अब्बास का गेहूं और गुलाब / जयप्रकाश चौकसे

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अब्बास का गेहूं और गुलाब
प्रकाशन तिथि : 29 मार्च 2013


पांचवें दशक में 'कहानी' नामक पत्रिका में उस दौर के अनेक प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। भैरवप्रसाद गुप्त इसके संपादक थे। उर्दू में लिखी अनेक कहानियों के अनुवाद प्रकाशित होते थे। 'हुनर' साहब प्राय: अनुवाद का कार्य करते थे। उस दौर में साहित्य केंद्रित पत्रिकाओं को बहुत आदर से देखा जाता था और उन पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखकों को सितारा हैसियत मिलती थी। मध्यम वर्ग के शिक्षित परिवार न केवल उन्हें खरीदते थे वरन वर्ष के अंत में सारे अंकों की एक सजिल्द किताब भी बना लेते थे। इंदौर में बसे डॉ. कैलाश पहारे ने इस तरह सजिल्द का खजाना लंबे समय तक संजोकर रखा था। उस दौर में युवा वर्ग आज की तरह फिल्मी गॉसिप पत्रिकाएं नहीं पढ़ता था, उसे साहित्य से लगाव था। अखबारों में भी साहित्य परिशिष्ट होते थे। मराठी भाषा में दीपावली अंक आज भी अपने साहित्यिक मूल्य के कारण संग्रहणीय होते हैं।

फिल्म उद्योग में सक्रिय लेखकों में अधिकांश साहित्य जगत में स्थापित नाम थे। उन्हीं में से एक ख्वाजा अहमद अब्बास ने ढेरों पुस्तकें और कहानियां लिखी हैं और उस दौर के सबसे अधिक व्यस्त व्यक्ति माने जाते थे। यह बात अलग है कि कम्युनिज्म के प्रति उनका समर्पण इतना गहरा था कि उनका साहित्य और पटकथाएं कम्युनिज्म का प्रचार लगती हैं। 'कहानी' के किसी अंक में उनकी 'गेहूं और गुलाब' नामक कथा प्रकाशित हुई थी। उसका जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि वह ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित और गुलजार की लिखी 'गुड्डी' के दशकों पहले की 'गुड्डी' है।

नायक ग्रामीण अंचल में गेहूं की नई किस्म की खोज में लगा है और उसकी पत्नी शहर की सिनेमा देखने की आदी युवा है, जिसे अपने काम में डूबे हुए शुष्क स्वभाव के पति से प्यार नहीं है। उसी सुदूर अंचल में शूटिंग के लिए एक फिल्म यूनिट आया और पत्नी का प्रिय नायक काम कर रहा था। ग्लैमर की दुनिया से चकाचौंध पत्नी को पति स्वयं शूटिंग दिखाने ले जाता है और फिल्मी नायक से परिचय कराता है। उनकी मेल-मुलाकात होने लगती है और फिल्मी हीरो के साहसी होने से पत्नी प्रभावित है और मन ही मन उसे प्यार करने लगती है। अचानक अंचल में भारी वर्षा से बाढ़ आ जाती है, फिल्म के लिए लगाया गया सैट बह जाता है और फिल्मी हीरो भी डूबने लगता है। उसका पति फिल्मी हीरो की जान बचाता है और तब पत्नी को समझ में आता है कि यथार्थ जीवन में कौन नायक है। उसका पति लच्छेदार रूमानी बातें नहीं करता, कभी उसके जूड़े में फूल नहीं लगाता, परंतु उससे प्यार करता है। जीवन में गेहूं का स्थान प्रथम है, गुलाब द्वितीय स्थान पर है।

कम्युनिज्म को समर्पित कथाकार की कहानी में भी मानवीय संवेदना और करुणा होती है। दरअसल, किसी भी विधा में काम करते हुए कलाकार का किसी राजनीतिक आदर्श में विश्वास होना आवश्यक है। तटस्थता एक मिथ है। आपके जीवन के आदर्श आपका चश्मा नहीं, आपकी दृष्टि है और सारा सृजन आपका दृष्टिकोण है। अब्बास साहब की अपनी बनाई फिल्में सफल नहीं रहीं। उनकी 'चार दिल चार राहें' बहुसितारा फिल्म थी। उसमें राज कपूर, मीना कुमारी, शम्मी कपूर इत्यादि अनेक सितारे थे। उनकी पटकथाओं के दर्शन को छुए बिना राज कपूर ने प्रचार तत्व हटाकर नाच-गानों का इस्तेमाल करके सफल फिल्में रचीं, परंतु मूल की मानवीय संवेदनाओं को यथावत रखा। उदाहरण के लिए 'आवारा' पूरी होने के पश्चात राज कपूर को लगा कि कुछ उपदेशात्मक नीरस दृश्यों को हटाकर उनकी जगह स्वप्न दृश्य रखा जाए, जिनमें उन दृश्यों का सार तो है परंतु वह गीत में है तो उन्होंने फिल्म के कुछ व्यय का चालीस प्रतिशत अतिरिक्त धन इस स्वप्न दृश्य पर लगाया और फिल्म के विस्मृत किए जाने के बाद भी स्वप्न दृश्य का गीत-संगीत अपने सार्थक माधुर्य के कारण स्मरण रहेगा। ज्ञातव्य है कि 'गुड्डी' अमिताभ और जया के साथ प्रारंभ हुई थी, परंतु अमिताभ की पहचान बन जाने के कारण उन्हें हटाकर बंगाल से सुमित भांजा को लिया गया, क्योंकि उस पात्र के कलाकार की कोई स्क्रीन छवि नहीं होना आवश्यक था।

बहरहाल 'संघर्ष' नामक फिल्म के निर्माता एच.एस. रवेल ी पत्नी ने भी गुड्डी की तरह घटनाक्रम देखा था और सितारा छवि बनाम हकीकत से वे परिचित थीं। गुलजार साहब की उनसे भी जान-पहचान थी। बहरहाल 'गुड्डी' की पटकथा मनोरंजक थी और वह सफल फिल्म सिद्ध हुई। यह संभव है कि गुलजार साहब ने अब्बास की कहानी नहीं पढ़ी हो। उनका घटनाक्रम भी मौलिक ही था अर्थात यहां नकल का हौव्वा नहीं खड़ा किया जा रहा है। आज सचमुच आश्चर्य होता है कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने कितना काम किया है। आखिरी पन्ना नामक साप्ताहिक कॉलम ब्लिट्ज के लिए कोई पैंतीस वर्ष तक लिखा है।