अपने साहित्यकार को देर से पहचाना डॉ. रत्नलाल शर्मा ने / रूपसिंह चंदेल

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फरवरी की वह सुबह अधिक ठंडी न थी. हांलाकि दिल्ली में फरवरी के अंत तक प्रखर ठंड रहती है . वह सुबह पूरी तरह शांत और सुखद थी. यह 22 फरवरी, 1997 का दिन था. तय हुआ था कि हम दोनों में जो भी पहले जाग जाएगा फोन करेगा. और यह बाजी मैंने जीती थी.

‘‘हलो’’ कुछ देर तक फोन की घंटी बजने के बाद खनखनाती आवाज सुनाई दी, ‘‘मैं तो साढ़े तीन बजे ही जग गया था. आपको फोन करने ही वाला था.’’

‘‘कितने बजे निकल रहे हैं?’’

‘‘आप साढ़े पांच तैयार मिले. डॉक्टर कालरा को लेकर मैं निश्चित समय पर पहुंच जाउंगा.’’

‘‘आज्ञा का पालन करूंगा.’’

तेज ठहाका, फिर सकुचाहट, ‘‘मुझे इतनी जोर से नहीं हंसना चाहिए. पोता जग गया तो सौ प्रश्न करेगा .’’ फुसफुसाहट, ‘‘ठीक है डौक्टर.... तो हम मिलते हैं.’’

और डॉक्टर रत्नलाल शर्मा सवा पांच बजे मेरे यहां पहुंच गए । मुझे डॉ.कालरा के पति ने पांच बजे फोन कर दिया था कि वे लोग पीतमपुरा छोड़ चुके हैं. उन दिनों उतनी सुबह दिल्ली की सड़कें प्रायः खाली रहती थीं. डॉ. कालरा के पति का फोन मिलते ही मैंने विष्णु प्रभाकर जी को फोन कर दिया था कि हम लोग पौने छः बजे तक उनके यहां पहुंच जाएगें. यह एक सुखद संयोग था कि उस दिन हम चारों... विष्णु प्रभाकर, डॉ. रत्नलाल शर्मा, डॉ. शकुतंला कालरा और मैं....लखनऊ-नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस से कानपुर जा रहे थे. अवसर था, ‘‘बाल कल्याण संस्थान’’ द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह जिसके लिए हमें डॉ. राष्ट्रबंधु ने बहुत ही आदरपूर्वक आमंत्रित किया था.

डॉ. कालरा को संस्थान उस वर्ष अन्य बाल-साहित्यकारों के साथ सम्मानित कर रहा था, जबकि हम तीनों को अलग-अलग सत्रों के अध्यक्ष-विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. मेरे लिए यह सम्माननीय बात थी, क्योंकि जिस आयोजन के एक सत्र की अध्यक्षता विष्णुप्रभाकर जैसे वरिष्ठतम साहित्यकार कर रहे थे और दूसरे की मेरे अग्रजतुल्य मित्र डॉ. रत्नलाल शर्मा, वहां ‘विचार सत्र’ के विशिष्ट अतिथि के रूप में मुझे बुलाकर डॉ. राष्ट्रबंधु ने अपने बड़प्पन का परिचय देते हए मुझे जो सम्मान दिया मैं शायद उसके सर्वथा योग्य नहीं था, क्योंकि हिन्दी में अनेक ऐसे विद्वान साहित्यकार हैं जिनके सामने मेरी बाल-साहित्य की रचनात्मकता पासंग है. खैर, डॉ. राष्ट्रबंधु ने विष्णु जी को ले आने के लिए मुझे तो कहा ही था डॉ. शर्मा को भी कह दिया था. डॉ. शर्मा अति-उत्साही व्यक्ति थे और नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वह बाल-साहित्य को लेकर कुछ अतिरिक्त ही उत्साह में रहने लगे थे. उनका यह उत्साह श्रीमती रतन शर्मा,उनकी पत्नी, की मृत्यु के पश्चात कई गुना बढ़ गया था और उसी का परिणाम था कि उन्होंने बाल-साहित्य के लिए कुछ करने के ध्येय से पत्नी के नाम एक ट्रस्ट बनाकर प्रति वर्ष एक पुरस्कार देने लगे थे. उनके मस्तिष्क में बाल-साहित्य के महत्व और विकास को लेकर अनेक योजनाएं रहतीं और वह कुछ न कुछ करते भी रहते. हालंकि उन्होंने जो ट्रस्ट बनाया था उसमें ऐसे लोगों को रखा था जो बाल-साहित्य का ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ भी नहीं जानते थे और इस विषय में मेरी अनेक बार उनसे चर्चा भी हुई थी, लेकिन उन गैर बाल-साहित्यकारों को लेकर उनके अपने तर्क थे और उन तर्कों में दम भी था. एक दमदार तर्क तो यही था कि यदि एक भी बाल-साहित्यकार उन्होंने ट्रस्ट में रखा तो ‘न्यास’ साहित्यिक राजनीति से अछूता न रहेगा. उनकी बात सही थी.

‘श्रीमती रतन शर्मा स्मृति न्यास’ की स्थापना के पश्चात वह बाल-साहित्य के देशव्यापी आयोजनों में शिरकत करने लगे थे और जब भी मिलते उन आयोजनों के संस्मरण मुग्धभाव से सुनाते. आयोजनों में सम्मिलित होते रहने से डॉ. शर्मा और डॉ. राष्ट्रबंधु प्रायः एक दूसरे से मिलते रहते और उसी आधार पर डॉ. शर्मा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि वह सभी को लेकर कानपुर पहुंचेगें. आनन-फानन में उन्होंने विष्णु जी और डॉ. कालरा के आरक्षण करवा दिए. मेरा जाना किन्हीं कारणों से टल रहा था, लेकिन एक दिन दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय की छत पर चाय की चुस्कियों के साथ आदेशात्मक स्वर में वह बोले, ‘‘डॉक्टर,कोई बहाना नहीं मानूंगा. शनिवार-रविवार को कार्यक्रम है ....आपको चलना है .’’

और मुझे आरक्षण करवाना पड़ा था. इसी कारण हम अलग-अलग कोचों में थे. फिर भी बीच-बीच में मैं तीनों के पास आ खड़ा होता. डॉ. कालरा विष्णु जी के साथ की सीट में थीं और उस अवसर का लाभ उठाने के विचार से वह लगातार विष्णु जी से साक्षात्कारात्मक बातचीत कर रही थीं. ऐसे समय मैं और डॉ. शर्मा बाथरूम के पास खड़े होकर बाल-साहित्य पर चर्चा करते रहे थे.

सिगरेट फूंकते बात करना डॉ. शर्मा की आदत थी. जब भी कभी गंभीर चर्चा छिड़ती वह सिगरेट सुलगा लेते. लेकिन अनुशासन-प्रियता इतनी अधिक थी उनमें कि किसी भी सार्वजनिक स्थान में सिगरेट नहीं पीते थे. उनसे जब मेरा परिचय हुआ तब वह योजना भवन में ‘समाजकल्याण विभाग’ में कार्यरत थे और वहीं से उप-निदेशक के रूप में अवकाश ग्रहण किया था. अक्टूबर 1980 में मैं गाजियाबाद से शक्तिनगर(दिल्ली) में आ बसा था. उन दिनों केन्द्रीय सचिवालय के लिए शक्तिनगर से 240 नं0 रूट की बसें प्रत्येक दस मिनट में चलती थीं. मेरा कार्यालय उन दिनों रामकृष्णपुरम में था. मैं 240 से केन्द्रीय सचिवालय पहुंचकर वहां से रामकृष्णपुरम की बस पकड़ता था. डॉ. शर्मा शक्तिनगर के पश्चिमी छोर में और मैं पूर्वी छोर में रहता था. वह भी उसी बस से जाते और पटेल चैक उतरते. कई वर्षों तक हमारा यह सिलसिला चला था.

उन दिनों शनिवार को कॉफी हाउस में साहित्यकारों का जमघट होता था. नियम से जाने वालों में विष्णु प्रभाकर, रमाकांत , डॉ. रत्नलाल शर्मा, डॉ. हरदयाल, डॉ. राजकुमार सैनी आदि थे. मैं भी कभी-कभार पहुंच जाता. तब कॉफी हाउस का माहौल खराब नहीं था. परनिन्दा तब भी होती, लेकिन साहित्य पर चर्चा भी होती और उसी माध्यम से एक दूसरे की खिंचाई भी होती. विष्णु जी निन्दा-प्रशंसा से विमुख मंद-मंद मुस्कराते हर स्थिति का आनंद लेते रहते. यदि वे बहस में शामिल भी होते तो बोलते धीमे ही थे, लेकिन शर्मा बहस को प्रायः उत्तेजक बना देते और जब उनके मित्र उन पर हावी होने लगते, वह अनियंन्त्रित हो जाते. लेकिन इसका आभिप्राय यह नहीं कि नौबत हाथापाई तक पहुंचती थी. डॉ. शर्मा की यह खूबी थी कि उत्तेजित वह कितना ही क्यों न होते हों लेकिन किसी के विरुद्ध अपशब्द का प्रयोग करते मैंने उन्हें कभी नहीं सुना. जब कि उनके अति अंतरंग मित्रों को कई बार उनके खिलाफ अपशब्द प्रयोग करते (पीठ पीछे) मैंने सुना था. डॉ. शर्मा आपा तो खोते, क्योंकि वह अपनी बात पर अडिग रहते और प्रायः सही वही होते. लेकिन वह यह समझ नहीं पाते कि उनके मित्र उन्हें उत्तेजित करने के लिए ही ऐसा विनोद कर रहे थे. बाद में माहौल शांत होता और सभी फिर मीठी बातों में खो जाते.

बहुत बाद में (वर्ष याद नहीं...संभव 1990 के आसपास) किसी शनिवार को शायद किसी मित्र ने उनके विरुद्ध कोई ऐसी टिप्पणी कर दी थी, जिससे उन्हें गहरा आघात लगा था. उन्होंने कभी भी कॉफी हाउस न जाने का संकल्प किया और मृत्यु पर्यन्त उसका निर्वाह किया.

अवकाश ग्रहण कने के बाद वह प्रतिदिन दिल्ली विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय के ‘रिसर्च फ्लोर’ के एक कमरे में बैठने लगे थे. निश्चित कमरा और निश्चित सीट थी उनकी. वहां वह पहले भी (जब नौकरी में थे) शनिवार-रविवार को जाते थे, लेकिन अवकाश ग्रहण के बाद वह वहां तभी अनुपस्थित रहे जब या तो अस्वस्थ रहे या शहर से बाहर या किसी अन्य आवश्यक कार्य में व्यस्त.

‘रिसर्च फ्लोर’ उनके कारण आबाद रहने लगा था. वहां के प्रत्येक शोधार्थी के वह आदरणीय-प्रिय थे और उम्र की सीमाओं को ताक पर रखकर कॉलेज से निकले युवा से लेकर हम उम्र लोगों से वह स्वयं ‘विश’ करते और चाय के लिए आमंत्रित करते. मुझ जैसे व्यक्ति, जो स्वयं व्यवहार में उदारता का समर्थक है, को भी वह सब अटपटा लगता कि उम्रदराज डॉ. शर्मा अपने से चालीस-बयालीस वर्ष छोटे बालक-बालिकाओं से न केवल स्वयं नमस्ते कर रहे हैं बल्कि साग्रह चाय के लिए बुला रहे हैं. हालांकि मैं स्वयं इसी आदत का शिकार हूं और गवंई -गांव का होने के कारण आयु की सीमारेखा खींचकर चलना आता नहीं. एक-दो बार मैंने डॉ. शर्मा को इस विषय में उनकी उम्र का वास्ता देते हुए टोका भी . उनका छोटा-सा उत्तर होता, ‘‘आप नहीं समझेंगे डॉक्टर.’’

वास्तव में ही मैं नहीं समझ सका. वह भी अपने स्वभाव को बदल नहीं सके. एक विशेषता और भी देखी उनमें. वह हर जरूरतमंद की मदद के लिए तत्पर रहते थे. बेहतर सलाह देने का प्रयत्न करते. अनेक उदाहरण हैं जब वह किसी न किसी शोधार्थी के काम से दौड़ रहे होते थे. कई शोधार्थियों को उनसे अपने शोध से संबन्धित चर्चा करते या अपना शोध कार्य दिखाते मैंने देखा था. वास्तविकता यह होती कि छात्र-छात्रा उनके किसी मित्र प्राध्यापक के अधीन शोधरत होता और डॉ. शर्मा मित्रता का निर्वाह करते उसका कार्य देखते/गाइड करते.

प्रायः विश्वविद्यालय पुस्तकालय में बाहरी व्यक्ति को एक निश्चित अवधि तक ही बैठने की अनुमति होती है, लेकिन हिन्दी विभाग से लेकर पुस्तकालय तक डॉ. शर्मा के अनेक मित्र (कुछ उनके सहपाठी थे) थे. डॉ. शर्मा ने भी कभी स्वप्न देखा था कि वह प्राध्यापक बनेंगे. पी-एच.डी. भी इसी कारण उन्होंने की थी, लेकिन जैसा कि होता है प्राध्यापक बनने के लिए जो गुण व्यक्ति में होने चाहिए वे डॉ. शर्मा में नहीं थे. डॉ. शर्मा प्राध्यापक नहीं बन पाए, लेकिन वह उस टीस को शायद कभी भूल भी नहीं पाए. अंदर छुपा वह स्वप्न ही रहा होगा कि कभी उनके अधीन भी शोधार्थी हुआ करेंगे. शायद शोधार्थियों की सहायता कर वह उस सवप्न को ही पूरा कर रहे थे.

एक अच्छे इंसान होते हुए भी डॉ. शर्मा में दो कमजोरियां भी थीं. जब तब उनका लेखकीय स्वाभिमान जागृत हो जाता और वह सभा-गोष्ठियों का बहिष्कार कर दिया करते. डॉ. विनय, डॉ. महीप सिंह, डॉ. रामदरस मिश्र, डॉ. नरेन्द्र मोहन,डॉ. कमलकिशोर गोयनका और डॉ. हरदयाल उनके अच्छे मित्रों में से थे. डॉ. शर्मा प्रायः डॉ. विनय के घर जाते. एक बार डॉ. विनय ने अपने घर स्व. डॉ. सुखबीर सिंह के कविता संग्रह पर अपनी संस्था ‘दीर्घा’ (दीर्घा नाम की पत्रिका भी वह निकालते थे) की ओर से विचार गोष्ठी का आयोजन किया. अध्यक्ष थे डॉ. रामदरस मिश्र. डॉ. शर्मा ने आलेख लिखा था. आलेख पढ़ते समय डॉ. शर्मा को टोका-टाकी बर्दाश्त न थी. उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ. उन्होंने सभी को घूरकर देखा और अपना शाश्वत तकियाकलाम, ‘‘इट्स एनफ’’ कह वह उठ गए. सभी भौंचक. आलेख तो शुरू ही हुआ था. डॉ. विनय ने टोका, ‘‘क्या हुआ पंडित?’’

‘‘मैं जा रहा हूं.’’

गर्मी के दिन थे. गोष्ठी छत पर हो रही थी. डॉ.विनय ने रोका...मिन्नते कीं. डॉ. रामदरस मिश्र ने समझाने का प्रपत्न किया, लेकिन पंडित जी का मूड उखड़ा तो फिर जमा नहीं. वह सीढ़ियां उतर गए थे .

डनके व्यक्तित्व का दूसरा कमजोर पक्ष था उनकी कार्य-शैली. एक अच्छे समीक्षक-आलोचक की प्रतिभा थी उनमें, लेकिन वह उसका सही उपयोग नहीं कर सके. स्नेहिल होते हुए भी स्वभाव की अक्खड़ता ने उन्हें रचनाकारों से दूर रखा तो कर्यशैली भी बाधक बनी. कुछ भी व्यवस्थित नहीं कर पाते थे. समय का खयाल नहीं रखते थे. आवश्यक और महत्वपूर्ण को छोड़ अनावश्यक कामों-बातों और लोगों में उलझे रहे. एक बार उन्होंने बताया था कि उन्होंने लगभग एक हजार पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी थीं. यह अतिशयोक्ति हो सकती है, लेकिन यह सच था कि उन्होंने बहुत अधिक समीक्षाएं लिखी थीं.


उनकी कार्यशैली से संबन्धित स्वानुभूत एक उदाहरण देना चाहता हूं. किताबघर (अब किताबघर प्रकाशन), नई दिल्ली से मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ’प्रकारान्तर’ प्रकाश्य था. यह कार्य मैंने 1985 में पूरा कर लिया था, लेकिन उस वर्ष उसका प्रकाशन नहीं हो पाया. उन्हीं दिनों डॉ. शर्मा से इस विषय में चर्चा हुई. उन्होंने पूछा, ‘‘उसकी भूमिका आपने लिखी है?’’ ‘‘जी ।’’ ‘‘अरे डॉक्टर, आपने पहले क्यों नहीं बताया....आजकल मैं लघुकथाओं पर विशेष कार्य कर रहा हूं. उसकी बहुत अच्छी भूमिका लिखता.’’

‘‘अभी क्या बिगड़ा है! आप लिख दें. आपकी भी प्रकाशित हो जाएगी.’’

‘‘आप सत्यव्रत शर्मा (प्रकाशक) को कह दीजिए....मेरी भूमिका मिलने के बाद ही वह पुस्तक को प्रेस में देंगे.’’

यहां यह उल्लेख अनुचित नहीं होगा कि किताबघर के पहले सलाहकार डॉ. रत्नलाल शर्मा ही थे. प्रकाशन प्रारंभ करने के पश्चात सत्यव्रत शर्मा उनसे प्रकाशन संबन्धी सलाहें लिया करते थे. शर्मा जी के बाद आकाशवाणी के नेपाली यूनिट से अवकाश ग्रहण करने के बाद शंकरलाल मश्करा ने उस कार्यभार को संभाल लिया था और लघुकथा संकलन में आवश्यक संशोधन और परिवर्तन-परिवर्धन की सलाह मश्करा जी ने दिया था. विलंब तो हुआ था, लेकिन वह एक उल्लेखनीय संकलन तैयार हुआ था. तब तक किसी का न ही निजी और न ही किसी द्वारा सम्पादित वैसा लघुकथा संकलन कहीं से प्रकाशित हुआ था.

मैंने श्री सत्यव्रत शर्मा को डॉ. शर्मा का सुझाव बता दिया. उसके बाद प्रारंभ हुआ उनकी भूमिका का इंतजार. पाण्डुलिपि की एक प्रति प्रकाशक के पास और दूसरी डॉ. रत्नलाल शर्मा के पास और शर्मा जी के वायदे दर वायदे होने लगे थे....बस इसी सप्ताह.....पन्द्रह दिन बाद....इसी बीच उन्होंने शक्तिनगर से प्रशांत विहार शिफ्ट कर लिया था. सत्यव्रत शर्मा को भी शर्मा जी की भूमिका न मिलने का बहाना मिल गया था. ‘प्रकारांतर’ का प्रकाशन स्थगित होता रहा. अंततः बहुत जोर देने पर डॉ. शर्मा बोले, ‘‘शिफ्ट करते समय पांडुलिपि बांधकर कहीं रख दी गई थी. मिल नहीं रही. रविवार को घर आ जाओ.....मिलकर खोजते हैं. मैं उनके घर गया. बराम्दे में बने दोछत्ती में बोरियों में बंद पुस्तकों के साथ पांडुलिपि को हमलोगों ने खोज लिया. उसके पन्द्रह दिनों के अंदर उन्होंने छोटी-सी भूमिका लिख दी थी. उसे लिखने में उन्होंने तीन वर्षों का समय लिया था. पुस्तक 1991 में प्रकाशित पायी थी.

रत्नलाल शर्मा के साथ एक और कमजारी थी...वह एक विधा से दूसरी की ओर दौड़ते रहे थे. कहानी, ललित निबंध, व्यंग्य, रेखाचित्र, समीक्षा, बाल-साहित्य.....आभिप्राय यह कि यदि वह अपने को एक-दो विधाओं में साध लेते तो शायद स्थिति विडंबनापूर्ण न होती. लेखक को स्वयं अपने को पहचानना होता है....कि वह क्या लिख सकता है. जीवन भर इधर-उधर भागने के बाद अवकाश ग्रहण करने के पश्चात शायद उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपने को ‘बाल साहित्य’ में केन्द्रित करना प्रारंभ किया था. यदि वह कुछ वर्ष और जीवित रह जाते तो तन-मन-धन से बाल साहितय के लिए समर्पित हो जाने वाले व्यक्ति के रूप में अपनी अलग पहचान बना लेते.

24 फरवरी, 1997 (सोमवार) को जब हम लोग कानपुर से शताब्दी एक्सप्रेस से लौट रहे थे तब मुझे डॉ. शर्मा के बालमन का परिचय भी मिला. और लगा कि उन्होंने व्यर्थ ही विभिन्न विधाओं में अपना श्रम जाया किया था, उन्हें बाल साहित्यकार ही होना चाहिए था. मन को संतोष हुआ था कि विलंब से ही सही उन्होंने आखिर अपने साहित्यकार को पहचान लिया है....बाल-साहित्य के लिए यह शुभ होगा . लेकिन प्रकृति को यह स्वीकार न था. उनकी असमय मृत्यु ने एक स्नेहिल व्यक्ति हमसे छीन लिया था.

मैं प्रायः हफ्ते-दो हफ्ते में डॉ. शर्मा से मिलने विश्वविद्यालय पुस्तकालय जाता था, लेकिन उनकी मृत्यु के पश्चात लंबे समय तक नहीं गया. बहुत बाद में अपने मित्र दलित आलोचक और ‘अपेक्षा’ त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक डॉ. तेज सिंह से मिलने वहां जाने लगा, जो विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में रीडर थे. डॉ. तेज सिंह से डॉ. शर्मा ने ही परिचय करवाया था. वहां की सीढ़ियां चढ़ते हुए डॉ. शर्मा की याद आती. मन करता कि उस कमरे में झांकर देखूं जहां वह बैठते थे. शायद वह बैठे काम कर रहे हों और मुझे देखते ही बोलें, ‘‘ हलो डॉक्टर’’, लेकिन यह सच नहीं था. सच डॉ. रत्नलाल शर्मा के साथ जा चुका था.