अप्प दीपो भव / अशोक शाह
अपने बारे में सोचने के अलावा हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण दूसरा क्या है? नाना प्रकार के व्यंजन, स्वाद, परिधान, शारीरिक एवं मानसिक विलासिता की सामग्री के निर्माण और उपभोग के अतिरिक्त कौन-सा सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य किसी और के लिए हमने धरती पर किया है। यदि थोड़ा ठहर कर हम सोंचेगे, तो पाएँगे कि मानवीय सभ्यता के विकास की कहानी प्रायः निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए विकसित हुई है, जिसका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक धन-वैभव इकट्ठा करना है। कूप- मंडूक की तरह अपने मकान के भीतर घर बनाकर उसकी चौखट तक अपनी दुनिया की सीमा तय कर ली है। हमने समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र का अध्ययन ही अधिक किया है, जिनके केन्द्र में मनुष्य तथा उसके परिवार का हित ही सर्वोपरि रहा है। शायद हम विज्ञान और साहित्य पढ़ना चूक गए हैं।
क्या हम जानते और स्वीकारते हैं कि दुनिया की कितनी ग़लत धारणाओं एवं मान्यताओं के साथ स्वयं में खुश होते हुए हम जी लेते हैं जैसे कि मेरा धर्म, मेरी जाति, मेरा देश सबसे श्रेष्ठ है और सबसे ऊपर तो मेरा ईश्वर है जो मेरी भलाई एवं कल्याण का संकल्प लेकर मेरी सेवा में बैठा हुआ है। मेरी किताब सबसे प्राचीन है और मेरी नदी का पानी सबसे मीठा, सबसे पवित्र और सबसे अधिक गुणकारी है। लेकिन यदि विज्ञान की खोजों के साथ-साथ चलते हैं, तो पाते हैं कि ऐसा कुछ भी सत्य नहीं जो स्थिर हो और किसी स्वामित्व के अधीन हो। जैसे कि धरती सपाट की जगह गोल हो गई, स्थिर की जगह घूमने लगी। पहले धरती पर चीजें नीचे इसलिए गिरतीं थीं कि गुरुत्वाकर्षण का बल उन्हें अपनी ओर खींचता है; किन्तु आईंस्टिन ने गुरुत्व क्षेत्र की उपस्थिति को साबित किया और बताया कि दो दूरस्थ पिण्डों के बीच कोई बल निर्वात में काम नहीं करता; अपितु विशाल पिण्डों के चारों ओर का अंतरिक्ष सपाट की जगह तिर्यक् एवं शंक्वाकार है। इसलिए चीज़ें लुढ़कती हुई पृथ्वी की ओर आतीं हैं। इसके और आगे बीसवीं शताब्दी की वैज्ञानिक खोजों ने यह साबित कर दिया कि ऊर्जा और द्रव्य दो नहीं एक है, समय और अंतरिक्ष दो नहीं एक ही देशकाल (spacetime) है, ब्रह्माण्ड स्थिर नहीं अपितु लगातार विस्तारित हो रहा है। समय एक-सा नहीं, बल्कि अलग-अलग गति से व्यतीत होता है। पर्वत की चोटी पर बैठे हुए एक व्यक्ति की तुलना में समुद्र तल पर बैठे एवं व्यक्ति का समय धीमी गति से व्यतीत होता है। अर्थात् पहाड़ों पर रहने वाले व्यक्ति जल्दी बूढ़े होते हैं। अंतरिक्ष कोई अंतहीन निरन्तर फैला हुआ कैनवास नहीं, जिसमें चाँद, तारे और आकाशगंगाएँ धँसी हुई हों।
क्वांटम यांत्रिकी ने यह साबित कर दिया है कि गुरुत्व एवं अंतरिक्ष सतत फैले हुए नहीं है अपितु दानेदार हैं, कणमय हैं। यहाँ तक जिस सपाट, निरन्तर फैले हुए समय को हम जानते हैं, वह भी दानेदार है, रवादार है। गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र (Gravitational field) और क्वांटम क्षेत्र (quantum field) भी कणमय हैं, दानेदार हैं। ऊर्जा का निरन्तर फैलाव नहीं है, अपितु छोटे-छोटे पैकेट (quanta) के रूप में अस्तित्व में है। विज्ञान के विकास के साथ-साथ हमने सीखा कि जो दुनिया पहले परमाणुओं से बनी लगती थी, वास्तव में वह ऐसी नहीं है। दुनिया समय और अंतरिक्ष की पुरानी परिभाषा से मुक्त हो चुकी है। अब यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है कि परमाणु भी क्वांटम क्षेत्र की एक मात्रा (quanta)है। प्रकाश, अंतरिक्ष, और समय-सभी एक ही मात्रा (quanta of quantum field) से बने हैं अर्थात सम्पूर्ण विश्व एक ही पदार्थ, एक ही इकाई quantum field से बना है। क्वांटम क्षेत्र का अस्तित्व किसी अंतरिक्ष या समय के भीतर नही है बल्कि इसके कण एक दूसरे पर लदे हुए हैं। बहुत बड़े पैमाने पर देखने के कारण समय और अंतरिक्ष की अनुमानित, तस्वीर धुँधली दीखती है। क्वांटम क्षेत्र खुद ही उत्पन्न होता है और बदलता रहता है। इस तथ्य की परिकल्पना बहुत पहले महान ग्रीक दार्शनिक एनाक्सीमेन्डर ने की थी।
विश्व को समझने के लिए समुचित व्याकरण का विकास अब भी जारी है। यही जीवन की प्रक्रिया भी है। इस संक्षिप्त कहानी को बताने के पीछे का मंतव्य यह है कि तथ्यों को जानने की शुरूआत तर्क और संदेह से ही सम्भव होती है न कि विश्वास, आस्था और मिथकीय कहानियों को मान लेने से। साहित्य, दर्शन, धर्म, अध्यात्म एवं विज्ञान के कार्यकर्ता एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। निरन्तर विकास की कहानी की तस्वीर को स्पष्ट करने में अनेक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों एवं साहित्यकारों का योगदान रहा है। बींसवी शताब्दी में अकेले आईन्स्टीन तथा ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व डेमेक्रिटस का काफी योगदान है। इसमें हर क्षेत्रो के लोगों का कहीं न कहीं महत्त्वपूर्ण अवदान है।
ईसा से पाँचवीं सदी पूर्व वैज्ञानिक तर्कों की शुरूआत यूरोप के मिलेटस शहर से होती है, जब तर्क और कारण को मनुष्य के मस्तिष्क में यथोथित स्थान मिला। विश्वास और आस्था को अलग किया गया। एक शिष्य के लिए यह जरूरी नहीं रहा कि वह अपने गुरु की हर बात माने एवं उसके विचार का अनुगामी होकर रहे। बल्कि वह अपने तर्क से खुद अपनी समझ के आधार पर असहमति व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो गया। यह विचारण का मुद्दा बना कि गुरु सब कुछ नहीं जानता। उसकी भी एक सीमा है। डेमोक्रिटस ने सम्भवतः पहली बार व्यक्त किया कि विश्व उस सामग्री से बना है जिसमे असंख्य परमाणु तैरते रहते हैं। परमाणुओं का विभाजन नहीं किया जा सकता। परमाणु गुणहीन है ; उनमें रंग, स्वाद या भार नहीं होता। डेमोक्रिटस ने भौतिकी, दर्शन, राजनीति, अंतरिक्ष विज्ञान, धर्म, नीति, समाज तथा भाषा की प्रकृति पर दर्जनों पुस्तकें लिखी। परन्तु उसकी सारी पुस्तकें सम्राट थियोडियस द्वारा जला दी गईं; क्योंकि वे ईसाइयत से मेल नहीं खाती थीं, पर सुकरात जीवन भर डेमोक्रिटस का उदाहरण देना नहीं भूला। डेमोक्रिटस के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की जानकारी सुकरात द्वारा समय-समय पर उसके बारे दिए उद्धरणों से मिल पाती है। परमाणु के अस्तित्व को 1905 में लगभग पच्चीस सौ वर्ष पश्चात् आईंस्टीन ने साबित किया।
सभी मनुष्य समान होते हुए भी उनमें से कुछ ज्यादा समान होते हैं। कुछ के पास वह दृष्टि अंतर्निहित होती है जिससे सत्य को करीब से देखा जा सकता है भले जीवन में किसी एक विषय को ही लेकर वे आगे बढ़े हों। आज दुनिया में पढ़ाए जाने वाले अनेकानेक विषय अपने-अपने क्षेत्र का ज्ञान देते हैं; किन्तु सभी विषय अपनी ज्ञान की पराकाष्ठा में वास्तविकता (Reality) की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं । दर्शन, साहित्य एवं विज्ञान तो एक दूसरे के अंततः बहुत नजदीक हैं। एक विशुद्ध दार्शनिक, एक सक्षम साहित्यकार और एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक का विश्व की वास्तविकता को लेकर एक ही अन्तर्बोध (Intuition) हो सकता है। जब वे सोचते हैं, विचारते हैं, तो उनका ढंग निराला होता है। जगत् की सच्चाई क्या हो सकती है, इसका वास्तविक स्वरूप क्या है, तीनो अपने-अपने ढंग से व्यक्त कर सकते है। एक दार्शनिक भी उसी सत्य का उद्घाटन करता है; किन्तु वह भीतर-भीतर देख लेता है और उसे बाहर साबित करने की आवश्यकता नहीं होती है। एक साहित्यकार अंततः अपनी कल्पना में प्रकृति के विभिन्न आयामों का वर्णन करते हुए उनसे रागात्मक संबंध स्थापित कर उसी तथ्य के नजदीक पहुँचता है; किन्तु भावों के अतिरेक से बाहर आकर वह उसका उद्घाटन नहीं करता; उसका सौन्दर्य स्थापित कर जाता है। बाह्य जगत् पूर्णतः विज्ञान का है। वैज्ञानिक किसी तथ्य को स्थापित करने के लिए विश्लेषण करता है, सिद्धान्त बनाता है, प्रयोगशाला में तोड़-मरोड़कर, उलट-पलटकर, मात्रा, आकार, गति, कारण और प्रभाव का अध्ययन कर सबूत खोजता है; फिर घोषणा करता है। क्या तथ्य है तथा क्या तथ्य नहीं है। फिर वह अपनी खोज के माध्यम से दैनिक जीवन में सुविधाओं के निर्माण में विज्ञान का उपयोग परोसता है। जैसे कि आर्कमिडीज़ अपनी खोज से प्राप्त आनन्द के अतिरेक में कह उठा था- यूरेका, यूरेका।
ल्यूक्रेटीयस एक रोमन कवि एवं दार्शनिक था। ल्यूक्रेटीयस अपनी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कविता On The Nature of Things में अपना अंतर्बोध Intuition इस प्रकार व्यक्त करता है-
‘मैं बता सकता हूँ कि किस शक्ति के द्वारा प्रकृति सूरज और चाँद को संचालित करती है; ताकि हम समझ सके कि वे पृथ्वी और स्वर्ग के बीच ही अनावश्यक भाग-दौड़ नहीं करते; बल्कि वे ईश्वरीय योजना के हिस्से हैं।’
हम सभी उसी चेतना के हिस्से हैं, हमारा जनक एक है- यदि इसे विज्ञान की भाषा में कहें तो गुरुत्वाकर्षण के अधीन सारे तारे और ग्रह अंतरिक्ष में घूमते हैं और यह दुनिया एक ही परमाणु से बनी है जो गंधहीन और रंगहीन है। ल्यूक्रेटियस की कविता में जीवन के प्रति कितना सम्मान झलकता है- प्रकृति क्या चाहती है यही कि एक शरीर रोगों और कष्ट से मुक्त हो और मन किसी भी प्रकार की अनावश्यक चिन्ता में न हो। कवि ने हमें 2000 वर्ष पूर्व ही अगाह कर दिया था कि धर्म अनभिज्ञता है तथा तर्क प्रकाश, जो हमें सही रास्ते पर ले जाता है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इटली के प्रसिद्ध कवि दान्ते ने पाया था - ‘तुम्हारी आँखे मेरे हृदय मे धँस रही है और मैं इतना बेचैन हो उठता हूँ कि प्यार मेरे जीवन को चीर डालता है।’ ब्रह्माण्ड के जिस स्वरूप (3-Sphere) की कल्पना आईंस्टीन ने की उसकी परिकल्पना तेरहवीं शताब्दी में दान्ते ने अपने महाकाव्य Divine Comedy में कर ली थी जिसके अनुसार ब्रह्माण्ड अनन्त नहीं है; बल्कि सीमित है और वह घेरा (3-Sphere) के माध्यम से सुपरिभाषित है। जिस 3-Sphere की कल्पना करना वैज्ञानिकों के लिए मुश्किल है उसकी कल्पना कर ज्यामिति के रूप में व्याख्यातित कर दिखाना दान्ते के अद्वितीय विवेक को दर्शाता है कि किस प्रकार दो गोले परस्पर भीतर हैं तथा बाहर से भी परस्पर एक दूसरे को घेरे हुए हैं।
और कबीर ने क्या कहा-
प्रेम गली अति साँकरी ता में दो न समाहि।
सर उतारे कर धरे, तब पैढे घर माहि।।
ल्यूक्रीटियस का जबरदस्त प्रभाव गैलेलियो, केपलर, न्यूटन, डाल्टन, डार्विन से लेकर आईंस्टीन तक के महान वैज्ञानिकों के कार्यों पर पड़ा। यहाँ पर साहित्य, दर्शन और विज्ञान का कार्य एक जान पड़ता है। तीनो एक ही सत्य की ओर उन्मुख हो रहे हैं।
डेमोक्रिटस ने अपने जीवन काल में इस सत्य को भी उजागर कर दिया कि ईश्वर से कोई डर नहीं, इस संसार का कोई उद्देश्य नहीं। कुछ भी छोटा और बड़ा नहीं, धरती और स्वर्ग में कोई भेद नहीं। डेमोक्रिटस के शब्दो में-
’विवेकशील मनुष्य के लिए पूरी पृथ्वी एक है। एक श्रमण का सच्चा देश पूरा विश्व है।‘
यह कितना आश्चर्यजनक है कि एक महान कवि एवं एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक दोनों ही दूरद्रष्टा हो सकते हैं और दोनो ही एक ही परिकल्पना द्वारा सत्य पर पहुँचते हैं। इसलिए साहित्य एवं विज्ञान में विभाजन बेमानी है। इन दोनों के द्वारा उसी सत्य से साक्षात्कार किया जा सकता है भले ही उनके तरीके अलग-अलग क्यों न हो। इसलिए मैंने बार-बार कहा है कि वह साहित्य नहीं जो झूठ से परदा उठाकर सत्य का उद्घाटन न करता हो।
चेतना के स्तर पर इसी तथ्य को एक दार्शनिक भी व्यक्त करता है। उदाहरण के लिए क्वांटम मेकानिक्स के अनुसार किसी भी वस्तु का वास्तविक अस्तित्व नहीं हैं। यह दुनिया एक-दूसरे के अन्तर्संबंधों के द्वारा व्यक्त होती है। इसी अन्योन्यक्रिया के आधार पर वस्तुओं का आभास होता है। अर्थात् वस्तुओं का नहीं घटनाओं का अस्तित्व है। दुनिया में वस्तुओं की उपस्थिति की प्रतीति घटनाओं से होती है। इस संदर्भ में देंखें तो दार्शनिक और वैज्ञानिक एक समान सोचते हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक नेल्सन गुडमैन ने 1950 में कहा -‘‘वस्तु एक नीरस प्रक्रिया हैं।” एक पत्थर के भीतर भी कण निरन्तर स्पन्दन करते हैं जिसके कारण ही पत्थर को हम देख पाते हैं। विज्ञान भी यही कहता है कि दुनिया को वस्तुओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए; अपितु वे एक अंतःक्रिया से दूसरी अंतःक्रिया का रास्ता मात्र हैं।’ आज के वैज्ञानिक सुबूतों के आधार पर पूरी दुनिया दानेदार, अनिश्चित एवं पारस्परिक क्रिया पर आधारित जानी गई है। कुछ भी तय नहीं, न समय, न स्थान और न ही सम्भावना।
विज्ञान ने साबित कर दिया है कि उस समय का अस्तित्व नहीं, जो निरपेक्ष है। ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई घड़ी नहीं है, जो समय मापने के लिए ईश्वर या प्रकृति के द्वारा स्थापित की गई है। समय एक जैसा सबके लिए नहीं बीतता। कहीं तेजी से कहीं धीमी गति से बीतता दिखता है। प्रक्रियाओं एवं घटनाओं को समय के रूप में व्यक्त करने के बजाय घटनाओं को एक दूसरे के रूप में व्यक्त किया जा सकता हैं। जिसे हम समय कहते हैं, उसके मापने की शुरूआत कहाँ हुई और कैसे? जैसा कि गैलेलियों ने देखा कि उसके हदृय की गति पेण्डुलम के दोलन की गति से ताल में ताल मिलाती है। पेण्डुलम के दोलन Oscillation की गति का अंतराल निश्चित है। वह तरंगदैर्ध्य के बड़ाडा़-छोटा होने पर भी अपरिवर्तित रहता है। बाद में प्रचलन में आ जाने के कारण डॉक्टर हृदय की गति को पेण्डुलम के दोलन से नापने लगे और इसे इकाई के रूप में समय कहा जाने लगा, जिसका प्रयोग न्यूटन ने गति नियमों में खूब किया; लेकिन माइक्रो स्तर पर इस समय का अस्तित्व ही नहीं। इसी तथ्य को ल्यूकेटियस ने कह दिया था –
‘‘किसी को यह दावा नहीं करना चाहिए कि वस्तुओं को सापेक्षिक गति के अतिरिक्त समय को निरपेक्ष रूप से जानता है।”
इस तथ्य को आत्मसात् करने के पूर्व समय पर आधारित अपने तीन कविता संग्रहों- ‘समय मेरा घर है’, ‘समय की पीठ पर हस्ताक्षर है दुनिया’ तथा ‘समय के पार चलो’ आ चुके थे। पर आज मैं दृष्टि दौड़ाता हूँ, तो विस्मय में डूब जाता हूँ। यह सही है कि मनुष्य की सभ्यता का धरती पर विकास भ्रमात्मक समय की अवधारणा पर आधारित है। हमारी अब तक की सभ्यता पौराणिक कथाओं, आस्था और अंधविश्वासों पर आधारित है। उसमें अच्छे और बुरे समय की परिभाषा निहित है। उसी परिभाषा के घेरे में हम रहते आएँ हैं। वही समय हमारा घर है, हमारे सोचने की सीमा है। दुनिया को नापने की इकाई है। कार की गति, दिन के बीतने के 24 घण्टे उसी इकाई में नापते हैं। हमारा भौतिक एवं सांस्कृतिक विकास उसी समय के घेरे में अवस्थित है; अर्थात् हमारी मानसिक संरचना उसी समय के भीतर उलझ गई है, यहाँ तक कि जीवन की उम्र भी उसी इकाई में बीतती हैं। मानो हमारी पारिवारिक, आर्थिक, सांस्कृतिक दुनिया पर इस समय ने अमिट हस्ताक्षर कर दिेए हों।
लेकिन मेरा विस्मय तब अधिक बढ़ जाता है, जब मैंने अगले कविता-संग्रह का शीर्षक ‘समय के पार चलो‘ रखा। यह किस प्रकार का अन्तर्बोध या सहज ज्ञान Intuition था जिसने इस बात के लिए प्रेरित किया कि यह समय वास्तविक नहीं। इसके घेरे में जीना भ्रम की ज़िन्दगी जीने जैसा है; इसलिए हमें समय के पार जाकर वास्तविक जीवन का साक्षात्कार करना चाहिए।
‘‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम‘‘ की शेक्सपीयर की ये पंक्तियाँ मुग्ध कर देने वाली हैं –
‘But all the story of the night told over
More witnesseth than fancy’s images.
And grows to something of great constancy;
But, howsoever, strange and admirable.’
जो भी हम जानते हैं सीमित है। हमारी अनभिज्ञता ही असीमित है। यह दुनिया निरन्तर विस्तारित हो रही है। हर पल नया कुछ घटित हो रहा जो भव्य है और चमत्कृत करता है। जो सूचना और जानकारी हमारे पास है उतना ही हमारा विश्व है। हमारी आज की जानकारी के अनुसार सूर्य के प्रकाश से अधिक तेज कुछ भी नहीं चलता और प्लैंकस लेन्थ 10-33 cm से छोटी वस्तु कुछ भी नहीं है। इन दोनों सीमाओं के बीच फिलहाल विज्ञान की पहुँच है।
डेमोक्रिट्स ने परमाणुओं के अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ और भी कहा था कि परमाणु एक निश्चित अनुक्रम में एक दूसरे से जुड़ते हैं और पदार्थ का निर्माण करते हैं। प्लेटो और अरस्तु ने भी यही प्रतिपादित किया। परमाणुओं में स्वरूपों की स्मृतियाँ हैं। यदि पत्थर से मूर्ति का स्वरूप बन सकता है, तो मूर्ति की परिकल्पना तो पहले से अस्तित्व में है, यह परमाणु भी जानते हैं। अकेले परमाणुओं का होना पर्याप्त नहीं है; बल्कि उनके बीच में स्वरूप के होने की सूचना भी उपस्थित है। वर्णमाला के अक्षर पृथक्-पृथक् सिर्फ अक्षर हैं; लेकिन जब वे एक-दूसरे के साथ मिलते हैं, तब वे रोमांस, दुःखान्त, सुखान्त, हास्य-व्यंग्य की कहानियों को रच डालते हैं और बहुत सुन्दर कविता भी। इसी प्रकार परमाणु भी अकेले बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। परमाणु तो प्रकृति की वर्णमाला है। अक्षरों की तरह परमाणु भी क्रम में सजकर एक स्वरूप का निर्माण करते हैं। परमाणुओं की समृद्धि उनके सोचने, पढ़ने और व्यक्त करने में निहित है। अतः जीवन सिर्फ़ परमाणुओं का समूह नहीं अपितु उनके साथ जुड़ा उनका अद्वितीय विन्यास (Order) और स्वरूप भी है जो उन्हें सुनियिोजित करता है। डेमोक्रिट्स के अनुसार- ‘‘ मनुष्य उतना ही है जितना हम सब जानते हैं।” मनुष्य का अस्तित्व सिर्फ आन्तरिक नहीं है; बल्कि उसका व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक अंतर्संबंध भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य की अभिव्यक्ति तमाम सजीव-निर्जीव वस्तुओं से उसके संबंधों के द्वारा होती है।
तो क्या मनुष्य अब तक सब कुछ जान चुका है। शायद नहीं। अभी भी लगता है कि बहुत कुछ बाकी है, कहीं कुछ खाली है, अधूरा है। किसी प्रकार के ज्ञान को लेकर निश्चित नहीं हुआ जा सकता कि सब कुछ जान लिया गया है। हमें इस बात का होश है कि हम किसी भी पल गलत हो सकते हैं। यह साहस हमेशा नया सीखने के लिए प्रोत्साहित करता है। विज्ञान और अध्यात्म इस तथ्य से उत्पन्न होते हैं कि अभी बहुत कुछ जानना शेष है। ब्रह्माण्ड की अभ्यतिप्रायता अनन्त है। सत्य स्थिर नहीं है और विज्ञान निश्चिंत नहीं हो सकता अन्यथा उस दशा में विज्ञान विश्वसनीय नहीं होगा। विज्ञान पर विश्वास इसलिए किया जा सकता है कि वह नयी सम्भावनाओं का द्वार खोलता है।
जो सच है वह बहुत भीतर है। डेमोक्रिटस कहता हैं - The truth is in the depths
इसी प्रकार कबीर भी कहते हैं -
जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठ।
साहित्य और विज्ञान परस्पर जुड़े हैं। साहित्य के अनुभूत सत्य का सुबूत विज्ञान प्रकृति में ढूँढता है। इन दोनों विधाओं को अलग-अलग मानना हमारी अज्ञानता हो सकती है। साहित्य और विज्ञान की अगली सीढ़ी दर्शन और अध्यात्म है, जो इशारा करता है कि जीवन परमाणुओं की सतह से ऊपर है; लेकिन ये तीनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित होती रहती हैं। एक के बाद एक नहीं। सत्य को सही स्वरूप और अर्थो में जानने से मनुष्य का दुःख कम हो सकता है, खत्म भी हो सकता है। यही हमारा साझा उद्देश्य है-आनन्द एवं शान्ति से साक्षात्कार समझे और जाने बिना सम्भव नहीं। आस्था एवं अज्ञानता में आँखे बन्द कर सत्य जाना नहीं जा सकता। उसी आनन्द तक पहुँचना साहित्य का, विज्ञान का और अध्यात्म का उद्देश्य है।
यही तो बुद्ध ने भी कहा था-
मानो मत, संदेह करो, तर्क करो। ‘अप्प दीपो भव,’ अपना दीपक खुद बन जाओ।