अप्रस्तुत रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
अप्रस्तुत रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
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प्रस्तुत-अप्रस्तुत भेद का निरूपण यह मानकर किया गया है कि किसी काव्य में जगत् या जीवन से संबंध रखनेवाली कोई-न-कोई वस्तु या तथ्य अवश्य होता है। उसी वस्तु या तथ्य के हृदयग्राह्य पक्ष का प्रत्यक्षीकरण तथा उसके प्रति जागरित हृदय की वृत्तियों का विवरण काव्य का लक्ष्य हुआ करता है। पर इधर कुछ दिनों से योरोपीय समीक्षकों में से कुछ लोग, जैसे अभिव्यंजनावादी (Expressionists) काव्य में कोई 'वस्तु' या विषय होना स्वीकार नहीं करते। 'कला' शब्द की बढ़ती हुई पुकार के साथ स्वर मिलाने के लिए उन्होंने यह कहना आरंभ किया कि काव्य का कोई विषय या व्यंग्य वस्तु (या भाव) नहीं होता अर्थात् जिस रूप में कोई काव्यात्मक काव्य हमारे सामने आता है उससे अलग कोई आधार वस्तु ढूँढ़ना व्यर्थ है। उनकी इस उक्ति में सत्य का अंश केवल इतना ही है कि आधार वस्तु या तथ्य का बोध रसानुभूति नहीं है; उसके मार्मिक पक्ष की अनुभूति का स्वरूप ही काव्यानुभूति तथा उस अनुभूति को उत्पन्न करनेवाला शब्दविधान ही काव्य है। पर यह कहना कि काव्य में कोई आधार वस्तु या तथ्य की नींव होती ही नहीं, वह शून्य में स्थित रहता है बैठकबाजी के सिवा और कुछ नहीं।
रसानुभूति में बोधवृत्ति का उपादान बराबर रहता है। उसे हम अलग नहीं कर सकते। किसी वस्तु या तथ्य के मार्मिक पक्ष की प्रतीति या बोध लिए हुए ही सच्ची रसानुभूति होती है। वस्तु या तथ्य का मार्मिक पक्ष उस वस्तु या तथ्य से अलग कोई वस्तु नहीं होता, उसी के अंतर्भूत होता है। 'सत्' के भीतर ज्ञान का विषय भी रहता है हृदय का भी। उसी सत् को कोई सिर्फ जानकर रह जाता है और कोई उसके समक्ष हृदय निकालकर रखने लगता है। 'वह स्त्री मुसकरा रही है, कोई तो यही जानकर रह जाता है और कोई अपने को सुधासिक्त आलोक-रेखा से संपृक्त या शुभ्र मधुधारा में मग्न बतलाता है। क्या कोई कह सकता है कि सुधासिक्त आलोक 'रेखा' या 'शुभ्र मधुधारा' ही सब कुछ है, स्त्रीत के मुसकान का काव्यविधान में कोई योग नहीं? यदि ऐसा माना जाय तो फिर कुछ इनीगिनी प्रियदर्शन, सुंदर, भीषण, प्रकांड अथवा अद्भुत वस्तुओं की विचित्र और अलौकिक योजना मात्र ही काव्य कहा जायगा जिसका प्रभाव उतना ही हो सकता है जितना कागज की फुलवाड़ी, सजावट के गुलदस्ते या सरकस के तमाशे का होता है। पर मैं काव्य के प्रभाव को इससे कहीं अधिक गंभीर और अंतस्तलस्पर्शी मानता हूँ। उसे जीवन की एक शक्ति समझता हूँ।
शुद्ध सच्चे काव्य में दो पक्ष अवश्य रहते हैं-जगत् या जीवन का कोई तथ्य तथा उसके प्रति किसी प्रकार की अनुभूति। योरप के कुछ समीक्षक साहित्य क्षेत्र में नई हवा-चाहे उस हवा के झोंके में काव्य का प्रकृत स्वरूप ही क्यों न उड़ता दिखाई दे-बहाने के उद्योग में किस प्रकार इन दोनों को हवा बतलाने लगे थे यह उपर्युक्त विवरण से समझा जा सकता है। उक्ति या शब्दविधान को आधारभूत कोई विषय ही मानने की आवश्यकता नहीं तब जगत् या जीवन का कोई तथ्य कहाँ रहा? इसी प्रकार भावों की सच्ची और स्वाभाविक अनुभूति (Sentimentality) सेंटीमेंटैलिटी कहकर टाली गई और कलानुभूति उससे सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र अनुभूति बतलायी गई। मतलब यह है कि जिस अनुभूति से मनुष्य हाथ-पैर हिलाता है, जिस अनुभूति से शुभाशुभ कर्मों का प्रवर्तन होता है, जिस अनुभूति से मानवी प्रकृति का उत्तरोत्तर उत्कर्ष होता है वह इन कलाविदों के अनुसार काव्य के किसी उपयोग की नहीं। अब दूसरी कोटि की अनुभूति रही कौन? वही जो कोई तमाशा, नकल, नक्काशी, बेलबूटे आदि देखने पर उत्पन्न होती है।
हमारा वक्तव्य यह है कि प्रकृत काव्य का सारा स्वरूपविधान जगत् या
जीवन की किसी वस्तु या तथ्य की ओर संकेत करता है। वही वस्तु या तथ्य
कल्पना द्वारा उपस्थित काव्य सामग्री को व्यवस्थित ढंग से संयोजित करके एक कृति का स्वरूप देता है। जबतक भीतर किसी वस्तु या तथ्य का ढाँचा न होगा तबतक सुंदर से सुंदर संदर्भहीन रूपसमूह इमारत में लगनेवाली नक्काशीदार खंभों, पटरियों इत्यादि का पड़ा हुआ ढेर सा होगा। अत: काव्य में जगत् या जीवन की किसी वस्तु या तथ्य का होना, प्रस्तुत पक्ष का होना, अनिवार्य है। आध्यासत्मिक कविता भी वही सच्ची होगी जो अव्यक्त की ओर संकेत करनेवाले किसी तथ्य के आधार पर होगी।
जब काव्य में कोई 'प्रस्तुत' अवयव होना आवश्यक ठहरा तब उसके अतिरिक्त और जो कुछ रूपविधान होगा वह अप्रस्तुत होगा। पर इस अप्रस्तुत अवयव का होना अनिवार्य नहीं। कोरे वस्तुव्यापारवर्णन अथवा स्वाभावोक्ति में अप्रस्तुतविधान नहीं रहता; पर रसात्मकता रहती है। यदि प्रस्तुत तथ्य अर्थात् उसके अंतर्भूत, वस्तु, व्यापार मार्मिक हैं तो उनका ज्यों-का-त्यों चित्रण मात्र भी भावमग्न करनेवाला काव्य होता है।
हमें यहाँ अप्रस्तुत रूपविधान पर कुछ विचार करना है जो काव्य में किसी-न-किसी वेश में, चाहे अलंकार रूप में चाहे लक्षणा के रूप में, प्राय: रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांति, अपह्नुति, दीपक, अप्रस्तुत-प्रशंसा इत्यादि सादृश्यमूलक अलंकारों के अतिरिक्त और अलंकारों में भी कुछ-न-कुछ अप्रस्तुत रूपविधान मिलेगा। अब देखना यह है कि प्रस्तुत रूपों के साथ अप्रस्तुत रूपों की जो योजना की जाती है वह किस दृष्टि से, उसका प्रकृत उद्देश्य क्या होता है। साहित्यग्रंथों में उपमा, रूपक इत्यादि के निरूपण में अप्रस्तुत का आधार केवल सादृश्य या साधर्म्य ही लिखा पाया जाता है।
विचार करने पर इन दोनों में प्रभावसाम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचंडता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इसी प्रकार के हैं। केवल रूपरंग आकार या व्यापार को ऊपर-ऊपर से देखकर या नापजोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना, वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कविकर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्य् या अभ्यासगम्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी तब बहुत से उपमान केवल बाहरी नापजोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिए सिंहिनी और भिड़ सामने लाई जाने लगी।
कहीं-कहीं तो बाहरी सादृश्य या साधर्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभाव साम्य लेकर ही अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् (Simbolic) होते हैं-जैसे, सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान् या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अँधेरी रात, संध्यान की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भावतरंग के लिए झंकार; भावप्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि।
अप्रस्तुत किस प्रकार एकदेशीय, सूक्ष्म और धुँधले पर मर्मव्यंजक साम्य का धुँधला सा आधार लेकर खड़े किए जाते हैं, यह बात नीचे के कुछ उद्धरणों से स्पष्ट हो जाएगी -
(1) उठ उठ री लघु लघु लोल लहर।
करुणा की नव अँगड़ाई सी, मलयानिल की परछाईं सी,
इस सूखे तट पर छहर छहर॥
(लहर=सरस कोमल भाव। सूखा तट=शुष्क जीवन। अप्रस्तुत या उपमान भी लाक्षणिक हैं।)
(2) गूढ़ कल्पना-सी कवियों की, अज्ञाता के विस्मय-सी
ऋषियों के गंभीर हृदय-सी, बच्चों के तुतले भय-सी।-'छाया'।
(3) गिरिवर के उर से उठ उठ कर,
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर / हैं झाँक रहे नीरव नभ पर।
(उठे हुए पेड़ों का साम्य मनुष्य के हृदय की उन उच्च आकांक्षाओं से जो लोक के परे जाती हैं।)
(4) वनमाला के गीतों सा निर्जन में बिखरा है मधुमास।
साम्यभावना हमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधानेवाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं। पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव वहीं उत्पन्न करती है जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर खड़ी होती है। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ या अगूढ़ व्यंजना करती रहती है। इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्यविधान होगा वह मनमाना आरोप मात्र होगा। इस अनंत विश्वर महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्यविधान होता है वह मार्मिक और उद्बोधक होता है। जैसे-
दुखदावा से नव अंकुर,
पाता जग जीवन का वन!
करुणार्द्र विश्वव का गर्जन,
बरसाता नव जीवन कण!
खुल खुल नव नव इच्छाएँ,
फैलातीं जीवन के दल!
यह शैशव का सरल हास है,
सहसा उर से है आ जाता!
यह ऊषा का नव विकास है,
जो रज को है रजत बनाता!
यह लघु लहरों का विलास है,
कलानाथ जिसमें खिंच आता!
×××
हँस पड़े कुसुमों में छविमान,
जहाँ जग में पदचिन्ह पुनीत!
वहीं सुख में ऑंसू बन प्राण,
ओस में लुढ़क दमकते गीत!
-गुंजन
मेरा अनुराग फैलने दो,
नभ के अभिनव कलरव में !
जाकर सूनेपन के तम में,
वन किरन कभी आ जाना !
अखिल की लघुता आई बन,
समय का सुंदर वातायन
देखने को अदृष्ट नर्त्तन !
-लहर
जल उठा स्नेह दीपक-सा,
नवनीत हृदय था मेरा।
अब शेष धूम रेखा से,
चित्रित कर रहा अँधेरा॥
-ऑंसू
मनमाने आरोप, जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्रय का कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। प्रकृति के वस्तु व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत अधिक चलन हो जाने से कहीं-कहीं ये आरोप वस्तु व्यापारों की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर जा पड़ते हैं, जैसे चाँदनी के इस वर्णन में-
(1) जग के दुख दैन्य शयन पर/ यह रुग्णा जीवन बाला।
पीली पड़, निर्बल कोमल,/ कृश देह लता कुम्हलाई।
विवसना, लाज में लिपटी;/ साँसों में शून्य समाई॥
चाँदनी अपने-आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्रीइ की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पड़ती है-
(2) नीले नभ के शतदल पर,
वह बैठी शारद हासिनि।
मृदु करतल पर शशिमुख धर,
नीरव अनिमिष एकाकिनि॥ -ऑंसू
इसी प्रकार ऑंसुओं को 'नयनों के बाल' कहना भी व्यर्थ-सा है। नीचे की जूठी प्याली भी (जो बहुत आया करती है) किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़ती है-
(3) लहरों में प्यास भरी है,
है भँवर पात्र से खाली।
मानस का सब रस पीकर,
ढुलका दी तुमने प्याली॥
प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य की भावना सदैव स्त्री सौंदर्य का आरोप करके करना उक्त भावना की संकीर्णता सूचित करता है। कालिदास ने भी मेघदूत में निर्विध्याो और सिंधु नदियों में स्त्री सौंदर्य की भावना की है।1 जिसमें नदी और मेघ के प्रकृत संबंध की रमणीय व्यंजना होती है। ग्रीष्म में नदियाँ सूखती-सूखती पतली हो जाती
1. [ पूर्व मेघ, 30-31। ]
हैं और तपती रहती हैं। उनपर जब मेघ छाया करता है तब वे शीतल हो जाती हैं और उस छाया को अंक में धारण किए दिखाई देती हैं। वहीं मेघ बरसकर उनकी क्षीणता दूर करता है। दोनों के बीच इसी प्राकृतिक संबंध की व्यंजना ग्रहण करके कालिदास ने अप्रस्तुतविधान किया है। पर सौंदर्य की भावना सर्वत्र स्त्री् का चित्र चिपकाकर करना खेल-सा हो जाता है। हिंदी की नई रंगत की कविता में उषा सुंदरी के कपोलों की ललाई, रजनी के रत्नजटित केशकलाप, दीर्घनि:श्वास और अश्रुबिंदु तो रूढ़ हो ही गए हैं; किरन, लहर, चंद्रिका, छाया, तितली सब अप्सराएँ या परियाँ बनकर ही सामने आने पाती हैं। इसी तरह प्रकृति के नाना व्यापार भी चुंबन, आलिंगन, मधुग्रहण, मधुदान; कामिनी की क्रीड़ा इत्यादि में अधिकतर परिणत दिखाई देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रकृति की नाना वस्तुओं और व्यापारों का अपना-अपना सौंदर्य भी है जो एक ही प्रकार की वस्तु या व्यापार के आरोप द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो सकता।
हिंदी की नई काव्यधारा में साम्य पहले उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक ऐसे अलंकारों के बड़े-बड़े साँचों के भीतर ही फैलाकर दिखाया जाता था। यह अब प्राय: थोड़े में या तो लाक्षणिक प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता है अथवा कुछ प्रच्छन्न रूपकों में प्रयोगों के द्वारा झलका दिया जाता है या पूरे प्रसंग के लिए दृष्टांत, अर्थांतरन्यास आदि का सहारा न लेकर अब अन्योक्ति ही अधिक चलती है। यह बहुत ही परिष्कृत पद्धति है।
अधिकतर अलंकारों का विधान सादृश्य के आधार पर होता है। सादृश्य की योजना दो दृष्टियों से की जाती है-स्वरूपबोध के लिए और भाव तीव्र करने के लिए। कवि लोग सदृश वस्तुएँ भाव तीव्र करने के लिए ही अधिकतर लाया करते हैं पर बाह्य कारणों से अगोचर तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए जहाँ सादृश्य का आश्रय लिया जाता है वहाँ कवि का लक्ष्य स्वरूपबोध भी रहता है। भगवद्भक्तों की ज्ञानगाथा में सादृश्य की योजना दोनों दृष्टियों से रहती है। 'माया' को ठगिनी और काम, क्रोध आदि को बटपार, संसार को मायका और ईश्वर को पति रूप में दिखाकर बहुत दिनों से रमते साधु उपदेश देते आ रहे हैं। पर इन सदृश वस्तुओं की योजना से केवल स्वरूप बोध ही नहीं होता, भावोत्तेजना भी प्राप्त होती है। बल्कि यों कहना चाहिए कि उत्तेजित भाव ही उन सदृश वस्तुओं की कल्पना कराता है। विरक्तों के हृदय में माया और काम, क्रोध आदि का भाव ही उस भय की ओर ध्यातन ले जाता है जो ठगों और बटपारों से होता है। तात्पर्य यह कि स्वरूपबोध के लिए भी काव्य में जो सदृश वस्तु लाई जाती है उसमें यदि भाव उत्तेजित करने की शक्ति भी हो तो काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हो जाती है। नाना राग बन्धनों से युक्त इस संसार के छूटने का दृश्य कैसा मर्मस्पर्शी है! भावुक हृदय में उसका क्षणिक साम्य मायके से स्वामी के घर जाने में दिखाई पड़ता है। बस इतनी ही झलक मिल सकती है। सदृश वस्तु के इस कथन द्वारा अगोचर आध्या त्मिक तथ्यों का कुछ स्पष्टीकरण भी हो जाता है और उनकी रुखाई भी दूर हो जाती है।
सादृश्य की योजना में पहले यह देखना चाहिए कि जिस वस्तु, व्यापार या गुण के सदृश वस्तु, व्यापार या गुण सामने लाया जाता है वह ऐसा तो नहीं है जो किसी भाव-स्थायी या क्षणिक-का आलम्बन या आलम्बन का अंग हो। यदि प्रस्तुत वस्तु, व्यापार आदि ऐसे हैं तो यह विचार करना चाहिए कि उनके सदृश अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार भी उसी भाव के आलम्बन हो सकते हैं या नहीं। यदि कवि द्वारा लाए हुए अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार आदि ऐसे हैं तो कविकर्म सिद्ध समझना चाहिए। उदाहरण के लिए रमणी के नेत्र, वीर का युद्धार्थ गमन और हृदय की कोमलता लीजिए। इन तीनों के वर्णन क्रमश: रतिभाव, उत्साह और श्रद्धा द्वारा प्रेरित समझे जायँगे। और कवि का मुख्य उद्देश्य यह ठहरेगा कि वह श्रोता को भी इन भावों की रसात्मक अनुभूति कराए। अत: जब कवि कहता है कि नेत्र कमल के समान हैं, वीर सिंह के समान झपटता है और हृदय नवनीत के समान है तो ये सदृश वस्तुएँ सौंदर्य, वीरत्व और कोमल सुखदता की व्यंजना भी साथ-ही-साथ करेंगी। इनके स्थान पर यदि हम रसात्मकता का विचार न करके नेत्र के आकार, झपटने की तेजी और प्रकृति की नरमी की मात्रा पर ही दृष्टि रखकर कहें कि 'नेत्र बड़ी कौड़ी या बादाम के समान हैं' 'वीर बिल्ली की तरह झपटता है' और 'हृदय सेमर के घूए के समान है' तो काव्योपयुक्त कभी न होगा। कवियों की प्राचीन परंपरा में जो उपमान बधे चले आ रहे हैं उनमें अधिकांश सौंदर्य आदि की अनुभूति के उत्तेजन होने के कारण रस में सहायक होते हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो आकार आदि ही निर्दिष्ट करते हैं, सौंदर्य की अनुभूति अधिक करने में सहायक नहीं होते जैसे जंघों की उपमा के लिए हाथी की सूँड़, नायिका की कटि की उपमा के लिए भिड़ या सिंहनी की कमर इत्यादि। इनसे आकार, चढ़ाव-उतार और कटि की सूक्ष्मता भर का ज्ञान होता है, सौंदर्य की भावना नहीं उत्पन्न होती; क्योंकि न तो हाथी की सूँड़ में ही दांपत्य रति के अनुकूल अनुरंजनकारी सौंदर्य है और न भिड़ की कमर में ही। अत: रसात्मक प्रसंगों में इस बात का ध्यांन रहना चाहिए कि अप्रस्तुत (उपमान) भी उसी प्रकार के भाव के उत्तेजक हों, प्रस्तुत जिस प्रकार के भाव के उत्तेजक हों।
उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि ऐसे प्रसंगों में पुरानी बँधी हुई उपमाएँ ही लाई जायँ, नई न लाई जायँ। 'अप्रसिद्धि' मात्र उपमा का कोई दोष नहीं, पर नई उपमाओं की सारी जिम्मेदारी कवि पर होती है। अत: रसात्मक प्रसंगों में ऊपर लिखी बातों का ध्याजन रखना आवश्यक है। जहाँ कोई रस स्फुट न भी हो वहाँ भी यह देख लेना चाहिए कि किसी पात्र के लिए जो उपमान लाया जाय वह उस भाव के अनुरूप हो जो कवि ने उस पात्र के संबंध में अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और पाठक के हृदय में भी प्रतिष्ठित करना चाहता है। राम की सेवा करते हुए लक्ष्मण के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है अत: उनकी सेवा का यह वर्णन जो गोस्वामीजी ने किया है कुछ खटकता है।
सेवत लषण सिया रघुबीरहि। जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि॥
इस दृष्टांत में लक्ष्मण का सादृश्य जो अविवेकी पुरुष से किया गया है उससे सेवा का आधिक्य तो प्रकट होता है पर लक्ष्मण के प्रति प्रतिष्ठित भाव में व्याघात पड़ता है। यह यहाँ कहा जा सकता है कि लक्ष्मण का सादृश्य अविवेकी पुरुष के साथ कवि ने नहीं दिखाया है बल्कि लक्ष्मण के सेवा कर्म का सादृश्य अविवेकी के सेवा कर्म से दिखाया गया है। ठीक है, पर लक्ष्मण का कर्म श्लािघ्य है और अविवेकी का निंद्य, इसलिए ऐसे अप्रस्तुत कर्म को मेल में रखने से प्रस्तुत कर्मसंबंधिनी भावना में बाधा अवश्य पड़ती है। रसात्मक प्रसंगों में केवल किसी बात के आधिक्य या न्यूनता की हद से काम नहीं चलता। जो भावुक और रसज्ञ न होकर केवल अपनी दूर की पहुँच दिखाना चाहते हैं वे कभी-कभी आधिक्य या न्यूनता की हद दिखाने में ही फँसकर भाव के प्रकृत स्वरूप को भूल जाते हैं। कोई ऑंखों के कोनों को कान तक पहुँचाता है, कोई नायिका को ब्रह्म के समान अगोचर और सूक्ष्म बताता है, कोई यार की कमर कहाँ है, किधर है, यही पता लगाने में रह जाता है। नायिका श्रृंगार का आलम्बन होती है। उसके स्वरूप के संघटन में इस बात का ध्या न [ रखना ] चाहिए कि उसकी रमणीयता बनी रहे। प्राचीन कवि जहाँ मृणाल की ओर संकेत करके सूक्ष्मता और सौंदर्य एक साथ दिखाते थे, वहाँ लोग या तो भिड़ की कमर सामने लाने लगे या कमर ही गायब करने लगे। चमत्कारवादी इसमें अद्भुत रस का आनंद मानने लगे। पर सोचने की बात है कि नायिका अद्भुत रस का आलम्बन है या श्रृंगार रस का। श्रृंगार रस के आलम्बन में 'अद्भुत' केवल सौंदर्य का विशेषण हो सकता है। 'अद्भुत सौंदर्य' हम दिखा सकते हैं पर सौंदर्य को गायब नहीं कर सकते।
किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अंतवृत्ति जब उस भाव के पोषक स्वरूप गढ़कर या काट-छाँटकर सामने रखने लगती है तब हम उसे सच्ची कविकल्पना कह सकते हैं। यों ही सिरपच्ची करके बिना किसी भाव में मग्न हुए कुछ अनोखे रूप खड़े करना या कुछ को कुछ कहने लगना या तो बावलापन है या दिमागी कसरत; सच्चे कवि की कल्पना नहीं। वास्तव के अतिरिक्त या वास्तव के स्थान पर जो रूप सामने लाए गए हों उनके संबंध में यह देखना चाहिए कि वे किसी भाव की उमंग में उस भाव को सँभालने या बढ़ानेवाले होकर आ खड़े हुए हैं या यों ही तमाशा दिखाने के लिए-कुतूहल उत्पन्न करने के लिए-जबरदस्ती पकड़कर लाए गए हैं। यदि ऐसे रूपों की तह में उनके प्रवर्तक या प्रेषक भाव का पता लग जाय तो समझिए कि कवि के हृदय का पता लग गया और वे रूप हृदय प्रेरित हुए। अंगरेजी कवि कालरिज ने, जिसने कविकल्पना पर अच्छा विवेचन किया है अपनी एक कविता में ऐसे रूपावरण को आनंदस्वरूप आत्मा से निकला हुआ कहा है; जिसके प्रभाव से जीवन में रोचकता रहती है। जब तक यह रूपावरण (कल्पना का) जीवन में साथ लगा चलता है तब तक दु:ख की परिस्थिति में भी आनंद स्वप्न नहीं टूटता। पर धीरे-धीरे यह दिव्य आवरण हट जाता है और मन गिरने लगता है। भावोद्रेक और कल्पना में इतना घनिष्ठ संबंध है कि एक काव्य मीमांसक ने दोनों को एक ही कहना ठीक समझकर कह दिया है-'कल्पना आनंद है। (Imaginiation is joy)। सच्चे कवियों की कल्पना की बात जाने दीजिए, साधारण व्यवहार में भी लोग जोश में आकर कल्पना का जो व्यवहार बराबर किया करते हैं वह भी किसी पहाड़ को 'शिशु' और 'पांडव' कहनेवाले कवियों के व्यवहार से कहीं उचित होता है। किसी निष्ठुर कर्म करनेवाले को यदि कोई 'हत्यारा' कह देता है तो वह सच्ची कल्पना का उपयोग करता है; क्योंकि विरक्ति या घृणा के अतिरेक से प्रेरित होकर ही उसकी अंतवृत्ति हत्यारे का रूप सामने करती है जिससे भाव की मात्रा के अनुरूप आलम्बन खड़ा हो जाता है। 'हत्यारा' शब्द का लाक्षणिक प्रयोग ही विरक्ति की अधिकता का व्यंजक है। उसके स्थान पर यदि कोई उसे 'बकरा' कहे, तो या तो किसी भाव की व्यंजना न होगी या किसी ऐसे भाव की होगी जो प्रस्तुत विषय के मेल में नहीं। कहलानेवाला कोई भाव अवश्य चाहिए और उस भाव को प्रस्तुत वस्तु के अनुरूप होना चाहिए। भारी मूर्ख को लोग जो 'गदहा' कहते हैं वह इसीलिए कि 'मूर्ख' कहने से उनका जी नहीं भरता-उनके हृदय में उपहास अथवा तिरस्कार का जो भाव रहता है उसकी व्यंजना नहीं होती।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अलंकारविधान में उपयुक्त उपमान लाने में कल्पना ही काम करती है। जहाँ वस्तु, गुण या क्रिया के पृथक्-पृथक् साम्य पर ही कवि की दृष्टि रहती है वहाँ वह उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का सहारा लेता है और जहाँ व्यापारसमष्टि या पूर्ण प्रसंग का साम्य अपेक्षित होता है वहाँ दृष्टांत, अर्थांतरन्यास और अन्योक्ति का। उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट है कि प्रस्तुत के मेल में जो अप्रस्तुत रखा जाय-चाहे वह वस्तु, गुण या क्रिया हो अथवा व्यापारसमष्टि-वह प्राकृतिक और चित्ताकर्षक हो तथा उसी प्रकार का भाव जगानेवाला हो जिस प्रकार का प्रस्तुत व्यापारसमष्टि के समन्वय में कवि की सहृदयता का जिस पूर्णता के साथ हमें दर्शन होता है उस पूर्णता के साथ वस्तु, क्रिया आदि के पृथक्-पृथक् समन्वय में नहीं। इसी से सुंदर अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिणी होती हैं। चुना हुआ अप्रस्तुत व्यापार जितना ही प्राकृतिक होगा, जितना ही अधिक मनुष्य जाति के आदिम जीवन
- Dejection Ode, 4th April, 1802,
† G, W. Mackael’s Lectures on Poetry,
में सुलभ दृश्यों के अंतर्गत होगा-उतना ही रमणीय और अनुरंजनकारी होगा। कोई गोपिका या राधा स्वप्न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृतिव्यापी और गूढ़ व्यापार सूर ने रखा है, देखिए-
हमको सपनेहू में सोच।
जा दिन तें बिछुरे नंदनंदन या दिन ते यह पोच।
मनौ गोपाल आए मेरे घर, हँसि कर भुजा गही।
कहा करौं बैरिनि भइ निंदिया, निमिष न और रही।
ज्यों चकई प्रतिबिंब देखि कै आनंदी पिय जानि।
सूर पवन मिलि निठुर बिधाता चपल कियो जल आनि॥
स्वप्न में अपने ही मानस में किसी का रूप देखने और जल में अपना ही प्रतिबिंब देखने का कैसा गूढ़ और सुंदर साम्य है। इसके उपरांत पवन द्वारा प्रशांत जल के हिल जाने से छाया का मिट जाना कैसा भूतव्यापी व्यापार स्वप्नभंग के मेल में लाया गया है।
इसी प्रकार प्राकृतिक चित्रों द्वारा सूर ने कई जगह पूरे प्रसंग की व्यंजना की है। जैसे, गोपियाँ मथुरा से कुछ ही दूर पर पड़ी विरह से तड़फड़ा रही हैं, पर कृष्ण राजसुख के आनंद में फूले नहीं समा रहे हैं। यह बात वे इस चित्र के द्वारा कहतेहैं-
सागर कूल मीन तरफत है, हुलसि होत जल पीन।
जैसा ऊपर कहा गया है, जिसे निर्माण करनेवाली-सृष्टि खड़ी करनेवाली कल्पना कहते हैं उसकी पूर्णता किसी एक प्रस्तुत वस्तु के लिए कोई दूसरी अप्रस्तुत वस्तु-जो कि प्राय: कवि परंपरा में प्रसिद्ध हुआ करती है-रख देने में उतनी नहीं दिखाई पड़ती जितनी किसी एक पूर्ण प्रसंग के मेल का कोई दूसरा प्रसंग-जिसमें अनेक प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों की नवीन योजना रहती है-रखने में देखी जाती है। सूरदासजी ने कल्पना की इस पूर्णता का परिचय जगह-जगह दिया है। कबीर, जायसी आदि कुछ रहस्यवादी कवियों ने इस जीवन का मार्मिक स्वरूप तथा परोक्ष जगत् की कुछ धुँधली-सी झलक दिखाने के लिए अन्योक्ति की पद्धति का अवलम्बन किया है; जैसे-
हंसा प्यारे ! सरवर तजि कहँ जाय?
जेहि सरवर बिच मोती चुनते, बहु विधि केलि कराय।
सूख ताल, पुरइनि जल छोड़े, कमल गयो कुँभिलाय।
कह कबीर जो अबकी बिछुरै, बहुरि मिलैं कब आय॥
रहस्यवादी कवियों के समान भक्त सूर की कल्पना की कभी-कभी इस लोक का अतिक्रमण करके आदर्श लोक की ओर संकेत करने लगती है; जैसे-
चकई री ! चलि चरन-सरोवर जहाँ न प्रेम वियोग।
निसि दिन राम राम की वर्षा, भय रुज नहिं दुख सोग।
जहाँ सनक से मीन, हंस शिव, मुनिजन नख रवि प्रभा प्रकास।
प्रफुलित कमल, निमिष नहि ससि डर, गुंजत निगम सुवास।
जेहि सर सुभग मुक्ति मुक्ता फल, सुकृत अमृत रस पीजै।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम ! इहाँ कहा रहि कीजैं?
पर एक व्यक्तिवादी सगुणोपासक कवि की उक्ति होने के कारण इस चित्र में वह रहस्यमयी अव्यक्तता या धुँधालापन नहीं है। कवि अपनी भावना को स्पष्ट और अधिक व्यक्त करने के लिए जगह-जगह आकुल दिखाई पड़ता है। इसी से अन्योक्ति का मार्ग छोड़ जगह-जगह उसने रूपक का आश्रय लिया है। इसी अन्योक्ति का दीनदयाल गिरिजी ने अच्छा निर्वाह किया है-
चल चकई ! तेहि सर विषै जहँ नहिं रैन बिछोह।
रहत एकरस दिवस ही, सुहृद हंस-संदोह।
सुहृद हंस-संदोह कोह अरु द्रोह न जाको।
भोगत सुख-अंबोह, मोह-दुख होय न ताको।
बरनै दीनदयाल भाग्य बिन जाय न सकई।
पिय मिलाप नित रहै, ताहि सर चल तू चकई॥
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर जो बात कही गई है वह ऐसी वस्तुओं के संबंध में कही गई है जिनका वर्णन, कवि किसी भाव में मग्न होकर, उसी भाव में मग्न करने के लिए, करता है-जैसे, नायिका का वर्णन, प्राकृतिक शोभा का वर्णन वीर कर्म का वर्णन इत्यादि। जहाँ वस्तुएँ ऐसी होती हैं कि उनके संबंध में अलग कोई उपयुक्त भाव (जैसे रति, भय, हर्ष, घृणा, श्रद्धा इत्यादि) नहीं होता, केवल उनके रूप, गुण, क्रिया आदि का ही गोचर स्पष्टीकरण करना या अधिकता न्यूनता की ही भावना तीव्र करना अपेक्षित होता है-उनके द्वारा किसी भाव की अनुभूति की वृद्धि करना नहीं-वहाँ आकृति, गुण आदि का निरूपण और आधिक्य या न्यूनता का बोध करानेवाली सदृश वस्तुओं से ही प्रयोजन रहता है। हाथियों के डीलडौल, तलवार की धार, किसी कर्म की कठिनता, खाई की चौड़ाई इत्यादि के वर्णन में केवल इस प्रकार का सादृश्य अपेक्षित रहता है जैसे पहाड़ के समान हाथी, बाल की तरह धार, पहाड़-सा काम, नदी-सी खाई इत्यादि।
आधिक्य या न्यूनता सूचित करने के लिए ऊहात्मक या वस्तुव्यंजनात्मक शैली का विधान कवियों में तीन प्रकार का देखा जाता है।
(1) ऊहा की आधारभूत वस्तु असत्य अर्थात् कवि प्रौढ़ोक्ति सिद्ध है।
(2) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप सत्य या स्वत:सम्भवी है और किसी प्रकार की कल्पना नहीं की गई है।
(3) ऊहा की आधारभूत वस्तु का स्वरूप तो सत्य है पर उसके हेतु की कल्पना की गई है।
इनमें से प्रथम प्रकार के उदाहरण वे हैं जिन्हें बिहारी ने विरहताप के वर्णन में दिया है-जैसे, पड़ोसियों को जाड़े की रात में भी बेचैन करनेवाला, या बोतल में भरे गुलाबजल को सुखा डालनेवाला ताप; दूसरे प्रकार का उदाहरण एक स्थल पर जायसी ने बहुत अच्छा दिया है, पर वह विरहताप के वर्णन में नहीं है, काल की दीर्घता वर्णन में है। आठ वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौरगढ़ घेरे रहा। इस बात को एक बार तो कवि ने साधारण इतिवृत्त के रूप में कहा, पर उससे वह गोचर प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सका जिसका प्रयत्न काव्य करता है। आठ वर्ष के दीर्घत्व के अनुमान के लिए फिर उसने यह दृश्य आधार सामने रखा-
आइ साह अमराव जो लाए। फरे, झरे पै गढ़ नहि पाए॥
सच पूछिए तो वस्तु व्यंजनात्मक या ऊहात्मक पद्धति का इसी रूप में अवलम्बन सबसे अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। इसमें अनुमान का आधार सत्य या स्वत:सम्भवी है। जायसी अनुमान या ऊहा के आधार के लिए ऐसी वस्तु सामने लाए हैं जिसका स्वरूप प्राकृतिक है और जिससे सामान्यत: सब लोग परिचित होते हैं। इसी प्रकार एक गीत में एक वियोगिनी नायिका कहती है कि 'मेरा प्रिय दरवाजे पर जो नीम का पेड़ लगा गया था वह बढ़कर अब फूल रहा है, पर प्रिय न लौटा।' आधार के सत्य और प्राकृतिक स्वरूप के कारण इस उक्ति से कितना भोलापन बरस रहा है!
सुकुमारता की अत्युक्तियाँ अस्वाभाविकता के कारण, केवल ऊहा द्वारा मात्रा या परिमाण के आधिक्य की व्यंजना के कारण, कोई रमणीय चित्र सामने नहीं लातीं। प्राचीन कवियों के 'शिरीषपुष्पाधिकसौकुमार्य्य' का जो प्रभाव हृदय पर पड़ता है वह खरोंच और छालेवाले सौकुमार्य का नहीं। कहीं-कहीं गुण की अवस्थिति मात्र का दृश्य जितना मनोरम होता है उतना उस गुण के कारण उत्पन्न दशांतर का चित्र नहीं। जैसे नायिका के होंठ की ललाई का वर्णन करते-करते यदि कोई 'तद्गुण' अलंकार की झोंक में यह कह डाले कि जब वह नायिका पीने के लिए पानी होठों से लगाती है तब वह खून हो जाता है तो यह दृश्य कभी रुचिकर नहीं लग सकता। ईंगुर, बिंबा आदि सामने रखकर उस लाली की मनोहर भावना उत्पन्न कर देना ही काफी समझना चाहिए। उस लाली के कारण क्या बातें पैदा हो सकती हैं इसका हिसाब-किताब बैठाना जरूरी नहीं।
इसी प्रकार की विरसतापूर्ण अत्युक्ति ग्रीवा की कोमलता और स्वच्छता के इस वर्णन में भी है-
पुनि तेहि ठाँव परीं तिनि रेखा। घूँट जो पीक लीक सब देखा।
इस वर्णन से तो चिड़ियों के अंडे से तुरंत फूटकर निकले हुए बच्चे का चित्र सामने आता है। वस्तु या गुण का परिमाण अत्यंत अधिक बढ़ाने से ही सर्वत्र सरसता नहीं आती। इस प्रकार की वस्तुव्यंग्य उक्तियों की भरमार उस काल से आरंभ हुई जबसे 'ध्व नि' का आग्रह बहुत बढ़ा, और सब प्रकार की व्यंजनाएँ उत्तम काव्य समझी जाने लगीं। पर वस्तुव्यंजनाएँ ऊहा द्वारा ही की और समझी जाती हैं, सहृदयता से उनका नित्य संबंध नहीं होता।
तीसरे प्रकार का विधान भी प्रथम प्रकार के विधान से अधिक उपयुक्त होता है। इसमें हेतूत्प्रेक्षा का सहारा लिया जाता है जिसमें 'अप्रस्तुत' वस्तुओं का गृहीत दृश्य वास्तविक होता है, केवल उसका हेतु कल्पित होता है। हेतु परोक्ष हुआ करता है। इससे उसकी अतथ्यता सामने आकर प्रतीति में बाधा डालती नहीं जान पड़ती। सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है। इनमें से हेतूत्प्रेक्षा अलंकार उत्कर्ष की व्यंजना के लिए बड़ा शक्तिशाली होता है। लोक में कार्य और कारण एक साथ बहुत ही कम देखे जाते हैं। प्राय: कारण परोक्ष ही रहता है। अत: रूप या क्रिया यदि अपने प्रकृत रूप में हमारे सामने रख दी गई तो वह उस प्रभाव का प्रमाण-स्वरूप लगने लगती है जिसे कवि खूब बढ़ाकर दिखाना चाहता है और हम इस बात की छानबीन में नहीं पड़ने जाते कि हेतु ठीक है या नहीं।
भारतीय काव्यपद्धति में उपमान चाहे उदासीन हों, पर भाव के विरोधी कभी नहीं होते। 'भाव' से मेरा अर्थ वही है जो साहित्य में लिया जाता है। 'भाव' का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्यबोध मात्र नहीं बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल अवस्था विशेष है जिसमें शरीरवृत्ति और मनोवृत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके स्वरूप के अंतर्गत अपनी हानि या अपमान की बात तात्पर्यबोध, उग्र वचन और कर्म की प्रवृत्ति का वेग तथा त्योरी चढ़ना, ऑंखें लाल होना, हाथ उठना ये सब बातें रहती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि-से इन सबके समष्टिविधान का नाम क्रोध का भाव है। रौद्ररस के प्रसंग में कवि लोग जो उपमान लाते हैं वे भी संतापदायक या उग्र होते हैं, जैसे अग्नि। क्रोध से रक्तवर्ण नेत्रों की उपमा जब कोई कवि देगा तब अंगार आदि की देगा, रक्त कमल या बंधूक पुष्प की नहीं। इसी प्रकार श्रृंगार रस में रक्त, मांस, फफोले, हवी आदि का बीभत्स दृश्य सामने आना अरुचिकर प्रतीत होता है। पर जहाँ केवल 'तात्पर्य' के उत्कर्ष का ध्याअन प्रधान रहेगा-खयाल की बारीकी या बलंदपरवाजी पर ही नजर रहेगी वहाँ भाव के स्वरूप का उतना विचार न रह जायगा। फारसी की शायरी में ही विप्रलम्भ श्रृंगार के अंतर्गत ऐसे बीभत्स दृश्य प्राय: लाए जाते हैं।
यदि कवि सच्चा है, शेष सृष्टि के साथ उसके हृदय का पूर्ण सामंजस्य है, उसमें सृष्टिव्यापिनी सहृदयता है तो उसके सादृश्यविधान में एक बात और लक्षित होगी। वह जिस सदृश वस्तु या व्यापार की ओर ध्या्न ले जायगा कहीं-कहीं उससे मनुष्य को और प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपने संबंध की बड़ी सच्ची अनुभूति होगी। विरहताप से झुलसी और सूखी हुई नागमती को जब प्रिय के आगमन का आभास मिलता है तब उसकी दशा कैसी होती है-
जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई। परहिं बूँद औ सोंधि बसाई॥
ओहि भाँति पलुही सुख बारी। उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥
इसमें मनुष्य देखता है कि जिस प्रकार संताप और आह्लाद के चिह्न मेरे शरीर में दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही पेड़-पौधों के भी। इस प्रकार उनके साथ अपने संबंध की अनुभूति का उदय उसके हृदय में होता है। ऐसी अनुभूति द्वारा मानव हृदय का प्रसार करने में जो कवि समर्थ हो वह धन्य है। 'शरीर पनपना' आदि लाक्षणिक प्रयोग जो बोलचाल में आ गए हैं वे ऐसे ही कवियों की कृपा से हुए हैं।
'सांग-रूपक' के गुण-दोष का भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोप सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर ही होता है। अधिकतर देखा जाता है कि 'निरंग-रूपक' में तो सादृश्य और साधर्म्य का ध्या न रहता है पर सांग और परम्परित में इनका पूरा निर्वाह नहीं होता और जल्दी हो भी नहीं सकता। दो में से एक का भी पूरा निर्वाह हो जाय तो बड़ी बात है; दोनों का एक साथ निर्वाह तो बहुत कम देखा जाता है। सादृश्य से हमारा अभिप्राय बिम्ब-प्रतिबिम्ब रूप और साधर्म्य से वस्तु-प्रतिवस्तु धर्म है। साहित्य-दर्पणकार का यह उदाहरण लेकर विचार कीजिए-
'रावण-रूप अवर्षण से क्लांत देवता-रूप शस्य को इस प्रकार वाणी-रूप अमृत जल से सींच वह कृष्णरूप मेघ अन्तर्हित हो गया।'1
इस उदाहरण में रावण और अवर्षण में रूपसादृश्य नहीं है; केवल साधर्म्य है। इस प्रकार देवता और शस्य में तथा वाणी और जल में कोई रूपसादृश्य नहीं है, साधर्म्य मात्र है। पर विष्णु और काले मेघ में सादृश्य और साधर्म्य दोनों हैं-विष्णु का स्वरूप भी नील जलद का सा है और धर्म भी उसी के समान लोकानंद प्रदान करता है। पर सांगरूपक में कहीं-कहीं तो केवल अप्रस्तुत (उपमान) दृश्य को किसी प्रकार बढ़ाकर पूरा करने का ही ध्यांन कवियों को रहता है। वे यह नहीं देखने जाते कि एक-एक अंग या ब्योरे में किसी प्रकार का सादृश्य या साधर्म्य है अथवा नहीं। विनयपत्रिका के 'सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी' वाले पद में रूपक के अंगों की योजना अधिकतर इसी प्रकार की है।
यद्यपि साहित्य के आचार्यों ने साम्य से कहे हुए विरोधी रस या भाव को (विभाव आदि को भी) दोषाधायक नहीं माना है, पर इस प्रकार के आरोपों से रस की प्रतीति में व्याघात अवश्य पड़ता है, वाग्वैदग्य्ह द्वारा मनोरंजन चाहे कुछ हो जाय। काव्य में बिंब स्थापना (Imagery) प्रधान वस्तु है। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों में यह पूर्णता को प्राप्त है। अँगरेजी कवि शेली इसके लिए प्रसिद्ध हैं। भाषा के
1. रावणाविग्रहक्लांतमिति वागमृतेन स:।
अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधो॥ -दशम परिच्छेद।
दो पक्ष होते हैं-एक सांकेतिक (Symbolic) और दूसरा बिंबाधायक (Presentative)। एक में तो नियत संकेत द्वारा अर्थबोध मात्र हो जाता है, दूसरे में वस्तु का बिंब या चित्र अंत:करण में उपस्थित होता है। वर्णनों में सच्चे कवि द्वितीय पक्ष का अवलम्बन करते हैं। वे वर्णन इस ढंग पर करते हैं कि ऐसी वस्तुओं का बिंब ग्रहण कराया जाय, ऐसी वस्तुएँ सामने लाई जायँ, जो प्रस्तुत रस के अनुकूल हों, उसकी प्रतीति में बाधक न हों। सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर आरोप द्वारा भी जो वस्तुएँ लाई जायँ वे भी ऐसी ही होनी चाहिए। वीररस की अनुभूति के समय कुच, तरिवन, सिंदूर आदि सामने लाना या श्रृंगाररस की अनुभूति के अवसर पर मस्त हाथी, भाले, बरछे, सामने रखना रसानुभूति में सहायक कदापि नहीं।
हम पहले कह आए हैं कि भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होनेवाली युक्ति ही अलंकार है। अत: अलंकारों की परीक्षा इसी दृष्टि से करनी चाहिए कि वे कहाँ तक उक्त प्रकार से सहायक हैं। यदि किसी वर्णन में उनसे इस प्रकार की कोई सहायता नहीं पहुँचती है, तो वे काव्यालंकार नहीं, भार मात्र हैं। यह ठीक है कि वाक्य की कुछ विलक्षणता-जैसे श्लेैष और यमक-द्वारा श्रोता या पाठक का ध्या न आकर्षित करने के लिए भी अलंकार की थोड़ी बहुत योजना होती है, पर उसे बहुत ही गौण समझना चाहिए। काव्य की प्रक्रिया के भीतर ऊपर कही बातों में से किसी एक में भी जिससे सहायता पहुँचती है, उसे उत्तम कहेंगे।
अलंकार के स्वरूप की ओर ध्याेन देते ही इस बात का पता चल जाता है कि वह कथन की एक युक्ति या वर्णनशैली मात्र है। यह शैली सर्वत्र काव्यालंकार नहीं कहला सकती। उपमा को ही लीजिए जिसका आधार होता है सादृश्य। यदि कहीं सादृश्ययोजना का उद्देश्य बोध कराना मात्र है तो वह काव्यालंकार नहीं। 'नीलगाय गाय के सदृश होती है' इसे कोई अलंकार नहीं कहेगा। इसी प्रकार 'एकरूप तुम भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम ते नहिं मारेउँ सोऊ॥' में भ्रम अलंकार नहीं है। केवल 'वस्तुत्व' या 'प्रमेयत्व' जिसमें हो वह अलंकार नहीं।1 अलंकार में रमणीयता होनी चाहिए। चमत्कार न कहकर रमणीयता हम इसलिए कहते हैं कि चमत्कार के अंतर्गत केवल भाव, रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष ही नहीं, शब्दकौतुक और अलंकार सामग्री की विलक्षणता भी ली जाती है। जैसे, बादल के स्तूपाकार टुकड़े के ऊपर निकले हुए चंद्रमा को देख यदि कोई कहे कि 'मानो ऊँट की पीठ पर घंटा रखा हुआ है' तो कुछ लोग अलंकार सामग्री की इस विलक्षणता पर-कवि की इस दूर की सूझ पर-ही वाह-वाह करने लगेंगे। पर इस उत्प्रेक्षा से ऊपर लिखे प्रयोजनों में से एक भी सिद्ध नहीं होता। बादल के ऊपर निकलते हुए चंद्रमा को देख हृदय में स्वभावत: सौंदर्य
1.साधर्म्य कविसमयप्रसिद्धं कांतिमत्त्वादि न तु वस्तुत्वप्रमेयत्वादि ग्राह्यम्।-विद्याधर।
की भावना उठती है। पर ऊँट पर रखा हुआ घंटा कोई ऐसा सुंदर दृश्य नहीं जिसकी योजना से सौंदर्य के अनुभव में कुछ और वृद्धि हो। भावानुभव में वृद्धि करने के गुण का नाम ही अलंकार की रमणीयता है।
हम ऊपर कह आए हैं कि अलंकार वर्णन करने की अनेक प्रकार की चमत्कारपूर्ण शैलियाँ हैं। इन्हें काव्यों से चुनकर प्राचीन आचार्यों ने नाम रखे और लक्षण बनाए। ये शैलियाँ न जाने कितनी हो सकती हैं। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि जितने
अलंकारों के नाम ग्रंथों में मिलते हैं उतने ही अलंकार हो सकते हैं। बीच-बीच में नए आचार्य नए अलंकार बढ़ाते आए हैं; जैसे, 'विकल्प' अलंकार को अलंकार सर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने ही निकाला था। इसलिए यह न समझना चाहिए कि काव्यरचना में उतनी ही चमत्कारपूर्ण शैलियों का समावेश हो सकता है जितना नाम रखकर गिना दी गई हैं। बहुत से स्थानों पर कवि ऐसी शैली का अवलम्बन कर जायगा जिसके प्रभाव या चमत्कार की ओर लोगों का ध्याअन न गया होगा और जिसका नाम न रखा गया होगा; यदि रखा भी गया होगा तो किसी दूसरे देश के रीतिग्रंथ में। उदाहरण के लिए यह पद्य लीजिए-
कँवलहि विरह-विथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥
'केसर बरन पीर हिय गाढ़ी' इस पंक्ति का अर्थ अन्वयभेद से तीन ढंग से हो सकता है-(1) कमल केसर वर्ण (पीला) हो रहा है, हृदय में गाढ़ी पीर है। (2) गाढ़ी पीर से हृदय केसर वर्ण हो रहा है। (3) हृदय में केसर वर्ण गाढ़ी पीर है। इनमें से पहला अर्थ तो ठीक नहीं होगा, क्योंकि कवि की उक्ति का आधार केवल कमल के हृदय का पीला होना है, सारे कमल का पीला होना नहीं। दूसरा अर्थ अलबत सीधा और ठीक जँचता है, पर अन्वय इस प्रकार खींचतान कर करना पड़ता है-'गाढ़ी पीर हिय केसर बरन।' तीसरा अर्थ यदि लेते हैं तो 'पीर का एक असाधारण विशेषण केसर बरन' रखना पड़ता है। इस दशा में 'केसर वर्ण' का लक्षणा से अर्थ करना होगा 'केसरवर्ण करनेवाली', 'पीला करनेवाली' और पीड़ा का आतिशय्य लक्षणा का प्रयोजन होगा। पर योरोपीय साहित्य में इस प्रकार की शैली अलंकार रूप से स्वीकृत है और हाईपैलेज (Hypallage) कहलाती है। इसमें कोई गुण प्रकृत गुणी से हटाकर दूसरी वस्तु में आरोपित कर दिया जाता है; जैसे यहाँ पीलेपन का गुण 'हृदय' से हटाकर 'पीड़ा' पर आरोपित किया गया है।
एक उदाहरण और लीजिए-'जस भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई'। इस वाक्य में 'पलुहाई' की संगति के लिए 'भुइँ' शब्द का अर्थ उसपर के घास-पौधो अर्थात् आधार के स्थान पर आधेय लक्षणा से लेना पड़ता है। बोलचाल में भी इस प्रकार के रूढ़ प्रयोग आते हैं, जैसे इन दोनों घरों में झगड़ा है। योरोपीय अलंकार शास्त्र में आधेय के स्थान पर आधार के कथन की प्रणाली को मेटानमी (Metonymy) अलंकार कहेंगे। इसी प्रकार अंगी के स्थान पर अंग, व्यक्ति के स्थान पर जाति आदि का लाक्षणिक प्रयोग सिनेकडोक (Synecdoche) अलंकार कहा जा सकता है। सारांश यह कि चमत्कार प्रणालियाँ बहुत-सी हो सकती हैं।
रूप, गुण और क्रिया तीनों का अनुभव तीव्र करने के लिए अधिकतर सादृश्यमूलक उपमा आदि अलंकारों का ही प्रयोग होता है। रूप का अनुभव प्रधानत: चार प्रकार का होता है-अनुरंजक, भयावह, आश्चर्यकारक या घृणोत्पादक। इस प्रकार के अनुभव में सहायक होने के लिए आवश्यक है कि प्रस्तुत वस्तु और आलंकारिक वस्तु में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो अर्थात् अप्रस्तुत (कवि द्वारा लाई हुई) वस्तु प्रस्तुत वस्तु से रूप रंग आदि में मिलती-जुलती हो और उससे उसी भाव के उत्पन्न होने की संभावना हो जो प्रस्तुत वस्तु से उत्पन्न हो रहा हो।
जहाँ वस्तु या व्यापार अगोचर होता है, वहाँ अलंकार उसके अनुभव में सहायता गोचर रूप प्रदान करके करता है; अर्थात् वह पहले गोचर प्रत्यक्षीकरण करके बोधवृत्ति की कुछ सहायता करता है, तब फिर रागात्मिकता वृत्ति को उत्तेजित करता है। जैसे यदि कोई आनेवाली विपत्ति या अनिष्ट का कुछ भी ध्या्न न करके अपने रंग में मस्त रहता हो और उसको देखकर कोई कहे कि-'चरै हरित तृन बलि-पसु जैसे' तो इस कथन से उसकी दशा का प्रत्यक्षीकरण कुछ अधिक हो जायगा जिससे उसमें भय का संचार पहले से कुछ अधिक हो सकता है।
क्रिया और गुण का अनुभव तीव्र कराने के लिए प्रस्तुत-अप्रस्तुत वस्तु के बीच या तो 'अनुगामी' (एक ही) धर्म होता है या वस्तु प्रतिवस्तु या उपचरित। सीधी भाषा में यों कह सकते हैं कि अलंकार के लिए लाई हुई वस्तु और प्रसंगप्राप्त वस्तु का धर्म या तो एक ही होता है, या अलग-अलग कहे जाने पर भी दोनों के धर्म समान होते हैं; अथवा एक के धर्म का उपचार दूसरे पर किया जाता है। जैसे, उसका हृदय पत्थर के समान है।
अब गुण का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार पर आइए और देखिए कि एक 'व्यतिरेक' की सहायता से संतों का स्वभाव किस सफाई के साथ औरों से अलग करके दिखाया गया है-
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन पै कहइ न जाना॥
निज परिताप द्रवै नवनीता। पर दुख द्रवैं सुसंत पुनीता॥
संतों और असंतों के बीच के भेद को थोड़ा कहते-कहते 'व्याघात' द्वारा कितना बड़ा कह डाला है, जरा यह भी देखिए-
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
मिलत एक दारुन दुख देहीं। बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं॥
इस इतने बड़े भेद को थोड़ा कहनेवाले का हृदय कितना बड़ा होगा;
बहुत से स्थल ऐसे भी होते हैं, जहाँ यह निश्चय करने में गड़बड़ी हो सकती है कि यहाँ अलंकार है या भाव। इसकी संभावना वहीं होगी जहाँ स्मरण, संदेह और भ्रांति का वर्णन होगा। स्मरण का यह उदाहरण लीजिए-
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीर लोचन जल छाए॥
इसे न विशुद्ध अलंकार ही कह सकते हैं, न भाव ही। उपमेय और उपमान (राम के शरीर, यमुना के जल) के सादृश्य की ओर ध्या न देते हैं तो स्मरण अलंकार ठहरता है; और जब अश्रु सात्त्विक की ओर देखते हैं तो स्मरण संचारी भाव निश्चित होता है। सच पूछिए तो इसमें दोनों हैं। पर इसमें संदेह नहीं कि भाव का उद्रेक अत्यंत स्वाभाविक है और यहाँ वही प्रधान है, जैसा कि 'लोचन जल छाए' से प्रकट होता है। विशुद्ध अलंकार तो वहीं कहा जा सकता है जहाँ सदृश वस्तु लाने में कवि का उद्देश्य केवल रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष दिखाना रहता है। अलंकार का स्मरण प्राय: वास्तविक नहीं होता; रूप, गुण आदि के उत्कर्ष प्रदर्शन का एक कौशल मात्र होता है। दूसरी बात ध्याहन देने की यह है कि स्मरण भाव केवल सदृश वस्तु से ही नहीं होता, संबंधी वस्तु से भी होता है। शुद्ध 'स्मरण' भाव का यह उदाहरण बहुत ही अच्छा है-
जननि निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नयननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ॥
अब भ्रम का एक ऐसा ही उदाहरण लीजिए। सीताजी अपने जलने के लिए अशोक से अंगार माँग रही थीं। इतने में हनुमान ने पेड़ के ऊपर से राम की 'मनोहर मुद्रिका' गिराई और-
जानि असोक अँगार सीय हरषि उठि कर गह्यो।
इसी प्रकार जहाँ रामचरितमानस के उत्तरकांड में अयोध्याक की विभूति का वर्णन है, वहाँ कहा गया है-
मनि मुख मेलि डारि कपि देही।
इन दोनों उदाहरणों में 'भ्रम' अलंकार नहीं है। अलंकार में भ्रम के विषय की विशेषता होती है, भ्रांत की नहीं। भ्रांत की विशेषता में तो पागलों का भ्रम भी अलंकार हो जायगा। सीता का जो भ्रम है, वह विरह की विह्वलता के कारण और बंदरों का जो भ्रम है, वह पशुत्व के कारण। इस प्रकार का भ्रम अलंकार नहीं, यह बात आचार्यों ने स्पष्ट कह दी है-
मर्मप्रहारकृत -चित विक्षेप -विरहादिकृतोन्मादादिजन्यभ्रान्तेश्च नालंकारत्वम्।
-उद्योतकार।
संदेह के संबंध में यही बात समझिए जो ऊपर कही गई है। तीनों में सादृश्य आवश्यक है। संदेह तो अलंकार तभी होगा जब उसको लाने का मुख्य उद्देश्य, रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्ष (अपकर्ष भी) सूचित करना होगा। ऐसा संदेह वास्तविक भी हो सकता है, पर वहाँ अलंकारत्व कुछ दबा-सा रहेगा। जैसे 'की मैनाक कि खगपति होई' में जो संदेह है, वह कवि के प्रबंध-कौशल के कारण वास्तविक भी है और आकार की दीर्घता और वेग की तीव्रता भी सूचित करता है। पर नीचे लिखा उदाहरण यदि लीजिए तो उसमें कुछ भी अलंकारत्व नहीं है-
की तुम हरिदासन महँ कोई। मोरे हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम राम दीन अनुरागी। आए मोहिं करन बड़ भागी॥
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