अपनों की तलाश / शम्भु पी सिंह
जहाँ सामाजिक मान्यताएँ रोज-रोज बदल रही हों। खण्ड-खण्ड में विभक्त समाज अपनी अस्मिता को बचाये रखने का जद्दोजहद कर रहा हो। परिवार का दायरा ज्वाइंट से नैनो के रास्ते माइक्रो के कांसेप्ट पर जा टिका हो। सत्ता हासिल करना, जन सेवा की जगह कमाई का साधन बन चुका हो। नेताओं का गलियों-मुहल्लों में देखा जाना, चुनावी घोषणा की आहट लगती हो। दफ्तर में काम की कसौटी बाहरी इनकम से तौला जाने लगा हो, वैसे माहौल में एक अकेले राज्य प्रशासन में राजपत्रित अधिकारी रामजीवन बाबू की क्या औकात। किसी तरह एक साल और अपनी प्रतिष्ठा बचाकर सही सलामत रिटायर कर जाएँ यही क्या कम है। नाप तौल कर काम करने वाले रामजीवन बाबू की पहचान एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के रूप में रही है, लेकिन बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक आते-आते उदारीकरण की नीति ने विश्व और देश को ही नहीं आमजन को भी प्रभावित किया। सपनों के महल खड़े होने लगे। रोटी-कपड़ा-मकान की जरूरतें आलीशान बिल्डिंग, होटलों की पार्टी, ब्रांडेड कपड़े और लग्जरी गाड़ियों में बदल गई। मंत्रिपरिषद की बैठकों में रोज-रोज विकास की गंगा बहाने की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने को लिए जा रहे फैसलों के माध्यम से बाबुओं के अंडर टेबल की गंगा, पंचायत सरकार से होते हुए गली-मुहल्ले भी न बच पाए हों। ऐसे माहौल में भी रामजीवन बाबू ने कभी अपनी नीयत खराब नहीं की। लेकिन इसका दुष्प्रभाव दफ्तर तो दफ्तर घर में भी देखने को मिला।
बच्चे बड़े हो गए थे, आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति करने में ही सैलेरी एक सप्ताह से आगे बैंक में कभी नहीं टिक पाई। बच्चों की पढ़ाई, बेटी की शादी, घर मकान की जरुरतें पूरी करते-करते उम्र कब निकल गई, पता ही नहीं चला। जब बच्चों के बच्चे घर में आ गए तो रामजीवन बाबू को भी नौकरी से विदा लेने का वक्त आ गया। लगा कि चलो अब तो सारी जिम्मेदारियों का निर्वाह हो चुका। एक बेटा अनुपम और एक बेटी प्रिया और उनके बच्चों के साथ हंस-खेल जिंदगी निकल जाएगी। अनुपम का बेटा चिंकू सात साल का और बेटी रूपा चार साल की थी। उसके स्कूल जाने की तैयारी हो रही थी। रामजीवन बाबू के रिटायर होने का इंतजार ही था। उसे स्कूल पहुँचाने और लाने की जिम्मेदारी इनके हिस्से में आनी थी। एक दादा के लिए इससे अच्छा काम और क्या होता। रूपा सबसे अधिक अपने दादा के करीब थी भी। नौकरी में रहते हुए भी हमेशा दादा से चिपकी रहती। दादा-पोती के बीच आपस में रूठना मनाना रूटीन की तरह था। प्रिया चूंकि इसी शहर में ब्याही गई थी, तो शादी के बाद भी उन्हें बेटी के ससुराल जाने का एहसास नहीं हुआ। जब मन होता आ जाती या जब मन होता रामजीवन बाबू मिलने चले जाते। प्रिया की बेटी शुभ्रा बड़ी थी, सातवें क्लास में पढ़ती थी, जबकि उसका बेटा सिंटू अभी पांच साल का था। पहली में पढ़ता था। छोटे से परिवार में चौंतीस साल की नौकरी में पैंतीस साल से पत्नी प्रभा का साथ, साठ साल के बाद के भरे पूरे परिवार के खुशहाली की निशानी थी। पैतीस साल पहले प्रभा को ब्याह कर घर लाये थे। बेरोजगार लड़के के साथ कम उम्र में ब्याही गई प्रभा बहुत अधिक शिक्षा हासिल नहीं कर पाई थी, लेकिन घर गृहस्थी में उसने अपनी सिद्धता सिद्ध कर दी। हालांकि एक साल बाद ही रामजीवन बाबू नौकरी में आ गए। एसएससी से सीधे प्रधान लिपिक में चयन हुआ, कल ही तो उपनिदेशक प्रशासन के पद से सेवानिवृत्त हुए।
चौंतीस में तीस साल की नौकरी बड़ी शान से गुजरी। ईमानदार अफसरों के साथ काम कर शांतिपूर्वक दो जून की रोटी मिलती रही। लेकिन उदारीकरण के बाद स्थिति बदली। पैसों की आमद बढ़ गई। बाज़ार में चमक आ गई। पुराने खपरैल मकान कंक्रीट में और कंक्रीट वाले मॉल में परिवर्तित हो गए। रामजीवन बाबू की हैसियत में कोई इजाफा नहीं हुआ। हाँ महंगाई के हिसाब से सैलेरी में बढ़ोतरी अवश्य हुई। लेकिन घरवालों के लिए कभी काफी नहीं रही। हजारों में निबटने वाले कार्य का प्रस्ताव लाखों में आना, दफ्तर एक रूटीन-सा हो गया। देख सुन कर हस्ताक्षर करने का जुमला रामजीवन बाबू के नाम ही इस्तेमाल होता था। इसलिए लोग इन्हें खड़ूस कहा करते। एक-एक पाई का हिसाब फाइल पर देखेंगे। कोई मातहत इनके पास अपनी फाइल नहीं भेजना चाहता, पता नहीं खड़ूस कौन-सा ऑब्जेक्शन लगा दे। खैर समय को निकलना था, निकल गई। रिटायरमेंट की घड़ी आ गई। खुशी-खुशी रामजीवन बाबू घर आए। दफ्तर द्वारा शाम को दी गई पार्टी शानदार रही। सबने तारीफ के कशीदे गढ़े। बॉस ने अपने भाषण में इन्हें एक ऑफर भी दिया कि यदि घर में मन न लगे तो आ जाइएगा, कई पद रिक्त पड़े हैं, आप अनुभवी हैं, काम जानते हैं, हमें तो सहूलियत ही होगी। प्लेसमेंट के नियमानुसार आपको एक अच्छी राशि भी मिल जाएगी। सबने ताली बजायी। खुश हो गए रामजीवन बाबू, लेकिन तब अपने उदबोधन में इन्होंने बॉस का आभार व्यक्त करते हुए, ऑफर ठुकरा दिया। अब तो बीवी-बच्चों के साथ बाकी समय गुजारनी है। बहुत काम कर लिया, अब जो भी समय बचा है, अपनो के बीच ही गुजरेगी। डिनर पार्टी के बाद घर आने में रात के बारह बज गए।
सुबह नींद खुली तो लगा चैंतीस साल के बाद आज आजादी की पहली सुबह है। सूर्य की लालिमा कुछ अधिक आकर्षण लिए आकाश में फैला था। घर के बाहर बरामदे पर रोज की तरह पत्नी के हाथों बनी चाय का इंतजार करने लगे। पत्नी प्रभा दो कप चाय के साथ हाजिर हुई।
"चलो! कल चौंतीस साल के बंधन से मुक्ति मिल गई।" कुछ चैन से रह पाऊंगा। भागदौड़ की जिंदगी से तो मुक्ति मिली। सुबह उठो, चाय भी ठीक से नहीं पी पाता। हमेशा नजर घड़ी पर। नहाते-खाते, उठते-बैठते कभी भी घड़ी से नजर नहीं हटती। अब कम से कम हाय तौबा तो नहीं रहेगी। "
"तुम घर में कभी नहीं रहोगे। तुम्हें मन ही नहीं लगेगा। बाहर रह आए हो। घर में देख लेना बोरियत ही होगी।"
"अरे क्यों बोरियत होगी, तुम हो, बच्चे हैं, बच्चों के बच्चे हैं। तुम सबसे बातें करूँगा। बच्चों के साथ खेलूंगा। तुम्हें भी तो आराम मिलेगी। मेरे लिए सुबह-सुबह किचेन तो नहीं भागना पड़ेगा।" "अरे छोड़ो! जी, मुझे तो सांस चलने तक किचेन से मुक्ति कहाँ मिलने वाली। तुम्हें ऑफिस से आजादी मिल गई न, हम औरतों का सुख तो घर में ही है। हमें क्या फर्क पड़ता है। चाय का कप खाली हो गया हो तो लाओ, कूकर व्हिसिल दे रहा है।" प्रभा थोड़ी चाय भी कप के साथ ले गई। रामजीवन बाबू की सारी खुशियों पर पत्नी के प्रवचन ने पानी डाल दिया था। सोचा नहीं था, ऐसा टका-सा जवाब मिलेगा।
"क्या पापा, अब क्या इरादा है आपका। कुछ करने की सोचे हैं कि नहीं। पेपर में देखा करिए! सीनियर सिटीजन के लिए भी कई ऑफर होते हैं, काम के। घर में तो बोर हो जाइयेगा। एक सप्ताह तक तो ठीक लगेगा, एक सप्ताह बाद घर ही काटने को दौड़ेगा।" रामजीवन बाबू ने बेटे की हाँ में हाँ मिलाया। बेटा भी तो दो बच्चों का बाप था। समझदारी वाली बातें करने लगा था। आज के बच्चों को ये भी तो नहीं कह सकते कि उनकी समझ कच्ची है, उन्हें अभी जिंदगी का क्या तजुर्बा। ये सब शब्द उनकी पीढ़ी तक के लिए ही बने थे। गलत-सही गार्जियन के हर आदेश को मान लिया, रियेक्ट करना बदतमीजी मानी जाती थी। आज टेक्नोलॉजी के जमाने में उन्हें अपनी पीढ़ी बौनी नजर आने लगी। "दफ्तर में तो स्टाफ की कमी है ही, लेकिन वहाँ अब जाने का मन नहीं होता। कल तक जो पूछ मेरी थी, अब वह तो मिलनी मुश्किल है। घुटन-सी होगी। दूसरी जगह अब क्या काम करना, बहुत कर लिया। अब तुमलोगों के साथ रहना है।"
"क्या पापा! आप भी न बच्चों जैसी बात करने लग गए हैं। दफ्तर में जगह खाली है, तो आपको जाना चाहिए। काहे की घुटन। काम करेंगे, पैसा मिलेगा। बात खत्म। हमें बाकी से क्या लेना देना।" अनुपम पापा को प्रोफेशनल होने का पाठ पढ़ा रहा था। आज के बच्चे हैं, प्रोफेशनलिज्म की समझ रखते हैं। अब पढ़े-लिखे एक इंजीनियर बेटे की बात भला रामजीवन बाबू कैसे नकार सकते थे। माननी ही थी। उन्होंने भी हाँ में सर हिला दी। बच्चे और बूढ़े में अंतर ही क्या। कल तक रामजीवन बाबू बेटे को जिंदगी का पाठ पढ़ाते नहीं थकते, आज बेटे ने वह जगह ले ली थी। आज पहली बार रामजीवन बाबू को अपने उम्र का एहसास हुआ। कल तक तो पिछले चौंतीस साल से चला आ रहा एक ही रूटीन। नींद खुलने के साथ ही ऑफिस भागते-भागते पहुँचना। उम्र की गिनती का कभी मौका ही नहीं मिला। बस बालों में कंघी फेरते वक्त काले से सफेद हो गए बाल पर एक नजर पड़ती तो लगता, मैच्युरिटी की निशानी है।
"बेटी रूपा! मम्मी को बोलो दो कप और चाय देने। तुम्हारे पापा भी पियेंगे।" अचानक चाय की फरमाइश से सभी चौकन्ने हो गए। हर कोई अचंभित, सुबह-सुबह दो कप चाय तो ये कभी पीते नहीं। आज सूरज किधर से निकला।
"मम्मी जी! देखिये पापा जी चाय मांग रहे हैं, मैं चिंकू को तैयार कर रही हूँ। उसके स्कूल बस का टाइम हो गया है।" बहू की आवाज पर किसी ने कोई जवाब नहीं दिया तो रामजीवन बाबू को लगा शायद उनकी पत्नी ने बहू की आवाज नहीं सुनी।
"देखो बेटा, शायद तुम्हारी माँ ने नहीं सुनी। बोल दो चाय के लिए।"
"ठीक है मैं बोल देता हूँ। माँ पापा को एक कप चाय भेज दो। मेरी नहीं। मैं स्नान करने जा रहा हूँ। मेरे ऑफिस जाने का वक्त हो गया है।" अनुपम चला गया।
"दादा जी! आपकी चा...य।" चिंटू के हाथ से कप छूट गया। रामजीवन बाबू के घुटने पर चाय गिरी। गर्म चाय से छाले पड़ना तो लाजिमी था। घुटने से नीचे पूरे पैर में जलन होना ही था।
"बाप रे! मर गया। उल्लू का पठ्ठा है। एक कप चाय ठीक से नहीं ला सकता।" रामजीवन बाबू ने जोर की डांट पिलाई। सभी घर वाले दौड़ पड़े।
"क्या हुआ पापा जी। इतना जोर से क्यों चिल्लाए।" बहु हतप्रभ थी। लगा कहीं चिंटू को तो कुछ नहीं हो गया।
"आप भी न पापा जी! बच्चों की तरह करते हैं। बच्चा है, चाय गिर गई। मैं शाम में लौटते वक्त दवा लेता आऊंगा। ठीक हो जाएगी जलन। मम्मी! पापा के पैर पर ठंढा पानी डाल दो। इसमें इतना परेशान होने वाली तो कोई बात थी नहीं।" बेटा अनुपम आधी-अधूरी टाई बाँधे आ गया था। चिंटू रोने लगा। उसकी माँ उसे पुचकारने लगी।
"अब पापा जी घर बैठ गए हैं न। यही सब होता रहेगा। दिन भर में दस कप चाय बनाते रहो। सटरडे, संडे को तो झेलती ही रही हूँ। अब तीसों दिन झेलना है। तुम कम्पनी का क्वार्टर क्यों नहीं देखते। ये डांट-डपट मुझे अच्छी नहीं लगती।" अंदरखाने से आ रही आवाज रामजीवन बाबू के कानो को भेद रही थी।
"आज रिटायरमेंट के बाद का पहला दिन है। क्या जरूरत थी तुम्हें चिंटू को डांटने की। अरे चाय ही गिरी थी न, पहाड़ थोड़े ही गिरा था। तुम भी न राई को पहाड़ बना देते हो। बच्चे से भी बदतर हो गए हो। अब क्या खाक जाएगा स्कूल। रो-रो कर परेशान है। तुम जानते हो आज के बच्चे डांट बर्दाश्त नहीं करते। जितना ही वह रोएगा, उतना ही उसकी माँ भनभनाती रहेगी।" पत्नी प्रभा को घर की अशांति का अंदेशा सता रहा था। वह अपने बहू के मिजाज को अधिक जानती थी।
"बच्चों को बड़े-बुजुर्गों द्वारा डांटना कोई सज़ा नहीं होती। एक सीख होती है, आगे वैसी गलती न करने की। बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करने की। बच्चों को डांटने, फटकारने, मारने की कोई कॉपीराइट ले ली है क्या आप महिलाओं ने। मैडम! जिंदगी के रास्ते बहुत कठिन होते हैं। आज आप देख रही हैं न, छोटी-छोटी बातों पर बच्चे सुसाईड तक करने लग गए हैं, जानती हैं क्यों, क्योंकि उनके अंदर जिंदगी से लड़ने का जज्बा पैदा ही नहीं किया गया। सॉफ्सटिकेटेड बना के रखेंगे, तो थोड़ी-सी समस्या का सामना करने से आसान पलायन लगेगा। खैर! ये सब मेरे कहने से क्या फायदा, जब कोई समझने-बूझने को तैयार ही नहीं है। जो मन में आये करो।"
"देखो! कल तक तुम घर में नहीं रहते थे। तुम्हें नहीं पता कि आज के मां-बाप कितने सेंसेटिव हैं बच्चों के प्रति। अरे! बच्चे उनके हैं, तो उन्हीं की चलेगी न। तुम्हें डांटने, फटकारने की जरूरत क्या थी।" प्रभा रिश्तों में आई दरार को रफ़्फू करने का प्रयास कर रही थी।
"अरे तुम भी न हद करती हो। मैंने कोई जानबूझकर थोड़े ही डांटा। वह तो गर्म चाय पैर पर पड़ते ही अचानक जलन की प्रतिक्रिया थी। मैंने क्या कह दिया। उल्लू का पठ्ठा ही न। मतलब अगर गाली भी थी, तो उसके बाप को। उल्लू तो मेरा बेटा हुआ न। उसने तो समझा भी नहीं होगा। इसमें कौन-सी बड़ी बात हो गई। अगर दादा ने पोते को एक डांट ही पिला दी, तो तुम सभी ने पूरा घर ही सर पर उठा लिया। इस तरह की डांट-फटकार तो रोज मैं अपने अधीनस्थ को देता रहता था। कभी किसी ने बुरा नहीं माना। आज पोते को एक डांट लगाई, तो तुम सभी को मेरी बात नागवार गुजरी।" रामजीवन बाबू को लग रहा था कि रिटायरमेंट के बाद वह अपने नहीं, किसी रिश्तेदार के घर आ गए हों।
"अरे! इन बच्चों का लालन-पालन तुम्हारे बच्चों की तरह नहीं हुआ है कि खाना है तो खाओ, नहीं तो खेलने बाहर जाओ। आज के मां-बाप बच्चों को सर पर बिठा कर रखते हैं।" प्रभा की आवाज में भी तल्खी थी।
"तो रखें न सर पर बैठा कर। सर उन्हीं का गंदा करेंगे। मैं कितने दिन उन्हें देखने बैठा रहूंगा। झेलना भी उन्हीं को है। मैंने अपने बच्चों को जिंदगी से लड़ना सिखाया है। मखमली चादर पर नहीं सुलाया, लेकिन मखमली चादर खरीदने की सलाहियत दी। तुम बखूबी जानती हो। मेरे बच्चों के साथ भी समस्याएँ आई, तो उन्होंने लड़ना सीखा, मैदान नहीं छोड़ा।" रामजीवन बाबू गुस्से से लाल पीला हो रहे थे। उठकर खड़ा होना चाहते थे, लेकिन पैर में छाला पड़ जाने के कारण खड़ा नहीं हो पा रहे थे।
"लाओ बर्फ का टुकड़ा कपड़े से बाँध देती हूँ, राहत मिलेगी।" प्रभा बिगड़े माहौल को ठीक करने का प्रयास कर रही थी।
"रहने दो ये लाड़-दुलार। तुममे भी काफी परिवर्तन हो चुका है। दरअसल अब मेरी जरूरत किसी को नहीं रही। अब मैं इस घर में बिन बुलाये मेहमान की तरह हूँ। अब रिश्ते भी यूज्ड एंड थ्रो की तरह इस्तेमाल होने लगे हैं। आज बुजुर्गों का काम रह गया है, अपनी खुशियों, अपनी ख्वाहिशों को दबाकर बच्चों की जरूरतें पूरी करते रहना। अरे! हमारे समय में गावं वाले भी बच्चे को दो थप्पड़ लगा देते थे तो कोई मांबाप कभी किसी से पूछने नहीं जाता था कि उनके बच्चे की गलती क्या थी। मान्यता एक ही थी कि बिना गलती के कोई किसी बच्चे पर हाथ क्यों उठाएगा। अगर गलती की है तो मां-बाप की जिम्मेदारी का निर्वाह गाँव वालों ने किया है। तो बच्चे कहीं भी हों, ये डर रहता था कि सिर्फ मां-बाप नहीं, गाँव वालों की भी नजर उसपर है।" रामजीवन बाबू गुस्से से कांपने लगे।
"अब वह समय नहीं रहा। अब घर वाले ही बर्दाश्त नहीं करते, तो गाँव वालों की क्या बात है। छोटी-छोटी बात पर तुम इतना सेंसेटिव क्यों हो जाते हो। बहू बाहर से आई है। तुमने उसके लिए क्या किया है, जो उसकी बात तुम्हें इतनी लग गई। तुमने उसके बेटे को डांट लगाई तो वह भन-भन कर रही है। उससे इतनी अपेक्षा क्यों।"
"सही कहा तुमने। उनसे मेरी कोई अपेक्षा है भी नहीं और करुंगा भी नहीं। लेकिन क्या बेटे का कोई फर्ज नहीं बनता था। वह तो बोल सकता था कुछ अपनी पत्नी को। लेकिन उल्टा मुझे ही सुना गया। मैं बच्चे की तरह हो गया हूँ। साफ-साफ तुमलोग क्यों नहीं कहते कि घर में मेरा दिन भर रहना तुमलोगों को अच्छा नहीं लग रहा है। तुमलोगों की आजादी में खलल पड़ने का भय है।" रामजीवन बाबू को लग रहा था कि शायद अपने बॉस के प्रस्ताव को नकारकर उन्होंने ठीक नहीं किया।
"अरे! तुम इतने सीरियस क्यों हो जाते हो। तुम्हारा पोते को डांटना बेटे-बहू को अच्छा नहीं लगा, तो मत डांटो।"
"सिर्फ बेटे-बहू की ही बात नहीं है। बेटी की भी बात है। उस दिन तुम्हारे सामने की बात है, एक जरूरी सूचना टीवी पर दिखी तो एक मिनट के लिए सिंटू से मैंने रिमोट लिया था। वह जिद कर रहा था देने को। मैंने डांट पिलाई। क्या हुआ, बेटी आयी और सिंटू को उठाकर ले गई। मेरी समझ में नहीं आया क्या? दोनों बात तो बराबर हुई न। इसने बोलकर मुझे मेरी औकात दिखाई और उसने बिना बोले। दोनों ने अपने बच्चे पर अपना हक़ जताया। मेरा तो किसी पर कोई हक नहीं है न। घर के बच्चों को प्यार करने का हक है, डांटने का नहीं। प्यार करें हम घर के बच्चों को और डांटने जाएँ पड़ोसी के बच्चों को। अरे वाह रे वाह! क्या न्याय है। जब बहू और बेटी अपने बच्चों को डांटती और मारती है, क्या कभी मैंने बुरा माना। नहीं न, तुमने कुछ कहा, नहीं। क्योंकि बच्चे उनके हैं, इसलिए उन्हें तो पूरा अधिकार है। अरे दादा-पोते और नाना-नतनी के बीच में किसी को आने की जरूरत क्या है। मैडम मैं समझ गया, अब आप लोगों को मेरी जरूरत नहीं है।" रामजीवन बाबू रुआंसे हो गए। पैर के नीचे की जमीन खिसकती नजर आई। रिटायरमेंट के बाद के सपने आंखो के सामने बिखरने लगे। कल विदाई समारोह में सबकी आंखे गीली थी, एक जिम्मेदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी का विदा होना अच्छा नहीं लग रहा था, लेकिन रामजीवन बाबू की आंखों में एक चमक थी, अपने परिवार, बच्चों के बीच जाने की खुशी का। दफ्तर के चपरासी से लेकर बॉस का गला भर आया था, अपने प्रिय को खोने का। आज उसी रामजीवन बाबू की आंखें नम थी। अपनों के बीच होकर भी सबकुछ खोने का। परायों का मारा तो घर का रुख करता है। घर का मारा कहाँ जाए। रिटायरमेंट के बाद की पहली सुबह की लालिमा स्याह नजर आने लगी। किसी तरह उठकर खड़े हुए। पत्नी ने सहारा देना चाहा, लेकिन उन्होंने हाथ झटक दी। लूंगी गंजी से, पैंट-शर्ट पर आ गए। बालों में कंघी करने आईने के सामने आए। एक नजर अपने-आपको देखा।
कल तक चौंतीस साल में चौंतीस दिन भी उम्र कम नहीं लगी। लेकिन पिछले दो घण्टे ने चेहरे पर झुर्रियाँ ला दी। उनकी उम्र में बीस साल का इजाफा कर दिया। जलन के कारण ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे। लंगड़ाने भी लगे, अस्सी के बुजुर्ग की तरह। बिना कुछ खाये-पीये निकलने लगे, पत्नी ने टोका।
"कहाँ जा रहे हो?"
"साहब ने कल कहा था, घर में मन न लगे तो आ जाइएगा, जगह खाली है, आप जैसे अधिकारी की जरूरत इस दफ्तर को हमेशा रहेगी।" रामजीवन बाबू के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आई, क्योंकि साहब के इस ऑफर पर सभी अधिकारी-कर्मचारी ने ताली बजायी थी। कल शाम विदा करते वक्त भी सबने एक सुर से कहा था, आप जब भी आएंगे हमें खुशी होगी।
पत्नी प्रभा ने टिफिन लेने को कहा, लेकिन रामजीवन बाबू ने सुनकर भी अनसुना किया। खाने का क्या है, कैंटीन में भी मिल जाएगा। आंखे दफ्तर की फाइलों पर जा टिकीं, पैर ऑफिस की ओर बढ़ गए थे, चौंतीस साल के अपनो की तलाश में