अपराध-बोध / रूपसिह चंदेल

Gadya Kosh से
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बस में वह मेरे बगल की सीट पर बैठी थी। उस दिन उमस कुछ अधिक ही थी। बस चकेरी हवाई अड्डे के सामने अहिरवां के पास क्षण भर के लिए रुकी। बस रुकी तो अंदर और अधिक गर्मी महसूस हुई। मेरी ओर देखती हुई वह बुदबुदाई--"आज बहुत अधिक गर्मी है।"

मैं चुप रहा

"आपको कहां जाना है ?"

"खजुहा।" मैने कहा

"मैं वहीं की रहने वाली हूं। चलो अच्छा हुआ। एक से दो भले।" उनके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। जहानाबाद में बस के प्रवेश करते ही बोली थीं, "आपके ठहरने की व्यवस्था न हो तो...."।

"ठहरने की व्यवस्था तो शायद कॉलेज के मैनेजर साहब के घर में ही है।" मैने उत्तर दिया तो वह क्षण भर के लिए चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद बुझे स्वर में वह बोली- "लेकिन वापस लौटने से पहले आप मेरे गरीबखाने में अवश्य तशरीफ लायें। गांव में लोग मुझे अन्न्पूर्णा के नाम से जानते हैं। मैं आपकी राह देखूंगी।"

रात के ठीक साढ़े आठ बजे बस जहानाबाद पहुंची। खजुहा वहां से लगभग तीन मील था। एक जीप बस स्टॉप के बाहर खड़ी थी। ड्राइवर बैठा ऊंघ रहा था।

जीप के पास जाकर ड्राइवर को जगाया। आंखें मलता हुआ बोला-"तो साहब आप आ गये।" मैं कुछ कहूं, इससे पहले ही वह जीप से कूद कर एक दुकान की ओर दौड़ गया। मैं हत्प्रभ जीप के पास खड़ा रहा।

थोड़ी देर में ड्राइवर लौट आया। उसके साथ एक सज्जन और थे, जो अपनी धोती संभालते हुए जल्दी-जल्दी चले आ रहे थे। उन्होंने आते ही मेरे बिना पूछे अपना परिचय दे डाला कि वह उस कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता हैं।

जीप में पीछे बैठते हुए मुझे पीछे ही बैठने के लिए बाध्य किया। रास्ते भरवह अपने कॉलेज के मैनेजर नानकचन्द तथा प्राचार्य की ही बातें करते रहे/

नानकचन्द ने अपने घरे में मेरे ठहरने का प्रबन्ध किया था। पहुंचते हि उन्होंने आगे बढ़कर स्वागत किया। कॉलेज के प्राचार्य जी भी उनके पास थे। काफी देर तक बातों की औपचारिकता निभायी जाती रही।

दूसरे दिन सुबह उनके नौकर ने आकर मुझे जगाया। सात बज चुके थे। जल्दी तैयारहो रहा था कि आवाज आयी--"प्रोफेसर साहब, प्राचार्य जी नाश्ते में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

नाश्ता करके जब मैं उठने लगा तब नानकचन्द मुझे एक बन्द लिफाफा थमाते हुए बोले--"यह कॉलेज की ओर से एक तुच्छ भेंट है। स्वीकार करें।"

लिफाफा खोला तो देखकर आश्चर्य हुआ कि नानकचन्द ने मुझे इतना गिरा हुआ समझ लिया है । मैं क्रोध से कांपने लगा। नानकचन्द का अभिप्राय मेरी समझ में आ गया था। मैंने चटपट सूटकेस में अपने कपड़े़ ठूंसे और उनके पास जा पहुंचा।

मुझे देखते ही नानकचन्द बोले--"क्याबातहै प्रोफेसर साहब, आप कुछ परेशान से दिख रहे हैं। अरे----रे यह सूटकेश लेकर कहां चल पड़े।"

उन्होंने नौकर से खा कि वह सूटकेस मेरे हाथ से ले ले। लेकिन मेरी मुद्रा देखकर नौकर का साहस नहीं हुआ कि वह आगे बढ़े । अब तक मैं अपने क्रोध पर काबू पा चुका था। फिर भी तेज स्वर में बोला-- "आपने मुझे इतना गिरा हुआ कैसे समझ लिया कि मैं इन कागज के टुकड़ों पर अपना ईमान बेच दूंगा। यह लिजिए अपनी भेंट।" औरवह लिफाफा उनकी मेज पर पटककर मैं मुड़कर चल पड़ा।

"आप समझते क्यों नहीं प्रोफेसर साहब ? उन लड़कों के भविष्य का प्रश्न है."

"मैं कुछ नहीं कर सकता इसके लिए."

"अच्छा आप पैदल मत जाइए कॉलेज ड्राइवर छोड़ आयेगा गाड़ी से."

"शुक्रिया." कहकर मैं तेजी से बाहर निकल गया.

दस बजे से एक बजे तके परीक्षा लेने के बाद पुनः तीन बजे से छह बजे तके का समय मैने शेष विद्यार्थियों के लिए निश्चित कर दिया. निर्बिघ्न कार्य समाप्त करके हाथ में सूटकेस लटकाये मैं खजुहा के छोटे से बाजार में होटल की तलाश में निकला.

लेकिन खजुहा के उस छोटे से बाजार में मुझे एक भी होटल नजर नहीं आया. मैं परेशान एकछोर से दूसरे छोरतक बाजार के दो चक्कर लगा आया. मुझे अन्नपूर्णा जी की याद हो आयी. याद आया कि उन्दे यहां जाने के लिए मैंने उनसे अस्पश्ट-सा वायदा भी किया था. सोचा, क्यों न चलकर उन्हीं के यहा....

पूछत हुआ मैं अन्नपूर्णा जी के घर पहुंचा। मुझे देखकर वह अत्यधिक प्रसन्न हुईं। हर्षोत्फुल्ल हो वह बोली-_" सोच रहि थी शायद आपको सुध न रही होगी। बड़ी खुशी हुई आपके आने से। सच, बड़े भाग्य से अतिथि घर में आते हैं।" संकोचवश मैं कुछ नहीं बोला। वही बोलीं--"परीक्षा समाप्त कर आये ?"

"नहीं, अभी आधे लड़के शेष हैं."

"अच्छा आप बैठिये, मैं अभी चाय तैयार करके लाती हूं. फिर भोजन कीजिए."

"आप परेशान न हों. भोजन तो----." मैंने औपचारिकता दिखानी चाही. वह बोली--" यह नहीं हो सकता है.

भोजन तो आपको करना ही होगा. इसमें परेशानी की क्या बात है ? चार फुल्के ही तो सेंकने पड़ेंगे.

मैं चुप हो गया.

चाय पीते हुए मैंने उन्हें गौर से देखा। उम्र लगभग साठ के आसपास। गौर वर्ण तथा चेहरे पर अभी भी तेज विद्यमान था। श्वेत परिधान में मुझे वह एक तपस्विनी से कम प्रतीत नहीं हुई। काफी बडा़ मकान था उनका। मैंने पूछा--"आप अकेली रहती हैं क्या इसमें ?"

वह उदास हो गयीं दुछ क्षण बाद वह संयत होकर बोली, "अकेली ही रहती हूं अब। बड़ा परिवार था मेरा किन्तु अब तो ससुराल और मायके में मैं ही अकेली बची हूं।" मैंने देखा उनकी आंखें गीली थीं।

"क्षमा कीजिएगा।मैंने यह सब कुछ पूछकर शायद आपको कष्ट पहुंचाया."

"नहीं, ऎसी कोई बात नहीं." आंखें पोंछती हुई वह बोली, "आप भोजन करलीजिए . अभी तैयार करके लिए आती हूं."

भोजन करते समय उन्होंने बताया कि उनके दो भाई -- एक उनसे छोटा तथा एक बड़ा और एक छोती बहन थे, जब उनकी शादी हुई थी. मां-बाप भी थे. उनकी ससुराल खनुहा से चार मील दूर थी. वहां उनकी सास और पति थे. उनके भाई क्रान्तिकारी थे. सन १९४२ के आंदोलन के समय अंग्रेजों ने उन्हें पकड़्कर फांसी पर लटका दिया था. आंचल से आंखें पोंछती हुई बोली थीं वह--"बड़े भैया की शहादत का समाचार सुनकर मेरी छोटी बहन राधा ने आत्महत्या कर ली थी. और छोटा भाई थोड़े दिन बाद ही क्षय रोग का ग्रास बन गया था.

भैया की मृत्यु के कुछ दिन बाद ही मेरे पति भी नहीं रहे थे. सास पहले ही चल बसी थीं. ससुराल के अन्य लोग जायदाद के कारण मुझे वहां टिकने नहीं देना चाहते थे. प्राण बचाकर पिता के पास आ गयी थी और तब से यहीं हूं." उनकी करुण-कथा सुनकर मेरा ह्रदय उनके प्रति करुणा से भर उठा. थोड़ी देर के लिए हम लोग चुप रहे. कमरे में सन्नाटा रेंगता रहा. मैम्ने भोजन समाप्त कर लिया. बर्तन उठाकर वह दन्दर रख आयी थी. आकार फिर बोलीं, "थोड़ी देर आराम कर लीजिए. अभी तो कॉलेज जाने में काफी समय है."

मैं लेट गया. हम दोनों के मध्य सन्नाटा फिर रेंगने लगा था. उमस उस दिन भी कुछ अधिक थी.

"आप नानकचन्द के यहां ठहरे थे न." उन्होंने मौन भंग करते हुए पुछा.

"हां वहीं ठहरा था."

"सुना आपकी उससे कुछ गर्मा-गार्मी हो गयी थी."

मैं हत्प्रभ उन्हें देखता रह गया. पूछा--"आपको कैसे मालुम!"

"कुछ लोग आपस में बतिया रहे थे. उन्हीं से मालूम हुआ था. गांव ज्यादा बड़ा नहीं है न. बात फैलते देर नहीं लगती."

मैंने उन्हें पूरी घटना सुना दी. उदासी के साथ वह बोली---"बड़ा नीच आदमी है यह. इसने तो मुझे तबाह कर दिया है."

"कैसे ?" मैंने चैंकते हुए पूछा.

"यह कॉलेज से लगी जो जमीन है इसमें आधी मेरी है. जिस पर इसने पिताजी की कृत्यु के बाद जबरदस्ती कब्जा कर लिया था."

"आपने मुकदमा दायर नहीं किया था उसके विरुद्ध ."

"मैं हूं अकेली। वह भी औरत जात। सब कुछ किया, लेकिन सब जगह उस जैसे भ्रष्ट लोग ही बैठे हैं, रिश्वत देकर उसने मुकदमा जीत लिया था।"

"आपने सरकार से अपील की ? आप तो एक ऎसे परिवार से हैं जिसके भाई ने देश के लिए....’

"कोई लाभ नहीं इससे। सरकार भी बहरी हो चुकी है। उन क्रान्तिकारियों के परिवार केpratड़ी-सी जमीन बची है, उस पर भी वह अपना अधिकार जता रहा है। मुकदमा हाई कोर्ट में चल रहा है। आपका कोई परिचित वकील अगर इलाहाबाद में हो तो बताइये।"

"वैसे तो मेरी जिन्दगी का क्या ठिकाना ? लेकिन बेव्सहारा होकर तो नहीं जी सकती। मैंने खुद सोचा है कि अगर यह जमीन बचा पायी तो मरते समय गांव के गरीबों में बांट दूंगी।"

"यह तो बहुत ही अच्छा विचार है आपका।" कहते हुए मैंने घड़ी देखी। तीन बजने वाले थे। उथते हुए पूछा--"शाम को कोई बस जाती है कानपुर ?"

"चार बजे जाती है उसके बाद कोई नहीं> लेकिन आप परेशान क्यों हो रहे हैं ।सूटकेस छोड़ जाइये। कल चले जाइएगा।" विवशता थी। परीक्षाएं छह बजे समाप्त होनी थी। अतः वह रात उन्हीं के यहां काटने का निर्णय लेकर मैंने सूटकेस वहीं छोड़ दिया और कॉलेज चला गया।

इटावा वापस पहुंचकर सबसे पहले मैंने अपने मित्र राकेश को इलाहाबाद पत्र लिखा। उससे आग्रह किया कि यथाशीघ्र अन्नपूर्णा जी को लिखा. दोनों के ही उत्तर शीघ्र प्राप्त हुए. राकेश यधायोग्य करने का आश्वासन दिया था.

अन्नपूर्णा जी के प्रति मेरी श्रद्धा इतनी अधिक बढ़ गयी थी कि मैं स्वयं अपने अंदर उनकी पीड़ा झेल रहा था. कुछ दिनों बाद मुझे उनका एक और पत्र प्राप्त हुआ जिससे ज‘झात हुआ कि वह इलाहाबाद जाकर राकेश से मिल आयी थीं और राकेश ने बिना कोई खर्च लिए मुकदमे की पैरवी करना स्वीकार कर लिया था. राकेश की इस उदारता से मैं उसके प्रति आभारी हो उठा था.

समय पख लगाकर उड़ता जा रहा था। लगभग एक वर्ष बीत गया। अचानक अन्नपूर्णा जी के पत्र आने बन्द हो गये। मैंने राकेश को उनके विषय में जानकारी प्रदान करने के लिए लिखा। राकेश ने लिखा कि अन्नपूर्णा जी लगभग दो महीने से न तो उससे मिलीं और न ही उनका कोई पत्र उसे प्राप्त हुआ। उसने यह भी लिखा -- कि मुकदमा ’फाइनल स्टेज, में है और अचानक उनके मौन हो जाने सॆ उसे काफी परेशानी हो रही है। उसने विश्वास व्यक्त किया था कि वह निश्चित ही मुकदमा जीत जायेगीं। पत्र पढ़कर मैं मंभीर चिन्ता में डूब कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। दूसरे दिन मैंने उन्हें तार दिया। आठ दिन तक उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा, किन्तु निराशा ही हाथ लगी. अंत में मैम्ने स्वयं खजुहा जाने का निर्णय किया.

जबमै म खजुहा उनके घर पहुंचा तब दरवाजे पर लटकते ताले को दूर से देखकर मेरा दिल बैठने लगा। बंदर-ही-अंदर आशंका घर करने लगी। मुझे उनके दरवाजे के सामने किंर्त्तव्यविमूढ़-सा खड़ा देखकरपास के मकान से निकलकर एक महिला ने पूछा, "आप किसे चाहते हैं?"

"यहां जो अन्नपूर्णा जि...."

"वह तो न जाने कब की यहां से चली गयी।"

"आप बता सकती हैं, वह कहां गयी हैं ?"

"नहीं---- मुझे ठीक से नहीं मालूम कि वह कहां गयी हैं. लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि वह शायद बनारस चली गयी हैं या वृन्दावन..."

"लेकिन क्यों....?" मैं आगे कुछ कहते-कहते रुक गया. वह महिला शायद मेराआभिप्राय समझ गयी थीं, बोलीं--- "गुण्डे रहेने देते तब न रहतीं बेचारी."

मेरे सामने नानकचन्द का चेहरा घूमने लगा. लगा जैसे वह चेहरा बड़ा होता जा रहा है और उस विभत्स आकृति की चपेट में मैं भी आ गया हूं.