हैं। कई पीढ़ियाँ बिना कमाएं आराम से बैठी खा सकती हैं। और आज यह छोकरा ही मुझे वक्त को पहचानने का उपदेश दे रहा है। ‘तो ठीक ही तो कहता है। राम नाथ के बेटे को इंग्लैण्ड भिजवा दिया और अपना बना बनाया पासर्पोट भी रद्द करवा दिया क्योंकि समुद्र पार जाने में तुम्हें डर लगता था। कहीं जहाज डूब गया...... फिर सारे यात्री घुट-घुट कर मर जाएंगे। वाह रे कल्पना के पंखों पर उड़ने वाले। न अपना कुछ बनाया और न ही मेरा।’ कह कर माँ रुआँसी हो कर उठ गयी।


‘मेरी तो कई बार इच्छा होती है कि सिर में राख डाल कर स्त्रूं सन्यासी बन जाऊं....... खो जाऊं....... इसकी शक्ल भी न देखूं। लाला जी ने आहत स्वर से कहा। दोनों बेटे शान्त बैठे थे। माँ ने लाला जी की बात सुन ली थी। उनके पास जाकर बोली- चलो राख में दे देती हूं। ये धमकियां सौ बार सुन चुकी हूं।

‘हां हाँ तू तो यही चाहती है कि मैं घर-बार छोड़ कर चला जाऊं ताकि तुझे मन्दिरों में घूमने, नाचने-गाने को स्वतन्त्रता मिल जाए। मैं कहता हूं, घर मैं बैठकर ही पूजा क्यों नहीं कर लेती। भगवान का वास मन में होता है। नाचने गाने से वह ज्यादा प्रसन्न नहीं होंगे।’

‘तुम तो नास्तिक हो। सत्तर साल के हो गये हो कभी परमात्मा का नाम लिया, कभी मन्दिर नहीं गये। सारा दिन हुक्का गुड़गुड़ाते रहते हो।’ ‘तो तुम्हें मेरा हुक्का भी बुरा लगता है। सारे दिन में दस पैसे का तम्बाकू खत्म नहीं होता। पैसे की वजह से तो मैं सिगरेट नहीं पीता। अब यह हुक्का भी तुम्हें भारी लगने लगा। मैंने कब सोचा था कि मेरा बुढ़ापा ऐसा निकलेगा... पता होता तो भविष्य का गला पहले ही घोंट देता।’ ‘पिता जी, जब भी हम घर आते हैं तभी आप व्यर्थ की बातें ले बैठते हैं। इसीलिए... कहता कहता अशान्त चुप हो गया।

‘इसीलिए तुम यहाँ नहीं आते, यही न? लेकिन मैं सब जानता हूं ये सब बहाने हैं। तुम अपने ससुराल में पन्द्रह दिन पड़े रह सकते हो परन्तु अपने माँ-बाप के पास एक रात नहीं काट सकते। तुम्हें कमरे में दुर्गन्ध आती है, यहां जगह की तंगी लगती है... मैं पूछता हूं जब तुम तीनों भाई तथा चारों बहनें यहीं रहते थे...तब, तब भी तो यही घर था... और अब... कहते-कहते लाला जी रुक गये।

अशान्त ने जब कहा कि दुनियाँ भर के लोगों ने अपने-अपने मकान बना लिए हैं लेकिन लाला जी ने दो कमरे भी नहीं बनवाए तो लाला जी कराह उठे- मैंने अपनी सब कमाई तुम्हें खिला दी। तुम्हें देखूंगा जब बड़ी बिल्डिंग बना लोगे।

घर में शान्ति व्याप गयी थी। कहीं कुछ भी शेष नहीं था कहने को। सब कुछ बाँध तोड़ कर पहले ही बह निकला था। हाँ, लाला जी डयोढ़ी में चले गये थे। हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे तथा बीच-बीच में कुछ अस्पष्ट स्वरों में बड़बड़ा रहे थे...जवानी यों ही काट ली। व्यर्थ में सारे पैसे इनके लिए खर्च कर दिए। सोचा कुछ और ही था। हुआ कुछ और ही। बुढ़ापा। हाय, बुढ़ापे में बेटे भी साथ छोड़ जाएंगे... कभी कल्पना भी न की थी।

शायद दोनों भाई अन्दर बैठे पिता की अस्फुट बड़बड़ाहट को सुन रहे थे। अशान्त ने सुभाष से कहा- जब भी आओ, पैसों के लिए झगड़ा आज तक इन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि सब ठीक है, अच्छा है। सुभाष ने गहरी आँखों से अपनी भाई की ओर देखा तथा कहा- लेकिन आप पैसे भी तो नाम-मात्र ही भेजते हैं। फिर ऐसी स्थिति में सारा बोझ मुझे उठाना पड़ता है। मैं तो थक गया हूं, क्या करूं एक नया पैसा नहीं बचता। अशान्त ने विस्मय से अपने छोटे भाई की ओर देखा परन्तु वह बोला नहीं। माँ ने तीनों की ओर दीन-हीन नज़रों से देखा।

दोपहर तक तीसरा भाई आ गया। माँ ने वर्षों बाद अपने तीनों बेटों को एक साथ देखा था। वह क्षण भर के लिए खिल गयी सब अभाव भूल गयी परन्तु लाला जी की निराशा बढ़ गयी लगती थी। जब सब ने खाना खा लिया तथा बातचीत के लिये सभी लाला जी के आस-पास बैठ गये तो लाला जी ने सब से बड़े पुत्र रमेश की ओर देखते हुए पूछा- कोई फैसला हुआ? ‘कैसा फैसला?’ रमेश ने आश्चर्य व्यक्त किया। ‘रिइन्सटेट हो गये या अभी नहीं?’ ‘... रिइन्सटेट का अभी कहां प्रश्न है। अभी चार्जशीट भी नहीं हुआ।’ रमेश ने कहा। ‘चार्जशीट? क्यों क्या बात हो गयी? पहेलियां क्यों डालते हो साफ बताओ।’ अशान्त ने अधीर स्वर में पूछा। सुभाष भी मानों आसमान से नीचे गिरा। उसने कुछ भी न पूछना ही उचित समझा। लाला जी ने फिर कहा- जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह तूने कर दिखाया। भला नौकरी में भी कभी नखरे चले हैं। ‘तो मैं चुपचाप मार खा लेता,’ रमेश गुर्राया।

‘‘तुमने उसे कुछ न कुछ कहा होगा अन्यथा वह मूर्ख तो है नहीं जो व्यर्थ में इतना फसाद खड़ा करता।’ लाला जी को रमेश पर विश्वास नहीं हो रहा था। ‘उसने मुझे चोर कहा। जब कि स्वयं वह चोर है। कापियां दो-गुने दाम पर बेचना चाहता था, मैंने कहा- मैं अपनी कक्षा को तुम्हारे लिए लूट नहीं सकता...और... फिर...


लाला जी अन्दर ही अन्दर प्रसन्न हो गये। सिद्धान्ध के लिये डट जाना निश्चित ही नैतिक विजय होती हैं, भले ही उसके लिऐ थोड़ी बहुत हानि भी हो जाये। टूट जाना कहां बेहतर है परन्तु झुक जाना नहीं, मरण है- ऐसा उनका अपना विश्वास था। बेटे की बात सुन कर छाती फूल गयी...परन्तु उन्हें थोड़ा दुख भी हुआ। आर्थिक संकट की भयाबहता के कारण। अभाव के सामने सग सिद्धान्त चरमरा जाते हैं परन्तु...वह उसे स्वीकार नहीं करना चाहते थे। अशान्त और सुभाष को इस घटना का पता चला कि रमेश ने अपने स्कूल के प्रिंसीपल को पीट दिया है तथा इसी सिलसिले में प्रिंसीपल ने उसे सस्पैंड करवा दिया है, तो वे चिन्तित हो उठे। रमेश, रमेश की बीबी तथा चार बच्चे। पहले ही उनका निर्वाह नहीं होता, अब क्या होगा। कैसे खर्च चलेगा। अशान्त ने तो कह दिया- भाई साहिब यह तो बड़ा बुरा हुआ।

मैंने कब कहा कि अच्छा हुआ। रमेश के स्वर में खीझ थी। ‘कई मास तक वेतन अटका रहेगा।‘ सुभाष बोला। ‘तो तुम्हें क्या चिन्ता है? तुम नहीं दे सकते, न सही।’ ‘फिर भी विपत्ति में सहायता करना तो हमारा फर्ज है...लेकिन मुसीबत तो यह है कि पिता जी ने सुभाष की शादी भी जल्दी ही रखी है। ऐसी स्थिति में..अशान्त अटक-अटक कर अपनी स्थिति साफ कर रहा था। ‘तो ठीक है। विवाह धूम-धाम से करो। मैं अपने आप देख लूंगा।’

‘तुम क्या खाक देखोगे। तुम्हें चार हज़ार रुपये एरियर मिला था परन्तु तुमने सब के सब यों ही उजाड़ दिये। मैं तो सोचता था तुम दोनों सुभाष के विवाह पर पैसे दोगे। लाला जी ने कहा। ‘मैं तो खुद फंसा हूं।’ रमेश बोला। ‘तो फंसने से पहले सोच लेना चाहिए था।’ अशान्त ने कहा। ‘आप के पास भविष्य की आँखें हांेगी, मेरे पास तो वर्तमान समझने देखने की क्षमता नहीं। इतना छल, इतना कपट... मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था।’ रमेश आहत स्वर में कह गया। ‘पिता जी, हमने अब तक के सभी विवाह उधार ले ले कर किये हैं। कई-कई वर्ष उधार चुकाने में ही दब रहे हैं। इस बार हमें उधार नहीं लेना चाहिए।’ ‘एक मास का वेतन। आठ सौ रुपये या एक हजार। इससे क्या होगा बैंक से लोन ले दो। बहु के लिये हाथ-कान तो बनवाने ही पड़ेगे- लाला जी बोले।’ ‘मैं उधार के हक में नहीं।’ अशान्त फिर बोला। ‘तो विवाह कैसे होगा।’

‘जैसे आजकल के सभी विवाह होते हैं। लड़के के साथ दो आदमी चले जाएं। लड़की ले आएं। बस आडम्बर की जरूरत नहीं।’ रमेश ने व्याख्या की...’ ‘अपनी शादी भूल गये। तब जब मैंने यही परामर्श दिया था तो जनाब ने कहा था- यह कोई गुड्डे-गुड़ियों का विवाह नहीं, तो बस...’ लाला जी ने कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया। ‘अब जमाना बदल गया है।’ रमेश का धीमा स्वर। ‘अच्छा ऽऽ।’ अब की बार सुभाष बोला।

‘तीनों जने कम से कम दो-दो हज़ार रुपया दो। इससे कम नहीं चलेंगे। लाला जी ने आदेशपूर्ण स्वर में कहा। ‘दो-दो हज़ार। मेरे पास तो है नहीं। अशान्त ने कहा।’ ‘मेरे पास भी नहीं हैं, मैं तो सस्पैंड हुआ हूं। मुझे ही पैसे दो। तभी कुछ बनेगा। रमेश बोला। मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी। मैं...खुद ही सारा प्रबन्ध कर लूँगा। ‘मुझे तुम्हारे पैसों की जरूरत नहीं। फिर रूक कर बोले- मैं सारी प्रापर्टी बेच दूंगा, मकान गिरवी रख दूंगा।

‘बिल्कुल ठीक। टूटा-फूटा मकान है। उसे बेच ही दें। रमेश ने मुक्ति का साँस लिया।’

घर में सांय तक फिर कोई नहीं बोला। सभी अपने आप में उलझ गये थे। तीनों भाई जाने की तैयारी करने लगे थे। अशान्त ने चुपचाप सौ रुपये का नोट निकाल कर पिता की ओर बढ़ा दिया तथा दस रुपये का नोट माँ की ओर। सुभाष ने भी सौ रुपये का नोट पिता के हाथ में थमा दिया।

रमेश सब देख रहा था लेकिन बोला कुछ नहीं। लाला जी ने उसकी ओर पचास रुपये बढ़ाते हुए कहा- बेटा, चार्जशीट का जबाव सोच समझ कर देना। गर्मी खाने से काम नहीं बनते।

फिर लाला जी ने धीमे से सुभाष तथा अशान्त से कहा- अच्छा जितने-जितने पैसे इकट्ठे कर सकते हो करो तथा जल्दी-जल्दी मुझे भेज देना। दो-दो हजार तो फिर भी जैसे तैसे इकट्ठे करने ही होंगे। तभी सुभाष का विवाह हो पायेगा। हाँ इतने तो कर ही लेना। इस बार लाला जी के कहने पर उसकी पत्नी भी हंस दीं।