अफीम खाया रंगरेज पूछे रंग का कारोबार / जयप्रकाश चौकसे
अफीम खाया रंगरेज पूछे रंग का कारोबार
प्रकाशन तिथि : 14 अगस्त 2012
अगस्त के महीने में राखी, जन्माष्टमी, ईद, पारसियों का नया साल, दक्षिण भारत में ओणम और स्वाधीनता दिवस आता है और इसे छुट्टियों का महीना मान सकते हैं। छुट्टियों का महीना अर्थात सिनेमा व्यवसाय में भारी आय का महीना। उत्सव प्रेमी भारतीय के उमंग के महीने में व्यवसाय के अन्य क्षेत्र भी लाभ कमाते हैं। रेलगाडिय़ों में टिकट उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। हवाई यात्राएं महंगी कर दी गई हैं। सरकारी दफ्तरों में चतुर कर्मचारी सोलह और सत्रह की छुट्टियां लेकर लगभग छह दिन आराम कर सकता है, जिसकी उसे जरूरत नहीं है, क्योंकि दफ्तर में वह केवल व्यस्त रहने का अभिनय करता है। इस माह में मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों में चढ़ावे की रकम में अच्छी-खासी बढ़ोतरी होती है। इन सब बातों को देखकर यह कहना कठिन है कि भारत एक गरीब देश है या दुनिया में कहीं मंदी का दौर है।
देश के एक छोटे-से वर्ग में बारहमासी उत्सव है और बड़े हिस्से में अभावों की आदत पड़ गई है। एक तरफ अपच है, दूसरी तरफ सिकुड़ी हुई आंतों में बंधे लोग हैं। इतनी विविधता के बावजूद यह एक देश है और एक अदृश्य धागे से बंधा है। इस धागे पर तनाव बढ़ता जा रहा है। इस तनाव के लिए व्यवस्था के साथ ही आम आदमी भी जवाबदार है, जो व्यवस्था भंग भी करता है और व्यवस्था के खिलाफ विरोध के स्वांग में भी शामिल होता है। महाभारत में कुरुक्षेत्र के युद्ध का विवरण अंधे धृतराष्ट्र को सुनाने वाला संजय कहता है कि सर्वत्र कृष्ण ही लड़ रहा है, वही मार रहा है और वही मर रहा है। अन्य लोग तो निमित्त मात्र हैं। इस सड़ांध भरी व्यवस्था को हमने ही जन्म दिया है। शायद नाक पर रूमाल बांधकर यह कार्य किया है। यह रूमाल ही है, जिससे हम अपनी गैरजवाबदारी पर आवरण डालते हैं और इसी का कच्छा बनाकर अपने नंगेपन को छुपाते हैं।
दरअसल 14 अगस्त को नेता क्या सोच रहे हैं, प्रधानमंत्री क्या सोच रहे हैं, इनसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आम आदमी क्या सोच रहा है। देश ने उसके लिए क्या किया, यह जानने से ज्यादा जरूरी है उसने देश के लिए क्या किया। हम लोगों में से अधिकांश लोगों ने अवसर मिलते ही रिश्वत ली है या निगाह बचाकर कार्य के समय ऊंघते रहे हैं। हम अनसोचे ही भीड़ बनते रहे हैं और स्वतंत्र सोच को खारिज करते रहे हैं। हर बार यही इच्छा रही है कि कोई हमारे बदले सोचे, हमारे बदले काम करे और समय आने पर हमारे लिए मर भी जाए। हम तो विष्णु के स्वप्न का हिस्सा हैं। इसी सोच की परिणति होती है कि कृष्ण ही मार रहा है, कृष्ण ही मर रहा है।
देश के लिए कोई विशेष काम नहीं करना होता है। केवल अपना काम पूरी ईमानदारी और लगन से करने से देश का भी काम हो जाता है। क्या वजह है कि दफ्तरों में काम करवाने के लिए आए लोगों की कतार लगी रहती है? क्यों एक सेवानिवृत्त व्यक्ति को पेंशन के अपने हक के लिए हमेशा प्रतीक्षा करनी पड़ती है, हर वर्ष अपने जीवित होने का प्रमाण देना पड़ता है? क्यों कक्षा में एक थका-मांदा शिक्षक एक मृत पाठ्यक्रम पर लाठियां बरसाता रहता है? विद्यार्थी को ज्ञान नहीं परीक्षा पास करने के नुस्खे सिखाए जाते हैं।
सरकारें आजकल केवल व्यवसाय कर रही हैं और व्यवसायी लोग परदे के पीछे से संसद चला रहे हैं। कानून व्यवस्था तथा न्याय दिलाने में ऊर्जा लगाने के बदले लाभ-हानि के खेल में सरकार लगी है। व्यवसाय का काम व्यापारियों पर छोड़ दे और सरकार निर्भय होकर समानता स्थापित करे, न्याय प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाए। जातिवाद से हम स्वयं मुक्त नहीं होना चाहते, क्योंकि वह हमारी अकर्मण्यता का आवरण है। हम कुरीतियों से मुक्त नहीं होना चाहते, क्योंकि हमें अपनी जहालत से प्रेम है। पूरे देश में हर किस्म का माफिया सक्रिय है और वोट बैंक के कारण कहीं कोई दंड नहीं दिया जा सकता। सौ-पचास गुंडे सरकारी बसें जला देते हैं, मीडिया की गाडिय़ां तोड़ देते हैं। वे एक जायज अन्याय के खिलाफ विरोध दर्ज करने के नाम पर स्वयं अनियंत्रित हो जाते हैं। सरकार कारण खोज रही है। हजारों फोटोग्राफ हैं- हाथों में पत्थर हैं, केरोसिन के डिब्बे हैं। कैसी जांच, कैसे प्रूफ की तलाश? सब स्वांग है। दूसरी तरफ राजनीतिक महत्वाकांक्षा के नशे में चूर कुछ लोग असफल आंदोलन की लाश ढोते हुए संसद तक जाना चाहते हैं। सब तरफ स्वांग रचे जा रहे हैं। तमाशबीन जनता देश के विशाल जलसाघर में तालियां पीट रही है। ये मजबूर लोग हैं, समर्थ जन छुट्टियों के महीने में उत्सव मना रहे हैं।