अपने पार / राजेन्द्र यादव
पापा नहीं हैं। यहाँ सिर्फ़ मम्मी हैं। उनकी बहुत–सी सहेलियाँ हैं। कुछ देर में ही वे अपनी और अपने बच्चों की बातें करने लगती हैं, लेकिन बाहर खेलने जाता हूँ तो वहाँ सिर्फ़ लड़के होते हैं या आदमी। लड़के बहुत शैतान हैं। मारते हैं, कपड़े फाड़ देते हैं, मेरी चीज़ छीन लेते हैं। उनकी बातें भी बहुत गन्दी होती हैं। वे मुझे अपने साथ नहीं खिलाते। आदमी बहुत जल्दी भूल जाते हैं। मेरी तरफ ध्यान नहीं देते। कहते हैं, मैं इतना बड़ा होकर भी गोदी के बच्चों जैसी हरकतें करती हूँ। तुतलता हूँ। लड़कियाँ शैतान लड़कों के साथ ही क्यों खेलती हैं? मैं घर आ जाता हूँ। मम्मी से, नौकरानी से लड़ता हूँ। जिद करता और ठुनकता हूँ। मम्मी की साड़ी पकड़े–पकड़े इधर से उधर घूमता हूँ। उसे चिपककर सोता हूँ। मम्मी से मुझे नफरत है। मैं उसे मुक्के मारता हूँ।
साल दो साल में हम लोग पापा से मिलने जाते हैं। अक्सर मेरी बर्थ–डे तभी होती है। पापा खूब प्यार करते हैं। आइसक्रीम खिलाते हैं, कपड़े–खिलौने दिलाते हैं। हर बार उनके साथ एक औरत होती है। पापा मुझसे कहते हैं, "ये तुम्हारी मम्मी हैं।" मेरी मम्मी वैसे तो गुमसुम बैठी रहती हैं, लेकिन जब पापा मुझसे यह बात कहते हैं तो दूसरी तरफ देखने लगती हैं। गले की जंजीर को निकालकर दांतों से पकड़ लेती हैं। मेरा मन होता है कि मैं उसका कंधा पकडकर पूछूँ, "तुम मेरे लिए एक पापा नहीं ला सकतीं? मुझे तुम्हारे गले के हाथ डालने वाले अंकल नहीं, पापा चाहिए..." मगर मैं कुछ नहीं बोलता। 'नई मम्मी' को देख लेता हूँ। वह मुझे बड़े प्यार से आइसक्रीम खिलाती हैं। मेरा मन करता है, छूटकर अपनी मम्मी के पास चला जाऊँ।
वापस आकर मैं पांव पटकता हूँ, गिलास फोड़ता हूँ, बाल नोचता हूँ। मम्मी कहती है, "बिलकुल अपने पापा की तरह कर रहा है।" फिर वह रोने लगती हैं, पलंग पर लेटकर। उसे रोता देखकर मैं भी रोने लगता हूँ। उसे चूमता हूँ। उससे लिपटता हूँ। उसकी छातियों पर लदकर, उसके पल्ले से आँखें पोंछता हूँ। मम्मी मुझे अजीब–अजीब आँखों से देखती रहती हैं। लगता है, वह मुझे पहचानती नहीं हैं। ध्यान से देखकर कुछ याद करने की कोशिश कर रही हैं। पता नहीं, मम्मी को देखते देखकर मुझे क्या हो जाता है। लगने लगता है जैसे मैं, मैं नहीं, पापा हूँ...फिर हम दोनों चिपककर सो जाते हैं...