अपराजेय मानवीय आकांक्षा की कहानियाँ / देवशंकर नवीन

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मैथिली में मौलिक कथा-लेखन का प्रारम्भ बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से माना जाता है। अर्थात्, सौ वर्षों की यात्रा में मैथिली कथा आज की स्थिति में पहुँची है। अपने प्रारम्भिक दौर से ही यह विधा तरह-तरह की विडम्बनाओं का शिकार होती रही है। प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में मुँहकी खाने के बाद भारतीय बुद्धिजीवियों ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए भाषाई जागरूकता को सर्वाधिक कारगर आधार मानकर आगे की रणनीति तय की। मैथिली के रचनाकारों की राष्ट्रवादी चेतना इस उपक्रम में स्तुत्य रही। उनकी प्राथमिक चिन्ता भारत की स्वाधीनता बनी। पर सरकारी बही-खाते में मिथिलांचल के स्वाधीनता सेनानियों एवं रचनाधर्मियों के योगदान कहीं अंकित नहीं हुए। गौरतलब है कि आज कई भाषाओं के लोग जिस सिद्ध साहित्य को निजी धरोहर साबित करने को चाक चौबन्द हैं, वह सिद्ध साहित्य वस्तुतः मैथिलों द्वारा रचा गया और वह मैथिली की सम्पदा है। भारतीय भाषाओं के चिन्तक-विवेचक जिस दलित साहित्य का सन्देश लेकर आज अत्याधुनिक होने का दावा कर रहे हैं, वह चिन्ता शताब्दियों पूर्व मैथिली के सिद्ध साहित्य में देखा जा सकता है। इस वक्त इस इतिहास और विमर्श में जाने की ज्यादा गुंजाइश नहीं होने की वजह से सीधे मैथिली की बिडम्बनाओं पर उतरते हैं।

सन् 1857 से सन् 1947 तक के नब्बे वर्षों की अपनी संघर्ष-यात्रा में जब मैथिली के रचनाकारों ने अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति नवस्थापित व्यवस्थाओं की तरफ से कोई अनुबन्ध-बन्ध नहीं देखा, तो पहली बार उन्हें मोहभंग हुआ। यह समय आते-आते मैथिली कथा के पुरोधाओं के समक्ष फक्क से रह जाने की स्थिति हो गई थी--दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम--वाली स्थिति थी। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में ही शुरू हुई मैथिली कथा-यात्रा उधर बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, बहु-विवाह, वृद्ध-विवाह जैसी दुर्वृत्तियों में फँसी हुई थी। मिथिला की इस समस्या का जड़ीभूत कारण पंजी-प्रथा और जमीन्दारी प्रवृत्ति थी। इसके बाद व्यभिचार, स्त्री-शोषण, श्रम अवमूल्यन आदि का प्रारम्भ होता था। शैक्षिक रूप से मिथिलांचल में दो ही स्थितियाँ थीं--अति शिक्षित और निरक्षर। शिक्षा का सीधा सम्बन्ध जाति और जमीन्दारी से था और वैवाहिक अत्याचार की कौलिक श्रेष्ठता एवं आर्थिक सम्पन्नता से। इस श्रेष्ठता और सम्पन्नता के बल पर प्रभु-सम्प्रदाय के लोग अपराध को आचार बना डालने को स्वतन्त्र थे। ये तमाम स्थितियाँ मैथिली के रचनाकारों के लिए त्रासद साबित हो रही थीं। चन्दा झा से ‘यात्री’ तक के यहाँ इन दुवृत्तियों के तमाम चित्र देखे जा सकते हैं।

स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारतीय-व्यवस्था में मैथिली भाषा, संस्कृति एवं मैथिलों के योगदान की अवहेलना से आहत मैथिली-रचनाकारों के समक्ष किसी सुनहरे सपने से झटके के साथ जगने की स्थिति उपस्थित हुई। एक तरफ आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, दूसरी तरफ मैथिली के रचनाकार इस उपेक्षा से मर्माहत हो रहे थे। तमाम स्थानीय मजबूरियों के साथ-साथ अब भाषा के अस्तित्व-सत्यापन एवं विकास का सवाल उनके समक्ष खड़ा था। भला हो हरिमोहन झा, का×चीनाथ झा ‘किरण’, वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ और राजकमल चौधरी का, जिन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन के आसपास के मात्र दो दशकों में ही आकण्ठ समस्याओं में डूबे मैथिली भाषा के साहित्य एवं निश्छल, प्रवंचित साहित्यकारों को एक बड़े झटके से ऊबार लिया और सन् 1962, सन् 1967 को पार करते हुए मैथिली कथा सन् 1975 में प्रविष्ट हुई। अर्थात् भारतीय राजनीति और मानवीय दुर्दमन का कुरूपतम रूप उजागर हुआ। पूरे भारत में आपातकाल लागू हुआ। इससे पूर्व काँचीनाथ झा ‘किरण’, वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’, राजकमल चौधरी, गंगेश गुंजन, प्रभास कुमार चौधरी, जीवकान्त, महाप्रकाश आदि की पीढ़ी के अभूतपूर्व रचना-कौशल से मैथिली कथा अद्यतन और समकालीन समाज का विलक्षण आईना हो चुकी थी, अपनी शाश्वतता प्रमाणित कर चुकी थी।

बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक के दारुण और दमघोंटू वातावरण की परिणति के रूप में जो नई पीढ़ी तैयार हुई, उसके समक्ष मुट्ठी भर सुविधा और क्षितिज भर दायित्व मुँह फैलाए खड़ी थी। पूर्ववर्तियों की तरह नई दिशा में आगे बढ़ने पर उसके लिए प्रतिबन्ध नहीं था, मगर तीन दशक (सन्1947 से सन् 1977) की आजादी के दौरान प्रशिक्षित, सियासी बहेलियों द्वारा फैलाए हुए मायाजाल में बुरी तरह उलझी हुई भोली-भाली जनता की निरीहता इस पीढ़ी की आत्मा को खँगाल रही थी। मानव-द्रोह फैलाने के नए-नए नुस्खे, मनुष्य को साँप-लोमड़ी-बिच्छू-बाज-भेड़िया- बारूद-पिस्तौल बनाए जाने के कारखाने, जाति-धर्म-क्षेत्र के नाम द्रोह-दंगा फैलाने का खेल; भूख-अभाव-बेकारी-शोषण-दमन आदि की चल रही खेती; चुनाव और प्राकृतिक आपदाओं की शृंखला; अर्थनीति, व्यापार नीति, राजनीति, समाजनीति, धर्माचरण आदि में अन्तर्राष्ट्रीय राजनय की भूमिका; नए समाज का नवाचार, नए रहन-सहन, अत्याधुनिकता की ओर सारी सीमा-शर्त के उल्लंघन के साथ बढ़ती लोलुपता; अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क के कारण साहित्यिक-सांस्कृतिक-वैचारिक संघर्ष का नव स्वरूप... सब के सब इस नवीनतम पीढ़ी के समक्ष पहाड़ की तरह अटल खड़े थे। अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों द्वारा बनाए गए ज्योर्तिमय मार्ग को जाज्वल्यमान करती हुई, यह पीढ़ी इन्हीं परिस्थितियों में नई भंगिमा, नए जोश के साथ नित नए-नए क्षितिज की तलाश करने लगी। यह पीढ़ी आपातकाल के दुर्दमन एवं दुर्वृत्ति को सिद्दत से महसूस कर रही थी। विभूति आनन्द, अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, विनोद बिहारी लाल, प्रदीप बिहारी, तारानन्द वियोगी, रमेश, विभा रानी, देवशंकर नवीन, ज्योत्स्ना चन्द्रम, सुस्मिति पाठक आदि के महत्तम योगदान से यह पीढ़ी संचालित हुई। आधी अधूरी स्वाधीनता का दंश इस पीढ़ी ने अपने ऊपर भोगा।

किशोरावस्था में ही सामाजिक उत्पीड़न, राजनीतिक दुर्दमन, प्रशासनिक तानाशाही के गहरे चोट भोग कर यह पीढ़ी आहत हो चुकी थी। इसी बीच आपातकाल की घोषणा और सन् 1977 के आम चुनाव के परिणाम ने इन्हें और अधिक आहत किया। चुनाव से पूर्व के छात्र-आन्दोलन की तीक्षणता में इस पीढ़ी के निजी आक्रोश का भी हिस्सा था। आम चुनाव के बाद इस पीढ़ी का फिर से एक बार मोहभंग हुआ। कालान्तर में निरन्तर इस पीढ़ी को राजनीतिक अनस्थिरता का परिणाम देखना पड़ा, चुनावों की बारम्बारता के कारण आर्थिक बोझ बढ़ता गया। बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा, राजनीतिक उद्दण्डता, अपराध का राजनीतिकरण, राजनीति का अपराधीकरण बढ़ता गया। महगाई, अभाव, बेकारी, भूखमरी, कृषि-व्यवस्था का कुप्रबन्धन, स्त्री एवं दलितों के साथ जारी उत्पीड़न, अपहरण, बलात्कार, लूट, राहजनी, घूसखोरी, साम्प्रदायिक दंगा, धर्म-जाति-सम्प्रदाय के आश्रय में मानवीय द्रोह फैलाने का धन्धा पूरे समाज में आचार की तरह फैल गया। इस पीढ़ी के कथाकारों ने इन सबका संज्ञान लिया। इस समय तक आते-आते बाल-विवाह, बहु-विवाह की दुवृत्ति, कौलिक श्रेष्ठता एवं जमीन्दारी प्रथा के कारण व्याप्त दुराचार तो खत्म हो गया, किन्तु मजदूर वर्ग का शोषण तब भी जारी रहा। मिथिलांचल से प्रतिभा एवं श्रम का पलायन इसी उत्पीड़न और शोषण का परिणाम था। इस समय तक मिथिलांचल में शिक्षण पद्धति बदहाल हो चुकी थी। औद्योगिक विकास, आर्थिक उदारीकरण एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों के किसी भी सद्पक्ष से मिथिला के नागरिक को किसी तरह का लाभ नहीं मिल रहा था, फलस्वरूप मिथिलांचल के छात्रों का पलायन प्रारम्भिक उम्र में ही होने लगा। इस तरह परदेश में शिक्षित-दीक्षित मैथिल युवाओं ने भी मिथिलांचल लौट आने की चेष्टा नहीं की। ये सारी स्थितियाँ निरन्तर राजनीतिक पतन के कारण उत्पन्न हुईं।

इस पीढ़ी के सबल कथाकार प्रदीप बिहारी की कहानियों की जन्मभूमि यही है। इन समस्त परिस्थितियों का ममत्वपूर्ण चित्रण अपनी समस्त छवियों के साथ उनके यहाँ दिखाई देता है। उनकी मैथिली कहानियों ने अपने समय का बहुत बड़ा दायित्व निबाहा है। जाहिर है कि पूर्ववत्र्ती रचनाकारों ने जिन विषयों और शैलियों के साथ मैथिली कथा को गति दी थी, उन्हें आगे बढ़ाने के साथ-साथ घटनाबहुल समाज-व्यवस्था की कई नवीनतम परिस्थितियाँ उनके सामने खड़ी हुईं। विषय एवं शिल्प के सन्दर्भ में पूर्ववत्र्ती कथाकार राजकमल चौधरी एवं उनके अनुवत्र्तियों ने प्रभूत अधुनातनता दिखाई थी, यहाँ तक आते-आते इस पीढ़ी के कथाकारों का वण्र्य विषय और छोटा होने लगा। छोटी-छोटी घटनाओं ने मनुष्य के जीवन को शतरंज के मोहरे की तरह घेरकर परास्त करना शुरू किया, उसे बड़ा से बड़ा झटका देना शुरू किया। इस कारण इस पीढ़ी के कथाकारों का विषय लगातार छोटा होता गया, विषय के साथ कथाकारों का वर्ताव चुनौतीपूर्ण होता गया। इस चुनौती को प्रदीप बिहारी ने पूरी जिम्मेदारी के साथ स्वीकार किया और निबाहा। ‘मकड़ी’ और ‘उजास’ कहानी को ही लें, तो एक कथाकार के रूप में प्रदीप बिहारी के तनाव को महसूस किया जा सकता है।

एक पाठक के रूप में कोई भी व्यक्ति यह सोच सकता है कि कथाकार निश्चित रूप से कथानायिका सुनीता के साथ उसके पूर्ववत्र्ती दो-दो पतियों के आचरण के विरोधी हैं, पर सुनीता की जिन्दगी में आगे आनेवाली घटनाओं का विवरण अंकित करते समय एक कथाकार के रूप में प्रदीप बिहारी की उत्तेजना, ममता और तटस्थता को भीषण तनाव में देखा जा सकता है। प्रधान पंच, दिल कुमारी, गूंगा और सुनीता के पूरे फलक को अंकित करने में कथाकार के समक्ष कितनी बड़ी त्रासदी खड़ी रही होगी; या फिर हेमबहादुर और सुनीता के परिचय से विवाह तक के प्रकरण, हेमबहादुर की मृत्यु के बाद उसके दोस्त दीपक सुब्बा के आचरण और फिर सुनीता द्वारा अपनी प्यारी गाय बेचकर, पुरानी जमीन छोड़कर, नई जमीन और नया व्यवसाय अपनाने की ओर अग्रसर होने की स्थिति को कथाकार ने बहुफलकीय बनाया है और विराट व्यंजना के साथ प्रस्तुत किया है। एक स्त्री जब प्राचीनता से मोह तोड़ती है और नवीनता की ओर उन्मुख होती है, तब भी ममता और मानवीयता उसके साथ बनी रहती है। यही मानवीयता व्यक्ति को लगातार मकड़ी के जाले में उलझाती रहती है और स्त्री उलझ कर उसी में लटक जाती है।

वस्तुतः मैथिली कहानी में इन दिनों कथा-पाठ प्रक्रिया के विकास की बहुत अधिक आवश्यकता आन पड़ी है। मैथिली कहानीकारों ने कथा रचना की प्राच्य धारणाओं से तो दशक भर पहले मुक्ति ले ली थी, प्रदीप बिहारी एवं उनकी पीढ़ी के कथाकारों ने अपने समय की कथा-रचना में व्यंजना के वैराट्य को बुनाबट की शैली से विस्तार दिया है। इसी का परिणाम है कि अशोक की कथा ‘राँड़’, शिवशंकर श्रीनिवास की कथा ‘सिनुरहार’, विभूति आनन्द की कथा ‘लोक देखलक’ आदि में स्त्री-जीवन की समस्या और समाधान को विभिन्न कोणों से देखने का प्रयास किया गया है। इस पीढ़ी के कथाकारों की कहानियों में कथावस्तु और चरित्र-चित्रण का कोई विधिवत स्वरूप दिखाई दे, यह कतई आवश्यक नहीं। ये कथाकार किसी छोटे से कथ्य को उसकी समस्त सम्भावनाओं और परिणामों के साथ अंकित करने की चेष्टा करते हैं और यही चेष्टा कथा के प्रभाव को बहुफलकीय बनाता है।

अन्ततः कथाकार की जीवन-दृष्टि की स्पष्ट छवि उस परिणाम के माध्यम से ही दिखती है। जैसा कि ‘मकड़ी’ में प्रदीप बिहारी की जीवन-दृष्टि दिख रही है। सुनीता के साथ हो रही घटनाएँ कोई ऐसी नहीं हैं, जो अनहोनी हो। वर्तमान समाज-व्यवस्था जिस पद्धति से संचालित हो रही है, उसमें प्रदीप बिहारी किसी कल्पित आदर्श को लेकर अचानक रामराज्य का वातावरण अथवा गाँधीवाद की व्याख्या अपनी कहानियों में नहीं बनाते। वस्तुतः किसी भी कहानी में घटना का सच होना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, घटना का सच लगना भी महत्त्वपूर्ण है। किसी भी भाषा का साहित्य कोई अखबार नहीं होता कि वह सच्ची घटना की खबर समाज को दे। साहित्य वैसी घटनाओं की खबर अपने तरीके से समाज को देता है, जो उसके साथ हो रहा होता है और वह बेखबर रहता है। उदाहरण के लिए इसी ‘मकड़ी’ कहानी में सुनीता और गूंगा के बीच की घटना है, उन तमाम परिस्थितियों से सुनीता बाखबर थी या बेखबर थी...तय करना कठिन है।

जिस समय सुनीता को प्रधान पंच ने बुलाया, एक पाठक अनेक आशंकाओं के साथ कथा की दूरी तय करता है। अपने गत जीवन में पुरुषों के आचरण की भुक्तभोगी सुनीता भी उन आशंकाओं से ग्रस्त रहती है, लेकिन परिणाम कुछ और निकलता है। प्रदीप की कहानियों की यह एक बड़ी खासियत है कि अवगाहन के समय पाठक बहुस्तरीय कथा-यात्रा कर रहा होता है। कथाकार द्वारा लिखी गई कथा की हर घटना के समानान्तर कथा, पाठक के मन में चलती रहती है, उसके विकास की नई-नई कोपलें फूटती रहती हैं। ठीक उसी तरह कथा के चरित्रों के मन में भी नई-नई कहानियों का सृजन होता रहता है, जैसा कि सुनीता के मन में प्रधान पंच से बात करते समय हो रहा होगा। कथाकार की जीवन-दृष्टि को इस कहानी में इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सुनीता की पहली शादी नहीं टिकी, उसकी माँ ने उसके पिता को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ अपना घर बसा लिया, पत्नीमुक्त अपने पिता के आचरण से वह अवगत थी, हेमबहादुर जैसे पूरे मर्द के आगमन से अपने जीवन को सुखी करने की चेष्टा की, वह धोखेबाज निकला, उस जैसे कुकर्मी पुरुष को सुधारने की उसकी चेष्टा नाकाम गई, दीपक सुब्बा जैसे व्यसनी और कामान्ध पुरुष की पहचान हुई...इन समस्त परिस्थितियों में प्रदीप बिहारी ने अपनी नायिका सुनीता को टूटने नहीं दिया; पुरानी जमीन और पुराने व्यवसाय से मुक्त कराकर उसे नई जमीन और नए व्यवसाय की ओर उन्मुख किया और एक नए समाज के साथ नए सम्बन्ध जोड़कर उसे जीवन-रस दिया।

यहाँ अलग से कहने की अवश्यकता है कि इस पीढ़ी के तमाम कथाकारों की यह मूल वृत्ति है। वह टूटना और हारना नहीं जानता। अखण्ड संघर्ष और पुरजोर साहस के साथ लड़ता है, डटा रहता है, अपने द्वारा सृजित तमाम चरित-नायकों के साथ। इसी क्रम में यह बात दिलचस्प है कि नए जीवन में सुनीता ने जिस दिलकुमारी के मकान में किराए पर रहना शुरू किया, वह भी अपना जीवन अकेले बिता रही थी और समाज की स्त्रियाँ दोनों ही स्त्रियों को चरित्रहीन और कुलटा घोषित करने पर आमादा थीं। इस चित्रांकन के साथ कथाकार ने समाज के चरित्र की एक नई व्याख्या दी है कि वस्तुतः चरित्रहीन है कौन और चरित्र है क्या? जीवन और जोखिम दोनों के प्रति मनुष्य की जिस अजेय शक्ति की छवि कथाकार ने अपनी इस कहानी में अंकित की है, वह इस सम्पूर्ण पीढ़ी के कथाकारों की संघर्षशील चेतना का परिचायक है।

इसी तरह ‘उजास’ कहानी के अवगाहन से मैथिल जनपद का धार्मिक पाखण्ड, छद्म ईश-भक्ति, धर्मभीरुता, सामाजिक अपसंस्कृति सामने आती है। कथाकार ने इस कथा में सिर्फ सामाजिक आचरण को सूक्ष्मतापूर्वक रेखांकित कर दिया है। यहाँ अपनी मान्यताओं में वे इतने तटस्थ हैं कि पूरी कहानी पार कर लेने के बाद भी उनकी पक्षधरता स्पष्ट नहीं होती। यद्यपि साहित्य-सृजन में तटस्थता बहुत अच्छी बात नहीं है, पर इस कहानी के दौरान रचनाकार की तटस्थता उस परिवेश से नहीं, बल्कि कथन-भंगिमा में वाचन से है। सम्पूर्णता में तो स्पष्ट ही है कि इस पूरे परिदृश्य का कुरूप चेहरा लेखक को भा नहीं रहा है। रामभूषण बाबू और उनके पौत्र के साथ लेखक भी इस विकृत मनोवृत्ति के समाज से अलग हो जाना चाहते हैं। दिलचस्प है कि जहाँ बुजुर्ग-पीढ़ी को दकियानूसी और बाल-पीढ़ी को अज्ञानी कहा जाता है, कथाकार प्रदीप इन दोनों में प्रगतिशीलता और नैतिकता के बड़े उज्ज्वल जीवन-दर्शन देख रहे हैं और जिस युवा पीढ़ी को अत्यन्त प्रगतिशील और जोश-खरोश से भरा हुआ घोषित किया जाता है, उसके दो वर्ग एक तरफ धर्मभीरुता में लिपटा हुआ है, दूसरी तरफ धर्म की ओट लेकर अनाचार में डूबा जा रहा है। यहाँ कथाकार की व्यंग्य वक्रोक्ति की कलात्मक भंगिमा भी देखी जा सकती है और समकालीन युवाओं के नाम करारा धिक्कार भी महसूस किया जा सकता है ।...

सचमुच, कोई लेखक, अपने समय के युवाओं को गालियाँ तो नहीं दे सकता, धिक्कार ही सकता है! जो समाज अपने गाँव की बहू का आँचलविहीन वक्ष देखने के लिए छठ-घाट पर लुब्ध है, उसी समाज का एक बच्चा, राम भूषण बाबू का पोता, इस चिन्ता में पटाखे का कवर नहीं हटाता कि उस पर छपी स्त्री की तस्वीर नंगी हो जाएगी। नैतिकता का इतना बड़ा अन्त:विरोध प्रदीप बिहारी की इस कहानी में इतने सहज दिनचर्या की तरह उभरा है कि आघात का एक बड़ा झोंका सामने से गुजर जाता है और भोक्ता भौंचक रह जाता है। कथा-भूमि का पूरा परिदृश्य छठ-घाट पर की जा रही पूजा-अर्चना के आसपास घूमता है। बहू को सन्तान-प्राप्ति की अभ्यर्थना में राम भूषण बाबू की पत्नी मन्नत मानकर परलोक सिधारती हैं और इस बीच परिवार में उपस्थित हर छोटी-बड़ी दुर्घटना को उस मन्नत से जोड़कर देखा जाने लगता है। इस प्रक्रिया को इस कथा में इतने बहुआयामी शिल्प में अंकित किया गया है कि एक तरफ गाँव का अशिक्षित-अर्द्धशिक्षित समाज अपनी अज्ञानता के साथ छठ मैया के प्रभुत्व से भयमुक्त यौनविकृति में डूबा हुआ है, अपसंस्कृति की ज्वाला लगातार ऊँची होती जा रही है; उधर राम भूषण बाबू के बेटे पूर्ण शिक्षा और पूर्ण आधुनिकता से युक्त होने के बावजूद लगातार धर्मभीरुता में जुटा रहता है, अपनी पत्नी के आँचल पर नटुआ नचाने को उद्यत रहता है। एक तरफ छठ देवी को चढ़ाए जानेवाले प्रसाद के भार से राम भूषण बाबू का बेटा अपने को दबा हुआ महसूस करता है, दूसरी तरफ खुद राम भूषण बाबू अपसंस्कृति, उद्दण्डता, खण्डित सामाजिक अनुबन्ध-बन्ध के बोझ से लाचार होते रहते हैं। तीन पीढ़ियों के दौर में यह कहानी रूढ़ि, पाखण्ड, विवेकशील नैतिकता और नैतिक प्रगतिशीलता को बड़े जोखिम के साथ रेखांकित करती है। धर्म, पूजा-पाठ, मन्नत-मनौती...आदि प्रसंगों पर भले ही कोई आयोजनपूर्वक वक्तव्य न हो, पर पूरे प्रसंग में समाज के धार्मिक पाखण्ड, निरर्थक और नाटकीय आस्था एवं आस्तिकता की धज्जियाँ इस कहानी में बड़ी ही चतुराई से उड़ाई गई हैं। लानत है उस समाज को, जो इस आचरण के साथ अपने को धार्मिक और आस्तिक कहता है !

वस्तुतः प्रदीप बिहारी की कथाधारा की मूल-वृत्ति घटनाक्रम की सहजता और समय-सम्बद्धता है। अपने पूरे रचनाक्रम में वे कोई आकाश-कुसुम तोड़ लाने की जिद नहीं करते, उनका घटनाक्रम सहज जीवन पद्धति के अनुसार चलता है। इसी घटनाक्रम में उनके बुजुर्ग कथानायक युवा पीढ़ी के समक्ष सीना तानकर खड़े होते हैं, उनकी धर्मभीरुता का विरोध करते हैं और जिस संस्कृति एवं भविष्य के द्विपर्णा पर उन्हें आस्था है उसकी सुरक्षा में बहू और पौत्र को कमरे में बन्द कर ताला मार देते हैं। छठ-घाट पर अश्लील फिल्मी गीतों के गायन को वे नहीं रोक पाते, अपने युवा पुत्र को ऐसे अश्लील स्थान पर जाने से नहीं रोक पाते, उसकी आँखों पर बन्धी पाखण्ड की पट्टी नहीं हटा पाते, अपनी दिवंगत पत्नी द्वारा मानी गई मन्नत की पूर्ति से उनकी आत्मा को शान्ति देने के लिए अपना पूरा जीवन अशान्त करने को तैयार नहीं होते, स्पष्ट तर्क के साथ अपनी पत्नी को बुदबुदाते हुए अपना निर्णय सुनाते हैं और संस्कृति की सुरक्षा में स्वयं तैयार हो जाते हैं। तीन पीढ़ियों के वैचारिक संघर्ष की यह कहानी बड़े रोचक ढंग से सामाजिक उद्दण्डता के आजू-बाजू घूमती है और दिशाहारा युवा पीढ़ी की दिग्भ्रान्ति को रेखांकित करती है।

वस्तुतः युवा-वर्ग की यह दिशाहीनता आपातकाल के पश्चात् के तीन दशकों के वैचारिक पतन को रेखांकित करती है। छात्र अन्दोलन में बड़े सपनों के साथ कूद पड़ी किशोर मण्डलियाँ सन् 1977 के चुनाव का परिणाम और उसके बाद का अनिर्णीत-अन्धकारमय वातावरण देखकर पथभ्रष्ट और दिग्भ्रष्ट हुईं, लगातार पिछले दरवाजे और मन्दिर-मस्जिद, जाति-धर्म का पल्लू पकड़कर उबरने की कोशिश करने लगीं। आपातकाल के सड़ान्ध और दमघोंटू वातावरण से ऊबी जनता का जीवनयापन देखकर उस समय के युवाओं के मन पर जो भी असर पड़ा हो; छात्र आन्दोलन में कूदकर अपनी जैसी भी निष्ठा दिखाई हो; इतना तय है कि आगामी तीन दशकों की भारतीय राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था में भारतीय नौजवान के मजबूत कन्धे और तीक्ष्ण दृष्टि को अपने जूते ढोने, तलुवे चाटने, चमकाने को मजबूर बनाए रखा। बीसवीं शताब्दी के जिस दौर में प्रदीप बिहारी ने अपनी लेखकीय दृष्टि पुख्ता की, उस दौर के युवाओं की एक छवि यह भी है। मगर कथाकार निराश नहीं होते, उनके जीवन-दर्शन में अभी भी बुजुर्गों का अभिभावकत्व और नवांकुर की आशा बरकरार है।

इसी तरह उनकी अन्य कहानियों को भी पढ़ने-समझने की आवश्यकता है। वस्तुतः जिस कथा-पाठ-प्रक्रिया की चर्चा ऊपर हुई है, वह मैथिली की स्वातन्त्र्योत्तरकालीन सभी श्रेष्ठ कहानियों पर लागू होनी चाहिए।

प्रदीप बिहारी की कहानियों का भूगोल अपनी पीढ़ी के अन्य कथाकारों की तुलना में थोड़ा फैला हुआ है। मिथिला से नेपाल तक की जीवन-पद्धति का ताजा अनुभव उनकी कहानियों का मूल विषय बना है। भौगोलिक एवं सांस्कृतिक--दोनों ही दृष्टियों से नेपाल और मिथिला का सम्बन्ध पुराना है। वाराहक्षेत्र से तीर्थ स्थान का सम्बन्ध, मोरंग से मेहनत-मजदूरी-रोजगार का सम्बन्ध और जनकपुर से सांस्कृतिक सम्बन्ध के पुराने रिश्ते ने नेपाल और मिथिला को जोड़े रखा। मध्यकाल में विद्यापति का सम्बन्ध भी बना रहा। कथाकार प्रदीप का सम्बन्ध भी नेपाली जन-जीवन से रोजगार और जीवन-यापन को लेकर बना। उनके जीवन और चिन्तनशीलता पर इस सम्बन्ध का असर इस तरह पड़ा, कि नेपाल के नागरिक-जीवन का संघर्ष उनकी चिन्ता और चिन्तन-व्यवस्था का हिस्सा हो गया। उनके आचार-विचार, रहन-सहन और राजनीतिक परिस्थितियाँ उनकी विचार-प्रणाली को उद्वेलित करने लगीं और उनकी कहानियों में बड़े ही तल्ख अन्दाज में उभर आईं। ‘कुली’, ‘गमले में धान’, ‘एक और सान्ताक्लॉज’, ‘मकड़ी’, ‘शरणागत’ आदि कहानियों से गुजरते हुए भावक के मन में एक साथ ‘वाह’ और ‘आह’ दोनों ही स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। बिम्ब के जीवन्त स्वरूप को अंकित कर एक तरफ कथाकार भावकों को चमत्कृत करते हैं, तो दूसरी तरफ उस जीवन्तता के सहारे उनके अन्तस्तल को आन्दोलित करते हैं। विचित्र उद्वेग से पाठक विचलित हो उठता है। ‘शरणागत’ कहानी में जब प्रोफेसर अपने बेटे की लाश लेकर ‘माइ’ नदी की ओर चलता है, या ‘एक और सान्ताक्लॉज’ का ड्राइवर चाय दुकान पर बैठकर रोता है, या ‘गमले में धान’ की कथाभूमि में नेपाली लोकगीतों का मूल्यबोध सांस्कृतिक धरोहर के रूप में न देखकर बाजार-मूल्य के रूप में देखा जाता है और उसका उपयोग बाजारीकरण के लिए किया जाता है, या ‘कुली’ का कथानायक राम बहादुर अपनी मिट्टी-पानी के मोह में अपने गाँव की ओर रुख करता है... ये समस्त स्थितियाँ अपने परिणाम एवं प्रभाव में कथाकार के परम्परा-पूजन की स्थिति नहीं दिखातीं, बल्कि परम्परा के सम्बन्ध में दुर्गन्धमय नकार-भाव को नकारते हुए सुव्यवस्थित समाज की परिकल्पना का संकेत देती हैं। वस्तुतः कोई भी रचनाकार आन्दोलनकारियों के अनियन्त्रित क्रोध को परिस्कृत करनेवाली विचार-वीथियाँ प्रस्तुत करता है, जो अन्ततः हर आन्दोलन को उज्ज्वल दिशा दिखाती है।

उक्त विडम्बनाओं से आक्रान्त कार्यकत्र्ताओं को यदि प्रदीप की ये कहानियाँ रास्ते पर ला पाईं, तो साहित्य के उद्देश्य की पूर्ति सफल मानी जाएगी। चूँकि हर कहानी का हर चरित्र कहानीकार द्वारा सृजित होता है, इसलिए वह अपनी कहानियों में हरेक चरित्र का जीवन खुद जी रहा होता है। हर घटना के साथ तर्क और संघर्ष कथाकार स्वयं करता है। अपनी कहानी की बुनावट में वही प्रश्न करता है, वही उत्तर देता है। प्रश्नाकुलता और समक्ष खड़ी विडम्बनाओं से टक्कर लेना किसी भी कहानीकार की मजबूरी होती है, जैसे ‘एक और सान्ताक्लॉज’ में प्रदीप बिहारी की मजबूरी है। कथाकार स्वयं कथावाचक भी हैं, मित्र भी, सरदार ड्राईवर भी, नेपाल के राजनीतिक श्रमिक संहार में मरा हुआ श्रमिक भी, उसकी पत्नी भी... सारी ही परिस्थितियों में अपनी पूरी भूमिका के साथ लेखक स्वयं किरदार होता है। वस्तुतः लेखक वह बात कहना चाहता है, जो समकालीन समाज और शासन-व्यवस्था की भोथरी संवेदना को खुरच कर उसे जगा सके। ताजा और समकालीन घटनाक्रम में वह अपने समय के नागरिक जीवन को अकेले जीता है। और अकेले में जीया हुआ नागरिक-अनुभव समाज तक पहुँचाने की जिद पर अड़ा रहता है।

प्रदीप बिहारी की कहानियाँ आम जन-जीवन की कई गुत्थियाँ खोलने का प्रयास करती हैं। न्यूक्लियर परिवार-व्यवस्था के बढ़ते दौर में जवान बाल-बच्चों के माता-पिता, ढलती उम्र में जिस एकाकीपन का शिकार होते हैं, उन्हें रिश्तों की ऊष्मा और नर्म स्पर्श जितना आह्लादित करता है, सम्भवतः जीने का कारण भी उतना नहीं कर पाता। ‘दीवार’ जैसी कई कहानियों में कथाकार ने इस संवेदना को अंकित करने की कोशिश की है। पुरुष-प्रधान आधुनिक समाज में आधुनिकता भले ही परवान चढ़ गई हो, पर आज भी सन्तान उत्पन्न नहीं कर पाने के लिए स्त्रियाँ ही दोषी समझी जाती हैं, जबकि स्त्री अपने पति की पुंसत्वहीनता को पर्दा देने का दंश भोगती रहती है। ‘पूर्णियाँवाली’ जैसी कहानी में स्त्री-जीवन की इस त्रासदी को महसूस किया जा सकता है।

कहानी चाहे किसी भावधारा की हो, प्रदीप के यहाँ स्त्री अपने मुखर स्वरूप के साथ उपस्थित होती है। दिलचस्प है कि ये स्त्रियाँ अपने जीवन की त्रासदी के लिए कहीं रोती-कलपती नजर नहीं आती। उनके जीवन में लाख त्रासदी आ जाए, वह आज के समय की सुशिक्षित युवती हो, या अल्पशिक्षित गृहिणी, प्रौढ़ उम्र की अभिभाविका हों, अथवा विधवा, नौकरानी, नेपाल-भारत सीमा पर तस्करी करती निम्नवर्गीय स्त्री...कोई भी हो, प्रदीप बिहारी की हर कोटि की नायिका जीवन-संग्राम में अपनी तीक्ष्ण ऊर्जा के साथ लड़ती हुई नजर आती है और अपने विवेक से, अपनी खास जीवन-दृष्टि से निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचकर दम लेती है। ‘प्रेम न हाट बिकाय’, ‘माँ की दुलारी’, ‘आया’ आदि कहानियों को इस नजर से देखा जा सकता है। ‘जात’, ‘शक्ति रूपेण संस्थिता’ आदि कहानियों में पक्के इरादे की इन स्त्रियों के प्रगतिशील कदमों के सबसे बड़े बाधक परिवार और परिवेश की स्त्रियों को भी बखूबी अंकित किया गया है।

उनके यहाँ कुछ ऐसी कहानियाँ भी हैं, जो आधुनिकता के दौर में, खण्डित पारिवारिक सम्बन्धों को रेखांकित करती हैं, जहाँ अब पूरे कौटुम्बिक परिदृश्य में व्यापार और स्वार्थ के अलावा कुछ बचा नहीं रह गया। ‘भ्रम’ कहानी में इस धारणा को देखकर कथानायक के सदमे को जानने की चेष्टा दिखती है। ठीक इसी तरह ‘नयन न तिरपित भेल’ कहानी एक जिम्मेदार विधुर पिता के दायित्व-निर्वहन और वैयक्तिक संवेदनाओं को जिस मार्मिकता से उकेरा गया है, वह सन्नाटे की स्थिति ला देता है। कथा की समाप्ति के बाद भावक के मन में एक नई कथा शुरू होती है कि सबके लिए चिन्तित रहनेवाले व्यक्ति के बारे में परिवार में कौन चिन्ता करता है और तब भावक को लगने लगता है कि सचमुच नाव पर चढ़कर नदी पार कर जाने के बाद यात्री आगे का रुख करता है, नाव को कन्धे पर ढोए नहीं फिरता। प्रदीप जिस समाज के प्रतिनिधि के रूप में इस कहानी के नायक राय दा की चिन्ता करते हैं, वह त्रासद जीवन-व्यवस्था की ओर इशारा करता है। जीवन की भरी दोपहरी में एक मर्द विधुर होता है, अपनी वृद्ध माँ और तीन सन्तानों का लालन-पालन जिन्दादिली से करता है। अचानक ऐसी कौन-सी बात होती है कि वह कथावाचक के समक्ष अपनी शादी की बात रखता है?...एक संवेदनशील भावक लम्बे समय तक इस प्रश्न के उत्तर देने में और उत्तर पर फिर प्रश्न करने में फँसा रह जाएगा। यक्ष प्रश्न की तरह, वह उत्तर नहीं ढूँढ पाएगा।

ऐसी अनेक समकालीन सूक्ष्म परिस्थितियों की छवियाँ प्रदीप बिहारी की कहानियों में तलाशी जा सकती हैं। समकालीन जनजीवन का कोई भी अंश और कोई भी घटना उनके यहाँ अछूत नहीं होतीं। जन्मोत्सव से लेकर मरणोत्सव तक, छठी से लेकर दाह-संस्कार तक, प्रेम से लेकर विलगाव तक, दाम्पत्य से लेकर परकीय सम्बन्ध तक, राजनीति से लेकर तस्करी तक, अभिनय से लेकर गायन-लेखन तक...सारे ही विषय उनकी कहानियों की गोद में आकर जीवन्त हुए हैं और सारी ही घटनाएँ नई जिन्दगी एवं नई व्याख्या के साथ प्रस्तुत हुई हैं।