अफ़सोस / उमेश मोहन धवन
" और शुक्ला जी कल कोई खास खबर?” बड़े बाबू एक दिन की छुट्टी के बाद दफ्तर आये थे।
”नहीं कुछ खास नहीं, हां कल एक पार्टी बहुत ही बढ़िया कलैंडर पूरे स्टाफ में बांट गयी थी। आपका भी आपकी सीट पर रखवा दिया था।"
“पर यहां तो नहीं है।" बड़े बाबू ने सब तरफ देखकर कहा।
”अरे कल वहीं तो रखवा दिया था। लगता है कोई मार ले गया।"
“यार ये तो बहुत बुरी बात है। तुम लोग बस अपना ही ध्यान रखते हो। दूसरे का कोई खयाल नहीं है।" बड़े बाबू कलैंडर के लिये बेचैन हुये जा रहे थे।
”अरे बड़े बाबू भूल भी जाइये उसे, कभी कोई और दे जायेगा।"
“अरे कैसे भूल जायें शुक्ला जी। दरअसल कोई चीज न मिली हो तो दुख नहीं होता। पर मिलकर खो जाये तो बहुत बेचैनी होती है। अभी तुम नहीं बताते तो कोई बात नहीं थी पर अब अच्छा नहीं लग रहा।"
“बड़े बाबू कल आप छुट्टी पर थे, कोई खास काम था क्या ?" शुक्ला जी ने बड़े बाबू का ध्यान हटाने के उद्देश्य से पूछा।
”नहीं कुछ खास नहीं था। दरअसल कल पत्नी का एबार्शन करा दिया।"
“अबार्शन कराते वक्त दुख तो हुआ होगा न। आखिर अपने ही बच्चे की हत्या अपने सामने हो तो कितना खराब लगता होगा।"
“अरे नहीं इसमें दुख की क्या बात है। दरअसल लड़की थी। करा दिया तो जैसे एक बोझ उतर गया। बड़ी राहत महसूस कर रहे हैं। अच्छा वो कौन सी पार्टी थी? पहले उससे मेरा कलैंडर मंगाकर दो, तभी काम शुरु हो पायेगा वरना सारा दिन कलैंडर का ही अफसोस रहेगा।" इतना कहकर बड़े बाबू अशक्त होकर कुर्सी में ढेर हो गये।