अफसानों से बंधे चार देश / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 मई 2014
सुचित्रा सेन का जन्म पाबना में हुआ था जो अब बांग्लादेश में है। वहां उनका पुश्तैनी मकान है जिसमें आजकल इमाम गजाली ट्रस्ट बच्चों का स्कूल चलाता है। बांग्लादेश के हुक्मरान वहां सुचित्रा सेन की स्मृति में एक संग्रहालय बनाना चाहते हैं और उन्होंने उस भवन पर अधिकार के लिए सुप्रीमकोर्ट से निर्णय मांगा था। चार मई को निर्णय आ गया है कि ट्रस्ट सुचित्रा सेन के पुश्तैनी मकान को खाली करे। बांग्लादेश की सरकार ट्रस्ट को अन्य स्थान उपलब्ध कराएगा। लगभग पच्चीस वर्षों तक सुचित्रा सेन बंगाली भाषा में बनने वाली फिल्मों की सबसे अधिक लोकप्रिय सितारा रही हैं। वे कुशल अभिनेत्री और अत्यंत सुंदर महिला थीं। उन्होंने विमल राय की 'देवदास', राज खोसला की 'बम्बई का बाबू', मंडी बर्मन की 'सरहद', असित सेन की 'ममता' और गुलजार की 'आंधी' में काम किया था। सुचित्रा सेन और सुपर सितारे उत्तमकुमार के बीच मधुर रिश्ते थे और उनकी जोड़ी राजकपूर-नरगिस तथा दिलीपकुमार-मधुबाला की तरह लोकप्रिय रही।
अभिनय छोडऩे के बाद सुचित्रा सेन ने अपनी निजता की रक्षा इतनी शिद्दत से की कि दशकों तक उनकी झलक भी कोई देख नहीं पाया और इसी निजता की रक्षा के कारण चुने जाने के बाद भी उन्होंने दादा साहब फाल्के पुरस्कार ग्रहण करने से इनकार कर दिया। उनकी सुपुत्री मुनमुन सेन ने कुछ फिल्मों में अभिनय किया है और ममता बनर्जी के दल की उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ रही हैं और उनकी दोनों बेटियां भी अभिनय कर रही हैं। बांग्लादेश की सरकार ने अपने देश में जन्म लेने वाली महान कलाकार की यादों को अक्षुण्ण रखने का सराहनीय प्रयास किया है। बांग्लादेश मुसलिम मेजॉरिटी का देश है परन्तु पाकिस्तान से इस कदर जुदा है कि अनेक प्रयास के बाद भी पेशावर में दिलीपकुमार और राजकपूर के पुश्तैनी मकान पर कोई संग्रहालय नहीं बना पाए। दरअसल चीन में रहनेवाले मुसलमान इंडोनेशिया में रहने वाले मुसलमानों से अलग मिजाज के हैं और रूस के मुसलमान अमेरिका में बसे मुसलमानों से अलग हैं।
दरअसल हर धर्म के लोग जिस देश में सदियों से बसे हैं वे अपने जन्म स्थान की संस्कृति में ढल जाते हैं। केरल के मुसलमान मलयाली भाषा बोलते हैं, बांग्लादेश के बंगाली बोलते हैं। सारे बंगाली भाषा बोलने वाले लोग नजरुल इस्लाम को अपना कवि मानकर उतना ही आदर देते हैं जितना गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर को। दरअसल सांस्कृतिक प्रभाव धार्मिक प्रभाव से ज्यादा गहरे मनुष्य अवचेतन में पैठे होते हैं और धर्म के मुखौटे को लगाकर समाज की सांस्कृतिक बुनावट को बदलने के प्रयास असफल नहीं होते। सच तो यह है कि गंगा-जमुना संस्कृति ही भारत की ताकत रही है और इसमें विष घोलने के प्रयास सफल नहीं होते।
आजकल चुनावी शोर है कि बांग्लादेश से अवैध आए शरणार्थी धर्म के आधार पर वापस भेजेंगे अर्थात हिंदू यहां रह सकते हैं। यह ठीक नहीं है, सभी को वापस भेजना उचित है और इस धर्म भेद की प्रतिक्रिया स्वरूप वहां हिंदू कष्ट पा रहे हैं। जैसे पाकिस्तान में शोर-शराबे के बाद भी यूसुफ खान उर्फ दिलीपकुमार के पुश्तैनी मकान की रक्षा नहीं की जा सकती है, वैसे ही भारत में नूरजहां जैसी सुपर सितारा गायिका-नायिका के जन्म स्थान के लिए कुछ नहीं किया जा सकता है। यह संभव ही नहीं रहा। पाकिस्तान के किसी चुनाव में अगर भारत के शाहरुख खान या आमिर खान को चुनाव लडऩे दिया जाए तो उन्हें वहां हराना नामुमकिन है। यह विचार एक फंतासी मात्र है परंतु इस हकीकत को रेखांकित करता है कि एशिया महाद्वीप के ये हिस्से किस कदर फिल्ममय हैं।
दरअसल भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश में सिनेमा सबसे अधिक लोकप्रिय है क्योंकि किस्सागोई इन देशों के डी.एन.ए. में शामिल है। यहां अफसाने हकीकत से ज्यादा अहमियत रखते हैं। याद कीजिए 'मुगले आजम' का वह दृश्य जिसमें संगतराश द्वारा अनारकली को संगमरमर की मूर्ति की तरह प्रस्तुत किया जाता है और उसका परदा उठाने के लिए कबर तीर-कमान सलीम को देते हैं। सलीम के तीर से आवरण हट जाता है और कुछ क्षणों बाद पलकें हरकत में आने पर हकीकत उजागर होती है तो अकबर पूछते हैं कि अनारकली अपनी ओर आते तीर से तुझे खौफ नहीं लगा और तूने आंख बंद नहीं की, तो अनारकली कहती है कि वह अफसाने को हकीकत होते देखने के अवसर को कैसे खो सकती थी। हमारी राजनीति तो अफसाना बन गई है और तमाशबीन मजा ले रहे हैं।