अप्रैल की एक उदास रात / पंकज सुबीर
हवा में उदासी घुली हुई है। उदासी, जो मौसमों की थपक के साथ पैदा होती है। बाहर वसंत और पतझड़ क्या है, कुछ समझा नहीं जा सकता। जिसे नहीं समझा जा सकता, वह हमेशा सबसे ज़्यादा उदास करता है। हवा में गरमी के आने की आहट भरी हुई है। मगर अभी आहट ही है। भूरी-मटमैली-सी ज़मीन पर उसी के रंग में रँगे हुए उदास पत्ते बिछे हुए हैं। उदास और सूखे पत्ते। कभी हरे थे, भरे थे। पहले हवा को यह झुलाते थे, अब हवा इनको झुला रही है। उड़ा रही है। यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ। हवा का एक झोंका आता है तो इधर-उधर बिखरे पत्ते उसके इशारे पर, उसकी दिशा में उड़ चलते हैं, झोंका रुकता है तो वहीं स्थिर हो जाते हैं। शाख़ से जोड़ टूट जाए, तो यही होता है। पेड़ों पर कहीं-कहीं कुछ लगभग सूख चुके फूल कह रहे हैं कि वसंत बस अभी विदा ही हुआ है। अब इंतज़ार है एक बरस के बीतने का। जो आएगा, वह भी बीत जाएगा ही। बीतता मार्च और लगता अप्रैल क्यों उदास करता है, यह आज तक किसी की समझ में नहीं आया। शाम धीरे-धीरे गहरी काली हो रही है। मोबाइल के म्यूज़िक प्लेयर पर रोज़ की तरह वही गाना बज रहा है "नो वन वांट्स टू बी लेफ़्ट अलोन, नो वन वांट्स टू बी ऑन देयर ओन..."। छोटे से ब्ल्यू टूथ स्पीकर में पूरे स्टीरियो इफ़ेक्ट्स के साथ बज रहा है गाना। यही गाना बजता रहेगा, कुछ बार रिपीट होकर, कई बार रिपीट होकर। आज यह बज रहा है, यह नहीं बजता तो कुछ दूसरे गाने बजते, इसी प्रकार लगातार। तब तक, जब तक कि कोई कॉल न आ जाए मोबाइल पर या फिर शुचि उसे बंद न कर दे। डॉ. शुचि भार्गव। बालकनी के दोनों सिरों के विस्तार के बीच जो कुछ भी है, वह किसी लैंड स्कैप की तरह बिखरा है और उसमें बहुत-सी ध्वनियाँ भी साउंड स्कैप के अतिरिक्त प्रभाव के साथ जुड़ रही हैं। मानों किसी क्लासिक मूवी का कोई उदास-सा स्थिर दृश्य रुका हुआ है। बालकनी के दोनों सिरों से लटक रही रंगून क्रीपर इस पूरे दृश्य में अपने लाल, गुलाबी और सफ़ेद फूलों से उदासी का तोड़ने का असफल प्रयास कर रही है। बल्कि उदासी को बढ़ा ही रही है। यदि आप समय के किसी विशेष फ्रेम में फँसे हों, तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप क्या हैं? आप उसी प्रभाव को बढ़ाते हैं जो उस फ्रेम का प्रभाव है।
डॉ. शुचि भार्गव शहर की प्रतिष्ठित गायनोकोलाज़िस्ट। शाम के इस ख़ास टुकड़े को अपनी तमाम व्यस्तता में से अपने लिए बचा कर रखा है। जब तक कोई इमरजेंसी केस न हो, तब तक इस समय को कहीं और बिताना पसंद नहीं शुचि को। समय बिताने का भी बस यही अंदाज़ है। यही बालकनी, यही लैंड स्कैप और यही कुर्सी। लैंड स्कैप में मौसम आते जाते रहते हैं, लेकिन चीज़ें मानों स्थिर हो गईं हैं। जड़ता जब अच्छी लगने लगे, तो उसको आदत बनने में समय नहीं लगता। इस पूरे उदास दृश्य को मोबाइल पर पहले गाने के बंद होने और उसके तुरंत बाद रिंग आने ने तोड़ दिया। डॉ. शुचि ने मोबाइल की स्क्रीन पर नज़र डाली, नंदा का खिलखिलाता हुआ फोटो चमक रहा था और मोबाइल में फीड किया गया उसका नाम डिस्प्ले हो रहा था "नंदू काका"। डॉ. शुचि के चेहरे के भाव कुछ बदले, मुस्कुराहट का कोई बहुत हल्का-सा हिस्सा होठों के किनारों पर तैरने लगा।
"हाँ बोल नंदू..." मोबाइल के कॉल को स्वाइप कर अटैंड करते हुए कहा डॉ. शुचि ने।
"बस वही डीडी सर की तबीयत का पूछने को कॉल किया था। दो-तीन दिन से कॉल नहीं किया था, तो सोचा आज तेरे प्रायवेट समय में तुझे पकड़ लूँ। कैसे हैं डीडी सर?" उधर से नंदा की खनखनाती हुई आवाज़ आई।
"अब कैसे होंगे इस उमर में? अस्सी पार की उमर वैसे भी ग्रेस पीरियड होता है, लेकिन अभी दो-तीन दिन से ठीक हैं।" कुछ सपाट से स्वर में उत्तर दिया शुचि ने।
"हम्म... तेरे लिए कभी-कभी बहुत दुःख होता है शुचि, ऐसा लगता है जैसे कोई बहुत ख़ूबसूरत कहानी बीच में ही अधूरी छूट गई हो, बिना किसी अंत के... ।" नंदा ने कुछ प्यार भरे स्वर में कहा।
"सारी कहानियाँ अपना अंत लेकर नहीं आती हैं नंदू, कुछ कहानियाँ अधूरी छूटने के लिए ही होती हैं। जिनका कोई अंत नहीं होता। कभी नहीं... वे अनंत तक, अनंत में भटकती हैं अंत की तलाश में।" शुचि के स्वर में दर्द घुल गया।
"ऐसा मत बोल डब्बे... यह तो तेरा अपना फ़ैसला था..." नंदा ने कुछ समझाइश भरे स्वर में कहा। दोनों कॉलेज की सहेलियाँ हैं। नंदा का नाम शुचि ने नंदू रखा हुआ था कॉलेज में और नंदा ने शुचि का डब्बा। बाद में नंदू का नंदू काका भी हो गया बतर्ज रामू काका। दोनों ने एक साथ एमबीबीएस किया और फिर एमडी भी साथ-साथ ही किया। अब अलग-अलग शहरों में दोनों गायनोकोलॉजिस्ट हैं। कॉलेज की मित्रता समय के बड़े अंतराल लगभग चौबीस-पच्चीस साल का अंतराल पाट कर अभी भी दोनों को जोड़े हुए है।
"हाँ नंदू, फ़ैसला तो मेरा ही था और मुझे उस पर कोई मलाल नहीं, जो किया ठीक किया। ख़ैर बता चिंकी कैसी है? कैसा चल रहा है उसका लिखना-पढ़ना?" शुचि ने भी विषय बदल दिया। चिंकी नंदा की बेटी का नाम है। चिंकी घर का नाम है, वैसे नाम पल्लवी है उसका। मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही है, मगर साथ में लिखने-पढ़ने का शौक़ भी ख़ूब है। इधर काफ़ी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियाँ प्रकाशित हो रही हैं और प्रशंसित भी।
"ठीक है, उसी के लिए ही आज तुझे फ़ोन किया था... मगर समझ नहीं आ रहा बात कहाँ से शुरू करूँ?" नंदू का स्वर कुछ उलझन भरा हुआ था।
"हमारे बीच यह समझ में नहीं आना कहाँ से आ गया नंदू? तू ही तो है जिसके सामने पूरी दुनिया खुली पड़ी है मेरी।" डपटने के अंदाज़ में कहा शुचि ने।
"नहीं वह बात नहीं है, बस यूँ ही ज़रा... अच्छा सुन... लेकिन पहले प्रॉमिस कर कि तू बिल्कुल अन्यथा नहीं लेगी बात को और हाँ मेरा प्रॉमिस पहले से है कि अगर तू मना करती है, तो मैं बिल्कुल रत्ती भर बुरा नहीं मानूँगी। सब कुछ पहले की तरह रहेगा।" नंदा ने उधर से कहा।
"इतनी भूमिका क्यों बाँध रही है नंदू... तू भी अगर फॉर्मेलिटी के चक्कर में पड़ेगी तो मेरे पास बचेगा ही कौन?" शुचि ने डपटा।
"नहीं पहले तू प्रॉमिस कर।" नंदा ने ज़िद के स्वर में कहा।
"अच्छा बाबा प्रॉमिस, अब बोल...?" शुचि ने उत्तर दिया।
"असल में... चिंकी को किसी कॉम्टीशन में एक उपन्यास लिखकर सबमिट करना है। बड़ा अवार्ड है। मुझसे दस-पन्द्रह दिन से कोई प्लॉट माँग रही है कहानी का... मेरे पास तो कुछ नहीं है, हाँ लेकिन तू।" बात को अधूरे में छोड़ दिया नंदा ने।
"इसमें इतना झिझकने की क्या बात है नंदू? तू सीधे-सीधे ऑर्डर दे सकती है मुझे, तेरे पास अधिकार है। लेकिन नंदू हम जो क्षितिज और पल्लवी को लेकर सोच रहे हैं।" शुचि ने भी बात को अधूरे में छोड़ दिया।
"क्षितिज और चिंकी के बारे में जो कुछ हम सोच रहे हैं, उसके लिए तो यह और भी ज़रूरी है। तू ऐसा नहीं सोचती क्या?" कुछ प्रेम के स्वर में कहा नंदा ने।
"हाँ... कह तो तू ठीक रही है। इतने बड़े झूठ पर कोई रिश्ता नहीं टिकाना चाहिए। जैसा तू कहे।" शुचि ने उत्तर दिया।
"ठीक है तो मैं संडे को भेजती हूँ चिंकी को तेरे पास। एक दिन में अगर काम हो गया तो ठीक, नहीं तो रुक जाएगी तेरे पास। अपनी कहानी तेरे लिए भी आसान नहीं होगा एक ही दिन में सुना देना। टेक योर ओन टाइम फार दैट... ओके?" नंदा ने निर्णय के स्वर में कहा और शुचि की ओर प्रश्न भी उछाला।
"ठीक है भेज दे, संडे तक मैं चीज़ों को रीकॉल भी कर लूँगी। अच्छा चल अब बंद करती हूँ, डीडी सर को खाना खिलाने का समय हो गया है। बाय।" शुचि ने उत्तर दिया और नंदा का बाय सुनकर कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया।
शाम गहरा चुकी है। शुचि ने साँस छोड़ी और कुर्सी से उठ खड़ी हुई। डीडी सर मतलब शुचि के पति डॉक्टर दीन दयाल भार्गव है, वे मशहूर हैं डीडी सर नाम से। अस्सी पार की उम्र के कारण अशक्त हो गए हैं। एक समय वे शहर के सबसे बड़े गायनोकोलॉजिस्ट थे। मेडिकल कॉलेज में अपने विभाग के हेड रहे, फिर रिटायर होकर अपना नर्सिंग होम खोला और अब जब वे अशक्त होकर घर पर हैं, तो नर्सिंग होम को उनकी पत्नी शुचि सँभाल रही है। पत्नी, जो कभी उनकी छात्रा भी रही है। पहली पत्नी का निधन शादी के आठ-दस साल बाद ही हो गया था, उसके बाद का लम्बा जीवन यूँ ही काटने के बाद जब अचानक उन्होंने अपनी ही छात्रा शुचि से पचास-पचपन की उम्र में शादी की, तो बहुत हंगामा हुआ था। शुचि की उम्र उस समय पच्चीस के आस-पास ही थी। इस विवाह से कोई भी खुश नहीं था। यह उस समय के हिसाब से बहुत ज़्यादा बोल्ड क़दम था। वह अस्सी-नब्बे के दशक का समाज था, जो परंपरा और प्रगतिशीलता के दोराहे पर खड़ा हुआ था। जिसकी आँखों में मुक्ति के जितने स्वप्न थे, मन पर बेड़ियाँ भी उतनी ही पड़ी हुई थीं। उसे स्वप्न से ज़्यादा बेड़ियों से प्रेम था। अब तो उस बात को बहुत समय बीत गया है। धीरे-धीरे समाज और समय दोनों ने इस रिश्ते को स्वीकार लिया है। शुचि और डीडी का एक बेटा है क्षितिज, जो डॉक्टरी पढ़ रहा है। नंदा की बेटी पल्लवी के साथ। एक ही कॉलेज से दोनों साथ-साथ एमबीबीएस कर रहे हैं फिलहाल। पल्लवी के ही शहर के कॉलेज से। क्षितिज हॉस्टल में रहता है वहाँ। पल्लवी और क्षितिज के बहाने अपने रिश्तों को और आगे ले जाने का सोच रही हैं नंदा और शुचि। बल्कि यह कहा जाए तो ज़्यादा ठीक होगा कि ये नहीं सोच रही हैं, बच्चों की ओर से ही इनको संकेत मिला है इस बारे में। यह आज के समय की प्रोफ़ेशनल सोच भी है कि बजाय धर्म, जाति, गौत्र मिलाने के यदि शादी से पहले बच्चों का प्रोफेशनल कॅरियर मिलाया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा।
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संडे को शुचि नर्सिंग होम तभी जाती है जब बुलावा आता है वहाँ से। घर से बहुत दूर भी नहीं है नर्सिंग होम, इमरजेंसी कॉल आने पर यदि पैदल भी निकले तो पाँच मिनट से भी कम समय लगेगा नर्सिंग होम पहुँचने में। संडे का दिन होता है बस अपने ही लिए। डीडी अभी इतने अशक्त नहीं हुए हैं कि सहारा देना पड़े। अपने सारे काम वे ख़ुद ही कर लेते हैं। हाँ यह ज़रूर है कि रहते कमरे में ही हैं। एक वायरलैस डोर बेल का पुश बटन उनके साथ ही रहता है। कोई भी ज़रूरत पड़ने पर उसे दबा देते हैं। घर में काम करने वाले लड़के को बुलाना है तो एक बार और अगर शुचि को बुलाना है तो दो बार। लड़का पूरे समय के लिए ही रखा हुआ है। रात को भी यहीं रहता है। शुचि को अक्सर रात को ही कॉल आता है नर्सिंग होम से, ऐसे में डीडी की देखभाल के लिए किसी का रहना ज़रूरी है। घर कुछ पुराने पैटर्न पर बना हुआ है। कुछ-कुछ फार्म हाउस की तरह। बड़ा-सा ड्राइंग रूम, उससे लगा हुआ बेडरूम और एक गेस्ट रूम। एक तरफ़ किचिन। बेडरूम के पास से ही सीढ़ियाँ गईं हैं जो ऊपर के कमरे में खुलती हैं। ऊपर बस यही एक कमरा है। पूरा मकान लाल कवेलुओं की छत से ढँका हुआ है। ऊपर के कमरे में एक बालकनी है जो सड़क की तरफ़ खुलती है। बालकनी को चारों तरफ़ से रंगून क्रीपर की लतर ने ढँका हुआ है। लाल-सफ़ेद-गुलाबी फूलों के गुच्छे बालकनी पर छाए हुए हैं। इस बालकनी में ही शुचि का ज़्यादा समय बीतता है। बालकनी से लगा हुआ ऊपर का कमरा शुचि का स्टडी, लिविंग और म्यूज़िक रूम है। सीढ़ी से लगभग जुड़ा हुआ ही नीचे का बेडरूम है जो डीडी का कमरा है।
घंटी की आवाज़ सुन कर जब शुचि दरवाज़ा खोलने बढ़ी तो अनुमान था ही कि पल्लवी ही होगी और अनुमान सही भी निकला। दरवाज़ा खोला तो सामने पल्लवी खड़ी थी। बड़े फूलों वाला टॉप और जींस पहने, पीठ पर बैग, आँखों पर हल्के आसमानी फ्रेम वाला चश्मा और होंठों पर मुस्कुराहट।
"हाय शुचि आंटी... " नज़रें मिलते ही पल्लवी ने आँखें फैलाते हुए उत्साह के साथ कहा। शुचि ने कोई उत्तर नहीं दिया बस अपनी बाँहें फैला दीं। पल्लवी आगे बढ़ कर शुचि से लिपट गई। कुछ देर तक दोनों उसी मुद्रा में रही। फिर शुचि ने पल्लवी के कंधे पर प्यार से थपकते हुए उसे अपने से अलग किया और अंदर चलने को कहा।
"हम्म ख़ुशबू तो अच्छी आ रही है आंटी, क्या बना है नाश्ते में?" घर में घुसते ही पल्लवी ने सूँघते हुए कहा।
"तू क्या जानती नहीं है कि क्या बना होगा?" शुचि ने झिड़की के अंदाज़ में कहा। "चल हाथ-मुँह धो ले, तेरे चक्कर में आज मैंने भी नाश्ता नहीं किया है सुबह से।"
"बस आंटी दो मिनट, अंकल से मिल आऊँ..." कहती हुई पल्लवी डीडी के कमरे की ओर बढ़ गई।
नाश्ते से फारिग होकर पल्लवी और शुचि दोनों बालकनी में आकर बैठ गए। धूप में इतनी तेज़ी तो आ ही गई है कि वह चुभने लगे। रंगून क्रीपर की लतर की छाँव में दोनों बैठी हुई हैं। खाना बनाने वाली बाई को शुचि ने दोपहर और रात दोनों समय के इन्स्ट्रक्शन दे दिए हैं। नहीं चाहती कि आज कोई डिस्टर्ब करे।
"क्षितिज को नहीं बताया कि तुम यहाँ आ रही हो?" शुचि ने ही बात शुरू की।
"नहीं आंटी, मुझे लगा कि यदि उसने भी आने की ज़िद की तो गड़बड़ हो जाएगी।" पल्लवी ने अपने बैग से नोटबुक और पैन निकालते हुए उत्तर दिया। शुचि चुप रही।
"आंटी... आपसे एक परमीशन लेनी है..." पल्लवी ने कुछ झिझकते हुए कहा।
"तुझे रिकार्ड करना है न सारी बातें?" शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा।
"आपको कैसे पता आंटी.।?" पल्लवी हैरत में पड़ गई।
"लेखकों के बारे में जानती हूँ मैं सब, कर ले रिकार्ड, लेकिन काम पूरा हो जाए तो डिलिट कर देना।" शुचि ने मुस्कुराते हुए ही कहा।
"ऑफकोर्स आंटी... थैंक्स..." कहते हुए पल्लवी अपने रिकार्डर को सैट करने लगी। "वैसे तो मोबाइल में ही रिकॉर्ड हो जाएगा, लेकिन बीच में कोई कॉल आ गया तो गड़बड़ हो जाएगी।"
"जी आंटी... " सब तैयार करने के बाद पल्लवी ने अपना अँगूठा हवा में उठाते हुए कहा।
"कहाँ से शुरू करूँ इस कहानी को?" कहते हुए शुचि कुछ देर के लिए चुप हो गई।
"तू तो जानती है कि नंदू और मैं, हम हमउम्र हैं। हम...जो साठ के दशक के बीच में पैदा हुए। नंदू और मैं एक ही साल में पैदा हुए हैं। पैंसठ में। मैं मार्च में पैदा हुई और वो... अगस्त में।" शुचि ने कुछ सोचते हुए कहा। अगस्त कहने के बाद स्वीकृति हेतु उसने पल्लवी की ओर देखा भी। पल्लवी ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
"कालेज से पहले की कहानी में तो तेरे लिए कुछ नहीं है। वही कहानी है जो किसी मध्यमवर्गीय लड़की की कहानी होती है। वही तमन्नाएँ, आरज़ूएँ, इच्छाएँ और उनके अधूरे रह जाने की वही कहानी। सफ़ेद घोड़े पर सवार राजकुमार, जो हर लड़की के बस सपनों में ही आता था, कभी सपनों से निकल कर बाहर नहीं आया। अच्छा किया तुम्हारी पीढ़ी ने कि उस राजकुमार को अपने सपनों में से ही गेटआउट कर दिया। उससे बड़ा धोखेबाज़ कोई दूसरा नहीं है। तेरे सपनों में तो नहीं आया होगा न?" कह कर मुस्कुराते हुए देखा शुचि ने पल्लवी की तरफ़। पल्लवी ने हाथ के इशारे और सिर को हिलाकर नकारात्मक उत्तर दिया।
"अच्छा किया। मेरे ख़याल से वह नब्बे के दशक तक पैदा हुई लड़कियों को ही बरगला पाया, उसके बाद तो उसका पत्ता तुम लड़कियों ने ही साफ़ कर दिया। अच्छा किया।" कह कर शुचि ने कुछ देर नीले-भूरे आसमान की ओर देखा, कुछ देर देखती रही और फिर एक लम्बी साँस लेकर छोड़ दी।
"कॉलेज में नंदू और हमारी पहचान हुई। हम दोनों उन्नीस-बीस की उमर में थे। नंदू और मेरे बीच लव एट फर्स्ट साइट वाला मामला ही हुआ। कॉलेज के शुरू के दिनों में ही हमारी दोस्ती ऐसी हुई कि अब तक चल रही है। टच वुड।" कहते हुए शुचि ने कुर्सी के लकड़ी के हत्थे को छू लिया।
"कॉलेज के दिन हमारे जीवन के सबसे सुनहरे दिन होते हैं, वह फिर कभी नहीं लौटते। इन दिनों को भरपूर जीना चाहिए। भरपूर। जिस गोल्डन टाइम की बात की जाती है न, वह यही दिन होते हैं। इसके बाद तो ज़िंदगी आपको दौड़ाने लगती है एक ऐसे मरुस्थल में जिसका कोई ओर-छोर नहीं होता, बस दौड़ते ही जाना होता है।" शुचि एक लम्बी बात कह कर कुछ देर को रुक गई।
"हमारा समय वह था जिसमें फ़िल्मों से आई रूमानियत भरी हुई थी। तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं, मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, नीला आसमाँ सो गया और ऐ दिले नादाँ हमारे हॉस्टल की लड़कियों के लिए क्या थे, यह बताना मुश्किल है। तब तो आज की तरह साधन नहीं थे। जो कुछ सुनना था रेडियो पर ही सुनना होता था या कैसेट प्लेयर पर। कैसेट जानती है न तू?" कह कर शुचि ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा पल्लवी की ओर।
"जानती हूँ... घर में पड़े हैं ढेर सारे... मम्मा उन्हें फेंकने तक नहीं देती। जब भी फेंकने को कहो तो इमोशनल हो जाती हैं, कहती हैं इतनी-सी जगह तो घेर रहे हैं, पड़ा रहने दे, मैंने और शुचि ने कहाँ-कहाँ से ढूँढ़ के कलेक्ट किए थे। एक दिन तो मम्मा मॉल से कैसेट प्लेयर भी ख़रीद लाईं ढूँढ़ कर। चलाने बैठीं तो एक भी कैसेट नहीं चला, सब जाम हो गए थे। दुखी हो गईं थीं उस दिन। मैंने कहा भी मम्मा सब तो डिजिटली मिल जाता है अब, बताओ कौन से गाने चाहिए मैं ला देती हूँ। तो कहने लगीं सब डिजिटल हो जाएगा तो बचेगा ही क्या जीवन में फिर?" पल्लवी ने कहा।
"सच कह रही थी नंदू, कहाँ-कहाँ से तो नहीं तलाशे थे हमने कैसेट। पता है उन दिनों छोटे-छोटे वॉकमैन प्लेयर होते थे जिनमें कैसेट लगाकर और हेडफोन कानों में लगाकर हम पढ़ाई करते थे। हेडफोन का एक स्पीकर मेरे कान में लगा होता था, दूसरा नंदू के। हमने उसे तोड़ दिया था बीच से। उफ़ हमारी दीवानगी। 'दिल पड़ोसी है' एल्बम जब आया था तो हमने दुकान के दस दिन तक चक्कर काटे थे और जब मिला तो अगले दस दिन तक बस वही बजता रहा... रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है।" गुनगुनाते हुए कहा शुचि ने।
"हाँ ये मम्मा आज भी फेवरेट साँग है। है भी सुंदर। मेरे मोबाइल में भी है। रात के सन्नाटे में खिड़की में बैठकर इसे सुनना... सचमुच... ग़ज़ब।" पल्लवी ने कहा। इतने में शुचि का मोबाइल वाइब्रेट कर उठा। उसने मोबाइल उठाकर देखा तो नर्सिंग होम से कॉल था। कॉल को अटेंड करके वह कुछ देर तक बात करती रही। मरीज़ों को लेकर सामान्य-से इन्स्ट्रक्शन्स। कुछ देर बात करने के बाद कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया।
"और एक दिन हमारे हाथ में ये अंग्रेज़ी एल्बम पड़ा 'अ ला कार्ट'। दुकानदार ने जब बताया कि यह लड़कियों का दुनिया का पहला म्यूज़िक बैंड है जो 1980 में इंग्लैंड में बना है और आज बहुत पॉपुलर हो रहा है। जब उसने हमें गाना सुनाया 'प्राइस ऑफ लव' तो हमें कुछ तो समझ पड़ा और कुछ नहीं पड़ा, लेकिन सुनने में अच्छा लगा। ख़रीद लाए बस। उसके बाद कई-कई दिनों तक 'प्राइस ऑफ लव' हमारे चार्ट में टॉप पर बजता रहा। रिपीट हो-होकर बजता रहा और मेरे चार्ट में तो आज भी वैसे ही बजता है।" शुचि ने बीच में छूट गई बात को फिर से जोड़ा।
"सेम का सेम मम्मा का भी है, उन्हें तो आज भी अगर एक गाना सुनना है तो बार-बार सुनना है। मैं कहती हूँ कि मम्मा अब तो गाना ख़ुद भी थक गया होगा बजते-बजते, लेकिन नहीं उनको तो जैसे सनक-सी चढ़ती है किसी एक गाने को सुनने की।" पल्लवी ने कुछ हँसते हुए कहा।
"कॉलेज के दिनों में जो लत लग जाए, वह उम्र भर नहीं जाती।" शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा "पता है हम जो इतने प्रेम के गाने दिन-दिन भर और रात-रात भर सुनते थे, हमारे जीवन में प्रेम-व्रेम जैसा कुछ नहीं था उस समय। हाँ बस इंतज़ार था। हर नए चेहरे को देखकर लगता कि बस यही है वो, फिर पता चलता कि एक-दो दिन में ही उस चेहरे की परतें उतर जातीं। उसके बाद हम ख़ूब हँसते... कि बाप रे... फँसते-फँसते बचे।"
"फँसते-फँसते...?" पल्लवी ने पूछा।
"और नहीं तो क्या? आज की तरह थोड़े ही था कि इधर ब्रेकअप उधर नई कहानी शुरू। हमारी पीढ़ी एक तो इमोशनल भी ज़्यादा थी और उस पर बंदिशें भी इतनी ज़्यादा थीं कि जीवन में एकाध बार ही प्रेम हो जाए तो बस वही सारे जीवन का सरमाया हो जाता था।" शुचि ने उत्तर दिया। "मैं, नंदू और बहुत-सी हमारे साथ की लड़कियाँ गाने सुन-सुनकर इंतज़ार करती थीं। करती रहती थीं।"
"एमेजिंग... सोच कर ही अजीब-सा लग रहा है आंटी।" पल्लवी ने कहा। इतने में खाना बनाने वाली बाई ट्रे में कॉफी के दो मग लिए आई और टेबल पर रख गई।
"थैंक्स सुनीता।" शुचि ने बाई को धन्यवाद कहा और अपने हिस्से का कॉफी का मग उठाकर अपने हाथ में ले लिया। पल्लवी ने दूसरा मग उठा लिया।
"और फिर हमारे जीवन में कुछ लोग और आ गए। मेरे जीवन में वसंत और नंदू के जीवन में... गेस हू?" शुचि ने शरारत से मुस्कुराते हुए पूछा।
"पापा..." कुछ अटकते हुए उत्तर दिया पल्लवी ने।
"हाँ सौरभ... ख़ुशक़िस्मत है नंदू कि जो उसके जीवन का पहला वसंत था, वही उसके जीवन में अभी तक भी ठहरा हुआ है। मेरे जीवन का वसंत तो..." कहते हुए बात का अधूरा ही छोड़ दिया शुचि ने। कुछ देर तक दोनों चुप रहे बस कॉफी के सिप लेने की आवाज़ें आती रहीं।
"वो सब ख़ुशक़िस्मत होते हैं, जिनके जीवन का वसंत ठहर जाता है। वरना तो। यह जो वसंत नाम है यह मेरा ही दिया हुआ नाम है। वैसे तो उसका कुछ और नाम है। लेकिन मुझे वसंत के मौसम से इतना प्रेम था कि मैंने अपने जीवन के उस पहले और आख़िरी प्रेम का नाम ही वसंत रख दिया था। बस मुझे, नंदू को, सौरभ को और वसंत को, हम चारों को पता था कि वसंत किसका नाम है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैंने वसंत नाम रख कर ही ग़लती की, वसंत भला कब किसके रोके से रुकता है?" शुचि ने कुछ उदास स्वर में कहा। पल्लवी ने कोई उत्तर नहीं दिया वह चुप रही।
"जब मैं स्कूल में पढ़ती थी तो मुझे हिन्दी पढ़ाने वाली कुसुम मैडम को जब भी मौक़ा मिलता था वह एक ही गाना गाती थीं 'रंगीला रे तेरे रंग में यूँ रँगा है मेरा मन...' और गाते-गाते जब वह 'मैंने तो सींची रे तेरी ये राहें, बाँहों में तेरी क्यों ओरों की बाँहें' वाली लाइन पर आती थीं तो उनका गला भर आता था। वह स्कूल में ही गणित पढ़ाने वाले सुनील सर से प्यार करती थीं। उनकी लव स्टोरी करीब दो साल चली फिर उन दिनों जो हर लव स्टोरी का होता था, उनका भी हुआ। सुनील सर की शादी हो गई। अब स्कूल में ही रोज़-रोज़ उन्हें सुनील सर को देखना पड़ता था, जो कभी उनके थे। स्कूल के दिनों में हम लड़कियाँ कुसुम मैडम को इसी रूप में जानती थीं कि वह हमारे सामने रोल मॉडल थीं। जिस प्यार के बारे में हमने फ़िल्मों में देखा था या कहानियों में सुना था, उसको साकार जीवन में पहली बार कुसुम मैडम के रूप में ही देखा। कुसुम मैडम और उनका 'रंगीला रे' गाना यह हमारी उस समय की फेंटेसी थी। हम सुनील सर को उनकी तरफ़ से बेपरवाह देखते, तो हम लड़कियों की इच्छा होती कि इनका मुँह नोंच लिया जाए। लेकिन बस इच्छा ही कर सकते थे उस समय तो।" शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा।
"वसंत मेरे जीवन में सचमुच वसंत बन कर ही आया था। मेरे जीवन के ठहरे हुए पानी में उसने हलचल पैदा कर दी थी। मेरे लिए समय अब बदल गया था। पता है चिंकी जब हम प्रेम में होते हैं न, तभी हमें ज़िंदगी ठीक-ठीक रूप से दिखाई देती है। प्रेम हमारी दृष्टि को विस्तार दे देता है। वह सब कुछ दिखाई देने लगता है जो अभी तक अनदेखा था, अनजाना था। मेरे लिए भी वह समय वैसा ही था। नंदू ज़रा इस मामले में अलग थी। वह पढ़ाकू टाइप की थी, मतलब वैसी भी पढ़ाकू नहीं थी, लेकिन ज़रा प्रेक्टिकल थी और मैं कुछ ज़्यादा इमोशनल।" शुचि ने अपनी बात पूरी की और हाथ में रखा कॉफी का कप टेबल पर रख दिया।
"ये गुलज़ार के गीतों से निकली हुई ज़िंदगी थी जो मेरी और नंदू की ज़िंदगी में आ मिली थी। जिसका इंतज़ार हम दोनों मानों युगों से कर रहे थे। उस समय आज की तरह इतना सब कुछ खुला हुआ नहीं था। बहुत छुप-छुपा के प्रेम के पौधे को पालना होता था। उस समय जैसे ही ज़िंदगी प्रेम के मौसम में पहुँचती थी वैसे ही सब कुछ अपने आप बदल जाता था। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि मिलना-मिलाना नहीं हो पा रहा है, बस यूँ ही कभी चलते-फिरते बातें हो रहीं हैं। मगर उतना ही बहुत हो जाता था जीने के लिए।" कह कर शुचि चुप हो गई। पल्लवी ने भी कुछ नहीं कहा वह बस देखती रही शुचि को। बालकनी के बाहर अप्रैल का प्रारंभ अपने संकेत दे रहा है। कोने में खड़े सेमल के पेड़ पर खिले लाल-चटक फूल अपनी पंखुरियों को समेटने लगे हैं। बालकनी से लग कर खड़े हुए एक आम के पेड़ में छोटी बड़ी कैरियाँ दिख रही हैं, पत्तों के बीच से शरमा कर झाँकती हुई। दूर सड़क के उस तरफ़ मैदान में खड़े पलाश के पेड़ों पर फूलों के बुझे हुए अंगारे दिख रहे हैं बस। कुछ दिनों पहले ये अंगारे सुर्ख़ और चमकदार थे।
"वसंत और मैं हम दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। समझते जा रहे थे। वसंत मुझसे एक क्लास सीनियर था। जबकि नंदू और सौरभ तो एक ही क्लास में थे। इसलिए वसंत और मुझे कोशिश करना पड़ती थी मिलने के लिए। मगर हमसे ज़्यादा कोशिश नंदू करती थी हमें मिलवाने के लिए। सारे ख़तरों से बचते-बचाते। उस समय जब हमारे जीवन में व्हाट्स-अप, फेसबुक, मेल, मोबाइल, कम्प्यूटर तो छोड़ो, फ़ोन तक नहीं था और उस पर आज की तरह का फ्री माहौल भी नहीं था। बहुत मुश्किल होती थी लेकिन फिर भी वे दिन हमारी ज़िंदगी के सबसे सुख से भरे दिन थे। प्रेम गुलमोहर की तरह हमारे जीवन में खिलखिला के खिल उठा था।" शुचि ने कहा।
"वाव... हाउ रोमांटिक... आंटी पता कैसे चलता है कि हम प्रेम के सबसे गहरे पलों में हैं अब...?" पल्लवी ने पूछा।
"जब दुनिया में कोई भी बुरा नहीं लगे। यहाँ तक कि बेजान चीज़ों से भी प्यार होने लगे। बिना शकर की कड़वी कॉफी जब मीठी लगने लगे। जब ढलती शाम में सूरज को अंतिम सिरे तक डूबते हुए देखना अच्छा लगने लगे। तो समझो कि प्रेम के गुलमोहर पर फ्लॉवरिंग का पीक समय चल रहा है।" कुछ हँसते हुए कहा शुचि ने। पल्लवी ने आँखों को कुछ फैला कर अपने भावों को व्यक्त किया। शुचि का मोबाइल एक बार फिर से बज उठा। नर्सिंग होम से ही कॉल था। शुचि बात करने लगी। पल्लवी उठ कर बालकनी के उस हिस्से के पास आ गई जहाँ आम के पेड़ की शाख़ें अंदर आने की कोशिश में लगी थीं। कुछ गिलहरियाँ इधर से उधर फुदक कर छोटी-छोटी कैरियों में अपने लिये कोई ठीक-ठाक खाने लायक कैरी तलाश रही थीं। पल्लवी को एकदम पास आया देखकर उनमें हलचल हुई। एक गिलहरी अपनी गोल-मटोल आँखों से कुछ देर तक आश्चर्य से पल्लवी को देखती रही, फिर फुदक के शाख़ से कूद कर दूसरे हिस्से में दौड़ती हुई चली गई। सड़क के किनारे खड़ा पीपल का बड़ा-सा पेड़ अपने सारे पत्ते गिरा कर अब उजाड़ खड़ा हुआ है। भूतहा-सा। पीपल पर जब तक पत्ते होते हैं, तब तक उसमें भूतहापन दिखाई नहीं देता लेकिन जैसे ही पतझड़ हुआ वैसे ही वह भूतहा हो जाता है। अजीब पेड़ है, जैसे-जैसे गर्मी के तेवर बढ़ेंगे, वैसे-वैसे कोमल पत्ते आना शुरू होंगे इस पर, जो गर्मी की प्रचंडता झेलते हुए ही बढ़ेंगे, हरियाएँगे। पल्लवी एकटक उस पीपल को और उसकी नंगी शाख़ों के बीच से नज़र आ रहे धूसर-नीले आसमान पर नज़र टिकाए जाने किस अज्ञात को देख रही थी।
"चिंकी! रिकॉर्डिंग बंद कर दे, कॉल आ गया है नर्सिंग होम से। मुझे जाना होगा। चल अब बाक़ी की बातें रात को होंगी। दो केस हैं, शायद शाम तक ही फ्री हो पाऊँगी।" शुचि की आवाज़ पर पल्लवी पलटी। पास आकर उसने टेबल पर रखा रिकॉर्डर की रिकार्डिंग बंद कर दी।
"मैं भी चलूँ आंटी? आपको असिस्ट कर दूँगी।" पल्लवी ने पूछा।
"तू...? मेरा काम तो सुबह के नाश्ते से चल जाता है, लंच की ज़रूरत नहीं पड़ती मुझे। पर तुझे तो भूख लगेगी और जो खाना बन रहा है उसका क्या?" शुचि ने कहा।
"भूख लगेगी तो आ जाऊँगी घर, वॉकिंग डिस्टेंस पर तो है।" कुछ ठुनकते हुए कहा पल्लवी ने।
"अच्छा चल।" हँसते हुए कहा शुचि ने। दोनों बालकनी से उठकर अंदर घर में चली गईं।
"वाव आंटी, आप तो सीज़ेरियन भी ऐसे करती हैं जैसे कविता लिख रही हों, हाउ पोएटिक इट वाज़...!" रात के खाने के बाद दोनों एक बार फिर से बालकनी में आकर बैठ गईं हैं। पल्लवी आज दोनों ऑपरेशन के दौरान शुचि के साथ ऑपरेशन थिएटर में ही रही। शुचि को असिस्ट करती रही।
"मैं आपको असिस्ट करना तो भूल ही गई थी आंटी, देखती रही कि आप कितनी तन्मयता के साथ और कितना कूल होकर काम करती हैं। आपको काम करते हुए देखकर ऐसा लग रहा था कि ऑपरेशन टेबल पर किसी भी केस में आप कभी असफल हो ही नहीं सकतीं, टच वुड।" पल्लवी ने आँखें फैलाकर प्रशंसा करते हुए कहा।
अप्रैल के शुरू के दिनों की यह रात है, इसलिए बहुत ज़्यादा गर्म नहीं है। रंगून क्रीपर की लतर में लदे हुए फूलों की बहुत हल्की-हल्की महक बालकनी में फैली हुई है। पूर्णिमा से कुछ पहले का चाँद आसमान में ठीक बीचों-बीच टँका हुआ है। चाँदनी आम के चिकने पत्तों पर से फिसलकर, कैरियों पर पीठ रगड़ती हुई बालकनी में बिना आवाज़ के आहिस्ता-आहिस्ता उतर कर बालकनी के फ़र्श पर लगे दूधिया सिरेमिक टाइल्स पर स्केटिंग कर रही है।
"इसके आगे की कहानी ज़रा जटिल भी है और मेरे लिए कठिन भी है, इस कहानी में से तुमको बस एसेंस ही लेना होगा। मैं नहीं चाहूँगी कि तुम पूरी कहानी को उसी प्रकार से उपयोग करो अपने उपन्यास में। वैसे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अब, फिर भी जीवन में कुछ चीज़ें ढँकी ही रहें तो अच्छा है।" शुचि ने रंगून क्रीपर के ठीक नीचे रखे हुए झूले पर बैठते हुए कहा।
"आंटी.। यह तो आपको सोचना ही नहीं चाहिए कि ऐसी कोई भी बात जो आपको डैमेज करे उसे मैं अपने लिए यूज़ करूँगी। मुझे अगर ऐसा लगता है कि एसेंस लेने में भी आपकी इमेज पर कोई भी असर पड़ेगा तो मैं तो उसे भी नहीं लूँगी। मेरे लिए आप इम्पोर्टेंट हैं, बाक़ी सारी चीज़ें सेकेंडरी हैं मेरे लिए।" पल्लवी ने कुछ मुलायम स्वर में कहा।
"सॉरी... मुझे ऐसा कहना ही नहीं चाहिए था। होता है... कभी-कभी समय और उम्र हमको थोड़ा इन्सिक्योर कर देते हैं। सॉरी बेटा। चलो अब चालू करो यह तुम्हारा रिकॉर्डर। आज तुमको पूरी कहानी सुनाई ही जाएगी, भले ही कितनी ही रात हो जाए।" शुचि ने उत्तर दिया। पल्लवी केवल मुस्करा के रह गई।
"क़रीब दो साल का साथ रहा वसंत का और मेरा। ऐसा लगता था कि अब यह दो साल जीवन में कभी ख़तम होंगे ही नहीं, बस चलते ही रहेंगे, चलते ही रहेंगे। अच्छे दिनों के बारे में हर कोई यही सोचता है कि काश यह दिन कभी ख़त्म ही नहीं हों। वसंत और मैंने इन दो सालों में आने वाले जीवन को लेकर कई सारी प्लानिंग कर ली थीं। वसंत को तो ख़ैर पीजी करना ही था लेकिन मेरे लिए एमबीबीएस हो जाए वही बहुत था।" शुचि ने कुछ गहरे स्वर में कहा। शुचि के चुप होते ही बालकनी में इधर-उधर दीवारों पर चिपके झींगुरों का संगीत गूँजने लगा।
"तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूँ मैं... यह गाना मेरा बहुत फेवरेट था लेकिन कुछ समझ नहीं आता था कि ये क्या बात है कि नाराज़ नहीं हूँ बस हैरान हूँ। अजीब-सी बात है। बहुत समझने की कोशिश करती थी लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ता था कि आख़िरकार इसका मतलब क्या है। जब बहुत ज़्यादा उत्सुकता बढ़ गई तो ज़िंदगी ने ख़ुद ही एक दिन समझाने की व्यवस्था कर दी कि ले अब अपने अनुभव से ही समझ ले।" शुचि की आवाज़ में हल्का-हल्का दर्द घुल गया था। आवाज़ थोड़ी-सी काँप भी रही थी।
"वसंत के बीतने का समय भी जीवन में आ गया था। वसंत मेरे जीवन के लिए एक बीता हुआ मौसम होने जा रहा था। सब कुछ इतनी अचानक हो गया कि कुछ भी सोचने का, समझने का मौक़ा ही नहीं मिला।" कह कर शुचि कुछ देर के लिए चुप हो गई। पल्लवी ने कुछ नहीं कहा, उसे समझ आ रहा था कि कहानी अपने सबसे संवेदनशील बिंदु पर पहुँच गई है। यहाँ पर कुछ भी पूछना ग़लत होगा।
"बहुत कुछ नहीं है मेरे पास उस अलगाव के बारे में बताने को। बस ये कि कोई दुनिया थी जो मेरे वसंत को खींच रही थी, खींच रही थी या खींच कर ले गई थी। मेरे पास बस कुछ शेष हो चुके पलों की स्मृतियाँ थीं। उस दुनिया में कोई नया साथी मिल रहा था वसंत को। वह दुनिया संभावनाओं से भरी हुई थी वसंत के लिए।" कह कर शुचि फिर कुछ क्षण के लिए चुप हो गई। पल्लवी का मन किया कि वह कह दे कि बाक़ी कहानी कल कह देना आंटी, लेकिन कभी-कभी कल बहुत लम्बा हो जाता है।
"जब भी अपने आप से पूछती हूँ कि क्या वसंत ने मुझे धोखा दिया, तो बहुत दृढ़ता के साथ इसी निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि हाँ दिया था। जानते, बूझते और सब कुछ समझते हुए धोखा दिया था।" शुचि ने कुछ गहरे स्वर में कहा। गर्मी की उदास और ठहरी हुई रात में इस आवाज़ के गहरेपन ने घुल कर अजीब-सा प्रभाव उत्पन्न कर दिया। पल्लवी ने उस प्रभाव को अपने अंदर महसूस किया। शुचि ने अपने मोबाइल की स्क्रीन को उँगली से स्वाइप किया और उसमें कुछ करने लगी। कुछ ही देर में बहुत ही धीमे स्वर में गाना बज उठा-तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं। इतने धीमे स्वर में कि बस मुश्किल से सुनाई ही दे।
"गाने से तुम्हारी रिकार्डिंग पर कोई असर नहीं पड़ेगा। बैक ग्राउंड म्यूज़िक मिल जाएगा कहानी को।" शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा "तूने इजाज़त फ़िल्म देखी है चिंकी?" एक अटपटा-सा प्रश्न किया शुचि ने। पल्लवी ने केवल सिर हिला कर हाँ में उत्तर दिया।
"उसमें माया है और सुधा है। मुझे लगता है कि यह दोनों नाम बहुत सोच-समझ कर रखे गए हैं। प्रेम सचमुच एक माया ही है और हर पुरुष इस माया से निकल कर अमृत की तलाश में जाना चाहता है। अमृत या सुधा की तलाश में। हमारा जीवन इसीका खेल है। आपको प्रेम चाहिए या अमृत। इस खेल की एक दिलचस्प बात यह है कि जब आप प्रेम को छोड़ कर अमृत की तलाश में निकल जाते हैं, माया को छोड़कर सुधा की खोज में निकल जाते हैं, तो प्रेम अधूरा रह जाता है, माया अधूरी रह जाती है। लेकिन यह अधूरापन ही प्रेम को अमर कर देता है। अधूरा प्रेम कभी नहीं मरता। बल्कि जो अधूरा है वही अमर है, जो पूरा हुआ वह तो मर जाता है। तो होता यह है कि अमृत की तलाश में निकलते समय हम अपने पीछे कुछ चीज़ों को अमर कर जाते हैं।" शुचि की आवाज़ दर्द में डूबी हुई थी।
"मैंने वसंत को बीतते देखा, रीतते देखा। अपने आप को ठगा हुआ-सा महसूस करते हुए। लेकिन मैं अपनी कुसुम मैडम की तरह पूरे जीवन-रंगीला रे या माया की तरह-मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, नहीं गाना चाहती थी। मैं अपने हिस्से के वसंत को अपने पास बाँध लेना चाहती थी। इस तरह कि वह कहीं भी रहे, किसीका भी रहे लेकिन मेरे पास रहे।" कह कर शुचि कुछ देर को चुप हो गई। मोबाइल पर अब दूसरा गाना बजना शुरू हो गया है-ख़ाली हाथ शाम आई है। रात धीरे-धीरे गहरा रही है।
"वसंत चाहता था कि हम बिना कोई सीन क्रिएट किए अलग हो जाएँ। तुमने आँधी देखी है? उसमें संजीव कुमार कहता है सुचित्रा सेन से कि कोई सीन क्रिएट मत करना अलग होते समय। वसंत भी वही चाहता था। वैसे भी हमारे बारे में कुल जमा चार लोगों को ही तो पता था। वसंत को डर था कि उसका अतीत उसकी महत्त्वकांक्षाओं के रास्ते में न आ जाए कहीं। उस समय लोग नैतिकता जैसी बातों के बारे में बहुत सोचते थे। वही नैतिकता, जिसको आजकल मूर्खता कहा जाता है।" कुछ हँसते हुए कहा शुचि ने।
"सुधा... मैं उसे इसी नाम से बुलाती हूँ, वैसे उसका भी कुछ और नाम है लेकिन इजाज़त में रेखा का नाम सुधा ही था। तो सुधा मेरे जीवन के वसंत को ले जा रही थी, सात समंदर पार। जहाँ वसंत के सपने जाने कब से उड़ना चाहते थे। सुधा उन सपनों के लिए सुनहरे पंख लेकर आई थी। पता है चिंकी...? जब रंग सुनहरा हो न तो हमें पता ही नहीं चलता कि ये पंख हैं या फिर ज़ंजीरें हैं। सुनहरा रंग छिपा लेता है सब कुछ। कई बार सुनहरी ज़ंजीरों को भी पंख की तरह पहनना अच्छा लगता है। वसंत ने वह ज़ंजीरें अपने लिए चुनी थीं।" शुचि की आवाज़ डूबती जा रही थी। कुछ देर के लिए फिर ख़ामोशी छा गई।
"मैंने कोई सीन क्रिएट नहीं किया। हो जाने दिया वसंत को सुधा का। उसके कंधे ख़ाली कर दिए जिससे वहाँ सुधा सुनहरे पंख लगा सके। वसंत और सुधा की शादी हो गई। शादी के बाद सुधा और वसंत मेडिकल की आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाने वाले थे। यह आगे की पढ़ाई ही वह सुनहरे पंख थे, जो सुधा के पिता वसंत के कंधे पर लगा रहे थे। हालाँकि वसंत के अपने पिता भी सक्षम थे उसको बाहर भेजने के लिए, लेकिन इन्सान हमेशा अतिरिक्त का सुख भोगना चाहता है, अतिरिक्त जो अर्जित से हटकर प्राप्त हो रहा हो।" शुचि ने कुछ व्यंग्य के स्वर में कहा। पल्लवी कुछ हैरत में थी कि अभी तक की कहानी में कहीं भी कुछ ऐसा नहीं है, जो उसके उपन्यास के लिए विषय बन सके। एक साधारण-सी मिलने-बिछड़ने वाली अस्सी-नब्बे के दशक की प्रेम कथा है, कौन पढ़ना चाहेगा इस उपन्यास को? क्यों भेजा है मम्मा ने उसे आंटी के पास?
"सब कुछ ठीक-ठाक हो गया था वसंत के हिसाब से। बस सात-आठ दिन रह गए थे वसंत को सुनहरे पंख लगा कर सात समंदर पार उड़ने में। तब बहुत ख़ामोशी से मैंने सीन नहीं क्रिएट करने की क़ीमत माँगी उससे। उसकी ज़िंदगी की एक शाम और एक रात अपने लिए।" कुछ ठहरे हुए स्वर में कहा शुचि ने। कुछ देर के लिए सन्नाटे में डूब गई बालकनी। बस धीमे स्वर में गाना बजता रहा-आज भी न आए आँसू, आज भी न भीगे नैना। पूरा अंतरा उसी सन्नाटे में गूँजता रहा। रात और गहरी हो चुकी है। ऐसा लग रहा है मानों पूरी कायनात गहरी नींद में डूब गई है। रात... हर तरफ़ बस रात है।
"वो हमारा समय था, जब प्रेम में बस छूना-छुआना हो जाए तो बहुत बड़ी बात हो जाती थी। उसके आगे की तो सोची भी नहीं जा सकती थी। वसंत और मैंने पिछले दो-तीन सालों में एक-दूसरे को ठीक से स्पर्श भी नहीं किया होगा शायद और अब मैं..." कहते हुए शुचि कुछ देर को रुक गई। मानों आगे की बात को कहने का हौसला जुटा रही हो "अब मैं सब कुछ चाहती थी... सब कुछ... वसंत के साथ वह शाम और रात बिता कर जीवन भर के लिए कुछ बटोरना चाहती थी।" शुचि ने हिम्मत जुटा कर बात को पूरा किया। -रात की सियाही कोई आए तो मिटाए ना..., अब कुछ देर के लिए गाने की आवाज़ थी बस। काफ़ी देर के लिए शुचि ने ख़ामोशी पहन ली। मोबाइल पर बजता गाना भी ख़त्म हो गया।
"वसंत को मैंने कोई च्वाइस नहीं दी थी, बस चाहिए तो चाहिए। उस समय मैं..." कह कर फिर शुचि कुछ पल को रुकी "उस समय मैं वसंत को लेकर एक साथ दो भावों में थी। प्रेम करती थी, दो तीन सालों का प्रेम था उसका मेरा और... और शायद नफ़रत या ग़ुस्से जैसा भी था उसको लेकर मेरे मन में। इसलिए कोई च्वाइस नहीं दी थी उसे मैंने। जो मुझे चाहिए वह सीन नहीं क्रिएट करने की क़ीमत है। वह क़ीमत कहाँ देना है, कैसे देना है, वह भी मुझे नहीं मालूम, वह वसंत का सिर दर्द था। मुझे बस यह मालूम था कि वसंत जो आगे की ज़िंदगी सात समंदर पार शुरू करने जा रहा था, उस ज़िंदगी में सब कुछ मेरे सीन नहीं क्रिएट करने से ही स्मूथ रहने वाला था। मुझे मालूम था कि वसंत की मजबूरी है मुझे मेरी क़ीमत देना।" शुचि ने ठहर-ठहर कर बात पूरी की। मोबाइल पर अगला गाना बज रहा था-पल भर में ये क्या हो गया, वह मैं गई वह मन गया।
"मुझे मेरी क़ीमत देने की व्यवस्था वसंत ने ही की थी। अपने किसी दोस्त के घर। सुधा लंदन जाने के लिए पैकिंग वगैरह करने मायके गई हुई थी। वसंत के दोस्त के घर पर और कोई नहीं था, सब कहीं बाहर गए हुए थे और हमने एक शाम और रात यहाँ बिताई।" शुचि ने ठंडे स्वर में कहा
"यहाँ...?" पल्लवी ने कुछ आश्चर्य के स्वर में पूछा।
"हाँ यहीं... वसंत के दोस्त के पिताजी तब यहाँ किसी बैंक में पोस्टेड थे। इस घर में किराए से रहते थे। अब यह मकान हमारा कैसे है, यह कहानी बाद में। बस ये कि इसी मकान में, इसी बालकनी में और इससे लगे हुए इस ऊपर के कमरे में ही।" शुचि ने बात को अधूरा छोड़ दिया पल्लवी के समझने हेतु। -आई बहारें सिमट कर, कहने लगीं वह लिपट कर... शुचि के चुप होते ही गाने के शब्द गूँजने लगे। कुछ देर तक शुचि चुप रही फिर उसने हाथ बढ़ा कर अपने मोबाइल को उठाया और उसमें बज रहे गाने को बंद कर दिया। गाने के बंद होते ही रात की ख़ामोशी और अधिक गहरा गई।
"इसी बालकनी के पार मैंने उस दिन शाम को गहरा कर रात बनते हुए देखा था। वह भी ऐसी ही रात थी। ऐसी ही मतलब अप्रैल के शुरूआत के दिनों की रात थी। सब कुछ ऐसा ही था। बाहर कुछ पेड़ों पर पतझड़ था, तो कुछ पर वसंत के बीत जाने के निशान थे। वह अप्रैल के भूरे और उदास दिन की शाम थी। यह जो पीपल सड़क के किनारे खड़ा है न, ये उस शाम भी ऐसा ही था। पूरे पत्ते झड़ने के बाद निर्वसन खड़ा था। अप्रैल। क्यों आता है ये अप्रैल...? अप्रैल की उसी सूनी और उदास शाम में बस मैं और वसंत हम दोनों थे और मेरे कैसेट प्लेयर पर लगातार बजते हुए गाने थे। आधे समय तो एक ही गाना बजता रहा, जिसे मैंने कैसेट में लगातार रिकार्ड किया हुआ था। वही अ ला कार्ट का गीत प्राइस ऑफ लव। नो वन वाण्ट्स टू बी लेफ़्ट अलोन, नो वन वाण्ट्स टू बी ऑन देयर ओन, बट आई डोण्ट वाण्ट टू बी सेकंड स्ट्रिंग, नेवर नोइंग वाट टुमारो विल ब्रिंग," शुचि ने गाने को कुछ मद्धम स्वर में गुनगुनाया "गाना बजता रहा और शाम गुज़र कर रात में बदलती रही। मैं और वसंत वहाँ अंदर कमरे में थे और यहाँ इसी बालकनी के इस कैनवस पर उस शाम सूरज वहाँ दूर क्षितिज डूबता रहा।"
"वसंत के कंधे के एक बालिश्त नीचे पीठ के दाँए हिस्से पर एक बड़ा-सा तिल था, ये उसके जिस्म पर सबसे बड़ा तिल था। इतना बड़ा कि उस पर उँगली फिराओ तो महसूस होता था। गहराती रात के अँधेरे में मेरी उँगलियों ने आते-जाते कई बार उस तिल को महसूस किया। रुक कर, ठहर कर। मेरी उँगलियाँ प्राइस ऑफ लव की धुन पर थिरकती रहीं और महसूसती रहीं वसंत के बदन के एक-एक तिल को-आई वंडर व्हाय इट सीम्स सो स्ट्रेंज, थाट इट वुड नेवर चेंज, आई कुड-सी दैट आई वाज़ लूज़िंग यू, एंड आई डिडन्ट नो व्हाट टू डू... प्राइस ऑफ लव... द प्राइस ऑफ लव।" शुचि ने बात को फिर गाने की पंक्तियाँ गुनगुना कर किया।
"वसंत के घुँघराले बालों के छल्लों में मेरी उँगलियाँ उतरती रहीं, डूबती रहीं, भटकती रहीं। होंठों के दो जोड़ी आवारा पैर जिस्म की पगडंडियों पर भटकते रहे, जाने क्या तलाश करते हुए, या शायद बिना किसी तलाश में यूँ ही बस... हर यात्रा किसी उद्देश्य से ही की जाए ऐसा ज़रूरी तो नहीं। कुछ यात्राएँ जीवन में निरुद्देश्य भी करनी चाहिएँ। तो बस वही किया मैंने भी। यह जो रंगून क्रीपर है न, इसके फूलों की ख़ुश्बू गर्मियों की रातों में बहुत ध्यान से महसूसनी होती है, इतनी भीनी होती है कि ज़रा ध्यान और कहीं गया आपका तो आपको यह ख़ुश्बू महसूस ही नहीं होगी। लेकिन उस रात रंगून क्रीपर की ख़ुश्बू को महसूसना नहीं पड़ रहा था, वह पूरे कमरे में फैली हुई थी। उसी ख़ुश्बू ने उँगली थाम कर मुझे बहुत छोटे-छोटे तिल भी गिनवाए जो वसंत के शरीर पर थे। वह एक तिल भी जो वसंत की दाँई आँख के ठीक नीचे था। 'रंगून क्रीपर' और 'प्राइस ऑफ लव' , ये दोनों उस दिन साथ नहीं देते तो शायद..." शुचि ने बात को बीच में ही छोड़ दिया और एक बार फिर 'प्राइस ऑफ लव' की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगी "नेवर वांटेड टू टेल यू व्हाय, वी मस्ट से गुड बाय, बट आई गाट टू बी माय सेल्फ अगैन, बिकाज़ आई नो अवर लव विल नेवर बी द सेम..." गुनगुना कर शुचि कुछ देर को ख़ामोश हो गई। पल्लवी कुछ असहज महसूस कर रही थी शुचि के चुप होते ही। शुचि उसके लिए माँ के समान ही है और अब कहानी जिस मोड़ पर आई है वहाँ असहजता होना स्वाभाविक है।
"एक रात में कई यात्राएँ कीं हमने, हम दोनों ने। हर यात्रा के ख़त्म होते ही मैंने वसंत के शरीर के पसीने की महक में सुधा की ख़ुश्बू को महसूस किया। वह महक मुझे बता देती थी कि मैं अन्य पुरुष के साथ हूँ। इससे पहले वसंत के शरीर की जिस महक को मैंने दूर से ही महसूस किया था, यह वह महक नहीं थी। यह कोई दूसरी महक थी। यह वसंत की ख़ुश्बू नहीं थी। शादी के बाद पुरुष का शरीर दूसरी तरह से महकता है। ये महक अन्य स्त्री को सबसे ज़्यादा परेशान करती है। वसंत के शरीर में भी अब सुधा महक रही थी। कितना अजीब लगता है यह महसूस करके कि वह जो तुम्हारा था, वह अब किसी दूसरी ख़ुश्बू में रच-बस गया है।" कुछ दर्द भरे स्वर में कहा शुचि ने।
"वह ख़ुश्बू मेरे अंदर एक अजीब-सा कुछ पैदा कर रही थी। वसंत के प्रति ग़ुस्सा था या कुछ और था वो, लेकिन हाँ वह उस प्यार के ठीक उलट था जो वसंत के प्रति मेरे मन में अब तक था। वास्तव में मैं वसंत के रूप में सुधा से नफ़रत कर रही थी। वसंत के शरीर में बसी उसकी महक से नफ़रत कर रही थी। अलविदा के ठीक पहले की पीड़ा, दर्द से उपजी थी वह नफ़रत या। प्रेम हमेशा एक-सा नहीं होता, वह एक-सा हो भी नहीं सकता। -सो गुडबाय माय लव डोंट वेट फार मी, देयर इज़ नथिंग मोर टू से, ईवन नाउ इट्स टू लेट फार मी, बिकाज़ माय हर्ट इज़ ऑलरेडी फार अवे..." प्राइस ऑफ लव की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए शुचि ने बात को समाप्त किया और उसके बाद एक लम्बी ख़ामोशी दोनों के बीच फैल गई। एक गहरी और ठहरी हुई ख़ामोशी। शुचि ने कुर्सी की पुश्त से सिर टिका दिया और एक लम्बी साँस छोड़कर आँखों को बंद कर लिया। पल्लवी समझ गई थी कि यह उस बीते हुए का नैराश्य है जो आज फिर से छा गया है। उसने कुछ भी कहना ठीक नहीं समझा। रात बहुत ज़्यादा गहरा गई थी। चारों ओर ख़ामोशी फैल गई थी। कुछ देर पहले तक जो इक्का-दुक्का गाड़ियाँ आ-जा रही थीं, अब वह भी सड़क पर नहीं थीं। एक अजीब-सा सन्नाटा चारों तरफ़ पसर गया है, रात का बोझिल सन्नाटा।
"आंटी.। आपका मन ठीक नहीं है तो अब रहने दीजिए, वैसे भी रात बहुत हो गई है।" कहते हुए पल्लवी ने रिकॉर्डर बंद कर दिया।
"हाँ... अरे सच में रात तो बहुत हो गई है, बात करते हुए पता ही नहीं चला... लेकिन अब बहुत थोड़ी ही बची है कहानी, पूरी कर ही लेते हैं। डॉक्टरी पेशे में कुछ भरोसा नहीं है कि कब इमरजेंसी आ जाए और उस पर गायनोकोलॉजिस्ट के लिए तो और भी मुश्किल है समय निकालना। आज समय निकला है तो कहानी पूरी कर लेते हैं। तुझे नींद आ रही हो तो अलग बात है।" शुचि ने एक बार फिर से सहज होकर बैठते हुए कहा।
"नहीं आंटी मुझे तो आदत है जागने की। मम्मा कहती हैं कि मैंने भूख और नींद दोनों को बस में करके रखा है।" कुछ हँसते हुए कहा पल्लवी ने और रिकॉर्डर फिर से चालू कर दिया।
"डॉक्टर को इन दोनों को बस में रखना ही चाहिए। हमारी ड्यूटी इनसे ऊपर उठकर है।" शुचि ने मुस्कुराते हुए कहा। पल्लवी बस मुस्कुरा कर रह गई।
"फिर वसंत चला गया... शायद हमेशा के लिए... सात समंदर पार... जो उसका सपना था। जब दो लोगों के सपने एक दूसरे के ठीक विपरीत हों तो ज़ाहिर-सी बात है कि किसी एक को तो अधूरा छूटना ही पड़ेगा। यह जो अलगाव होता है न चिंकी, यह वास्तव में सपनों की ही टकराहट का परिणाम होता है। विपरीत दिशाएँ हमेशा टकराहट पैदा करती हैं। प्रेम और सपनों का यह द्वंद्व जाने कब से चल रहा है... जाने कब से और अक्सर प्रेम और सपनों के इस द्वंद्व में जीत सपनों की ही होती है, प्रेम हमेशा से हारता ही आ रहा है।" शुचि ने कुछ ठंडे स्वर में कहा।
"उसके जाने के बाद उसके प्रति मेरे मन में क्रोध या नफ़रत, वह जो कुछ भी था वह और गहरा हो गया था। बहुत गहरा प्रेम भी था और बहुत गहरी नफ़रत भी। एक प्रकार का साम्य स्थापित हो गया था मेरे अंदर। मेरे अंदर वह रात, बहुत अधूरापन छोड़ गई थी। अगर वह रात न होती तो शायद वसंत के प्रति मेरे मन में कुछ नहीं बचता, समय के साथ प्रेम भी समाप्त हो जाता। लेकिन..." शुचि ने कुछ उदास स्वर में कहा।
"और फिर मुझे पता चला कि..." शुचि कुछ देर को चुप हो गई "तुम बहुत अच्छी लड़की हो चिंकी, क्षितिज के जीवन में अगर तुम आती हो, तो यह उसकी ख़ुशक़िस्मती होगी। लेकिन आगे की कहानी सुनने के बाद यदि ऐसा नहीं होता है, तुम कुछ और निर्णय लेती हो, तो भी मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी। इसलिए कोई भी निर्णय बिना दुविधा के ले लेना। मेरा अतीत तुम्हारे भविष्य की राह रोके, यह मैं कभी नहीं चाहूँगी।" कुछ देर की चुप्पी के बाद कहा शुचि ने।
"ऐसा क्यों कह रही हैं आंटी? आपका जो भी अतीत रहा हो, उससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मेरे लिए तो जो कुछ आज आप हैं वही इम्पोर्टेंट हैं। आपको आगे की कहानी नहीं सुनानी हो तो मत सुनाइए। मैं आपको परेशान नहीं करना चाहती। कुछ भी ऐसा नहीं जो आपको असहज कर दे।" पल्लवी ने कुछ मीठे स्वर में कहा।
"नहीं... कहानी तो सुनाऊँगी... किसी भी कहानी को अनसुना नहीं रहना चाहिए, नहीं तो वह श्रापित होकर भटकती रहती है सदियों-सदियों तक... इसके आगे को बहुत-सा सच ऐसा है जो तेरी मम्मा को भी नहीं पता है। इसलिए तुझे तो सुनाऊँगी ही।" शुचि ने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा।
"हाँ... तो मुझे पता चला कि मेरे अंदर वसंत साँसें ले रहा है। अप्रैल की वह रात मेरे अंदर वसंत बो गई है।" शुचि का स्वर ठहरा हुआ था "पता है चिंकी, हम संतानों के रूप में अपने प्रेम का एक्स्टेंशन तलाशते हैं। हमें पता होता है कि हम अंततः समाप्त हो जाएँगे, ख़त्म हो जाएँगे। हम अपने पीछे अपने प्रेम के निशान छोड़ना चाहते हैं। हम निशानियाँ छोड़ना चाहते हैं। स्थूल निशानियाँ... वही अमरता पाने की चाह में। कितने मूर्ख हैं हम, हम नहीं जानते कि जब प्रेम पूरा हो जाता है तो स्थूल निशानियाँ छोड़ता है, जो समय के साथ मिट जाती हैं और जब प्रेम पूरा नहीं हो पाता है तो वायवीय कहानियाँ छोड़ता है, जो कभी मिट नहीं पातीं। निशानियाँ समय के साथ फीकी पड़ने लगती हैं जबकि कहानियाँ समय के साथ और भी ज़्यादा गहरी होती जाती हैं।" शुचि ने लम्बी बात समाप्त की।
"जब वसंत ने मेरे अंदर साँसें लेने का एहसास करवाया, तो वसंत के प्रति मन में प्रेम और नफ़रत एक साथ बढ़े। लेकिन फिलहाल तो समस्या जीवन की थी। ये तुम लोगों का आज का बोल्ड और ब्यूटिफुल समय तो था नहीं कि बिना शादी के माँ बन जाने को समाज स्वीकार कर ले... इसलिए समस्या तो थी सामने। हॉस्टल में रहती थी, इसलिए कुछ दिनों तक तो समस्या नहीं थी, लेकिन कब तक? आख़िर को बात तो खुलनी थी।" शुचि ने सधे हुए लहजे में कहा। रात बहुत ज़्यादा हो चुकी है, शुचि जैसे ही बोलना बंद करती है वैसे ही बालकनी में रात की ख़ामोशी आकर पसर जाती है। गहरी और ठहरी ख़ामोशी।
"जब वंसत के अंकुर के अंदर फूटने का पता चला तो बहुत तनाव हो गया था। बहुत सारी बातें एक साथ हो रही थीं। इस अंकुर को बचाना भी चाहती थी वसंत के प्रेम के रूप में और बचाने की कोई सूरत नज़र भी नहीं आती थी।" शुचि की आवाज़ में उदासी अभी भी घुली हुई है। पल्लवी को कहानी में आगे आने वाले मोड़ का कुछ-कुछ एहसास हो रहा है। इसके बाद जो कुछ हुआ होगा उसकी वह कल्पना यहाँ तक की कहानी को सुनने के बाद कर पा रही है।
"कुछ बातें मैं अभी छोड़ती हुई चल रही हूँ कहानी में, बाद में सारी बातें स्पष्ट कर दूँगी।" शुचि ने पल्लवी की आँखों में देखते हुए कहा "डीडी सर हमारे प्रोफ़ेसर थे गायनोकोलॉजी के। जैसे ही मुझे यह कन्फ़र्म हुआ कि मेरे अंदर कोई साँसें ले रहा है, वैसे ही मैंने डीडी सर से मिलकर उनको सब कुछ बता दिया। सिवाय इसके कि यह अंकुर किसका दिया हुआ है। डीडी सर को ही क्यों बताया? ये कहानी बाद में। बस ये कि बहुत हिम्मत करके उनको बता दिया और यह भी कि मैं इसे जन्म देना चाहती हूँ। डीडी सर पहले तो एकदम शॉक्ड रह गए थे सुनकर। फिर मुझे समझाने की कोशिश करते रहे। वही सब बातें जो ऐसे समय में कही जाती हैं, समझाई जाती हैं। उनका कहना था कि अभी तो बस कुछ ही दिन हुए हैं, बहुत आसानी ने सब कुछ ख़त्म हो सकता है, किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा। लेकिन मैं कुछ सुनने को तैयार ही कहाँ थी। मैं पहले से ही एक निर्णय ले चुकी थी। वह निर्णय जो वसंत के साथ वह रात बिताने के भी पहले ले चुकी थी मैं।" शुचि ने सधे हुए स्वर में कहा। पल्लवी अब और असहज महसूस कर रही है अपने आपको। इस प्रकार की कहानी किसी बहुत अपने से सुनना, वह भी किसी बड़े से सुनना।
"मैं क्षितिज को जन्म भी देना चाहती थी और जीना भी चाहती थी। दोनों बातें एक साथ होना बहुत मुश्किल काम था उस समय। बहुत कन्ज़र्वेटिव समय था वो। डीडी सर भी यही समझा रहे थे मुझे। बिना पिता के बच्चे की परवरिश कितनी मुश्किल होगी, सारी ऊँच-नीच मुझे समझाते रहे। लेकिन मैं भी अपनी ज़िद पर अड़ी थी। मैं दो बातों पर अड़ी थी या तो इस बच्चे को जन्म दूँगी या इसके साथ ख़ुद को भी ख़त्म कर लूँगी। जीवित रहेंगे तो हम दोनों और नहीं रहेंगे तो भी हम दोनों ही। यह बच्चा मेरा प्रतिशोध है... यह ख़त्म हो गया तो बचेगा ही क्या मेरे जीवन में?" शुचि की आवाज़ काँप रही थी। कुछ देर के लिए वह फिर ख़ामोश हो गई।
"और अंत में... मैंने अपना निर्णय डीडी सर को सुना दिया कि मैं स्वयं को समाप्त कर लूँगी, इस बच्चे के साथ।" शुचि की आवाज़ में अभी भी कंपन है "यह मेरा अंतिम निर्णय था। डीडी सर सुन कर एकदम उखड़ गए, आग-बबूला हो गए थे। तब..." शुचि कुछ देर को चुप हुई "तब मैंने कहा कि यदि बिना पिता के यदि बच्चे को जन्म नहीं दिया जा सकता, तो इसे पिता का नाम दीजिए।" शुचि ने ठहर-ठहर के बात को पूरा किया।
"वे सुनकर और उखड़ गए थे। अपनी और मेरी उम्र, समाज की मर्यादा जाने किस-किस बात पर लैक्चर देते रहे। मैं सुनती रही। जब वे बात को पूरा कर चुके तो मैंने फिर अपनी बात दोहरा दी। कहा कि आप अकेले हैं, दोनों बच्चे सेटल हो चुके हैं, पत्नी बरसों पहले गुज़र चुकी हैं, साथी की आवश्यकता तो आपको भी है। अभी भले ही नहीं महसूस हो रही हो, लेकिन जो उम्र का पड़ाव अब सामने है उसमें तो पड़ेगी ही और मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहती, न तन, न मन, न धन, बस ये कि यदि समाज में बिना पिता के बच्चे को नहीं पाला जा सकता, तो आप बस वह नाम दीजिए और कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। मैं आपके घर में किसी पेइंग गेस्ट की तरह उम्र काट लूँगी। आपको कभी कोई परेशानी नहीं होगी मेरे कारण। उम्र का वह अंतिम पड़ाव जब आपको किसी सहयोगी की आवश्यकता होगी, तब मैं आपके साथ खड़ी रहूँगी।" शुचि मानों अतीत के किसी पल में खड़े होकर कहानी सुना रही थी "उस दिन बात को वहीं छोड़ कर मैं वापस आ गई। अगले दिन फिर मैं उनके सामने बैठी थी अपने सवाल लेकर। शायद उन्होंने भी रात भर सोच-विचार किया था इस पूरे घटनाक्रम पर। उनका रुख कुछ नरम था। इस बार उन्होंने कुछ नरम लहजे में मुझे समझाने की कोशिश की। उनकी नरमी में मुझे संभावना नज़र आ गई और बस मैं एक ही ज़िद पर अड़ गई कि या तो मुझे अपने घर में जगह दीजिए या फिर मुझे आत्महत्या करने से मत रोकिए।"
"तीसरे दिन जब उनकी स्वीकृति मुझे मिली तो मैंने बस दो शर्तें रखीं, पहली कि आप कभी बच्चे के पिता का नाम जानने की कोशिश नहीं करेंगे और दूसरी यह कि शादी पहले होगी गोपनीय तरीक़े से, उसके बाद आप सबको बताएँगे। पहले किसी से पूछेंगे भी नहीं, अपने बच्चों से भी नहीं। मुझे मालूम था कि यदि पूछा गया तो स्वीकृति मिलने की गुंजाइश है ही नहीं।" शुचि ने आँखें बंद किये-किये ही कहा। कहानी का अंत जैसे-जैसे पास आ रहा था पल्लवी के लिए कहानी एक प्लेन और सपाट कहानी होती जा रही थी, जिसमें कहीं कोई गुंजाइश उसे दिखाई नहीं दे रही थी। इस तरह की कई कहानियाँ आ चुकी हैं और फ़िल्में भी। बीस-पच्चीस साल पहले यह कहानी बहुत बोल्ड हो सकती थी, आज नहीं। आज तो समय बहुत आगे निकल चुका है।
"और आख़िर में डीडी सर मान गए। मेरी सारी शर्तों पर मान गए। हमने शादी कर ली, मैं मिसेज़ शुचि भार्गव बन कर उनके घर में आ गई। बहुत हंगामा हुआ, बहुत लानत-मलानत हुईं, दोनों के परिवार वालों ने जम कर विरोध किया इस सबका, लेकिन जो कुछ होना था वह तो हो चुका था। मुझे पता था यह सब होगा, इसीलिए तो गोपनीय तरीके से यह सब करने की शर्त रखी थी।" शुचि ने कहानी के छूटे हुए सिरे को फिर से पकड़ लिया "फिर धीरे-धीरे सब कुछ शांत हो गया। मैंने क्षितिज को जन्म दिया, जो दुनिया वालों की नज़र में मेरा और डीडी सर का बेटा है। यह राज़ बस मैं और डीडी सर ही जानते हैं कि क्षितिज उनका और मेरा बेटा नहीं है। अब तू तीसरी है जो इस राज़ को जानती है। तेरे लिए इस राज़ को जानना बहुत ज़रूरी था, तू क्षितिज के साथ एक रिश्ते में बँधने वाली है, तेरे लिए तो यह जानना बहुत ज़रूरी है। बस एक बात याद रखना कि यह राज़ किसीको मत बताना, क्षितिज को भी नहीं।" शुचि ने मीठे स्वर में कहा पल्लवी ने केवल सिर हिला कर अपनी स्वीकृति दी।
"मैं डीडी सर के साथ हमेशा मेहमान की ही तरह रही और उन्होंने इस मेहमान का पूरा ख़याल भी रखा। मुझे उन्होंने पीजी करवाया गायनोकोलॉजी में। जीवन भर मेरा मान रखा, मुझे सम्बल दिया, सहारा दिया। कभी भी उस एक कमज़ोर बिंदु को नहीं छुआ जो मेरे अतीत से जुड़ा था।" शुचि की आवाज़ में कृतज्ञता भरी हुई थी "बाद में जब मुझे पता चला कि यह मकान बिक रहा है, तो मैंने डीडी सर पर दबाव डाल कर उनको यह मकान ख़रीदवा दिया, वे रिटायर भी होने वाले थे और अभी तक का जीवन कॉलेज के कैंपस में रहते हुए ही काटा था उन्होंने। रिटायर होने के बाद अपने मकान की ज़रूरत तो पड़नी ही थी। यह मकान ख़रीद लिया और रिटायरमेंट से दो-तीन साल पहले ही यहाँ रहने आ गए थे हम लोग। फिर उनके रिटायरमेंट के बाद नर्सिंग होम के लिए दूसरा मकान भी ख़रीदा और बस जीवन तब से ऐसे ही चल रहा है।" शुचि ने बात को समाप्त किया। पल्लवी कुछ उलझन में थी।
"आंटी क्या बस यही कहानी है? आपने कहा था कि बहुत-सी बातें आप छोड़ती हुई चल रही हैं, क्या वह सब भी बता दी हैं आपने?" कुछ झिझकते हुए पूछा पल्लवी ने।
"क्यों? ये कहानी कुछ सपाट हो रही है न? तुम लोगों के और हमारे समय में बीस-पच्चीस साल का जो फ़र्क है, उसीके कारण ऐसा लग रहा है। ख़ैर... कहानी अभी पूरी नहीं हुई है। अब जो बाक़ी है वह मेरे बाद बस केवल तू जानेगी, यह बात तेरी मम्मा और डीडी सर को भी पता नहीं है। तुझे बता रही हूँ, सुन लेना और भूल जाना।" शुचि ने कुछ गंभीर स्वर में कहा "वसंत का असली नाम है डॉ. धनंजय भार्गव और सुधा का असली नाम डॉ. रीना भार्गव है।" लगभग चबा-चबा कर कहा शुचि ने। पल्लवी को ऐसा लगा मानों उसके ठीक पास कोई विस्फोट हुआ है और सारी ज़मीन हिल रही है।
"मतलब... क्षितिज..." पल्लवी कुछ कहना चाह रही थी, पूछना चाह रही थी, लेकिन शब्द साथ नहीं दे रहे थे और दिमाग़ भी।
"हाँ... यही... क्षितिज वास्तव में डीडी सर के बेटे का ही बेटा है... डीडी सर दुनिया के लिए भले ही उसके पिता हैं, लेकिन हक़ीक़त में वे उसके दादा हैं... यह मेरा प्रतिशोध है वंसत से, मैं उसके जीवन में उसकी माँ बन कर आ गई, सौतेली माँ। इसी प्रतिशोध के चलते मैंने केवल और केवल डीडी सर को ही चुना था अपने लिए और बस उन्हें ही बताया था वह सच। वसंत उसके बाद कभी इस घर, इस शहर में नहीं लौटा। लौटना चाहता भी तो किस मुँह से लौटता... यहाँ मैं जो थी... माँ के रूप में।" शुचि ने बहुत ठहरे स्वर में पल्लवी के अधूरे प्रश्नों का उत्तर दिया।
"आपके अलावा क्या सच में यह बात कोई नहीं जानता?" पल्लवी ने कुछ अटकते हुए पूछा।
"अब तुम भी जानती हो इस बात को...डीडी सर को मैंने कभी नहीं बताया... उन्होंने मेरा मान रखा था, मैं उन्हें टूटते हुए नहीं देख सकती थी, इसलिए यह राज़ उन्हें कभी नहीं बताया। मेरा प्रतिशोध वसंत से था और किसी से भी नहीं। क्षितिज को भी नहीं पता कि जिसे वह अपना सौतेला बड़ा भाई समझता है, वह वास्तव में उसका पिता है। यह सूचना उसको भी पूरी तरह से तोड़ देगी, नष्ट कर देगी उसकी दुनिया को। किसी को भी तोड़ देगी यह सूचना। नंदू को भी यह पता नहीं है कि क्षितिज वास्तव में वसंत का बेटा है।" शुचि का स्वर अभी भी बहुत सधा हुआ है। पल्लवी के पास अब कुछ भी नहीं था पूछने के लिए या शायद वह पूछने की स्थिति में ही नहीं थी।
"शॉक्ड...? मुझे मालूम था... ये होना है... समय कितना भी आगे चला जाए लेकिन कुछ बातें हमेशा शॉक्ड कर ही देंगी हमें। इसीलिए मैंने किसी को कुछ भी नहीं बताया, कहानी का यह अंतिम हिस्सा किसी भी युग में, किसी भी समय में स्वीकार नहीं किया जाएगा...भले ही समय, समाज कितना ही आगे बढ़ जाए, कितना ही मॉर्डन हो जाए। इसीलिए मैंने इस हिस्से को सबसे छिपा कर रखा, डीडी सर से, तेरी मम्मा से, क्षितिज से, उन सबसे जो मेरे अपने हैं। जो इस हिस्से को जानने के बाद इससे भी ज़्यादा शॉक्ड होते जितनी अभी तू है।" कहते हुए शुचि उठ कर खड़ी हो गई "चलो... अब सोते हैं... बहुत रात हो गई... । कहानी अब ख़त्म हो गई है।" कहते हुए शुचि सधे हुए क़दमों से बालकनी के दरवाज़ की तरफ़ बढ़ गई। पल्लवी अभी भी जड़ होकर बैठी हुई थी। चाँदनी, रंगून क्रीपर के सफ़ेद-गुलाबी फूलों पर अप्रैल की मद्धम हवा के झोंकों से खेलते हुए झूला झूल रही थी। टेबल पर रखा हुआ रिकॉर्डर अभी भी रिकॉर्डिंग मोड में था और रात की ख़ामोशी में गूँजती हवा की सरसराहट को रिकॉर्ड करने का असफल प्रयास कर रहा था।