अपने-अपने दु:ख / एक्वेरियम / ममता व्यास
सच कहा था तुमने उस दिन। घाटों पर धरे गए फूल-पत्तियाँ या मन्नत के दिए कभी नदियों का हिस्सा नहीं थे। मुझे तो ये नदियाँ माल-वाहक, सन्देश वाहक लगती हैं। जैसे पुराने जमाने में कोई एक व्यक्ति पूरे गांव के संदेश लेकर जाता था और दूसरे गांव के लोगों को खबर-बतर देता था। ऐसे ही ये नदियाँ सभी के सन्देश लेकर जाती हैं और आती भी हैं।
सच कहा, किनारों पर उगे मंदिर और उनमें बंधे मन्नत के धागे और पूजा साम्रग्री भी नदी का हिस्सा नहीं लेकिन गवाही देगी नदी। संदेश देगी नदी...जब-जब भी कोई अकेला आ बैठेगा किसी किनारे पर, सुनेगा वह सारी कथा, किनारों पर खुदी कहानियाँ और हिसाब-किताब...बांचेगा।
नदी के अपने दु: ख हैं। वह नाराज है सदियों से उसके घाट पर बने मंदिरों और पंडों से, के सदियों से उसके साथ रहकर उससे कितने अनजान हैं ये पाखंडी.
हाँ...जिसे नदी का हिस्सा होना आता है वह ज़रूर हिस्सा बनेगा, किस्सा भी। ...कि किनारों पर बैठकर व्यापार करना और बीच धारा में डूब जाने में कुछ तो फर्क होगा। यकीनन जो बीच धारा में डूबा वह ही नदी का हिस्सा बना...कि आँख बंद करके लगानी होती है डुबकी।
छोड़ आना होता है संदेह, शंका, पूर्वग्रह, अहम् का भारी सामान किनारों पर ही। गीला होना होता है, भिगो देना होता है खुद को, नदी-सा ...तब कहीं जाकर मिलती है जरा-सी नदी...जो बहा ले जाती है तुम्हें तिनके-सा।
सुनो...मुक्ति की बात सोचना भी मत...युक्ति के साथ किनारों पर ही रहो। ये सच में प्रेम का मामला है। अपने पांव मत डालो भीतर...कि पानी बहुत प्यासा है...सूखा भी। ...जल जाओगे तुम।