अपने लोग / मनोज चौहान
पढ़ाई पूरी करने पर विक्रम को जब कोई उचित रोजगार नहीं मिला तो उसने सब्जी मंडी के आढ़तियों के यहाँ अकाउंटेंट की नौकरी कर ली l महज 21 वर्ष की आयु में उसे दुनियादारी की इतनी समझ नहीं थी l अलग माहौल में वह असहज-सा महसूस करता l एक दिन उसे जीप के साथ सब्जी और फलों की सप्लाई करने के लिए किसी रुट पर भेजा गया l सामान को उतारने के लिए एक पल्लेदार भी साथ में था l जिस मालवाहक जीप को किराये पर लेकर माल भरा गया उसका मालिक विक्रम के नजदीकी इलाके का ही एक व्यक्ति निकला l जीप का मालिक गाड़ी चला रहा था और उसके साथ उसका एक दोस्त भी था l
विक्रम को लगा कि अपने लोग हैं तो उसे दिन भर माल बेचने में कोई परेशानी नहीं होगी l मगर सब कुछ उसकी आशाओं के विपरीत घटित होने लगा था l पूरे रास्ते ड्राईवर ने विक्रम को अनावश्यक रूप से यह कहकर चिड़ाना शुरू कर दिया कि अगर यही काम करना था तो इतनी पढाई क्यों की? विक्रम का ध्यान माल की बिक्री पर अधिक था, क्योंकि शाम होते-2 सब्जी और फलों से लदी गाड़ी को दुकानदारों को बेचकर खाली करना था l इसीलिए वह उनसे उलझना नहीं चाह रहा था l
गर्मी के दिन थे l जीप में आम की पेटियां भी लदी हुई थी l पल्लेदार को साथ लेकर विक्रम दुकानदारों को माल बेचने और पैसे का हिसाब करने के लिए बीच-2 में उतर जाता था l ड्राईवर और उसका दोस्त जीप में ही रहते l माल बेचने की उहापोह में समय का पता ही नहीं चला l शाम होने को आई तो पता चला कि आम की पेटियों के 5 नग नदारद थे l विक्रम परेशान हो उठा, सारी जवाबदेही की जिम्मेदारी उसी की थी l वह बार-2 याद करने की कोशिश करता कि किसी दुकानदार को ज़्यादा माल तो नहीं दे दिया?
ड्राईवर और उसका साथी अब माल के नदारद होने पर उसका उपहास उड़ाने की चेष्टा करते प्रतीत होते l जैसे–तैसे वह सारा माल बेच कर बापिस लौट आये थे l शाम को घर लौटने पर किसी विश्वासपात्र व्यक्ति से उसे आम की पेटियों के नग नदारद होने की सच्चाई पता चली तो वह भीतर तक आहत हो उठा l अपने लोग अपनी करामात दिखा गए थे l भारी मन से वह 'अपने' शब्द के मायने तलाशने लगा था l