अपराध और दंड / अध्याय 2 / भाग 6 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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नस्तास्या के बाहर जाते ही वह उठ बैठा, दरवाजे की कुंडी लगा दी, उस बंडल को खोला जो रजुमीखिन शाम को लाया था और जिसे उसने फिर से बाँध दिया था, और कपड़े पहनने लगा। अजीब बात यह हुई कि उसे फौरन लगा कि वह एकदम शांत हो गया है। अभी कुछ ही पहले की सरसामी हालत का निशान भी बाकी नहीं रहा, न उस दहशत का जो उस पर इधर कुछ समय से छाई हुई थी। वह अचानक पैदा होनेवाली एक विचित्र शांति का पहला पल था। जो कुछ भी वह कर रहा था, बहुत नपे-तुले और निश्चित ढंग से। हर काम में एक दृढ़ उद्देश्य की झलक मिलती थी। 'आज, बस आज,' वह मन ही मन बुदबुदाया। उसे पता था कि वह अब भी कमजोर है, लेकिन उसकी गहरी आत्मिक एकाग्रता पूर्ण शांति का, एक जड़ विचार का रूप धारण कर चुकी थी और वही उसे शक्ति और आत्मविश्वास प्रदान कर रही थी। इसके अलावा, उसे यह भी उम्मीद हो चली थी कि वह सड़क पर नहीं गिरेगा। नए कपड़े पहन चुकने के बाद उसने मेज पर पड़ी हुई रकम को देखा और एक पल सोचने के बाद उसे जेब में रख लिया। पच्चीस रूबल थे। रजुमीखिन ने कपड़ों पर जो दस रूबल खर्च किए थे, उनमें से बची हुई रेजगारी भी उसने ले ली। फिर उसने धीरे से दरवाजे की कुंडी खोली, बाहर निकला, चुपके से सीढ़ियाँ उतरा और इस बीच एक नजर रसोई के खुले हुए दरवाजे की ओर भी डाल ली। नस्तास्या उसकी ओर पीठ किए खड़ी थी और मकान-मालकिन के समोवार में झुक कर आग सुलगा रही थी। उसने कुछ भी नहीं सुना। यह गुमान भी भला कौन करता कि वह बाहर निकल जाएगा! एक मिनट बाद वह सड़क पर था।

लगभग आठ बजे थे। सूरज डूब रहा था। पहले जैसी ही घुटन थी, लेकिन उत्सुकता से शहर की बदबूदार, गर्दभरी हवा में वह इस तरह लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, गोया उसे जी भर कर पी लेना चाहता हो। उसका सर कुछ-कुछ चकरा रहा था। फिर भी उसकी बुखार से बोझल आँखों में और उसके मुरझाए हुए, उदास, पीले चेहरे पर एक तरह की पाशविक शक्ति चमकी। वह कहाँ जा रहा था, यह उसे न तो मालूम था और न ही वह इसके बारे में सोच रहा था। उसके दिमाग में बस एक विचार था : 'कि यह सब कुछ आज ही खत्म कर देना होगा; हमेशा के लिए, फौरन वह इस काम को पूरा किए बिना घर नहीं लौटेगा, क्योंकि वह इस तरह का जीवन अब जीता नहीं रहेगा।' लेकिन उसे खत्म कैसे किया जाए किस चीज से उसे इसके बारे में कुछ भी अंदाजा नहीं था, वह इसके बारे में सोचना भी नहीं चाहता था। वह हर विचार को दूर भगा रहा था : विचारों से उसे बेहद तकलीफ पहुँचती थी। वह बस इतना जानता था, बस यह महसूस करता था कि हर बात को किसी-न-किसी दिशा में डाल देना होगा। उसने घोर निराशा में डूबे हुए मगर अटल आत्मविश्वास और पक्के संकल्प के साथ, इसी बात को दोहराया।

पुरानी आदत के अनुसार वह अपने सैर-सपाटे के पुराने रास्ते पर, भूसामंडी की ओर चल पड़ा। बिसाते की एक छोटी-सी दुकान के सामने सड़क पर काले बालोंवाला एक नौजवान हार्मोनियम लिए खड़ा था और विरह में डूबी हुई एक ही दर्द भरी धुन बजा रहा था। साथ में पंद्रह साल की एक लड़की थी, जो उसके सामने सड़क की पटरी पर खड़ी थी। वह क्राइनोलीन का साया, उस पर एक ढीला-सा बिना आस्तीन का कोट और दस्ताने पहने थी और तिनकों का बना हैट लगाए हुए थी जिसमें गहरे नारंगी रंग का एक पंख खोंसा हुआ था। हर चीज बहुत पुरानी और बेडौल थी। आवाज पाटदार और सुरीली थी पर सड़क पर गाते-गाते कुछ फट गई थी और भर्राने लगी थी। इसी आवाज में वह दुकान से कुछ पैसे मिल जाने की उम्मीद में गाए जा रही थी। रस्कोलनिकोव भी दो-तीन सुननेवालों के साथ जा कर खड़ा हो गया, कुछ देर गाना सुना, फिर लड़की के हाथ में पाँच कोपेक का सिक्का रख दिया। भावुकता से भरे पंचम सुर पर पहुँच कर लड़की ने गाना अचानक बंद कर दिया और तीखी आवाज में बाजा बजानेवाले साथी से चिल्ला कर बोली, 'आओ, चलो।' दोनों अगली दुकान की ओर बढ़ गए।

'आपको ऐसा सड़क छाप गाना पसंद है?' रस्कोलनिकोव ने अपने पास खड़े अधेड़ आदमी से पूछा। उसने चौंक कर बड़ी हैरत से उसे देखा।

'मुझे ऐसा गाना सुनने का शौक है,' रस्कोलनिकोव बोला और उसके बोलने का ढंग विषय से मेल खाता हुआ नहीं लग रहा था। 'मुझे पतझड़ की ठंडी, काली, भीगी-भीगी रातों को इस तरह का गाना बहुत भाता है। उनका भीगा-भीगा होना बहुत जरूरी है तब-जब सभी राहगीरों के बीमारों जैसे चेहरों पर मुर्दनी छाई हुई हो, या इससे भी अच्छा यह कि गीली-गीली बर्फ सीधी नीचे गिर रही हो, जब हवा न हो। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न... और सड़क की बत्तियाँ उसके बीच चमक रही हों।'

'मालूम नहीं... माफ कीजिएगा...' वह अजनबी बुदबुदाया और सड़क पार करके दूसरी ओर चला गया। उसे रस्कोलनिकोव के सवाल से, उसके विचित्र हुलिए से डर लगने लगा था।

रस्कोलनिकोव सीधा चलता रहा और भूसामंडी के नुक्कड़ पर उसी जगह पहुँच गया, जहाँ खोमचेवाले और उसकी औरत, जिन्होंने लिजावेता से बातें की थी, आमतौर पर मौजूद होते थे। लेकिन उस वक्त वे वहाँ नहीं थे। उस जगह को पहचान कर वह रुक गया, चारों ओर नजर दौड़ाई और एक नौजवान को संबोधित किया, जो लाल कमीज पहने एक पंसारी की दुकान के सामने मुँह फाड़े खड़ा था।

'इस नुक्कड़ पर एक आदमी और उसकी बीवी खोमचा लगाते थे न?'

'तरह-तरह के लोग यहाँ खोमचा लगाते हैं,' रस्कोलनिकोव को उचटती नजरों से देख कर नौजवान ने जवाब दिया।

'उसका नाम क्या है?'

'वही जो पादरी ने रखा होगा।'

'तुम तो जरायस्क के रहनेवाले होगे। किस सूबे के?' नौजवान ने फिर रस्कोलनिकोव की ओर देखा।

'वह सूबा नहीं है सरकार, जिला है। मेरा भाई ही वहाँ आया-जाया करता था। मैं तो यहीं का रहा, सो मुझे मालूम नहीं। गुस्ताखी माफ करें, सरकार।'

'वहाँ ऊपर शराबखाना है क्या'

'हाँ, खाने का होटल है; बिलियर्ड खेलने का कमरा भी है। कुछ शहजादियाँ आती हैं वहाँ... एकदम करारी!'

रस्कोलनिकोव ने चौक पार किया। उधरवाले नुक्कड़ पर किसानों की भारी भीड़ जमा थी। वह धक्का-मुक्की करता हुआ उस जगह पहुँच गया, जहाँ भीड़ सबसे घनी थी और लोगों के चेहरे देखने लगा। जाने क्यों उसका जी उन लोगों से बातें करने को चाह रहा था। लेकिन किसानों ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। अलग-अलग टोलियों में खड़े वे सब लोग एक साथ चिल्ला रहे थे। वह वहाँ खड़ा कुछ देर सोचता रहा और फिर दाएँ मुड़ कर व. चौक की ओर चल पड़ा। चौक पार करके वह एक गली में घुस गया।

वह पहले भी उस छोटी-सी गली को कितनी ही बार पार कर चुका था, जो तीखा मोड़ मुड़ कर मंडी से सदोवाया स्ट्रीट की तरफ चली गई थी। इधर कुछ दिनों से जब भी वह उदास होता, अकसर उसका जी इस इलाके में टहलने को होने लगता था 'ताकि वह और उदास हो सके।' इस वक्त उसने किसी भी चीज के बारे में सोचे बिना उसमें कदम रखा था। उस जगह एक बड़ी इमारत थी, जो पूरी की पूरी शराबखानों और खाने-पीने की अन्य जगहों को किराए पर चढ़ा दी गई थी; नंगे सर और घर में पहनने के कपड़ों में लिपटी औरतें लगातार वहाँ अंदर-बाहर भागती रहती थीं। कहीं-कहीं वे सड़क की पटरी पर टोलियों में जमा हो जाती थीं, खास तौर पर नीचे की मंजिलों पर बसे। रंगीन अड्डों के दरवाजों के इर्द-गिर्द इसी तरह के एक अड्डे से शोर, गाने की धुनों, गिटार की झंकार और मस्ती भरी चीख़ों की आवाज हवा की लहरों पर तैरती हुई सड़क तक आ रही थी। औरतों की एक भीड़ दरवाजे के इर्द-गिर्द जमा थी। कुछ सीढ़ियों पर बैठी थीं; कुछ सड़क की पटरी पर, और कुछ खड़ी बातें कर रही थीं। शराब के नशे में चूर एक सिपाही, सिगरेट पीता और गालियाँ बकता हुआ, उनके पास से हो कर सड़क पर जा रहा था। लगता था वह कहीं जाने का रास्ता ढूँढ़ रहा हो लेकिन भूल गया हो कि उसे कहाँ जाना है। एक भिखारी दूसरे से झगड़ रहा था, और नशे में धुत एक आदमी बीच सड़क पड़ा हुआ था। रस्कोलनिकोव भी उन औरतों की भीड़ में जा मिला जो भर्रायी आवाज में बातें कर रही थीं। वे नंगे सर थीं और उन्होंने सूती कपड़े और बकरी की खाल के जूते पहन रखे थे। उनमें चालीस साल की भी औरतें थीं पर कुछ सत्रह से ज्यादा की भी नहीं रही होंगी। लगभग सभी की आँखों के आस-पास पिटाई के निशान थे।

नीचे की मंजिल के उस अड्डे से आती गाने की आवाज और वहाँ का तमाम शोर-शराबा और हुल्लड़ उसे बरबस अपनी ओर खींचने लगे...

अंदर किसी के मस्त हो कर नाचने की आवाज सुनाई दे रही थी। वह गिटार की धुन पर एड़ियों से ताल देता जा रहा था और कोई शख्स बहुत महीन आवाज से तान ले कर एक फड़कता हुआ गीत गा रहा था। वह उदास मन से, कुछ खोया-खोया-सा बड़े ध्यान में सुनता रहा और पटरी पर खड़ा दरवाजे में झुक कर बड़ी जिज्ञासा से अंदर झाँकने लगा :

बलमा सिपहिया रे साँवरे

काहे को तोड़े मेरा हाड़ रे...

रस्कोलनिकोव गाने के बोल समझने के लिए कुलबुलाने लगा, गोया सारी बातों का दारोमदार इसी पर हो।

'अंदर जाऊँ' उसने सोचा। 'वे लोग हँस-गा रहे हैं... शराब के नशे में। मैं भी पी कर मस्त हो जाऊँ तो बुरा क्या है!'

'अंदर तो आओ जनाब!' एक औरत ने अनुरोध किया। उसकी आवाज अब भी सुरीली और दूसरों से कम भारी थी। नौजवान थी और सूरत-शक्ल की भी कोई बुरी नहीं थी। उस पूरी टोली में ऐसी वह अकेली थी।

'खासी सोहणी है,' उसने सीधे तनते हुए उसकी ओर देख कर कहा।

औरत अपनी तारीफ सुन कर मुस्करा पड़ी।

'तुम भी कुछ कम सुंदर तो नहीं,' वह बोली।

'मगर कितना दुबला-पतला है!' एक दूसरी औरत ने भारी गूँजती आवाज में कहा। 'अस्पताल से उठ कर अभी आए हो क्या?'

'लगता है सब जरनैलों की ही बेटियाँ हैं, लेकिन हैं सब नकचपटी,' नशे में झूमता एक किसान, जो ढीला-ढाला कोट पहने था, अपने चेहरे पर शरारतभरी मुस्कराहट ला कर बीच में बोला। 'देखो तो, चहक कैसे रही हैं!'

'तुम आ गए हो तो चलो, साथ चलें!'

'क्यों नहीं, मैं तो जा ही रहा हूँ।'

यह कह कर वह नीचे उतरा और तीर की तरह सीधे अड्डे में घुस गया। रस्कोलनिकोव आगे बढ़ गया।

'मैं कहती हूँ, जनाब,' लड़की ने पीछे से उसे आवाज दी।

'क्या चाहती है?'

वह सकुचा गई।

'दो घड़ी आपके साथ बिता लेती तो जी निहाल हो जाता, मेहरबान, मगर अभी तो आपसे मुझे शरम आवे है। पीने को बस छह कोपेक तो देते जाओ। तुम कितने अच्छे हो!'

रस्कोलनिकोव ने जो सिक्के हाथ में आए उसे दे दिए - पंद्रह कोपेक थे।

'आह! क्या भलामानुस आदमी है!'

'तुम्हारा नाम क्या है?'

'दुक्लिदा कह कर पूछ लेना।'

'अरे, इसने तो हद कर दी,' एक औरत ने दुक्लिदा की ओर सर हिलाते हुए अपनी राय जाहिर की। 'समझ में नहीं आता; इस तरह से पैसे भला कहीं माँगा जावे है। मैं तो शरम के मारे वहीं गड़ जाऊँ...'

रस्कोलनिकोव ने जिज्ञासा से उस औरत की तरफ देखा। तीस साल की जनानी थी। मुँह पर चेचक के दाग, चेहरे पर जगह-जगह नील पड़े हुए, ऊपर का होठ सूजा हुआ। उसने बड़े शांत भाव से और संजीदगी से यह आलोचना की थी।

'कहाँ पढ़ा था,' रस्कोलनिकोव आगे चलते हुए सोचने लगा, 'कहीं पढ़ा था मैंने कि जब किसी को मौत की सजा दी जाती है तो मौत से घंटे भर पहले वह कहता या सोचता है कि अगर उसे किसी ऊँची चट्टान पर, किसी पतली-सी कगार पर भी रहना पड़े, जहाँ सिर्फ खड़े होने की जगह हो, चारों ओर अथाह सागर हो, घोर अंधकार हो, एकदम एकांत हो, तूफान ही तूफान हो, अगर गज भर चौकोर जगह में सारे जीवन, हजारों साल अनंत काल तक रहना पड़े, तब भी फौरन मर जाने से इस तरह जिए जाना कहीं बेहतर है! बस जिए जाना, जिए जाना और जिए जाना! जिंदगी चाहे कैसी भी हो! ...कितनी सच्ची बात है! कसम से, कितना सच कहा है! आदमी भी कैसा कमीना है! ...कमीना तो वह है जो उसे इस बात पर कमीना कहता है,' उसने एक पल बाद कहा।

वह दूसरी सड़क पर मुड़ गया। 'आह, रंगमहल!' रजुमीखिन अभी इसी की बातें कर रहा था। लेकिन कमबख्त वह चीज क्या थी, जिसकी मुझे तलाश थी हाँ, पढ़ने की! ...जोसिमोव कह रहा था, उसने अखबार में पढ़ा था कि...'

'तुम्हारे यहाँ अखबार होंगे' उसने एक लंबे-चौड़े, काफी साफ-सुथरे रेस्तराँ में जा कर पूछा। रेस्तराँ में कई कमरे थे, लेकिन वे ज्यादातर खाली थे। दो-तीन लोग बैठे चाय पी रहे थे, और कुछ हट कर एक दूसरे कमरे में चार आदमी बैठे शैंपेन पी रहे थे। रस्कोलनिकोव को लगा कि उनमें से एक जमेतोव था, लेकिन इतनी दूर से वह भरोसे के साथ नहीं कह सकता था। 'हो भी तो क्या' उसने सोचा।

'वोदका लेंगे?' वेटर ने पूछा।

'थोड़ी-सी चाय ले आओ और अखबार ला दो। पुराने, पिछले पाँच दिनों के मैं तुम्हें बख्शीश भी कुछ दूँगा।'

'अच्छा जनाब, आज के तो ये रहे। वोदका नहीं लेंगे'

पुराने अखबार आए और चाय आ गई। रस्कोलनिकोव बैठ कर उनके पन्ने उलटने लगा।

'लाहौल विला कुव्वत... ये सब खबरें तो दुर्घटनाओं की हैं। कोई किसी सीढ़ी पर से लुढ़क गई, कोई ज्यादा शराब पी कर मर गया, पेस्की में आग, पीतर्सबर्ग के किसी मोहल्ले में आग... पीतर्सबर्ग के एक और मोहल्ले में आग... आह, यह रही!'

आखिरकार वह उसे मिल गया, जो वह ढूँढ़ रहा था और वह उसे पढ़ने लगा। लाइनें उसकी आँखों के सामने नाचने लगीं लेकिन वह सारा किस्सा पढ़ गया और बड़ी उत्सुकता के साथ उसके बाद के अखबारों में आगे का हाल ढूँढ़ने लगा। उसके हाथ पन्ने पलटते हुए घबराहट और बेचैनी से काँप रहे थे। इतने में कोई उसकी मेज पर आ कर बगल में धँस गया। उसने नजरें उठा कर देखा : थाने का बड़ा बाबू था, जमेतोव। उसका अब भी वही हुलिया था, उँगलियों में वही अँगूठियाँ, वही सोने के हार, घुँघराले काले बाल, बीच में माँग निकली हुई और तेल चुपड़ा हुआ, छैलों जैसी वास्कट, कुछ घिसा हुआ मलगुजा-सा कोट, कुछ मैली-सी कमीज। वह बहुत खुश नजर आ रहा था, कम से कम खिल कर और खुशमिजाजी से मुस्करा रहा था। जो शैंपेन पी थी, उसकी वजह से उसके चेहरे का साँवला रंग कुछ लाल हो आया था।

'अरे, तुम यहाँ!' उसने बड़े ताज्जुब से इस तरह बात करना शुरू किया जैसे उम्र भर से उसे जानता हो।' अभी कल ही तो रजुमीखिन ने बताया था कि तुम बेहोश थे। कैसी अजीब बात है! और, जानते हो, मैं तुमसे मिलने गया था?'

रस्कोलनिकोव जानता था कि वह उसके पास जरूर आएगा। उसने अखबार अलग रख दिए और जमेतोव की ओर मुड़ा। उसके होठों पर मुस्कराहट थी पर उस मुस्कराहट में चिड़चिड़ाहट और झुँझलाहट का रंग साफ झलक रहा था।

'मैं जानता हूँ आप आए थे,' उसने जवाब दिया। 'मैंने सुना है। आपने मेरा मोजा ढूँढ़ा था... और, आप जानते हैं, रजुमीखिन आप पर पूरी तरह लट्टू हो चुका है कहता था, आप उसके साथ लुईजा इवानोव्ना के यहाँ गए थे - जानते हैं न, वही औरत जिसकी खातिर आपने आँख मार कर उस लेफ्टिनेंट बारूद को इशारा किया था और वह आपका इशारा किसी भी तरह नहीं समझ सका था। याद है न आखिर क्यों नहीं समझ पाया वह एकदम साफ इशारा था, कि नहीं?'

'वह तो एक ही सरफिरा है!'

'कौन, वह बारूद?'

'नहीं, तुम्हारा दोस्त रजुमीखिन।'

'आपके भी बड़े ठाठ हैं, मिस्टर जमेतोव; सारी रंगीन जगहों में दाखिला मुफ्त! अभी आपके लिए वह शैंपेन कौन छलका रहा था?'

'नहीं भाई, हम लोग तो बस... साथ बैठे पी रहे थे... छलकाने की भी एक ही कही तुमने!'

'नजराने के तौर पर! आपकी तो पाँचों उँगलियाँ घी में हैं!' रस्कोलनिकोव हँसा। 'ठीक है, मेरे यार,' उसने जमेतोव के कंधे पर धौल जमा कर कहा, 'मैं गुस्से से नहीं बल्कि दोस्ताना तरीके से कह रहा हूँ, मजाक में, जिस तरह तुम्हारा वह मजदूर, उस बुढ़ियावाले मामले में, मित्रेई के साथ हाथापाई के बारे में बता रहा था।'

'तुम्हें उसके बारे में कैसे मालूम?'

'इसके बारे में शायद मुझे तुमसे भी ज्यादा मालूम हो।'

'तुम भी कैसे अजीब शख्स हो... मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारी तबीयत अभी तक गड़बड़ है। तुम्हें बाहर नहीं निकलना चाहिए था!'

'आह, तो मैं आपको अजीब लग रहा हूँ?'

'हाँ। पर ये कर क्या रहे हो? अखबार पढ़ रहे हो?'

'हाँ।'

'बहुत सारी खबरें तो आग लगने की हैं।'

'नहीं, मैं आग की खबरें नहीं पढ़ रहा हूँ।' यह कह कर उसने रहस्यमय ढंग से जमेतोव को देखा। उसके होठों पर फिर एक चिढ़ानेवाली मुस्कराहट खेलने लगी थी। 'नहीं, मैं आग लगने की खबरें नहीं पढ़ रहा था,' जमेतोव की ओर आँख मार कर वह कहता रहा। 'लेकिन अब मान भी लो, मेरे यार, कि तुम्हें यह जानने की बेहद फिक्र चढ़ी हुई है कि मैं किस चीज के बारे में पढ़ रहा हूँ?'

'मुझे तो रत्ती भर भी फिक्र नहीं है। मैंने यूँ ही पूछ लिया था। क्या पूछना मना है? तुम क्यों ऐसे...'

'सुनो, तुम तो पढ़े-लिखे आदमी हो न, थोड़े साहित्य-प्रेमी किस्म के?'

'हाँ, मैं छह साल जिम्नेजियम स्कूल में पढ़ा हूँ,' जमेतोव ने शान से कहा।

'छह साल! अरे वाह रे मेरे तंदूरी मुर्ग! बालों की माँग और जमावट से और अपनी अँगूठियों से तुम खासे दौलतवाले आदमी मालूम होते हो। वाह! कैसा बाँका लड़का है!' यह कह कर रस्कोलनिकोव ने जमेतोव के मुँह के ठीक सामने एक जोरदार ठहाका लगाया। जमेतोव पीछे हट गया। उसने इस बात का बुरा उतना नहीं माना था जितना कि इस पर दंग रह गया था।

'वाह! तुम हो एक अजीब आदमी!' जमेतोव ने बहुत गंभीर हो कर एक बार फिर दोहराया। 'मैं मान ही नहीं सकता कि तुम अभी तक सरसाम हालत में नहीं हो।'

'मैं सरसाम की हालत में हूँ मजाक न करो, मेरे तंदूरी मुर्ग तो मैं अजीब हूँ तुमको अजीब लगता हूँ, क्यों?'

'हाँ, एकदम अजीब।'

'मैं बताऊँ तुम्हें, मैं किस चीज के बारे में पढ़ रहा था और क्या ढूँढ़ रहा था देखो, मैंने कितने सारे अखबार मँगवा रखे हैं! शक हो रहा है, क्यों?'

'खैर बताओ तो क्यों?'

'कान खड़े होने लगे?'

'कान खड़े होने से क्या मतलब है तुम्हारा?'

'बाद में समझाऊँगा। अभी तो, मेरे यार, मैं तुम्हारे सामने ऐलान करता हूँ... नहीं, यह कहना बेहतर होगा कि मैं इकबाल करता हूँ, ...नहीं, यह भी ठीक नहीं है, मैं हलफ उठा कर कहता हूँ... तुम उसे लिख लो, मैं हलफ उठा कर कहता हूँ... कि मैं पढ़ रहा था, कि मैं देख रहा था और खोज रहा था,' उसने अपनी आँखें सिकोड़ीं और रुक गया। 'मैं वही खबरें खोज रहा था - और यहाँ खास इसी काम से आया था - चीजें गिरवी रखनेवाली उस बुढ़िया के कत्ल की खबरें,' आखिरकार उसने अपना मुँह जमेतोव के मुँह के पास ला कर यह बात कह ही दी, कुछ इस तरह जैसे कानाफूसी कर रहा हो। जमेतोव नजरें जमाए उसे देखता रहा; न तो अपनी जगह से हिला और न ही अपना मुँह पीछे हटाया। जमेतोव को बाद में इस सबमें जो बात सबसे अजीब लगी, यह थी कि इसके बाद पूरे एक मिनट तक खामोशी रही और इस पूरे दौरान वे एक-दूसरे को घूरते रहे।

'अगर तुम उसके बारे में पढ़ते भी रहे तो क्या हुआ?' आखिरकार वह हैरत से और बेचैन हो कर चिल्लाया। 'उससे मुझे क्या लेना-देना! ऐसी क्या बात है उसमें?'

'वही बुढ़िया,' जमेतोव के हैरत की ओर कोई ध्यान दिए बिना रस्कोलनिकोव उसी तरह कानाफूसी में कहता रहा, 'जिसके बारे में तुम थाने में बातें कर रहे थे, याद है, जब मैं बेहोश हो गया था। बोलो, अब तुम्हारी समझ में आया?'

'क्या मतलब तुम्हारा? 'क्या समझ में आया?' जमेतोव ने बौखला कर किसी तरह अपनी बात पूरी की।

रस्कोलनिकोव का सधा हुआ गंभीर चेहरा अचानक बदल गया, और वह एक बार फिर, पहले की ही तरह अचानक ठहाका मार कर खिसियाई हँसी हँसने लगा, जैसे वह अपने आपको काबू में न रख पा रहा हो। पलक झपकते संवेदना की असाधारण स्पष्टता के साथ उसे अभी हाल का वह बीता हुआ पल याद आया, जब वह कुल्हाड़ी लिए दरवाजे के पीछे खड़ा था, दरवाजे की कुंडी काँप रही थी, बाहर खड़े हुए लोग गालियाँ दे रहे थे और दरवाजे को जोर-जोर से हिला रहे थे, और अचानक उसका जी चाहा था कि उन लोगों पर चिल्लाए, उन्हें गालियाँ दे, अपनी जीभ बाहर निकाल कर उन्हें दिखाए, उन्हें मुँह चिढ़ाए, हँसे, और हँसे, और भी हँसे!

'तुम या तो पागल हो, या...' जमेतोव ने कहना शुरू किया लेकिन बीच में ही रुक गया, गोया जो विचार अभी उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा था, उससे वह स्तब्ध रह गया हो।

'या 'या' क्या क्या बोलो!'

'कुछ नहीं,' जमेतोव ने गुस्से से कहा, 'सब बकवास है!'

दोनों चुप रहे। हँसी का दौर पड़ने के बाद रस्कोलनिकोव अचानक एकदम विचारमग्न और उदास हो गया। मेज पर कुहनी रख कर उसने अपना सर हाथों पर टिका लिया। लग रहा था वह जमेतोव को एकदम भूल गया है। यह खामोशी कुछ देर तक जारी रही।

'अपनी चाय क्यों नहीं पीते ठंडी हुई जा रही है,' जमेतोव ने कहा।

'क्या! चाय अरे हाँ...' रस्कोलनिकोव चुस्की ले कर चाय पीने लगा। उसने मुँह में रोटी का एक टुकड़ा रखा और अचानक जमेतोव को देख कर उसे लगा जैसे सब कुछ याद आ गया हो, और उसने अपने आपको सँभाल लिया। इसके साथ ही उसके चेहरे पर फिर वही पहलेवाला भाव आ गया, जैसे वह किसी को मुँह चिढ़ा रहा हो। वह चाय पीता रहा।

'पिछले कुछ दिनों में इस तरह की बहुत-सी जालसाजियाँ हुई हैं,' जमेतोव बोला। 'अभी उसी दिन मैंने मास्को पत्रिका में पढ़ा था कि मास्को में जालसाजों का एक गिरोह पकड़ा गया है। उन लोगों की एक अच्छी-खासी तादाद थी और वे लोग जाली नोट छापते थे!'

'आह, लेकिन वह तो बहुत पुरानी बात है! उसके बारे में मैंने महीना भर पहले ही पढ़ा था,' रस्कोलनिकोव ने शांत भाव से जवाब दिया। 'तो तुम उन लोगों का जालसाज समझते हो?' उसने मुस्करा कर इतना और कहा।

'तो और क्या हैं वे लोग?'

'वे... वे बच्चे हैं, एकदम बुद्धू। जालसाज नहीं हैं! ऐसे काम के लिए पचास आदमियों को जुटाना - यह भी कोई बात हुई! भाँडा फोड़ देने के लिए तीन भी काफी होते, और फिर भी उन्हें अपने आपसे ज्यादा भरोसा एक-दूसरे पर होना चाहिए था। नशे में किसी के मुँह से जरा-सी भी बात निकल जाती और सब कुछ ढह जाता। बेवकूफ कहीं के! उन्होंने नोट भुनाने के काम पर ऐसे लोगों को लगाया था जिन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता था - ऐसा काम कहीं किसी निरे अजनबी को सौंपा जाता है! अच्छा, मान लीजिए कि ये बेवकूफ कामयाब हो जाते और उनमें से हर आदमी लखपति हो जाता, तो फिर बाकी जिंदगी उनका क्या हाल होता उनमें से हर एक उम्र भर दूसरों की दया पर रहता! इससे अच्छा तो यह है कि आदमी फौरन फाँसी लगा कर मर जाए! अरे उन्हें तो नोट भुनाना भी नहीं आता था। जो आदमी नोट भुनाने गया था उसने पाँच हजार रूबल लिए और उसके हाथ काँपने लगे। उसे रकम अपनी जेब में डाल कर भाग जाने की ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उसने पहले चार हजार तो गिने, लेकिन पाँचवाँ हजार नहीं गिना। जाहिर है, लोगों को शक हो गया और एक बेवकूफ की वजह से सब कुछ खलास हो गया! यह भी कुछ करने का कोई ढंग है?'

'इसलिए कि उसके हाथ काँपने लगे थे' जमेतोव ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'हाँ हो सकता है। पूरा यकीन है मुझे कि ऐसा हो सकता है। कभी-कभी आदमी बर्दाश्त नहीं कर पाता।'

'ऐसी चीज बर्दाश्त नहीं कर पाता?'

'अच्छा बताओ, क्या तुम बर्दाश्त कर लेते, सौ रूबल की खातिर ऐसे भयानक अनुभव से गुजरना, मैं तो न कर पाता! जाली नोट ले कर बैंक में जाना, जहाँ इस तरह की चीजों को पकड़ना उन लोगों को खूब आता है! नहीं, ऐसा करने की मेरी तो हिम्मत नहीं पड़ती। तुम्हारी पड़ती?'

रस्कोलनिकोव का एक बार फिर बेहद जी चाहा कि वह 'जीभ निकाल कर उसे चिढ़ाए'। उसकी रीढ़ में ऊपर से नीचे तक सिहरन की लहरें दौड़ रही थीं।

'मैं होता तो इस काम को एकदम दूसरे ढंग से करता,' रस्कोलनिकोव ने कहना शुरू किया। 'मैं नोट इस तरह भुनाता : पहले एक हजार तो मैं तीन-चार बार गिनता, कभी सीधी तरफ से कभी उलटी तरफ से। एक-एक नोट को अच्छी तरह देख-देख कर। तब मैं दूसरे हजार को हाथ लगाता। मैं वह गड्डी आधी गिनता, फिर पचास रूबल का एक नोट उसमें से निकाल कर रोशनी के सामने करके देखता, फिर उसे उलटता और दोबारा उसे रोशनी के सामने करके देखता - यह मालूम करने के लिए कि वह ठीक है कि नहीं। 'बुरा न मानिएगा', मैं कहता, 'अभी कुछ ही दिन पहले मेरे एक रिश्तेदार को एक जाली नोट की वजह से पच्चीस रूबल की चोट लगी है,' और तब मैं उन्हें सारा किस्सा बताता। फिर तीसरा हजार गिनना शुरू करने के बाद मैं कहता, 'नहीं, एक पल ठहरिएगा, मुझे लगता है दूसरे हजार के सातवें सैकड़े में मुझसे गिनने में गलती हो गई है, मैं ठीक से कह नहीं सकता।' तब मैं तीसरा हजार बीच में छोड़ कर फिर दूसरा हजार गिनना शुरू करता और इसी तरह आखिर तक गिनता रहता। और जब सारे गिन लेता तो एक नोट पाँचवें हजार में से और एक नोट दूसरे हजार में से निकाल कर रोशनी के सामने करके देखता और फिर कहता, 'मेहरबानी करके इन्हें बदल दीजिए,' और वहाँ बैठे हुए क्लर्क को ऐसे चक्कर में डाल देता कि मुझसे पिंड कैसे छुड़ाए, यह उसकी समझ में न आता! अपना काम पूरा करके बाहर जाने के बाद मैं फिर लौट कर आता। पर नहीं, माफ कीजिएगा, मैं उससे कोई बात समझाने को कहता। मैं तो अपना काम इसी तरह करता!'

'वाह! कैसी अजीब बातें करते हो तुम भी!' जमेतोव ने हँस कर कहा। 'लेकिन ये सब तो बस कहने की बातें हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जब वक्त आता, तो तुम भी कोई गलती जरूर कर बैठते। मैं तो समझता हूँ कि बहुत अनुभवी आदमी भी, जिसने सब कुछ दाँव पर लगा दिया हो, हमेशा अपने आप पर भरोसा नहीं कर सकता, तुम्हारी और मेरी तो बात ही क्या है। दूर क्या जाना, पास की ही एक मिसाल ले लो - उस बुढ़िया की, जिसका हमारे इलाके में कत्ल हुआ है, लगता है कातिल जिंदगी से हारा हुआ एक शख्स था। उसने यह सारा जोखिम दिन-दहाड़े उठाया, और यह चमत्कार ही था कि वह बच गया - लेकिन हाथ तो उसके भी काँप गए थे। वह उस जगह को ठीक से लूट नहीं सका, उससे बर्दाश्त नहीं हो सका। यह बात इससे साफ जाहिर होती है कि...'

लगा कि रस्कोलनिकोव को कोई बात बुरी लगी है।

'साफ जाहिर होती है तो फिर उसे पकड़ क्यों नहीं लेते?' वह जल-भुन कर जमेतोव को ताना देते हुए चीखा।

'जरूर पकड़ लेंगे।'

'कौन तुम समझते हो कि उसे तुम लोग पकड़ सकते हो बड़ा मुश्किल है तुम्हारे लिए! तुम लोगों के लिए यही एक बहुत बड़ा सुराग होता है कि आदमी पैसा खर्च कर रहा है या नहीं। पहले अगर उसके पास पैसा न रहा हो और वही अचानक हाथ खोल कर खर्च करने लगे, तो फिर तो कातिल वही आदमी होगा। इसीलिए तो एक बच्चा भी तुम लोगों के तर्क की धज्जी उड़ा सकता है!'

'असलियत यही है कि वे लोग हमेशा यही करते हैं,' जमेतोव ने जवाब दिया। 'एक आदमी जान जोखिम में डाल कर चालाकी से कत्ल तो कर डालता है लेकिन फौरन किसी शराबखाने में पकड़ा जाता है। ऐसे लोग पैसा खर्च करते ही पकड़े जाते हैं। सब तुम्हारे जैसे चालाक नहीं होते। जाहिर है, तुम शराबखाने तो नहीं जाओगे?'

रस्कोलनिकोव त्योरियों पर शिकन लिए एकटक जमेतोव को देखता रहा।

'लगता है तुम्हें इस चर्चा में बहुत मजा आ रहा है और तुम जानना चाहोगे कि मैं इस मामले में क्या करता?' उसने कुछ चिढ़ कर पूछा।

'जरूर जानना चाहूँगा,' जमेतोव ने दृढ़ता और गंभीरता से जवाब दिया। उसके शब्दों और उसकी मुद्रा में जरूरत से कुछ ज्यादा ही उत्सुकता झलकने लगी थी।

'बहुत ज्यादा?'

'बहुत ज्यादा!'

'अच्छी बात है, तो सुनो कि मैं क्या करता,' रस्कोलनिकोव एक बार फिर उसे घूरते हुए, कानाफूसी में कहना शुरू किया। 'मैं तो यूँ करता : मैं पैसे और जेवर ले लेता और वहाँ से निकल कर सीधा किसी सुनसान जगह में जाता, जो चहारदीवारी से घिरी होती और जहाँ कोई भी आसानी से दिखाई न देता। किसी के घर के पिछवाड़े का बगीचा या इसी तरह की कोई और जगह। मन-डेढ़ मन का कोई पत्थर मैं पहले से देख रखता, जो घर बनने के समय से वहाँ किसी कोने में पड़ा होता। मैं उस पत्थर को उठाता जिसके नीचे जरूर एक गड्ढा होता, और मैं उसी गड्ढे में जेवर और पैसे रख देता। इसके बाद मैं पत्थर को लुढ़का कर फिर वही पहुँचा देता ताकि वह देखने में पहले की तरह ही लगे, और फिर उसे अपने पाँव से दबा कर चला आता। उसके बाद साल या दो साल तक, या शायद तीन साल तक भी, मैं उसे हाथ तक नहीं लगाता। अब कोई कातिल को तलाश करता फिरे, वह तो बस छूमंतर हो जाता।'

'पागल हो तुम,' जमेतोव ने कहा। न जाने क्यों वह भी कानाफूसी में बोला और रस्कोलनिकोव से दूर हट गया, जिसकी आँखें दहकते अंगारों की तरह चमक रही थीं। वह बेहद पीला पड़ गया था। उसका ऊपरवाला होठ फड़क रहा था और काँप रहा था। वह जितना भी मुमकिन हो सका, जमेतोव की ओर झुका और उसके होठ एक शब्द भी निकाले बिना चलने लगे। कोई आधे मिनट तक यही सिलसिला चलता रहा। वह जानता था कि वह क्या कर रहा है लेकिन अपने आपको वह रोक नहीं पा रहा था। वह भयानक शब्द उसके होठों पर काँप रहा था, एकदम उसी दरवाजे की कुंडी की तरह। अगले ही क्षण वह उसके होठ से अलग हो जाएगा, किसी भी क्षण वह उसे मुक्त कर देगा, वह बोल पड़ेगा!

'अब अगर उस बुढ़िया को और लिजावेता को मैंने ही कत्ल कर दिया हो तो?' उसने अचानक कहा और महसूस किया कि वह क्या कर बैठा है।

जमेतोव ने आँखें फाड़ कर उसे देखा और उसका रंग मेजपोश की तरह सफेद हो गया। उसके चेहरे पर एक विकृत मुस्कराहट थी।

'क्या यह सचमुच मुमकिन है?' वह बहुत धीमी आवाज में बड़ी मुश्किल से बोला। रस्कोलनिकोव ने उसे बिफर कर देखा।

'अब मान भी लो कि इस बात पर तुम्हें यकीन आ गया था। आ गया था न?'

'एकदम नहीं। अब तो इस पर मुझे पहले जितना भी यकीन नहीं रहा,' जमेतोव जल्दी से चीखा।

'गया काम से। पकड़ लिया बुलबुल को! यानी कि पहले तुम्हें यकीन था सो अब पहले जितना भी यकीन नहीं रह गया है?'

'एकदम नहीं,' जमेतोव जोर से बोला। साफ मालूम हो रहा था कि वह इस बात से सिटपिटा गया है। 'क्या तुम यही कहलवाने के लिए मुझे अभी तक डरा रहे थे?'

'तो इस बात पर तुम्हें यकीन नहीं है? जब मैं थाने से चला आया था तब तुम मेरी पीठ पीछे क्या बातें कर रहे थे और मेरे बेहोश होने के बाद उस बारूदी लेफ्टिनेंट ने मुझसे सवाल-जवाब क्यों किए थे तो सुनो,' उसने अपनी टोपी उठा कर खड़े होते हुए वेटर से चिल्ला कर कहा, 'कितना हुआ?'

'कुल तीस कोपेक जनाब,' वेटर ने भाग कर आते हुए जवाब दिया।

'और यह रहे बीस कोपेक वोदका के लिए। देखो, कितना पैसा है!' उसने अपना काँपता हुआ हाथ, जिसमें उसने नोट पकड़ रखे थे, जमेतोव की ओर बढ़ा कर कहा। 'लाल नोट और नीले, पच्चीस रूबल। कहाँ से आए मेरे पास और मेरे ये नए कपड़े कहाँ से आए तुम्हें मालूम है कि मेरे पास एक कोपेक भी नहीं था! मैं दावे से कह सकता हूँ कि तुम मेरी मकान-मालकिन से पूछताछ कर चुके हो... अच्छा बस बहुत हुआ! फिर मिलेंगे!'

वह एक तरह से गहरे जुनून की हालत में, जिसमें घोर आनंद का भी पुट था, सर से पाँव तक काँपता हुआ बाहर निकल गया। फिर भी वह उदास और थका हुआ था। उसका चेहरा यूँ ऐंठा हुआ था जैसे अभी उसे दौरा पड़ चुका हो। उसकी थकान बड़ी तेजी से बढ़ती गई। कोई भी चोट, कोई भी चिड़चिड़ी बनानेवाली भावना उसकी सारी शक्तियों को फौरन उत्तेजित कर देती थी और उनमें फिर से जान डाल देती थी, लेकिन जैसे ही उत्तेजना का वह स्रोत हटा लिया जाता था, उसकी सारी शक्ति उतनी ही जल्दी हवा भी हो जाती थी।

जमेतोव अकेला देर तक विचारों में डूबा हुआ उसी जगह बैठा रहा। रस्कोलनिकोव ने अनजाने ही उसके दिमाग में एक बात के बारे में हलचल पैदा कर दी थी और उसका एकदम इरादा पक्का कर दिया था।

'इल्या पेत्रोविच तो गधा है!' उसने अपना फैसला सुनाया।

रस्कोलनिकोव ने अभी रेस्तराँ का दरवाजा खोला ही था कि सीढ़ियों पर उसकी मुठभेड़ रजुमीखिन से हो गई। उन्होंने एक-दूसरे को उस समय तक नहीं देखा था, जब तक वे लगभग टकरा नहीं गए। पलभर दोनों एक-दूसरे को ऊपर से नीचे तक देखते रहे। रजुमीखिन को बेहद हैरत हो रही थी। फिर उसकी आँखों में क्रोध की, सचमुच के क्रोध की, भयानक चमक दिखाई दी।

'तो तुम यहाँ हो!' वह गला फाड़ कर चीखा। 'तुम अपने बिस्तर से उठ कर भाग आए! और मैं तुम्हें सोफे के नीचे तक ढूँढ़ रहा था! ऊपर अटारी भी देखी। तुम्हारी वजह से मैंने नस्तास्या को मारते-मारते रद्द दिया। और तुम यहाँ मिले! रोद्या, इस सबका क्या मतलब है मुझे सच-सच बता दो! जो बात हो, साफ बता दो! सुना?'

'इसका मतलब यह है कि मैं तुम सबसे तंग आ चुका हूँ और चाहता हूँ कि मुझे मेरे हाल पर अकेला छोड़ दिया जाए,' रस्कोलनिकोव ने शांत भाव से उत्तर दिया।

'अकेला? जबकि तुझसे ठीक से चला भी नहीं जाता, जबकि तुम्हारा चेहरा चादर की तरह सफेद हो रहा है और तुम्हारी साँस भी ठीक से चल नहीं रही है! बेवकूफ! ...तुम यहाँ रंगमहल में क्या कर रहे थे फौरन सब सच बता दो!'

'मुझे जाने दो!' रस्कोलनिकोव ने कहा और उससे कतरा कर निकलना चाहा। यह रजुमीखिन की बर्दाश्त के बाहर था; उसने कस कर रस्कोलनिकोव का कंधा पकड़ लिया।

'जाने दूँ तुम्हारी यह हिम्मत कि मुझसे कहते हो 'मुझे जाने दो' जानते हो, मैं अभी, इसी वक्त तुम्हारे साथ क्या करनेवाला हूँ? मैं अभी तुम्हें उठा कर, तुम्हारा गट्ठर बनाऊँगा, बगल में दबा कर घर ले जाऊँगा और ताले में बंद करूँगा!'

'सुनो रजुमीखिन,' रस्कोलनिकोव ने धीमे से और देखने में काफी शांत भाव से कहा, 'क्या तुम्हारी समझ में यह भी नहीं आता कि मुझे तुम्हारा उपकार नहीं चाहिए यह एक अजीब इच्छा है तुम्हारे मन में कि तुम सारे उपकार एक ऐसे आदमी पर लुटाना चाहते हो जो... जो उन्हें धिक्कारता है, जो उन्हें दरअसल एक बोझ समझता है! मेरी बीमारी की शुरुआत में तुमने मुझे क्यों खोज निकाला कौन जाने, मर कर मुझे खुशी होती! आज मैंने तुम्हें क्या यह बात साफ-साफ नहीं बता दी थी कि तुम मुझे सता रहे हो, कि मैं... मैं तुमसे तंग आ गया हूँ! लगता है, तुम भी लोगों को सताना चाहते हो! मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि इन सब बातों से मेरे ठीक होने में रुकावट पड़ रही है, क्योंकि इससे मुझे हरदम कोफ्त होती रहती है। तुमने देखा, जोसिमोव अभी इसीलिए चला गया कि मुझे कोफ्त न हो। तुम भी मेरे हाल पर रहम खाओ और मुझे अकेला छोड़ दो! मुझको जबरदस्ती अपने कब्जे में रखने का तुम्हें क्या हक है? तुम देखते नहीं कि अब मेरे सारे हवास ठीक हैं मैं तुम्हें किस तरह, आखिर किस तरह समझाऊँ कि तुम मुझे अपनी नेकी से मत सताओ। हो सकता है एहसानफरामोश हूँ, हो सकता है मैं कमीना हूँ, लेकिन मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो... खुदा के वास्ते मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो! अकेला छोड़ दो, मुझे अकेला छोड़ दो!'

उसने बहुत शांत भाव से अपनी बात शुरू की थी। जहर में बुझी ये बातें कहते हुए उसे मन ही मन खुशी हो रही थी, लेकिन जब उसने अपनी बात खत्म की तो वह जुनून के मारे बुरी तरह हाँफ रहा था, ठीक उसी तरह जैसे लूजिन के साथ उसका हाल हुआ था।

रजुमीखिन एक पल खड़ा रहा। उसने कुछ देर सोचा और फिर अपना हाथ हटा लिया।

'तो फिर जहन्नुम में जाओ,' उसने विचारमग्न, बहुत धीमे से कहा। लेकिन जैसे ही रस्कोलनिकोव चलने को हुआ, उसने गरज कर कहा : 'ठहरो! मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें इतना बता दूँ कि तुम और तुम्हारी तरह के सबके सब लोग खाली बकबक करनेवाले, बेकार की शेखी झाड़नेवाले बेवकूफ हैं! अगर कोई जरा-सी मुसीबत आन पड़ती है तो तुम उसे ले कर ऐसे बैठ जाते हो, जैसे मुर्गी अंडे पर बैठती है। पर इसमें भी तुम लोग दूसरों की नकल ही करते हो! तुम लोगों में स्वतंत्र जीवन का नाम-निशान तक नहीं! मोम के बने हो तुम लोग और तुम्हारी नसों में खून नहीं, बलगम भरा है! मुझे तुममें से किसी एक का भी भरोसा नहीं है। हर हालत में तुम सबकी पहली कोशिश यही होती है कि इनसानों जैसे न रहने पाओ! ठहरो!' रस्कोलनिकोव को फिर खिसकने की कोशिश करते देख कर वह और भी गुस्से से चीखा, 'मेरी पूरी बात सुनते जाओ! तुम जानते हो आज रात को मेरे यहाँ गृह-प्रवेश की पार्टी है। मुझे यकीन है कि लोग अब तक आ भी गए होंगे, लेकिन मैं मेहमानों की अगवानी के लिए अपने चाचा को वहाँ छोड़ आया और भाग कर यहाँ चला आया। अब अगर तुम बेवकूफ नहीं हो, पक्के बेवकूफ नहीं हो, परले दर्जे के बेवकूफ नहीं हो, अगर तुम नकल नहीं बल्कि असल हो... देखो, रोद्या मैं जानता हूँ तुम होशियार आदमी हो, लेकिन बेवकूफ हो! अगर तुम बेवकूफ न होते तो यहाँ सड़क पर जूते घिसने की बजाय मेरे यहाँ आ जाते! अब तुम बाहर निकल ही आए हो तो क्या किया जा सकता है! मैं तुम्हें गद्देदार आरामकुर्सी दूँगा जो मेरी मकान-मालकिन के पास है, चाय पिलाऊँगा और बहुत से लोगों का साथ रहेगा... या तुम सोफे पर लेट सकते हो -बहरहाल, तुम होगे हमारे साथ ही। जोसिमोव भी वहाँ होगा। आओगे न?'

'नहीं।'

'आ...ओगे!' रजुमीखिन धीरज छोड़ कर चीखा। 'तुम्हें क्या मालूम तुम अपनी तरफ से जवाब नहीं दे सकते! तुम्हें इसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम... हजारों बार ऐसा हो चुका है कि मैं लोगों से बुरी तरह लड़ा और बाद में भाग कर फिर उन्हीं के पास गया... आदमी को बाद में अपने किए पर शर्म आती है। वह उसी आदमी के पास वापस जाता है! इसलिए याद रखना, पोचिंकोव का घर, तीसरी मंजिल पर...'

'सचमुच मिस्टर रजुमीखिन, मैं समझता हूँ कि अगर कोई तुम्हें धुन कर रख दे तो तुम महज यह जताने के लिए उसे भी चुपचाप सह लोगे कि तुमने किसी का भला किया।'

'धुन कर? किसे? मुझे? ऐसी बात किसी ने सोची भी तो मैं उसकी नाक, तोड़ कर रख दूँगा! पोचिकोव का घर, नंबर 47, बाबुश्किन का फ्लैट...'

'मैं नहीं आऊँगा, रजुमीखिन।' रस्कोलनिकोव मुड़ कर चला गया।

'मैं शर्त लगता हूँ कि आओगे,' रजुमीखिन ने पीछे से चिल्ला कर कहा। 'अगर नहीं आए तो मैं तुम्हें पहचानना भी छोड़ दूँगा! अरे, सुनो तो जमेतोव अंदर है?'

'हाँ।'

'तुम उससे मिले थे?'

'हाँ।'

'कोई बात की थी?'

'हाँ।'

'काहे के बारे में खैर, मुझे नहीं बताना चाहते तो भाड़ में जाओ। पोचिकोव का घर, नंबर 47, बाबुश्किन का फ्लैट, याद रखना!'

रस्कोलनिकोव चलता रहा और नुक्कड़ पर पहुँच कर सदोवाया शाहराह में मुड़ गया। विचारों में डूबा हुआ रजुमीखिन उसे जाते देखता रहा। फिर अपना हाथ हवा में लहरा कर वह मकान के अंदर घुसा लेकिन सीढ़ियों पर ही ठिठक गया।

'लानत है,' वह कुछ ऊँची आवाज में अपने आपसे कहता रहा। 'वह समझदारी की बातें कर रहा था, फिर भी... मैं भी बड़ा बेवकूफ हूँ! गोया कि पागल आदमी समझदारी की बातें करते ही नहीं! और जोसिमोव लगता है, इसी बात से डर रहा था।' उसने उँगली से अपने माथे पर टिकटिकाया। 'अगर कहीं... उसे मैंने अकेले जाने ही कैसे दिया कहीं जा कर डूब मरे तो... छिः कैसी भयानक गलती की मैंने! नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा।' वह रस्कोलनिकोव को पकड़ने के लिए लपका, लेकिन उसका कहीं पता नहीं था। वह अपने को कोसता हुआ, तेज-तेज कदमों से जमेतोव से पूछने के लिए रंगमहल लौट आया।

रस्कोलनिकोव सीधा चलता हुआ... पुल पर जा पहुँचा, बीच में जा कर खड़ा हो गया और रेलिंग पर दोनों कुहनियाँ टिका कर दूर क्षितिज की ओर घूरने लगा। रजुमीखिन से विदा होने के बाद वह इतनी कमजोरी महसूस कर रहा था कि यहाँ तक बड़ी मुश्किल से पहुँच सका था। वह सड़क पर ही कहीं बैठ जाने या लेट जाने के लिए तड़प रहा था। पानी के ऊपर झुक कर वह सूर्यास्त की अंतिम, हलकी गुलाबी लाली को, गहराते हुए झुटपुटे में अँधियारे होते हुए घरों की कतार को, बाएँ किनारे पर बहुत दूर एक अटारी की उस खिड़की को, जो डूबते सूरज की अंतिम किरणों में ऐसी चमक रही थी जैसे उसमें आग लगी हो, और नहर के काले पड़ते हुए पानी का यूँ ही घूरता रहा। लगता था पानी ने उसका सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। आखिरकार, उसकी आँखों के सामने लाल घेरे नाचने लगे। घर हिलते हुए लग रहे थे। राहगीर, नहर के दोनों किनारे, गाड़ियाँ तमाम चीजें आँखों के सामने नाच रही थीं। यकबयक वह चौंका पड़ा; शायद किसी विचित्र और भयानक दृश्य ने उसे फिर बेहोश होने से बचा लिया था। उसे एहसास हुआ कि कोई उसकी दाहिनी ओर खड़ा है। वह उधर घूमा तो लंबे, पीले, मुरझाए हुए चेहरे और धँसी हुई लाल आँखोंवाली एक लंबी-सी औरत सिर पर रूमाल बाँधे खड़ी थी। वह सीधे उसकी ओर देख रही थी, लेकिन जाहिर था कि उसे न तो कुछ दिखाई दे रहा था और न वह किसी को पहचान रही थी। अचानक उसने अपना दाहिना हाथ रेलिंग पर टिकाया, अपनी दाहिनी टाँग उठा कर रेलिंग पर रखी, फिर बाईं टाँग, और झट से नहर में कूद गई। गँदला पानी एक पल के लिए फटा और फिर अपने शिकार को निगल लिया; लेकिन एक ही पल बाद डूबती हुई औरत ऊपर उतरा आई और धीरे-धीरे धारा के साथ बहने लगी। सर और टाँगें पानी में थीं और स्कर्ट उसकी पीठ पर गुब्बारे की तरह फूली हुई थी।

'औरत कूदी! औरत कूदी!' दर्जनों आवाजें एक साथ उठीं। लोग दौड़ पड़े। दोनों किनारों पर तमाशबीनों की भीड़ जमा हो गई। पुल पर रस्कोलनिकोव के चारों ओर लोगों की भीड़ जमा हो गई थी और वे लोग उसे पीछे से धक्का दे रहे थे।

'हे भगवान! यह तो हमारी अफोसीनिया है!' पास ही खड़ी एक औरत रुआँसी आवाज में चिल्ला रही थी। 'दया करके उसे बचाओ! अरे, दयावानो, कोई तो उसे बाहर निकालो!'

'नाव लाना, नाव!' भीड़ में से कोई चिल्लाया, लेकिन नाव की जरूरत नहीं पड़ी। एक पुलिसवाला नहर की सीढ़ियों से भागता हुआ नीचे पहुँचा, अपना लंबा कोट और जूते उतारे, और झट से पानी में कूद पड़ा। उसे उस औरत तक पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं हुई : उसका शरीर सीढ़ियों से कुछ ही गज ही दूरी पर पानी पर तैर रहा था। पुलिसवाले ने उसके कपड़े दाहिने हाथ से थाम लिए और बाएँ हाथ से उस बाँस को पकड़ लिया जो उसके साथी ने उसकी ओर बढ़ाया था। डूबती हुई औरत बाहर निकाल ली गई और नहर के किनारे पत्थर के फर्श पर लिटा दी गई। जल्द ही उसे होश आ गया। उसने अपना सर ऊपर उठाया, उठ कर बैठी, छींकने और खाँसने लगी, और बेमतलब अपने गीले कपड़े दोनों हाथों से झाड़ने लगी। मगर वह बोली कुछ भी नहीं।

'पी-पी कर अपने को मौत के मुँह तक ला दिया है,' बगल में उसी औरत के रोने की आवाज सुनाई दी। 'एकदम दीवानी हो गई है। अभी उस दिन अपने को फाँसी लगा रही थी; वह तो कहो कि हम लोगों ने रस्सी काट दी। मैं अभी-अभी भाग कर जरा देर को दुकान तक गई थी, और अपनी छोटी बच्ची को इसकी निगरानी के लिए छोड़ गई थी कि इसने यह मुसीबत खड़ी कर ली अपने लिए! पड़ोसन है साहब, पड़ोसन; हम लोग पास ही तो रहते हैं, उस छोर से दूसरा घर, वहाँ ...वह रहा...'

भीड़ छँटने लगी। कुछ पुलिसवाले उस औरत को घेरे रहे; किसी ने थाने की बात कही... रस्कोलनिकोव बेजारी और उदासीनता की एक अजीब भावना से खड़ा देखता रहा। उसे नफरत-सी हो रही थी। 'नहीं, यह बहुत घिनावना है... यह पानी... और फिर इसका कुछ भरोसा भी नहीं है,' वह अपने आप बुदबुदाता रहा। 'इससे कोई काम नहीं बनने का,' वह कहता रहा, 'यहाँ इंतजार करने से कोई फायदा नहीं। थाना ...लेकिन जमेतोव थाने में क्यों नहीं है थाना दस बजे तक खुला रहता है...' पुल की रेलिंग की ओर पीठ फेर कर उसने चारों ओर नजर दौड़ाई।

'अच्छी बात है!' उसने मजबूत दिल से कहा। वह पुल छोड़ कर थाने की ओर चल पड़ा। उसे अपना दिल खोखला और खाली-खाली लग रहा था। वह कुछ भी सोचना नहीं चाहता था। उदासी भी दूर हो गई थी। जिस मुस्तैदी के साथ वह 'इस पूरे किस्से को ही खत्म कर देने के लिए' निकला था, उसका भी नाम-निशान बाकी अब नहीं रहा; उसकी जगह भरपूर उदासीनता ने ले ली थी।

'खैर, बाहर निकलने का एक रास्ता तो यह भी है,' उसने नहर के किनारे धीरे-धीरे बेजान कदमों से चलते हुए सोचा। 'जो भी हो, मैं इस झंझट को तो खत्म ही कर दूँगा, क्योंकि मैं इसे खत्म करना चाहता हूँ... लेकिन क्या यह छुटकारे का रास्ता है पर फर्क क्या पड़ता है गज भर जगह तो मिलेगी ही-हः हः! लेकिन अंत कैसा होगा! क्या वह सचमुच अंत होगा मैं उन्हें बताऊँ या नहीं आह... लानत है! कितनी बुरी तरह थक गया हूँ मैं! काश, बैठने या लेटने की कोई जगह जल्दी से कहीं मिल जाती! सबसे ज्यादा शर्म तो मुझे इस बात की है कि यह कितनी नादानी की बात है। लेकिन मुझे इसकी भी परवाह नहीं! आदमी के दिमाग में भी कैसे-कैसे बेवकूफी के विचार आते हैं।'

थाने के लिए उसे सीधे जा कर बाईं ओर की दूसरी सड़क पकड़नी थी। थाना वहाँ से कुछ ही कदम पर था। लेकिन वह पहले मोड़ पर ही रुक गया, कुछ देर सोचता रहा और एक छोटी गली में मुड़ कर अपने रास्ते से दो सड़क आगे निकल गया, शायद बिना किसी मकसद के, या शायद मिनट भर की देर करके कुछ और समय पाने के लिए। वह जमीन को देखता हुआ आगे बढ़ता रहा। अचानक उसे लगा कि किसी ने उसके कान में कुछ कहा। उसने सर उठा कर देखा तो पता चला कि वह उसी घर के सामने, ऐन फाटक के पास खड़ा था। वह उस शाम के बाद उधर से गुजरा नहीं था, कहीं उसके आस-पास भी नहीं आया था।

कोई अदम्य और अज्ञात शक्ति उसे आगे की तरफ खींचे लिए जा रही थी। वह मुड़ा, फाटक से हो कर अंदर गया, फिर दाहिनी ओर के पहले दरवाजे से ले कर जानी-पहचानी, चौथी मंजिल तक जानेवाली सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सँकरी, खड़ी सीढ़ियों के चारों तरफ बहुत अँधेरा था। हर मंजिल पर पहुँच कर वह रुकता और चारों ओर बड़ी उत्सुकता से देखता। पहली मंजिल पर खिड़की का चौखटा निकाल दिया गया था। 'उस वक्त तो ऐसा नहीं था,' उसने सोचा। उस वक्त वह फ्लैट दूसरी मंजिल पर ही तो था जहाँ मिकोलाई और मित्रेई काम कर रहे थे। 'फ्लैट बंद कर दिया गया है और दरवाजे पर अभी नया-नया रंग किया गया है जिसका मतलब यह हुआ कि किराए पर उठाने के लिए खाली है।' फिर तीसरी मंजिल, और उसके बाद चौथी। 'यह रहा!' उसे यह देख कर बड़ी परीशानी हुई कि फ्लैट का दरवाजा पूरा खुला हुआ था। अंदर लोग थे; उसे आवाजें सुनाई दे रही थीं। उसने इसकी उम्मीद नहीं की थी। कुछ देर संकोच करने के बाद वह आखिरी सीढ़ियाँ चढ़ा और फ्लैट में चला गया।

उस फ्लैट की भी रंगाई-पुताई हो रही थी और मजदूर काम पर लगे थे। इस बात पर उसे कुछ हैरत हुई। जाने क्यों उसने सोचा हुआ था कि उसे हर चीज वैसी ही मिलेगी जैसी कि वह छोड़ गया था, यहाँ तक कि शायद लाशें भी वहीं फर्श पर पड़ी होंगी। पर अब यहाँ भी नंगी-बूची दीवारों, फर्नीचर का कहीं नाम नहीं। सब कुछ बड़ा अजीब-सा लग रहा था। खिड़की के पास जा कर वह उसकी सिल पर बैठ गया। दो मजदूर काम कर रहे थे, दोनों नौजवान, लेकिन उम्र में एक दूसरे से बहुत छोटा था। वे दीवारों पर पुराने, मैले, पीले रंग के कागज की जगह नया, कासनी फूलोंवाला सफेद कागज लगा रहे थे। रस्कोलनिकोव को न जाने क्यों इस बात पर बड़ी झुँझलाहट महसूस हुई। उसने नए कागज को बड़ी अरुचि से देखा, जैसे इस तरह हर चीज के बदल दिए जाने पर उसे बड़ा अफसोस हो रहा हो।

जाहिर था कि ये मजदूर अपने वक्त से ज्यादा देर तक काम करते आ रहे थे और अब वे जल्दी-जल्दी अपना कागज लपेट कर घर जाने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने रस्कोलनिकोव के अंदर आने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे आपस में बातें कर रहे थे। रस्कोलनिकोव हाथ बाँधे उनकी बातें सुन रहा था।

'वह सबेरे-सबेरे मेरे पास आई,' बड़ेवाले ने छोटे से कहा, 'बहुत सबेरे, सोलहों सिंगार किए। मैंने कहा, 'बन-ठन के ऐसा इतरा क्यों रही हो बोली, 'तित वसील्येविच, तुम्हें खुश करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।' यह भी एक तरीका होता है रिझाने का! और पहनावा ऐसा कि गोया फैशन की पत्रिका।'

'फैशन की पत्रिका भला क्या होती है, चचाजान?' छोटे मजदूर ने पूछा। उसकी बातों से मालूम होता था कि वह 'चचाजान' को हर बात में उस्ताद मानता था।

'फैशन की पत्रिका में ढेर सारी तस्वीरें होती हैं, रंगीन, और ये किताबें विलायत से हर सनीचर को डाक से यहाँ दर्जियों के पास आती हैं। उन तस्वीरों में दिखाया जाता है कि लोगों को किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए, मर्दों को भी और औरतों को भी। देखने में प्यारी तस्वीरें होती हैं। मर्द आम तौर पर फर के कोट पहने होते हैं और, जहाँ तक औरतों के कपड़ों का सवाल है, तुम उनके बारे में तो सोच भी नहीं सकते। बस देखते ही बनता है!'

'पीतर्सबर्ग में क्या नहीं मिलता!' छोटे मजदूर ने जोश से चिल्ला कर कहा, 'बस माँ-बाप को छोड़ कर हर चीज मिलती है!'

'उन्हें छोड़ कर हर चीज मिलती है, यार,' बड़े मजदूर ने बड़े मानीखेज ढंग से ऐलान किया।

रस्कोलनिकोव उठ कर दूसरे कमरे में चला गया, जहाँ पहले वह भारी संदूक, पलँग और दराजोंवाली अलमारी थी। उसे फर्नीचर के बिना वह कमरा बेहद छोटा लगा। दीवारों पर कागज वही था। एक कोने के कागज के रंग से पता चल रहा था कि पहले वहाँ प्रतिमाओं का फ्रेम था। उसने उधर की तरफ देखा और फिर अपनी खिड़की के पास चला गया। बड़े मजदूर ने उसे आश्चर्य से देखा।

'क्या चाहिए तुम्हें?' उसने एकाएक पूछा।

उसके सवाल का जवाब देने की बजाय रस्कोलनिकोव गलियारे में जा कर घंटी बजाने लगा। वही घंटी और वही उसकी फटी हुई आवाज। उसने दोबारा घंटी बजाई, फिर तीसरी बार। वह सुनता रहा और उसे कुछ याद आता रहा। उस समय उसने जो भयानक और तड़पा देनेवाली डरावनी संवेदना झेली थी, वह फिर अधिकाधिक स्पष्ट रूप में लौट-लौट कर आने लगी। घंटी की हर आवाज पर वह काँप उठता था और उसे अधिकाधिक संतोष भी मिल रहा था।

'बोलो, तुम्हें क्या चाहिए? तुम हो कौन?' मजदूर ने उसके पास जा कर, डपट कर पूछा। रस्कोलनिकोव फिर अंदर चला गया।

'मुझे एक फ्लैट किराए पर लेना है,' वह बोला। 'बस देख रहा हूँ।'

'लोग रात को कमरे देखने आते नहीं, और तुम्हें तो दरबान के साथ आना चाहिए था।'

'फर्श तो धो दिए गए हैं, क्या उन पर पालिश भी होगी?' रस्कोलिनकोव कहता रहा। 'कहीं खून तो नहीं लगा रह गया?'

'कैसा खून?'

'क्यों, यहीं तो उस बुढ़िया और उसकी बहन को कत्ल किया गया था। यहाँ अच्छा-खासा खून जमा हो गया था।'

'भला तुम हो कौन?' मजदूर बेचैन हो कर चीखा।

'मैं?'

'हाँ।'

'जानना चाहते हो थाने चलो, वहाँ बताऊँगा।'

मजदूर उसे हैरत से देखते रहे।

'चलने का वक्त हो गया, वैसे ही देर हो गई है। चलो अलेश्का चलें। कमरा बंद करना है,' बड़े मजदूर ने कहा।

'तो फिर चलें,' रस्कोलनिकोव ने लापरवाही से कहा और सबसे पहले बाहर निकल कर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरने लगा। 'ऐ, दरबान!' फाटक पर पहुँच कर उसने पुकारा।

फाटक पर खड़े कई लोग राहगीरों को घूर रहे थे। ये थे दोनों दरबान, एक किसान औरत, लंबा गाउन पहने एक आदमी, कुछ और लोग। रस्कोलनिकोव सीधा उनके पास गया।

'क्या चाहिए?' एक दरबान ने पूछा।

'थाने गए थे?'

'अभी वहीं से तो आया हूँ। तुम्हें चाहिए क्या?'

'थाना खुला है?'

'बरोबर खुला है!'

'असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट है वहाँ?'

'थोड़ी देर के लिए आए तो थे। आपको क्या चाहिए?'

रस्कोलनिकोव ने कोई जवाब नहीं दिया। वह विचारों में डूबा हुआ उनके ही पास खड़ा रहा।

'यह आदमी फ्लैट देखने गया था,' बड़े मजदूर ने आगे बढ़ कर कहा।

'कौन-सा फ्लैट?'

'हम जहाँ काम कर रहे हैं। 'तुमने खून धो क्यों डाला?' यह बोला 'यहाँ कत्ल हुआ था,' यह कह रहा था, और 'मैं फ्लैट किराए पर लेने आया हूँ।' फिर यह घंटी बजाने लगा। वह तो कहो, बस, तोड़ी नहीं। 'थाने चलो,' यह बोला 'वहीं सब कुछ बताऊँगा।' किसी तरह हमारा पिंड ही नहीं छोड़ता था।'

दरबान त्योरियों पर बल डाले, शकभरी नजरों से रस्कोलनिकोव को देखता रहा।

'तुम हो कौन?' उसने सख्ती से पूछा।

'मैं रोदिओन रोमानोविच रस्कोलनिकोव हूँ। पहले पढ़ता था। शिल के मकान में रहता हूँ, पास की गली में, यहाँ से दूर नहीं है। 14 नंबर के फ्लैट में। दरबान से पूछ लेना... वह मुझे जानता है।' रस्कोलनिकोव ने ये सारी बातें इधर-उधर मुड़ कर देखे बिना अलसाई हुई, खोई-खोई आवाज में कही। वह सड़क की ओर एकटक देख रहा था, जहाँ अँधेरा गहराता जा रहा था।

'फ्लैट में किसलिए गए थे?'

'उसे देखने के लिए।'

'उसमें देखनेवाली ऐसी क्या चीज है?'

'इसे सीधे थाने क्यों न ले जाओ,' लंबे गाउनवाले आदमी ने अचानक बीच में कहा और चुप हो गया।

रस्कोलनिकोव ने गर्दन घुमा कर उसे घूर कर देखा और उसी तरह धीरे-धीरे अलसाई हुई आवाज में कहा : 'आओ, चलो!'

'हाँ, ले जाओ,' वह आदमी इस बार और भी भरोसे के साथ बोला। 'यह उसके अंदर क्यों जा रहा था इसके मन में कोई बात जरूर होगी, क्यों?'

'शराब तो पिए हुए नहीं है, लेकिन भगवान जाने क्या हो गया है इसे,' मजदूर बुदबुदाया।

'तुम्हारा इरादा क्या है भला?' दरबान एक बार फिर चीखा; उसे सचमुच गुस्सा आ रहा था। 'तुम यहाँ क्यों लोगों को परेशान कर रहे हो?'

'तुम्हारा थाने चलने के नाम से दम निकलता है क्या?' रस्कोलनिकोव ने चिढ़ाते हुए कहा।

'दम क्यों निकले है भला, मगर तुम हमें परेशान क्यों कर रहे हो?'

'अरे, कोई लफंगा होगा!' किसान औरत जोर से चीखी।

'काहे को अपना वक्त इससे बात करके बर्बाद कर रहे हो' दूसरे दरबान ने ऊँचे स्वर में कहा। वह भारी-भरकम डीलडौल का आदमी था और उसने टखनों तक का लंबा कोट पहन रखा था जिसके सारे बटन खुले हुए थे। उसकी पेटी से चाभियों का गुच्छा लटक रहा था। 'चलो यहाँ से। लफंगा तो है ही! चलो, खिसको यहाँ से!'

फिर उसने रस्कोलनिकोव का कंधा पकड़ कर उसे सड़क पर ढकेल दिया। वह आगे की ओर लड़खड़ाया, सँभल कर फिर खड़ा हुआ, चुपचाप तमाशा देखनेवालों को घूरा, और वहाँ से चला गया।

'अजीब आदमी है!' मजदूर ने अपना मत व्यक्त किया।

'आजकल तो जहाँ देखो, अजीब लोग ही दिखाई देते हैं,' औरत बोली।

'तुम्हें तो हर हालत में उसको थाने ले जाना चाहिए था,' लंबे गाउनवाले ने कहा।

'उसके मुँह न लगना ही अच्छा था,' भारी डील-डौलवाले दरबान ने फैसला करते हुए कहा। 'सरासर बदमाश था! सच जानो, वह यही चाहता था। लेकिन एक बार थाने ले जाते तो पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता... हम ऐसे लोगों को खूब जाने हैं!'

'जाऊँ कि नहीं,' रस्कोलनिकोव चौराहे पर बीच सड़क खड़ा सोचता रहा। उसने चारों ओर नजर दौड़ा कर इस तरह देखा गोया किसी से इस बात का फैसला सुनने की उम्मीद कर रहा हो। लेकिन कोई आवाज नहीं आई। हर चीज उन्हीं पत्थरों की तरह मुर्दा और खामोश थी, जिन पर वह चल रहा था। हर चीज उसके लिए मुर्दा थी, सिर्फ उसके लिए। अचानक सड़क के छोर पर, वहाँ से कोई दो सौ गज दूर, गहराते हुए झुटपुटे में उसे एक भीड़ नजर आई और लोगों के बात करने और चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। भीड़ के बीच में एक गाड़ी खड़ी थी ...सड़क के बीच में एक रोशनी टिमटिमा रही थी। 'क्या बात है', रस्कोलनिकोव दाहिनी ओर मुड़ कर भीड़ की ओर बढ़ चला। वह हर चीज को पकड़ने की कोशिश कर रहा था और इसके बारे में सोच कर वह क्रूरता से मुस्कराया। इसलिए कि उसने थाने जाने का निश्चय कर लिया था और जानता था कि यह सारा मामला जल्दी ही खत्म हो जाएगा।