अपने अहंकार को जानें! / कमलेश कमल
सामान्यतः हम यह मानते हैं कि अहंकार एक नकारात्मक मनोदशा है, एक उग्र चित्त-स्थिति है जो दुःख का कारण है; लेकिन क्या हम कभी इसकी उत्पत्ति, प्रकृति और प्रभावों के बारे में विचार करते हैं? क्या हम इस पर विचार करते हैं कि हमारे अंदर किस प्रकार का अहंकार है और अंदर बैठा वह दुश्मन कैसे हमारे ही चित्त को अपने वश में करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाता रहता है।
वेद, उपनिषद् आदि आर्ष ग्रंथों की अवगाहना से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि सनातन संस्कृति और भारतीय दर्शन के ये प्रकाश-स्तंभ तार्किकता के तकाज़े से और वैज्ञानिकता के वैशिष्ट्य से संपृक्त रहकर जीवन विषयक मूल्यों, विकारों, अवरोधकों आदि की सघन पड़ताल करते हैं।
महर्षि कपिल के सांख्य दर्शन से इस संदर्भ में हमें महत्त्वपूर्ण सूत्र प्राप्त होते हैं। सांख्य दर्शन इन विषयों को क्या है, कैसे है जैसे तार्किक मापदंडों पर व्याख्यायित करता है। इसमें माना गया है कि जिस तरह मानव की प्रकृति सत्त्व, रजस और तमस की होती है, ठीक उसी प्रकार इनसे जुड़े अहंकार भी तीन प्रकार के होते हैं-तामसिक अहंकार, राजसिक अहंकार और सात्त्विक अहंकार। ये अहंकार हम नहीं हैं, हमारे ही अंदर छुपे विकारी शत्रु हैं, जिन्हें कमज़ोर नहीं मानना चाहिए।
तामसिक अहंकार कर्म प्रधान नहीं होता, वह बस अपेक्षा रखता है कि कार्य संपन्न हो जाए। अकर्मण्यता, निद्रा, ईर्ष्या आदि विकारों से युक्त तामसिक व्यक्ति यह उम्मीद रखता है कि कोई दूसरा उसके लिए कार्य कर दे। उदाहरण के लिए, एक तामसिक प्रवृत्ति का पति यह अपेक्षा रख सकता है कि उसकी पत्नी जीविकोपार्जन भी करे, उसके लिए चटपटे और गरिष्ठ व्यंजन भी बनाए तथा घर के अन्य कार्यों को भी तत्परता से करे।
हम जानते हैं कि हम जो सतत करते हैं, वह हमारा स्वभाव बन जाता है। हमारे लगातार के कार्यों की छाप हमारे संस्कारों पर पड़ती है। ऐसे में, जो व्यक्ति तामसिक है, वह तामसिक संस्कारों के जाल में फँस जाता है। वह हरदम आलस्य, प्रमाद, ईर्ष्या, उग्रता, भीरुता आदि विकारों में लिपटा रहता है। ख़ुद अकर्मण्य रह कर वह दूसरों से ही अपना काम निकाल लेना चाहता है। जब तक इच्छा कि पूर्ति होती है, तब तक ठीक रहता है, पर जैसे ही किसी इच्छा कि पूर्ति में व्यवधान आता है, वह तमाम हथकण्डे अपनाने लगता है।
देखा जाता है कि तामसिक रूप से अहंकारी व्यक्ति दबाव बनाना, व्यंग्य बाण, भावनात्मक शोषण, उकसाना, भड़काना, तरसाना, स्वयं या दूसरे को चोट पहुँचाना आदि हथियारों का प्रयोग कर अपनी मर्जी की वस्तु या सेवा प्राप्त कर लेना चाहता है।
राजसिक अहंकारी इससे अच्छा होता है। जिसमें राजसिक अहंकार हो, ऐसा व्यक्ति कर्म प्रधान होता है। वह ऐसी अपेक्षा नहीं रखता कि वह कुछ न करे और उसे सब मिल जाए। वह स्वयं कर्मठ होता है, क्रियाशील होता है, पर वह साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की पवित्रता का ध्यान नहीं रखता। अमूमन राजनेता, अभिनेता, नौकरशाही और वाणिज्य में उच्च पदस्थ व्यक्ति आदि राजसिक अहंकार से ग्रस्त होते हैं।
अमूमन राजसिक अहंकारी व्यक्ति अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए चोरी, लूट या हत्या का सहारा नहीं लेते और अगर लेते हैं तो उन्हें राजसिक नहीं अपितु तामसिक ही मानना उपयुक्त होगा। दूसरे जब उनकी अपेक्षा पर खरे नहीं उतरते तब उन्हें भी दुःख होता है, पर वे चिल्लाते नहीं, हिंसक भावनाओं से नहीं भर जाते। पर हाँ, ऐसे व्यक्ति नियंत्रण करने के भूखे तो होते ही हैं और लोगों का फ़ायदा उठाना भी ख़ूब जानते हैं।
अगर अतीत में देखें तो एक राज्य का दूसरे राज्य पर आक्रमण राजस्व की प्राप्ति या अन्य आनुषंगिक लाभ के कारण नहीं, वरन् राजा का अपने प्रभुत्व और वैभव के विस्तार की लालसा के कारण ज़्यादा हुआ है।
सात्त्विक रूप से अहंकारी व्यक्ति राजसिक अहंकारी व्यक्ति से उच्चकोटि का होता है। वह साध्य और साधन दोनों की पवित्रता में विश्वास रखता है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसा व्यक्ति किंचित भी ग़लत तरीक़े का प्रयोग नहीं करता, यहाँ तक कि वह लोगों की भलाई के लिए भी कार्य करता है। लेकिन फिर भी, ऐसा व्यक्ति एक प्रकार के अहंकार से ग्रस्त रहता है और वह अहंकार है-आत्मिक रूप से श्रेष्ठता का अहंकार, उच्चता और महानता का अहंकार।
सात्त्विक अहंकारी व्यक्ति मंदिर या किसी संस्था को 100 पंखे तो दान में दे सकता है, लेकिन यह उम्मीद रखता है उन सभी पंखों पर उसका नाम लिखा जाए। वह अपने कृत्य का ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार करता है, दूसरों पर एहसान कर दुनिया को दिखा भी देता है।
आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर इससे आगे की अवस्था है अहंशून्यता कि अवस्था या निर-अहंकार होने की अवस्था। ऐसा व्यक्ति आत्मसजग और चेतना-सजग होता है, अच्छे उद्देश्य के लिए अच्छे कर्म करता है पर फल की आशा नहीं रखता। वह घटनाओं, परिस्थितियों को द्रष्टा-भाव से देखता है और उसे स्वीकार करता है। वह न अपेक्षा करता है और न उपेक्षा करता है। इस तरह वह निष्काम कर्मयोगी की तरह होता है।
हर व्यक्ति आत्मावलोकन कर सकता है कि वह कहाँ स्थित है। ध्यातव्य है कि तामसिक अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति अचानक ही अहंकारशून्य नहीं हो सकता। पहले उसे राजसिक अहंकार को अपनाना चाहिए। दूसरी तरफ़ राजसिक रूप से अहंकारी व्यक्ति को 'किसी भी कीमत पर सफलता' की ज़िद का परित्याग करना चाहिए और सात्त्विक रूप से अहंकारी बनना चाहिए।
गृहस्थ जीवन में रहकर अगर हम सात्त्विक रूप से भी अहंकारी बने भी अहंकारी बने रह सके, तो यह बहुत बड़ी जीत है, लेकिन सबसे अच्छी अवस्था है-इससे भी आगे की यात्रा कि जाए और यश-कीर्ति आदि की इच्छा को भी त्याग दिया जाए। बहरहाल, इन अहंकारी प्रवृत्तियों की सम्यक् समझ से व्यक्तित्व विकास में आश्चर्यजनक रूप से प्रगति होती है।