अब्दुल कलाम भी और आजाद कलम भी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :29 जुलाई 2015
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और उनके विविध स्वरूपों में स्वयं शिक्षक के रूप में जाने जाना चाहते थे और शिक्षा देते हुए उन्होंने नश्वर देह त्यागी। हमारे दूसरे राष्ट्रपति राधाकृष्णन भी दार्शनिक शिक्षक थे और उनकी स्मृति में 5 सितंबर 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। कलाम साहब की इच्छानुरूप उनकी मृत्यु के बाद भी उन्होंने हमें एक पाठ पढ़ाया कि काम अनवरत होता रहे- जीवन चलने का नाम। छुटि्टयों से प्रेम करने वाले उत्सव प्रेमी देश में कुछ लोग इस 'आखिरी सबक' से दुखी हो गए। इंदौर में उत्तम झंवर के प्रयास से एक आई बैंक खुला, जिसके उद्घाटन पर कलाम साहब ने बताया कि भारत में कितने आई बैंक हैं और इस तरह की संस्थाओं की कितनी कमी है। वे पूरी तैयारी से आए थे और आई बैंक के उनके आंकड़े चौंकाने वाले थे गोयाकि इस महान शिक्षक ने कभी अपना छात्र स्वरूप नहीं छोड़ा और निरंतर अध्ययन उनके व्यक्तित्व का अभिभाज्य अंग रहा।
स्पष्ट है कि हर व्यक्ति के भीतर एक शिक्षक और छात्र रहता है तथा किसी एक का पराभाव दूसरे को भी खत्म कर देता है। यह आंख की एक विशेषता की तरह है कि किसी दुर्घटना में बुरी तरह घायल आंख का समय पर नहीं निकाले जाने पर दूसरी ठीक आंख भी काम करना बंद कर देती है और इसे सिम्पैथेटिक आफ्थेल्मिया कहते हैं। इसी विषय पर विलक्षण पुस्तक 'आईलेस इन गाजा' कोई चार दशक पहले पढ़ी थी। देश के नेता सबक नहीं लेते कि सुधार के दायरे से बाहर गई व्याधि को जड़ से नहीं खत्म करने पर अन्य व्याधियों का जन्म होता है। हम सदियों से लाक्षणिक इलाज ही करते आ रहे हैं और आज देश की रुग्ण देह सामने है।
आमतौर पर हम अपने भीतर के छात्र को जल्दी ही मार देते हैं। परंतु हमारे भीतर शिक्षक सदैव कुलबुलाता रहता है और समय-असमय हम दूसरों को इतना अधिक सिखाने का प्रयास करते हैं कि वह सीखने मात्र के विचार से ही खिन्न हो जाता है। असली शिक्षक कब पढ़ा रहा है, यह छात्र को ज्ञात नहीं हो पाता, क्योंकि शिक्षा निरंतर बहने वाली नदी की तरह है और 'शिक्षा देने की बीमारी का शिकार' इस नदी में हमेशा बाढ़ लाने का प्रयास करता है। शिक्षा जीवन प्रवाह से जुदा कोई अजूबा नहीं है। हमें जीते हुए शिक्षा लेनी चाहिए और शिक्षित होते समय भी समान रूप से जीते रहना है। तमाम शिक्षा संस्थानों ने शिक्षा का हौव्वा खड़ा कर दिया है और छात्र डर के इस फैंटम से भयभीत हैं। भयभीत व्यक्ति न जीता है और न ही सीखता है। इस तरह आकारहीन अस्तित्वहीन भय हमारे होने के सच को ही निगल जाता है।
सारे साहित्यकार कलाकार प्राय: अपने काम से शिक्षा ही देते हैं। इसी तरह फिल्मकार में भी एक शिक्षक हमेशा मौजूद रहता है। हमारे सिनेमा जगत के तीन आधार स्तंभ शांताराम, मेहबूब खान और राजकपूर पारम्परिक रूप से शिक्षक नहीं थे। मेहबूब खान तो कभी मदरसे नहीं गए, राजकपूर मैट्रिक फेल थे और शांताराम पढ़ने की उम्र में एक स्टूडियो में कारपेंटर के सहायक के रूप में जुड़े थे। परन्तु इन तीनों की फिल्में मनोरंजन करते हुए हमें शिक्षा भी देती हैं और मैं इन्हीं के स्कूल से निकला छात्र हूं और मुझे अपने स्कूल पर गर्व है। फिल्में मेरी हमसफर हैं, हमराज, हमप्याला हैं और कुछ हमजाद भी हैं। इस्लामिक साहित्य में हमजाद की अवधारणा यह है कि मनुष्य के जन्म के साथ ही उसमें नकारात्मक शक्ति हमजाद की तरह मौजूद होती है और ताउम्र हमारे भीतर सकारात्मक प्रवृति और नकारात्मकता का द्वंद्व चलता रहता है।
हिंदुस्तानी सिनेमा में मनोरंजन के साथ सामाजिक सोद्देश्य की धारा हमेशा मसाला फिल्मों के समानांतर बहती रही है। आज राजकुमार हीरानी, कबीर खान, सुभाष कपूर, आनंद राय यही कर रहे हैं। इन सभी फिल्मकारों ने भरपूर मनोरंजन के साथ शिक्षा भी दी है। हमारे यहां तो 'बंडलबाज' जैसी फूहड़ फिल्म भी एक शापित जिन्न पहाड़ चढ़ते समय कहता है कि 'आज मालूम हुआ कि आम आदमी का जीना कितना मुश्किल है'। मधुमति जैसी जन्म जन्मांतर की कथा में भी 'जंगल में मोर नाचा किसने देखा, हम थोड़ी-सी पीके बहके तो जमाने ने देखा (शैलेंद्र) और संजीदा प्यासा में 'तेल मालिश, सर जो तेरा चकराए (साहिर) जैसे मनोरंजक गीत रहे हैं। सिनेमा में 'स्कूल' हमेशा मौजूद रहा है, परंतु अब 'स्कूल' फिल्मी हो गए हैं