अफ़सर / श्याम गुप्त
मैं रेस्ट हाउस के बरांडे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ सामने आम के पेड़ के नीचे बच्चे पत्थर मार- मार कर आम तोड़ रहे हैं, कुछ पेड़ पर चढ़े हुए हैं बाहर बर्षा की हल्की-हल्की बूँदें (फुहारें) गिर रहीं हें सामने पहाडी पर कुछ बादल रेंगते हुए जारहे हैं, कुछ साधनारत योगी की भांति जमे हुए हैं, निरंतर बहती हुई पर्वतीय नदी की धारा 'चरैवेति-चरेवैति' ,का सन्देश देती हुई प्रतीत होती है| बच्चों के शोर में मैं मानो अतीत में खोजाता हूँ... गाँव में व्यतीत छुट्टियां, गाँव के संगी साथी.... बर्षा के जल से भरे हुए गाँव के तालाव पर कीचड में घूमते हुए... मेढ़कों को पकड़ते हुए, घुटनों-घुटनों जल में दौड़ते हुए, मूसलाधार बर्षा के पानी में ठिठुर-ठिठुर कर नहाते हुए; एक-एक करके सभी चित्र मेरी आँखों के सामने तैरने लगते हैं सामने अभी-अभी पेड़ से टूटकर एक पका आम गिरा है, बच्चों की अभी उस पर निगाह नहीं गयी है बड़ी तीब्र इच्छा होती है उठाकर चूसने की, अचानक ही लगता है जैसे मैं बहुत हल्का होगया हूँ और बहुत छोटा...दौड़कर आम उठा लेता हूँ .. वाह! क्या मिठास है| मैं पत्थर फेंक-फेंक कर आम गिराने लगता हूँ.. कच्चे-पक्के, मीठे-खट्टे ..अब पेड़ पर चढ कर आम तोड़ने लगता हूँ ...पानी कुछ तेज बरसने लगा है, मैं कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ा चला जारहा हूँ, कीचड भरे रास्ते पर ....पानी और तेज बरसने लगता है, बरसाती नदी अब अजगर के भांति फेन उगलती हुई फुफकारने लगी है, पानी मूसलाधार बरसने लगा है, सारी घाटी बादलों की गडगडाहट से भर जाती है और मैं बच्चों के झुण्ड में इधर-उधर दौड़ते हुए गा रहा हूँ ---
"बरसो राम धडाके से, बुढ़िया मरे पडाके से"
"साहब जी ! मोटर ट्राली तैयार है", अचानक ही बूटा राम की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूट जाती है, सामने पेड़ से गिरा आम अब भी वहीं पडा हुआ है, बच्चे वैसे ही खेल रहे हैं, मैं उठकर चल देता हूँ वरांडे से वाहर हल्की-हल्की फुहारों में, सामने से दौलतराम व बूटाराम छाता लेकर दौड़ते हुए आते हैं, ' साहब जी ऐसे तो आप भीग जाएँगे' और मैं गंभीरता ओढ़ कर बच्चों को... पेड़ को.. आम को व मौसम को हसरत भरी निगाह से देखता हुआ टूर पर चल देता हूँ।