अपराधी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
वह हँसता -खिलखिलाता और दूसरों को हँसाता रहता था। जो भी उसके पास आता, दो पल की खुशी समेट ले जाता।
एक दिन किसी ने कहा,'यह तो विदूषक है। अपने पास भीड़ जुटाने के लिए यह सब करता है।'
उसने सुना, तो चुप्पी ओढ़ ली। हँसना- हँसाना बन्द कर दिया। उसकी भँवें तनी रहतीं। मुट्ठियाँ कसी रहतीं। होंठ भिंचे रहते।
उसकी गिनती कठोर और हृदयहीन व्यक्तियों में होने लगी थी। वह सोते समय कठोरता का मुखौटा उतारकर हैंगर पर टाँग देता। उसके चेहरे पर बालसुलभ मुस्कान थिरक उठती। पलकें बन्द हो जातीं। कुछ ही पल में गहन निद्रा घेर लेती।
'इतना घमण्ड भला किस काम का', लोग पीठ पीछे बोलने लगे। उड़ते- उड़ते उसके कानों तक भी यह बात पहुँच गई।
वह मुँह अँधेरे उठा और सैर के लिए निकला। उसने अपना वह मुखौटा गहरी खाई में फेंक दिया।
लौटते समय वह बहुत सुकून महसूस कर रहा था। उसे रास्ते में एक बहुत उदास व्यक्ति मिला। उससे रहा नहीं गया। वह उदास व्यक्ति के पास रुका और उसका माथा छुआ। ताप से जल रहे माथे पर जैसे किसी ने शीतल जल की गीली पट्टी रख दी हो।
देखते ही देखते उसका ताप गायब हो गया। उदास व्यक्ति फूल की तरह खिल उठा।
अगले दिन रास्ते में एक अश्रुपूरित चेहरा सामने से आता दिखाई दिया।
उससे रहा न गया। वह उस चेहरे के पास रुका। द्रवित होकर उसने अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछ दिया। उसके बहते खारे आँसू गायब हो गए। दिपदिपाते चेहरे पर भोर की मुस्कान फैल गई।
किसी ने कहा, 'जिसका माथा छुआ और आँखे पोंछी, वह एक दुःखी बच्चा था।’
किसी ने कहा- ‘वह जीवन से निराश कोई युवा था।’
किसी ने कहा-‘ वह कोई स्त्री थी।’
दस और लोगों ने कहा-‘वह सुंदर स्त्री थी।’
शाम होते- होते भीड़ ने कहा, एक लम्पट व्यक्ति ने सरेआम एक महिला को जबरन छू लिया।
अगले दिन उस व्यक्ति का असली चेहरा चौराहे पर दबा- कुचला हुआ पड़ा था। फिर भी उसके होंठों से मुस्कान झर रही थी।
पोंछे गए आँसू उसकी आँखों से बह रहे थे। उसका माथा ज्वर से तप रहा था। लोग कह रहे थे,' उसने आत्महत्या की है।'
27 अप्रैल 2020