अपने अपने अरण्य / नंद भारद्वाज
हरे भरे पेडों और झाडियों से ढक़ी पहाडियों से घिरे इस विशाल जंगल के एक छोर पर बसी इस छोटी सी बस्ती में जब सवेरे की पहली बस आकर रुकती हैं, तो यहां के ठहरे हुए जीवन में जैसे एक हलचल सी आरंभ हो जाती हैं। बीती रात की अच्छी बारिश के बाद सवेरे तक जारी बूंदाबांदी अब पूरी तरह बंद हो चुकी थी और भूरे-मटमैले बादलों की लगातार आवाजाही के बावजूद आसमान मौन था। हलकी सी आवाज के साथ बस के साथ आकर रुकते ही आसपास के ढाबों और थडियों से निकलकर लोग बस को घेरकर खडे हो गए थे।
बस्ती के नाम पर यहां ज्यादातर तो नेशनल पार्क के लिए बनाए गए कुछ भवन और मकान हैं। उनके अलावा कृषि,पशुपालन, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, डाकतार जैसे महकमों के भी छोटे-छोटे भवन और एक दो वन विभाग का गैस्ट हाउस, जिसमें ज्यादातर तो वन विभाग और सरकारी महकमों के अधिकारी आते हैं, कभी-कभार कुछ सैलानी भी आकर ठहर जाते हैं। थोडे बहुत कच्चे मकानों में आसपास के गांववासी है, जे पहले कभी इन्ही पहाडियों के बीच बसे गांवों में अपना गुजर बसर करते थे। बस्ती में एक प्राथमिक स्कूल है और डाकखाना भी है जो यहां के कर्मचारियों और निवासियों की सुविधा के लिए बनाया गया है। पार्क के मुख्यद्वार के आगे से होकर गुजरती इस खुली सडक़ का सिरा आगे जाकर राष्ट्रीय राजमार्ग से जुडज़ाता है और दूसरा पास ही के जिला मुख्यालय से। सडक़ पर दिन भर वाहनों की आवा-जाही बनी रहती है। इस रूट पर चलने वाली ज्यादातर बसें और यात्री वाहन पार्क आने वाले सैलानियों से ही भरे होते है, जिन्हे इसी मुख्यद्वार पर लाकर उतार दिया जाता है और वापस लौटने वाले भी इसी द्वार के पास बने शेड के नीचे य सडक़ के पार बनी चाय की कच्ची थडियों और ढाबों के आसपास बैठकर वाहनों का इंतजार करते हैं।
रुकी हुई बस के बीच वाले गेट से एक-एक कर उतरती सवारियों के बीच अपने ढीले-ढाले लिबास को संभाले जब मानसी ने सामने खडे लोगो की ओर नजर दौडाई, तो उसे मुस्कुरा कर हाथ हिलाते हुए रोहित दिख गए थे, उसने भी अभिवादन में अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा दिया था और अगले ही क्षण वह बस से नीचे उतर आई थी। रोहित के साथ खडे वन कर्मी ने आगे बढक़र उसका सूटकेस और बैग अपने हाथों में संभाल लिया था और सामान लेकर वह रोहित से कुछ दूरी पर जाकर रुक गया था। बस से उतरकर मानसी सीधे रोहित के सामने आकर खडी हो गई थी - उसके मुस्कुराते चेहरे के पार कुछ और भी तलाश करती हुई सी। उसे अपनी ओर इस तरह देखते अनायास ही रोहित ने पूछ लिया था -
“कैसी हो मानसी?”
“जी कैसी हो सकती हूं आपके बगैर?” हल्की सी मुस्कराहट के साथ यकायक निकल आये इस सवालिया जवाब में जैसे उसने बहुत कुछ कह दिया था। सुनकर एक बार अचकचा गया था रोहित।
“मेरा मतलब है रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?” अपने को संभालते हुए उसने बात आगे बढाई।
“नहीं, तकलीफ कैसी ये तो पूरा रास्ता ही इतना खूबसूरत है और फिर सुबह ही बारिश ने तो इसे और भी खुशगवार बना दिया”
“इसलिए तो सैलानी ऐसे ही मौसम में यहां आना पसंद करते है। वैसे घर चलना पसंद करोगी या गैस्ट हाउस” उसके स्वर में शराारत थी या कुछ और, वह ठीक से पकड नही पाई। बस हल्की सी उदासी के साथ इतना ही कह पाई
“जैसा आप ठीक समझें।”
उसे लगा मानसी बुरा मान गई।
“ओ के बाबा, ऑय एम सॉरी! सामान घर ले चलो भैया।” उसने अपने से थोडी दूर पर खडे वनकर्मी को निर्देश दिया और वह दोनो पैदल ही घर की ओर चल दिए, जे ज्यादा दूर नहीं था।
रोहित चालीस कै उम्र पार करता दरम्याना कर्दकाठी का हंसमुख सा इंसान था, जिसे वन अधिकारी के रूप में इस छोटी सी बस्ती के कर्मचारी और निवासी ही नहीं, जंगल के जानवर भी उतने लगाव से जानते थे। रास्ते में जो भी मिलता, उससे हंस कर दुआ-सलाम जरूर करता।
मानसी को यह देखकर अच्छा लगा कि उसका बंगला खूब खुला-खुला और साफ सुथरा था। घर के चारों तरफ हरी घास का लॉन और चहार दीवारी के पास ऊंचे-ऊंचे अशोक और मोरपंखी के पेड थे। अंदर के कमरों का एक बार मुआयना कर लेने के बाद वह हाथ-मुंह धोने बाथरूम में चली गई थी और रोहित उसका सामान लेकर बैडरूम में।जब वे दोनो वापस बैठक में आये, तब तक रोहित का सेवक गोपाल चाय बनाकर ले आया था। हाथ-मुंह धो लेने से वह काफी तरो-ताजा महसूस कर रही थी। अभी कपडे नहीं बदले थे, अलबत्ता जूडे में बंधे हुए बालों को उसने अवश्य खोल दिया था। चाय का प्याला उठा कर पहला घूंट लेते हुए उसी ने बात शुरू की थी -
“और आप कैसे है?”
“बस जैसा हूं, तुम्हारे सामने हूं खुद ही जान लो” वह नहीं जान पाई कि वह वाकई खुश है ये उसी की तरह भीतर से उन्मन।
“और कौन लोग रहते है, यहां आपके आसपास?”
“बहुत लोग र्है पार्क का स्टाफ है, गांववासी है, गोपाल हैऔर तमाम तरह के जानवरो से भरा हुआ जंगल है”
रोहित ने इसी तरह हास परिहास के माध्यम से माहौल को जैसे हल्का-फुल्का बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन मानसी, उसका यह उत्तर सुनकर भी जैसे और कुछ जानने की गरज से उसी के चेहरे की ओर देखती रही।
“बच्चे कैसे है?” थोडा संजीदा होते हुए रोहित ने पूछ लिया था।
“अच्छे है, लेकिन तुम्हे बहुत मिस करते है मैं उन्हे क्या समझाऊं रोहित? अब वह बडे हो रहे है क्या तुम्हे उनकी याद नहीं आती?” यही पूछते हुए मानसी यकायक उदास हो गई थी।
“आती क्यों नहीं मानसी। इसलिए तो पूछ रहा हूं। अपने काम की कुछ मजबूरियां है आए दिन जंगल में जानवरों के मारे जाने की घटनाएं हो रही है जिनकी वजह से यहां का काम बढ ग़या है लेकिन उम्मीद है जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। और कैसी चल रही है उनकी पढाई वगैरह?”
“वैसे तो ठीक ही चल रही है बस तुम्हारे लिए जब पूछने लगते है, तो समझाना मुश्किल हो जाता है फिर कोशिश करती हूं” बोलते-बोलते वह अचानक रुक गई थी। उसे लगा कि वह इस तरह ज्यादा देर तक सहज रह कर बात नहीं कर पायेगी।
“खैर चिन्ता की कोई बात नहीं, मैं खुद जल्दी ही आऊंगा बच्चों के पास।” वह बात को समेटते हुए जैसे उठने की तैयारी में था।
“तो अभी वापसी में मेरे साथ नहीं चलेंगे?” पूछते हुए थोडी रुंआसी सी हो आई थी मानसी, लेकिन फिर तुरंत अपने आप को संभाल लिया।
“देखता हूं बात करनी होगी हेड ऑफिस से।” इतना कहते हुए रोहित अपनी जगह से उठ गए थे।
मानसी रोहित के व्यवहार में आए इस ठण्डे बदलाव से थोडी और चिन्तित हो उठी। उसे लगा कि रोहित के मन में पिछली बातों का तनाव अभी भी बना हुआ है। वह खुद अपनी उलझनों से बहुत संतप्त रहती आई है और वह नहीं चाहती कि उसका कोई अपना उसी की तरह आत्म-संताप से पीडित रहे। अनिकेत ठीक ही कहते है, कई बार आवेश के क्षणों में हम अपना संतुलन खो बैठते है, जीवन के छोटे-छोटे संदेह हमारे समूचे जीवन विवेक और अनुभव पर भारी पड ज़ाते है और जब तक हमें इस बात का एहसास हो पाता है, हम अपने समय और संबंधों का पर्याप्त नुकसान कर चुके होते है। अपने पत्रों में वह बार-बार रोहित को यहीं समझाने की कोशिश करती रही कि उनके बीच की उलझनों का असर बच्चों पर न पडे, लेकिन यह सब अकेले उसके हाथ में तो नहीं। अपने पिछले पत्र में तो जैसे उसने समूचे प्राण ही उडेल दिये थे, उसके बावजूद जब रोहित घर नहीं लौटा और न ही उसका कोई जवाब आया,तो उसे लगा कि वह उसे खो देगी। उसे खुद से ज्यादा अपने बच्चों की फ्रिक थी, जो अपने पिता को बेहद प्यार करते थे और जिन्हे उनकी सख्त जरूरत थी। इस दौरान अनिकेत जब भी मिले, उसे यहीं सलाह देते रहे कि वह फौरन रोहित से खुद जाकर बात करें, पति-पत्नी के बीच किसी तीसरे माध्यम के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती, चाहे वह कितना ही अजीज़ और आदरणीय क्यों न हो। अगर अनिकेत ने इतना आग्रह न किया होता तो शायद आज वह यहां न होती और न ही रोहित के स्वभाव में आ रहे इस बदलाव को जान पाती।
“तुम चाहो तो थोडी देर आराम कर लो, मैं तब तक ऑफिस का कुछ जरूरी काम निपटा कर आता हूं। दोपहर का खाना हम साथ खायेगे। और अगर कुछ नाश्ता करना हो तो गोपाल को बता देना, वह बना देगा।”
यह कहते हुए रोहित बाहरी दरवाजे की ओर बढ ग़ए थे और वह उसी तरह अपनी जगह पर बैठी उसका जाना देखती रही। उसकी चाय कबकी खत्म हो गई थी, लेकिन खाली प्याला अब भी उसके हाथों में मौजूद था। वह उसी तरह सोच में डूबी रही। कुछ देर बाद उसे लगा कि कोई उसके पास खडा उससे कुछ पूछ रहा है। जब वह अपनी संज्ञा में लौटी तो सामने गोपाल खडा था और उससे खाली कप मांगते हुए पूछ रहा था -
“थोडी और चाय बना दूं मेम साब।”
“नहीं गोपाल, बस रहने दो।”
“जी मेमसाब।” छोटा सा उत्तर देकर उसने मानसी के हाथ से खाली प्याला थाम लिया और टेबल पर रखे बाकी बर्तन समेटने लगा। मानसी ने देखा, वह एक बीसेक साल का मासूम स लडक़ा था, जवानी की दहलीज पर कदम रखता हुआ सा।
“यहीं रहते हो, साहब के साथ?” उसने यूं ही पूछ लिया था।
“नहीं मेमसाब, पास में ही क्वाटर है, वहीं मां के साथ रहता हूं।”
“और कौन-कौन है घर में।”
“बस मां है और दो छोटी-छोटी बहनें।” इतना बताकर वह चुप हो गया था।
“और पिताजी?”
“वो नहीं हैंदो साल पहले इसी जंगल में एक हादसे का शिकार हो गए थे। उनकी खाली जगह पर साहब ने मुझे रख लिया है।” यह सब बताते हुए थोडा उदास हो गया था गोपाल।
“ओह आय एम सॉरी गोपाल।” उसे सांत्वना देती हुई वह भी जैसे उसी के दुख में डूब गयी थी। गोपाल ने सारे बर्तन उठाकर ट्रे में रख लिए थे।
“अच्छा गोपाल, ये बर्तन रसोई में रखकर तुम अभी घर चले जाओ, मैं थोडी देर आराम करूंगी। चाहो तो दोपहर में खाने से पहले लौट आना।”
“जी, अच्छा मेमसाब।” छोटा सा उत्तर देकर वह रसोई की ओर लौट गया।
गोपाल के चले जाने के बाद मानसी ने नहाकर अपने कपडे बदले और थकान दूर करने के लिए कुछ देर बाद वहीं सोफे पर लेट गई। उसे भीतर कहीं लग रहा था उसकी यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है - उसका गंतव्य अभी और आगे है।वह कब बेसुध होकर अपने गुजरे दिनों की ओर लौट गई,उसे कुछ सुध न रही।
अनिकेत के साथ उसकी अंतरंगता की एक अलग ही पृष्ठभूमि है। उसे मित्रता के सामान्य मापदण्डों से समझ पाना आसान नहीं है। खुद अनिकेत को उसके अपने घर-परिवार वाले भी कम ही समझ पाते है, पत्नी भी कई तरह की आशंकाओ से घिरी रहती है, लेकिन अनिकेत अपनी निजी जिंदगी के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं करते।मानसी जो भी थोडा बहुत उनके बारे में जान पाई, वह इधर-उधर से टुकडों-टुकडों में प्राप्त हुई जानकारियां थी,लेकिन अनिकेत से इस मसले पर बात करने की जब भी कोशिश की, वे टाल जाते थे। बेशक वे भिन्न स्तरों पर एक दूसरे की रूचियों और रचनात्मक उपलब्धियों से प्रभावित होकर ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित हुए हो,लेकिन पारिवारिक व्यक्ति के रूप में अनिकेत की अपने घर के प्रति जबावदेही और साफगोई ने उन तमाम आकर्षणों को वक्त आने पर इस तरह छांट-तराश दिया कि खुद मानसी को ही अपने व्यक्तित्व में एक अलग तरह की परिपक्वता और परिवर्तन महसूस होने लगा। अनिकेत का सारा लगाव इस बात पर टिका हुआ था कि मानसी की रचनाशीलता में उसे एक अलग तरह ही ताजगी और तडप दिखाई दी थी। उसकी दूधिया कविताओं और कैनवस पर उभरते अमूर्त आकारों में जो मौलिकता और संभावनाए उसे दीख रही थी, वह उसका सही विकास और विस्तार देखना चाहता था।
मानसी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का श्रेय अनिकेत को ही देती है कि रोहित के साथ उसका रिश्ता और पारिवारिक जीवन उसी के आग्रह और प्रयत्न का प्रतिफल है। उस बात को उसके परिवार वाले मानते है।रोहित से अनिकेत की यह रिश्ता तय होने से पहले कोई व्यक्तिगत मुलाकात नहीं थी, लेकिन उसके बारे में अनिकेत ने इतनी जानकारी अवश्य प्राप्त कर ली थी कि वह एक संजीदा और संवेदनशील युवक है। उसका वानिकी सेवा में चयन भी निश्चित हो चुका था और उसे वह मानसी के लिए हर तरह से उपयुक्त जीवनसाथी लगा था।मानसी के प्रति भी उसे यह विश्वास जरूर था कि वह जिसे भी अपनाएगी उसे अपने आत्मिक लगाव और उसके जीवन में अपनी अथक साझेदारी से उसे संवार लेगी।
जिन दिनों वह अनिकेत से मिली थी, वे उसके जीवन के सबसे कठिन दिन थे। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस गौरव को उसने जवानी की दहलीज पर कदम रखने से लेकर अगले चार साल तक जी-जान से प्यार किया,जिसके लिए अपने घर-परिवार वालों की सारी नाराजगियां सही, अपने शुभचिन्तकों की हर सलाह की अनदेखी की और जिसके लिए वह हर मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार थी, वहीं गौरव वक्त आने पर बाहरी दबावों के आगे झुक गया और बिना बताए इस तरह उसे मंझधार में छोडक़र भाग खडा हुआ जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। उसे तो एकबारगी सारे रिश्ते-नातों पर से जैसे आस्था ही उठ गई थी, यहां तक की खुद अपनी जिंदगी से भी जैसे कोई मोह नहीं रह गया था। वे तमाम सराही जाने वाली रचनाएं और कैनवस पर उभरती आकृतियां उसी टूटन को ही तो व्यक्त कर रही थी। उस वक्त यह अनिकेत ही तो थे,जिन्होने उसे मानसिक यंत्रणा और टूटन के बीच और बिखरने से रोक लिया था। ऐसे ही कठिन दौर में अनिकेत उसकी जिंदगी में एक सच्चे दोस्त की तरह आये और आत्मीय संरक्षक की तरह उसे उस मानसिक ऊहापोह और मंझधार से बाहर ले आए। उन्ही ने उसके अंत:करण में यह बात बिठाई कि किसी एक बुरे अनुभव से अपनी अनमोल और संभावनाओं से भरी हुई जिंदगी को बेवजह सजा देना खुद अपने साथ भी अन्याय करना है।
अनिकेत के इतने लगाव से समझाने का मानसी पर यह अनुकूल असर अवश्य पडा कि वह थोडे ही दिनों में गौरव की बेवफाई के बुरे अनुभव से बाहर निकल आई। उसने अपनी बकाया पढाई पूरी की। अपनी रुचियों के कामों को और दिलचस्पी से करने लगी। जब वह पी एच डी कर रही थी, उसी वर्ष एक प्रतिष्ठित वार्षिक कला-प्रदर्शनी में उसकी भी चार कलाकृतियां प्रदेश के बडे क़लाकारों के साथ प्रदर्शन के लिए चयनित कर ली गई थी - इससे वह बहुत उत्साहित थी। उसी कला-प्रदर्शनी से जुडी एक विचार-गोष्ठी में अनिकेत ने जिस तरह प्रदर्शित विभिन्न कला कृतियों की बारीक व्याख्या की, जिसमें मानसी की कला-कृतियों का विशेष उल्लेख था, उसे सुनकर वह बहुत देर तक अभिभूत रही। पहली बार किसी ने उसके काम को सार्वजनिक रूप से इस तरह सराहा था। वह मन ही मन में अनिकेत के प्रति कृतज्ञता और लगाव से भर उठी थी।
संयोग से उन्ही दिनों मानसी के घर में उसके रिश्ते की भी बात चल रही थी, लेकिन मानसी अभी शादी न करने की जिद पर अडी हुई थी। उसने गौरव को तो मन से निकाल दिया था, लेकिन वह नये रिश्ते के लिए भी अपने को तैयार नहीं कर पा रही थी। उधर लडक़े वाले जल्दी फैसला करने के बारे में तकाजा कर रहे थे। मानसी के मां-बाप की दुविधा बढती जा रही थी। उन्ही दिनों अनिकेत भी दो-एक बार बहुत आग्रह करने पर मानसी का काम देखने उसके घर भी आ चुके थे, यों वे मानसी के पिता को पहले से ही जानते थे और मानसी के पिता भी इस बात को जानते थे कि मानसी अनिकेत का बहुत आदर करती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होने पिछली मुलाकात के दौरान अकेले में अनिकेत से यह अपेक्षा अवश्य की थी कि वे मानसी को एक अच्छे रिश्ते के लिए मनाने में उनकी मदद करें। अनिकेत ने उन्हे आश्वस्त किया था कि वे कोशिश करेंगे।
उस दिन आर्ट गैलरी के पास बने रेस्तरां में चाय पीते हुए अनिकेत ने बहुत अपनेपन से मानसी से उस रिश्ते के बारे में बात की तो पहले तो वह यहीं कह कर टालती रही कि वह अपनी पढाई पूरी करना चाहती है, लेकिन जब अनिकेत ने ज्यादा जोर दिया तो वह अपनी इच्छा और मनोभावों को दबा कर नहीं रख सकी। उसने दबे स्वर में यह बता दिया कि वह तो उन्ही को पसंद करती है। उसकी यह अप्रत्याशित बात सुनकर वह एकाएक गंभीर हो गया था।वह गौरव के साथ मानसी के बुरे अनुभव से परिचित था और वह नहीं चाहता था कि वह फिर से किसी तनाव का शिकार हो, इसलिए अनिकेत ने बहुत आत्मीयता और संजीदगी से समझाया कि वह जो सोचती है, वह असंभव है। यह अनिकेत की इतनी आत्मीयता और धैर्य से समझाने का ही परिणाम था कि मानसी ने उसी दिन घर पहुंच कर रोहित से अपनी शादी का रिश्ता कुबूल कर लिया। अनिकेत अपनी व्यस्तताओं के कारण मानसी और रोहित की शादी में तो शरीक नहीं हो पाया, लेकिन शादी से कुछ दिन पहले, जब मानसी उसे शादी का कार्ड देने आई थी तो उसने उसे यह आगाह अवश्य कर दिया था कि अब उसे अपने पारिवारिक रिश्तों, स्कूल कॉलेज के दिनों की अपनी दोस्तियों और अपनी रुचियों से जुडे उन तमाम संपर्को और संबधों के बारे में नये सिरे से सोचना और व्यवहार करना होगा, उन्हें अपने पारिवारिक सुख और पति-पत्नी के अंतरंग रिश्तों की रोशनी में नये सिरे से जांचना-परखना होगा कि वे किस तरह उनके पारिवारिक जीवन को ऊष्मा और गति प्रदान कर सकते है।
मानसी ने अब अपना एक मानस बना लिया था और वह अपने मनोभावों की कोई और परीक्षा नहीं चाहती थी।उसने शादी में आने के लिए अनिकेत से बहुत आग्रह भी नहीं किया। इस आखिरी मुलाकात के बाद अगले सात सालों तक उनके बीच कोई सम्पर्क नहीं रहा। मानसी अपने पारिवारिक जीवन में रम गई थी और अनिकेत उसी विश्वविद्यालय में पढाते हुए अब रीडर हो गए थे। इसी बीच उनकी कुछ किताबें भी प्रकाशित होकर चर्चा में आ चुकी थी। पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियां और लेख आदि छपते रहते थे। उन्ही दिनों एक पत्रिका में छपी कहानी पर उन्हे अपनी डाक में एक छोटे से पत्र के रूप में मानसी की प्रतिक्रिया मिली और उसी से यह जानकारी भी वह उन्ही के पास के एक शहर में रोहित का तबादला होने के कारण आ चुकी है। उसने यह भी आग्रह किया था कि वे जब भी कभी उनके शहर में आएं, उनसे मिले बिना न जाएं। रोहित को भी उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगेगा और इस तरह एक अन्तराल के बाद आत्मीयता का वह सूत्र फिर से जुड ग़या।
यह जुडा हुआ संपर्क कब रोहित य उनके प्रियजनों के मन में संदेह और परेशानी का कारण बन सकता है, उन्हे कभी इसका ख्याल ही नही आया। और इसी प्रसंग को लेकर न जाने कैसे उन दोनो के बीच एक अनावश्यक से विवाद ने ऐस तूल पकड लिया था कि वे एक दूसरे से खफा होकर अलग-अलग जा बैठे। वन-विभाग की नौकरी में हालांकि पति-पत्नी का साथ-साथ रह पाना एक संयोग ही माना जाता है, और साल भर पहले जब इस नेशनल पार्क में रोहित का तबादला हुआ, तो उसके पीछे कोई विशेष कारण नहीं था, लेकिन मानसी ने उसे इसी रूप में ग्रहण किया कि रोहित ने उससे नाराज हो कर ही अपना यह तबादला परिवार से दूर रहने के लिए इस जंगल में करवाया है, जहां वह और बच्चे आकर न रह सकें।
झब अनिकेत ने मानसी से बहुत आग्रह करके पूछा तब उसने बताया कि रोहित और उसके बीच अनबन का कारण उन्ही के बीच का पर्त्रव्यवहार है, जो उन दिनों बिल्कुल रुक गया था। अनिकेत को भी यह जानकर बहुत दु:ख हुआ,बल्कि अपने पर ही यह झुंझलाहट हुई कि उसे इस तरह पति-पत्नी के बीच दुबारा नहीं आना चाहिए था। उसने मानसी को ही समझाने का प्रयास किया कि वह अपने मन में रोहित के प्रति कोई नाराजगी न रखे और जितना जल्दी हो सके स्वयं उसके पास जाकर तमाम गलतफहमियां दूर करें। अनिकेत को सबसे बडा आश्चर्य इस बात का था कि मानसी जैसी संवेदनशील और टूट कर प्रेम करने वाली स्त्री से कोई कैसे रूठ कर रह सकता है? अनिकेत के आग्रह पर मानसी ने पहले तो दो पत्रों में धैर्य से अपने और अनिकेत के निर्मल रिश्ते की उसे खुलासा जानकारी दी और उसी के साथ उसकी गैर मौजूदगी के कारण घर में उसे और बच्चों को होने वाली कठिनाइयों और मानसिक पीडा का विस्तार से जिक्र किया। उन दोनो पत्रों के बाद भी रोहित का कोई उत्तर नहीं आया तो मानसी चिन्तित हो उठी। वह पढी-लिखी और समर्थ र्थी अपनी और बच्चों की आवश्यकताओं के लिए वह किसी पर निर्भर नहीं थी, आजकल वह खुद एक एडवर्टाईजिंग एजेन्सी में आर्ट डाईरेक्टर थी। इससे पहले रोहित की नौकरी और बच्चों के कारण ही उसने अब तक किसी शहर में स्थाई रूप से बसने के बारे में सोचा नहीं था, रोहित के तबादले के साथ वे जहां भी जाते,मानसी थोडे समय में उस शहर में अपनी रुचि का काम ढूंढ लेती थी, इससे उसका अपना मन भी लगा रहता और पारिवारिक कामों में भी मदद रहती। जब तीन महीने गुजर जाने के बाद भी न रोहित घर आया और नही कोई जवाब आया, तो मानसी का चिन्तित हो उठना स्वाभाविक था।उसने तुरन्त पत्र लिखकर मायके से मां को बुलवा लिया और उसे घर और बच्चों की जिम्मेदारियां सौंपकर वह खुद रोहित के सामने आ खडी हुई।
रोहित के साथ दिन भर की जंगल यात्रा में मानसी ने उसके मन को कई तरह से टटोलने की कोशिश की - यह जानने के लिए कि कहीं कोई आशंका या सवाल अब भी उसके मन में बचा हुआ तो नहीं है। जो कुछ वह अपने पत्रों में बयान कर चुकी थी, क्या उसे फिर से दोहराने या उसे और खोलकर समझाने की आवश्यकता शेष रह गई है?जो खुलापन और अन्तरंगता वैवाहिक जीवन के दस वर्षों में उनके बीच बनी रही, वह किसी काल्पनिक आशंका य संदेह-मात्र से बोधित कैसे हो सकती है? क्या उनके रिश्ते की बुनियाद इतनी कमजोर है?
वे दोनो अपने-आप में खोये हुए सोफे के दो छोरों पर बैठ कर शाम की चाय पी रहे थे। बैठक की खिडक़ी के बाहर कहीं दूर से वन्य-प्राणियों और पक्षियों की आवाजे अनायास ही मानसी का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी। यों सुबह की छोटी सी बातचीत और दोपहर बाद रोहित के साथ जंगल की यात्रा के बाद दोनो के बीच तनाव का कोई चिन्ह नहीं दिख रहा था - खुद रोहित भी जंगल में घूमते हुए बहुत उत्साह से उसे अभयारण्य की खूबियों के बारे में विस्तार से बताते जा रहे थे। उसे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि वह अलग अलग प्राणियों की आदतों और गतिविधियों के बारे में कितना-कुछ जानता है, यहां तक कि कुछ प्राणियों की आवाजों और उनकी हरकतों को इतनी खूबी से पहचानता है कि देखकर ताज्जुब होता है। जंगल में घूमते हुए वह किस तरह वायरलैस के जरिए समूचे जंगल में फैले वन-कर्मियों के काम पर अपनी पकड रखता है, किस समय कौन सा बडा वन्य-प्राणी किस इलाके में घूम रहा है, वह हर पल इसकी पूरी खबर रखता है। वह रोहित की इस कार्यशैली और क्षमता पर मन ही मन रीझ रही थी, लेकिन एक सवाल अब भी उसके मन में कायम था कि सब कुछ की उतनी खबर रखने वाला और सब के साथ इतना खुला व्यवहार करने वाला यह शख्स अपने ही घर परिवार और अन्तरंग रिश्तों के प्रति इतना शंकालु क्यों है? जंगल-यात्रा के दौरान जीप में एक अन्य वनकर्मी के साथ होने के कारण वे ज्यादा निजी बातें तो नहीं कर सके,लेकिन पूरी यात्रा के दौरान मानसी ने यह जरूर महसूस किया कि उसके मन में वह पहले वाला संशय और तनाव नहीं दिख रहा था, लेकिन सुबह से लेकर अब तक उसे यह भी लग रहा था कि रोहित उससे खुलकर बात नहीं कर रहा था, और तो और वह ऐसा भी कुछ जाहिर नहीं कर रहा था जिससे यह अनुमान हो कि उसके मन में अभी भी मानसी के प्रति किसी तरह का संशय या संदेह बना हुआ है।जंगल में झरने के पास थोडा एकान्त मिलने पर मानसी ने जब सीधे अपने पत्रों के बारे में पूछा तो तुरन्त उसने यह कहते हुए बात को संक्षेप में समेट दिया कि वह सब उसका बेकार का वहम था, जो वह कब का भूल चुका है।
“तो फिर क्या बात है रोहित?” पूछते हुए अधीर सी हो उठी थी, मानसी, लेकिन रोहित तब भी शान्त था। उसने चारो ओर नजर दौडाते हुए घडी क़ी ओर देखा और इतना ही कहा था -” हम इस पर तसल्लीसे बात करेंगे मानसी।” और यह कहते हुए वे वहीं से वापस लौट पडे थे।
मानसी ने चाय का आखिरी घूंट लेकर प्याला वहीं सामने टेबल पर रख दिया और अपनी जगह से उठ कर वह पिछवाडे क़ी खुलने वाली खिडक़ी पर पहुंच गई थी। यहां से पश्चिम का आकाश साफ दिखता था। सूरज अब डूब चुका था, लेकिन रौशनदान से भीतर आने वाले उजास का असर बैठक में अब भी बरकरार था, इसलिए बत्ती अभी नहीं जलाई गई थी। थोडी और रोशनी के लिए मानसी ने खिडक़ी का पर्दा जब हटा दिया तो उसकी नजरें खिडक़ी के पार दीखते खुले आसमान पर टिक गई। वह देर तक खोई हुई सी उस खुले आसमान के टुकडे पर उडते हुए पक्षियों का आना-जाना देखती रही।
रोहित न जाने कब अपनी सीट से उठकर उसके पीछे आ खडा हुआ था, इसका आभास उसे तभी हुआ, जब उसे अपनी पीठ और कंधों पर बढता दबाव और अपनी बगल से निकल आए दो आत्मीय हाथों का स्पर्श उसी दृश्य की ओर बहा ले जाता हुआ स प्रतीत हुआ - वह एकाएक उस स्पर्श और दबाव में बेसुध होकर रह गई। उसने उन हाथों की कलाइयों को अपने हाथों में बांध लिया। उसे अपने दाएं कान और गाल पर रोहित की गर्म सांसो की मिठास और भी बेसुध किए दे रही थी। वह समय, स्थान और अपनी अवस्था की सारी संज्ञाएं भूल गई थी और उसकी पलकें अपने आप मुंद गई थी। जाने कितनी देर वे इसी अवस्था में बेसुध से खडे रहे और जब संज्ञा में लौटे तो सामने का दृश्य बदल चुका था। बाहर उसी खुले आसमान पर अब असंख्य तारे निकल आये थे और बैठक की हर चीज अंधेरे में डूब चुकी थी। रोहित के इस पार्श्व आलिंगन से मुक्त होते ही ज्यों ही मानसी बत्ती जलाने के लिए पीछे की ओर घूमी, रोहित ने फिर उसे पाकर अपने गहरे आलिंगन में बांध लिया।
उस रात रोहित ने बिना कोई अतिरिक्त वास्ता दिए मानसी के सारे गिले शिकवे दूर करने और अपने व्यवहार का परिमार्जन करने के लिहाज से जब उसके सामने अपने अतीत के उन पृष्ठों को खोला, जिनके बारे में मानसी कुछ नहीं जानती थी, उसे लगा कि रोहित के मार्मिक अनुभवों और मानसिक उलझनों के सामने उसके अपने किशोर अनुभव और उलझनें तो जैसे कुछ भी नहीं है। रोहित ने गहरे सोच विचार के बाद जैसे उसे यह सब कुछ बताने का मानस बनाया था और जब उसने बोलना शुरु किया तो वह अवाक सी उसके चेहरे की ओर देखती रह गई थी -
“मानसी, मुझे इस बात का अफसोस है कि मैने पिछले दिनों में अपने अजीब व्यवहार से तुम्हारा दिल दुखाया है तुमने इन सालों में व्यत्तिगत रूप से और अपने पत्रों के माध्यम से भी कई बार अपना मन खोल कर मेरे सामने रखा है और तुम्हे हर बार ऐसा लगता रहा होगा कि जैसे मैं तुम्हारी बातों पर यकीन नहीं कर पा रहा हूं वास्तव में यह ऐसा नहीं था मानसी, मेरी अपनी दुविधाएं बहुत अलग तरह की रही है और मैं कभी इतना साहस नहीं जुटा पाया कि उन्हें तुम्हारे साथ शेयर कर सकूं मैं तुम्हारे जितना खुला और बेलाग व्यक्ति नहीं हूं मानसीमैं अपनी कमजोरियां और सीमाएं अब जानने लगा हूं, शायद तुम्हारे इसी खुलेपन ने आज मुझे इतनी हिम्मत दी है कि मै तुम्हारे सामने अपना उलझा हुआ अतीत और अन्त:करण खोल कर रख सकूं मैं कलाकार नहीं हूं और शायद मेरे पास बयान करने के लिए अच्छी भाषा भी नहीं है, लेकिन मैं यह उम्मीद करूंगा मानसी, कि तुम मुझे गलत नहीं समझोगी और इस बात का भी बुरा नहीं मानोगी कि वैवाहिक जीवन के दस साल बाद मैं इस रूप में तुम्हारे सामने खुल रहा हूं”
और इस कैफियत के साथ कुछ क्षण मौन रहते हुए जब पहली बार मानसी के सामने उसने यह रहस्योद्धाटन किया कि वह इस शादी से पहले किसी और को अपना जीवनसाथी बनाने का इच्छुक रहा है, और उसको लेकर उसके जीवन में कई सालों तक भारी उथल-पुथल रही है तो उसे लगा कि जैसे इस रोहित से तो वह पहली बार मिल रही है। वह बिना एक शब्द बोले एकटक उसकी ओर देखती रही और सांस रोके उसे सुनती रही -
रोहित बता रहे थे कि वह अपने कॉलेज के दिनों में शालिनी नाम की लडक़ी से बेहद प्यार करते थे, जिससे विवाह न कर पाने का अफसोस उसे बरसो तक भीतर से कचोटता रहा। वह खूबसूरत और समझदार थी लेकिन गरीब थी। अपने घर में वह बहुत उपेक्षा और बुरे अनुभवों के बीच से गुजर कर बडी हुई थी। वह बडी मुश्किल से कॉलेज में दाखिला ले पाई थी - वह किसी तरह पढ लिख कर उस नर्क से बाहर निकल आना चाहती थी और उसी में वह उसकी मदद चाहती थी। उसके शराबी पिता ने पैसा लेकर उसका रिश्ता अपनी ही बिरादरी के एक ऐसे व्यक्ति से तय कर दिया था, जिससे उसका कोई मेल नहीं था,लेकिन वह उसके उसके झगडालू घरवालों के कारण शालिनी की कोई मदद नहीं कर पाया। शालिनी की मर्जी के खिलाफ उसकी पढाई बीच में ही छुडवाकर उसकी शादी उस दूज वर से कर दी गई, जिसकी पहली बीवी मर चुकी थी।शालिनी उससे बचने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थी, उसने कई बार रोहित से मदद के लिए आग्रह किया लेकिन वह कभी उतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया। शादी के बाद शालिनी के साथ उसके घरवालों और उसके पति का बर्ताव और बुरा होता गया और वह भी उसी के कारण।उसका अपराधबोध और भी बढता गया। इसी दुख के कारण बहुत अर्से तक उसने अपने घरवालों को उसके लिए आने वाले किसी रिश्ते के लिए अपनी सहमति नहीं दी।आखिरकार जब शालिनी को जब इस बात का पता चला कि वह उसी के कारण शादी नहीं कर पा रहा है, तो उसे भी अफसोस हुआ। वह तब भी कहीं भीतर उससे लगाव महसूस करती थी। आखिर उसी के कहने समझाने पर उसने मानसी का रिश्ता मंजूर किया था और उसने उस दूजवर के साथ जीवन बिताने को अपनी नियति मान लिया था। वह आज भी उनके परिवार की उतनी ही शुभचिन्तक है, लेकिन वह कहीं पति पत्नी के बीच गलतफहमी का कारण न बन जाए, इसलिए उनकी शादी के बाद उसने कभी संपर्क बनाए रखने की कोशिश नही की।
उसकी शादी हो जाने के बाद शालिनी के पति का बर्ताव उसके प्रति और बिगडता ही गया, उसने उसपर कई तरह के उल्टे सीधे लांछन लगाए लेकिन शालिनी ने सारी तकलीफे उठा कर भी यहीं कोशिश की कि उनका पारिवारिक जीवन संभल जाए तब तक वह दो बेटियों की मां बन गई, लेकिन उस निर्मम आदमी का मन वह नहीं बदल सकी उसका पारिवारिक जीवन पूरी तरह नष्ट हो गया और उसकी इस दशा के लिए वह आज तक अपने को माफ नहीं कर पाया है
यह सब बताते हुए उसका चेहरा गहरे अवसाद में डूब गया था और सिरहाने रखे तकिए पर पीठ टिका कर छत की ओर देखने लगा था। मानसी अब भी उसकी ओर मुंह किए सिरहाने के पास ही बैठी थी। उसकी पूरी बात सुनकर कुछ देर बाद उसकी ओर देखते हुए उसने पूछा था -
“यह वहीं शालिनी है न जो, आस्था संस्था के साथ काम करती है?”
“हां वही, मगर” वह कुछ और पूछता लेकिन उसे अनसुना करते हुए मानसी ने अपनी बात जारी रखी -
“लेकिन वह तो अपनी दोनो बेटियों के साथ अपने पति और परिवार से अलग रहती है शायद?“
“तुम शालिनी को जानती हो मानसी?” रोहित ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए पूछा था।
“बस, इतना ही कि वह एक साहसी स्त्री है वह अपने पांव पर खडी है और स्त्रियों की स्वयंसेवी संस्था आस्था” के साथ काम करती है। मैने पहली बार उसे उसी संस्था के आयोजन में बोलते हुए सुना था - अच्छा बोलती है,वह तो कहीं से भी असहाय या कमजोर नहीं लगती।”
“यहीं तो उसकी खूबी है मानसी! वह अपने भीतर के दर्द को छिपा कर रखती है। उसने तो मुझसे भी कभी नहीं कहा कि उसने क्या कुछ सहा है। मुझे भी उसके आस पडोस और परिचितों से ही उसके बारे में जानकारियां मिलती रही है।”
“तो आपकी उससे मुलाकात नहीं होती?” पहली बार मानसी ने अविश्वास से उसकी आंखो में देखते हुए पूछा था।
“बहुत कम..कभी कभार संयोग वश! बस, पिछले दिनों यहीं पास के जिला मुख्यालय पर एक आयोजन में उससे मिलना हुआ था। मैं तो उससे सहानुभूति प्रकट करने ही उसके पास गया था जब थोडी देर अकेले में उससे बात हुई तो मुझे यह जानकर तकलीफ हुई कि उसके मन में मेरे प्रति अच्छी राय नहीं है....मेरी सहानुभूति में भी उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी...वह तो उल्टे मुझे ही जैसे नसीहत दे रही थी कि मैं अपने घर को ठीक तरह संभालू....ऐसा क्यों हुआ मानसी....उसने ऐसा रूखा बर्ताव क्यो किया मुझसे? पिछले सप्ताह भर से यहीं बात मुझे बराबर कचोटती रही है।”
फिर जैसे कुछ और सोचते हुए उसने पूछा -
“कहीं ये तुम्हारी उस मुलाकात का परिणाम नही था,मानसी?”
और उसने अपनी आंखे मानसी के चेहरे पर टिका ली थी।
इस अंतिम प्रश्न से मानसी एकाएक चौक गई, फिर भी उसने संयन रहते हुए इतना ही कहा -
“नहीं, मुझसे तो ऐसी कोई बात नहीं हुई, बल्कि मुझे तो उससे पहली बार मिलने पर यह आश्चर्य हुआ था कि वह हमारे बारे में कितना कुछ जानती है। तुम्हारे बारे में पूछने पर उसने इतना ही बताया था कि तुम दोनो साथ पढे हो और इसी नाते वह तुम्हे जानती है मुझे थोडा अजीब लगा था कि उस पहली ही मुलाकात में वह हमारे आपसी रिश्तों को लेकर कितनी दिलचस्पी दिखा रही थी, लेकिन मैने तो उसे कुछ नहीं बताया। बस आखिर में जाते जाते उसने यह जरूर कहा था कि तुम बहुत अच्छे इंसान हो मुझे तुम्हे और बेहतर ढंग से समझना चाहिए!...उस मुलाकात के बाद एक दिन अचानक अनिकेत से भी यह पता लगा कि वे एक दूसरे को अच्छी तरह परिचित है उनकी संस्था के काम में अनिकेत से उनका अक्सर मिलना होता है हो सकता है अनिकेत से ही हमारे पारिवारिक जीवन के बारे में उनके बीच में कोई बात हुई हो”
लेकिन यह सब बताते हुए मानसी फिर जैसे अपनी ही चिन्ता में डूब गई थी।
वे एकबारगी चुप हो गये थे। रोहित तकिए पर सिर टिकाकर अब पीठ के बल लेट गया था और वह भी कुछ क्षण बाद उसकी बगल में लेट गई थी। फिर मानसी ने करवट बदल कर उसी ओर देखते हुए पूछा था -
“रोहित, क्या तुम्हे अजीब नहीं लगता कि हमारे रिश्तों के बीच में और लोग आकर हमें समझाने का प्रयास करते है क्या पति पत्नी से अधिक नजदीक कोई और रिश्ता हो सकता है?”
रोहित ने उसे आलिंगन में लेते हुए बस इतना कहा था -
“मुझे बहुत अफसोस है, मानसी! लेकिन अब ऐसा कभी नहीं होगा बिलीव मी!”