अब और नही / सुभाष नीरव

Gadya Kosh से
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“रोज रात ग्यारह-ग्यारह बजे तक बत्ती जलती है, बिल ज्यादा नहीं आएगा तो क्या कम आएगा?” यह बात उन्हें सुनाने के लिए कही गयी। जान-बूझकर वोल्यूम तेज रखा गया ताकि बात उनके बूढ़े कानों में घुस सके। मज़बूरन, लाला हरदेव प्रसाद को गीता का गुटका बंद कर देना पड़ा। चश्मा उतार कर उन्होंने एक ओर रखा और घड़ी देखी– नौ बजकर दस मिनट हो रहे थे, रात के।

उठकर उन्होंने अपना बिस्तर ठीक किया। छुटका उन्हीं के साथ सोया करता है। बहुत छोटा था तो जिद्द करके साथ सोता था– ‘दादा जी के तात सोऊँगा।...’ कितना अच्छा लगता था उन्हें, जब वह अपनी तोतली जुबान में ऐसा कहता था। लेकिन, अब उसे जबरदस्ती सुलाया जाता है। सारी रात पेट पर उसकी टांगें दनादन पड़ती हैं। ऐसा टेढ़ा-मेढ़ा होकर सोता है कि बेचारे करवट भी ढंग से नहीं बदल पाते। कभी-कभी तो बिस्तर भी गीला कर देता है। छुटके को सीधी तरह लिटाकर उन्होंने बत्ती बुझाई और बिस्तर में घुस गए। आँखें मूंदकर सोने का प्रयास करने लगे। पर, नींद !... नींद इतनी जल्दी कैसे आ सकती है ?... शुरू से ही रात में देर से सोने और सुबह मुँह-अंधेरे बिस्तर छोड़ देने की आदत रही है उनकी।

उन्हें याद आते हैं वे दिन जब पार्वती जीवित थीं। सुबह उठकर सबसे पहले शौच जाया करते। फिर नहा-धोकर पूजा-पाठ करते। इतने में दूध का वक्त हो जाता और वह बर्तन उठाकर दूध लेने चल देते। रास्ते में खाँ साहब मिल जाते तो उनसे बिजनेस के बारे में बतियाने लगते। अगर, शर्माजी दीख पड़ते तो उनकी नेतागिरी के हालचाल पूछने लगते। यही वक्त होता था उनके लिए गली-मौहल्ले वालों से उनकी खैर-ख़बर पूछने का। वहाँ से लौटते तो पार्वती चाय का पानी चढ़ा चुकी होती।


जब मोहन नहीं हुआ था, वह अपने को इधर-उधर के कामों में उलझाये रखते या पार्वती के काम में हाथ बंटाते। मोहन हुआ तो जैसे उनको खिलौना मिल गया। कभी उसको बाजुओं में लेकर उछालते और कभी घोड़ा बनकर उसे हँसाते। और इस तरह कब नौ बज जाते, पता ही न चलता। मोहन जब स्कूल जाने लगा तो वह रोज़ सुबह एक-डेढ़ घंटा उसे अपने पास बिठाकर पढ़ाते। बीच-बीच में उसे पाठ याद करने को कह, वह अपनी साइकिल की सफाई करते। दोनों पहियों की हवा देखते और ठीक नौ बजे घर छोड़ देते। वह कभी दफ्तर लेट नहीं पहुँचते थे। हमेशा आधा-पौना घंटा पहले ही पहुँचकर फाइलों को देखदाख कर तैयार कर लेते और साहब के आते ही उनके हस्ताक्षर-योग्य फाइलें उठाये उनके केबिन में घुस जाते। अपने काम में उन्होंने कभी गलती नहीं की थी और पूरी सर्विस में किसी अफसर से झाड़ नहीं खाई थी– लाला हरदेव प्रसाद ने !

अब रिटायर क्या हुए, लगता है, उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया एकदम से। उपहास और उपेक्षापूर्ण दृष्टियों के बीच वह महसूस किया करते हैं, जैसे वह कोई फालतू-सी चीज़ हों... उनसे हँसने-खेलने वाले बच्चे तक अब उनके पास तक नहीं फटकते। क्यों फटकें ?... टॉफी खरीदकर देने लायक पैसे भी उनके पास नहीं होते। यार-दोस्त ‘जल्दी में हूँ’ कहकर कन्नी काट जाते हैं, क्योंकि उनको बिठाकर एक प्याला चाय पिलाने की अब उनकी हैसियत नहीं रही।

पेंशन के जो रुपये मिलते हैं, वे भी अपने नहीं। सब बहू को दे देने पड़ते हैं। उन्हें रुपयों की क्या ज़रूरत ?... बेटे के उतरे जूते-चप्पल और कपड़े पहनने को मिल ही जाते हैं। दो वक्त की रोटी भी मिल जाती है। फिर इस बुढ़ापे में रुपयों की क्या ज़रूरत !


बगल के कमरे में अभी भी बत्ती जल रही थी। बहू और बेटे में हो रही खुसुर-फुसुर को उनके बूढ़े कान पकड़ नहीं पा रहे थे। एकबारगी उनकी इच्छा घड़ी देखने को हुई, पर उन्होंने अपनी इस इच्छा को दबा लिया।

एकाएक, छुटके ने टांगें चलानी आरंभ कर दीं। कभी-कभी तो इतनी जोर से टांगें मारता है कि पेट में दर्द हो उठता है। उन्होंने लेटे-लेटे ही उसे सीधा किया।


तबीयत ठीक न होने की वजह से आजकल सुबह जल्दी उठने को मन नहीं होता। पर, फिर भी उठना पड़ता है। दूध भी वही लाते हैं। पायजामा-कमीज और कभी-कभी चादर मिली तो ओढ़कर चल दिया करते हैं वह दूध लेने। कई बार सोचा, अब की पेंशन के पैसे मिलने पर एक पूरी बाजू का स्वेटर बनवायेंगे। या, एक गर्म चादर ही खरीदेंगे। पर, ऐसा कभी सोच से आगे नहीं बढ़ पाया।


मोहन ने जब नया सूट बनवाया, उसने पूरानी पैंट को पहनना ही छोड़ दिया। यूँ ही बेकार पड़ी थी। एक दिन उन्होंने हिम्मत कर कहा था– “बेटा, पुरानी पैंट तुम पहनते नहीं हो। वैसे ही बेकार पड़ी है। मैं... मैं ही पहन लिया करू?”

इतना कहते हुए उन्होंने महसूस किया था, जैसे आवाज़ गले के बाहर निकलना ही नहीं चाह रही है और वह उसे जबरदस्ती बाहर धकेल रहे हैं। पूरे समय नज़रें भी झुकी-सी रहीं, जैसे वह भीख मांग रहे हों। एकबारगी तो अपने पर झुंझलाहट भी पैदा हुई– ‘क्या ज़रूरत थी कहने की ?... बेटे को खुद नहीं दीखता ?’

बेटे ने मना तो नहीं किया था, पर बात बहू पर डाल दी थी। साथ में यह कहते हुए, “सुधा से कहना, सिल भी देगी। कहीं-कहीं से फटी हुई है।”

कुछ दिन तक तो वे चुप रहे। और जब कहा तो कभी फुर्सत नहीं है, कभी धागा नहीं है, सिलूं किससे ? वगैरह-वगैरह सुनने को मिला। इसके बाद उन्होंने कहना ही छोड़ दिया।

कुछ दिन बाद वही पैंट कुछ और पुराने उतरे कपड़ों के साथ बहू ने बर्तन बेचने वाली को दे दी और उसके बदले में तीन-चार चीनी-मिट्टी के बर्तन ले लिए। अच्छा होता, अगर यह सब उनकी आँखों के सामने न होता, तब कम से कम यह दर्द जो इस क्षण उनको भीतर तक चीरता चला गया था, महसूस तो न होता। एक क्षण को तो उन्हें रोना-सा आ गया। उनकी कीमत रिटायर हो जाने के बाद चीनी-मिट्टी के बर्तनों से भी गई बीती है ?...

एकाएक, हड़बड़ाकर उठना पड़ा उन्हें। उठकर बत्ती जलाई। छुटके ने पेशाब कर दिया था। नीचे का गद्दा बुरी तरह से भीग गया था। सुलाने से पहले वह छुटके को पेशाब करा लेते हैं। फिर भी, कोई भरोसा नहीं। अब सारी रात गीले बिस्तर पर लेटो !... सोओ !... दूसरे कपड़े भी नहीं !

उन्होंने छुटके को उठाकर कन्धे से लगाया और नीचे का गद्दा पलटकर बिछाया। गद्दा पलटने के बाद भी गीला लग रहा था। आखिर, उसी पर लेटना था, सो लेट गए। नींद तो वैसे ही कोसो दूर थी आँखों के, अब और दूर हो गई। कुछ देर यूँ ही करवटें बदलते रहे। जब नहीं रहा गया तो उठकर फिर बत्ती जलाई और गैलरी में जाकर कुछ ढूँढ़ने लगे। वहीं कहीं ढूँढ़ने पर टाट का टुकड़ा मिल गया। उन्होंने उसे गीले हिस्से पर बिछाया और बत्ती बुझाकर लेट गए।


सुबह उठे तो बदन का जोड़-जोड़ दर्द कर रहा था। हल्का-हल्का बुखार-सा भी महसूस कर रहे थे वह। उठकर दूध लाने को मन नहीं किया उनका। लेकिन, वह अपने मन की कर कहाँ पाते हैं आजकल ! मज़बूरन, उठना पड़ा। बाहर आँगन में धूप आ जाने पर चारपाई बिछा कर वह लेट गए। गर्म-गर्म चाय की तलब हो रही थी। पर, चाय !... मोहन के आफिस जाने से पहले !... आज तक नहीं हुआ।

सामने वाली गली में कुछ बच्चे खेल रहे थे। कुछ लोग आ-जा रहे थे। उन्होंने लेटे-लेटे ही आते-जाते लोगों को देखा। सभी इसी मोहल्ले में या आसपास रहने वाले लोग हैं। एकाएक उनकी नज़रें आते-जाते लोगों में कुछ खोजने-सी लगीं। कहीं कोई परिचित चेहरा निकल आए ! और पास से गुजरते हुए पूछ ही बैठे, “क्यों लाला जी, कैसे लेटे हैं ?... तबीयत वगैरह तो ठीक है न ?...” और वह अपने दुख को बताकर हल्का कर लें। पर ऐसा कहाँ नसीब ! ढूँढ़ने पर भी ऐसा कोई चेहरा नज़र नहीं आया।

यह वह मोहल्ला था जिससे उनकी ज़िन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा जुड़ा हुआ था। पूरा मोहल्ला कभी उनके अपने घर-सा हुआ करता था। आते-जाते छोटे-बड़े सभी से बतियाना, उनकी खै़र-ख़बर पूछना उनकी आदत थी। पड़ोस की रज्जी ताई हो या मियाँ गब्बन, स्कूल की मास्टरनी सिन्हा हो या डेरी वाले दूबे जी, कोई भी नहीं बच पाता था उनकी गिरफ्त से। घड़ी-दो-घड़ी, खड़े-खड़े बाते कर लिया करते थे वह।

गोकुलदास तो अक्सर अपना रोना रोया करता था उनके आगे– “क्या बताऊँ लाला जी, इस ज़िन्दगी से तो अच्छा है, भगवान उठा ले।”

“क्यों भाई, क्यों ?” वह उत्सुकता से पूछते।

“अब एक दुख हो तो बताऊँ ?... रिटायर क्या हुआ, कोई इज्ज़त ही नहीं रही। नौकरों की तरह घर का सारा काम करो और बात-बात पर उनकी बातें भी सुनो। न मन का खा सकते हैं, न पहन सकते हैं।” गोकुलदास रुआंसे-से हो उठते।

इस पर लाला हरदेव प्रसाद मुस्कराते हुए कहते– “गोकुलदास जी, आपने ज़िन्दगी भर ऐस की। अब बहू-बेटों को भी करने दो। वैसे बुढ़ापे में तुम ज़रा-ज़रा-सी बात पर इतना मत सोचा करो। जैसा मिल जाए, खा लिया करो और बैठकर भगवान का नाम जपा करो। मस्त रहा करो। इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दिया करो। समझे !... रही काम की बात, अरे भाई, कुछ न कुछ करते रहोगे तो शरीर भी ठीक रहेगा। खाली पड़े-पड़े तो रोग लग जाता है।”

पर आज जब गोकुलदास की याद आती है तो वह मन ही मन कह उठते हैं– ‘गोकुलदास, तुम्हें झूठी तसल्ली देने वाला मुझ जैसा तो था मोहल्ले में, मगर मुझे तसल्ली देने वाला तो कोई भी नहीं है।’


मोहन के आफिस चले जाने पर बहू जब चाय लाई तो उनका जी चाहा कहें, “देखना बहू, कोई बुखार की गोली पड़ी हो। आज तबीयत कुछ खराब है।” पर ऐसा वह चाहकर भी न कह पाए। सहसा, उन्हें याद हो आया, कल शाम ही तो बहू ने कहा था कि राशन की दुकान पर गेहूं और चावल आया है। कल जाकर ले आना। अब अगर वह अपनी तबीयत का रोना रोयेंगे तो बहू को चार बातें सुनाने का मौका मिल जाएगा।

थोड़ी ही देर में बहू ने थैला और राशनकार्ड थमा दिया। साथ में रुपये भी। पूरे-सूरे। न एक पैसा कम, न एक पैसा ज्यादा। वह जानते हैं, बहू ने गिनकर पूरे-सूरे पैसे क्यों दिए हैं। ज्यादा देगी तो बुड्ढ़ा खर्च करेगा। अभी पीछे ही तो बहू ने दस का नोट मिट्टी का तेल लाने को दिया था। बचे हुए पैसों में से उन्होंने कुछ पैसे खर्च कर दिए थे। कई दिनों से दाढ़ी बढ़ रही थी। सोचा, बाजार आए हैं तो बनवा लेते हैं। पर उन थोड़े से पैसों के लिए उन्हें सुनना पड़ा था, “घर पर शेविंग का सारा सामान किसलिए रखा है ? यहीं क्यों नहीं कर लिया करते ?... बेकार में बाहर पैसे दे आते हैं।”

चालीस किलो गेहूं और पांच किलो चावल। पूरा पैंतालीस किलो का बोझा ढो कर लाना होगा, एक मील से। और शरीर है कि पैदल चलने को तैयार ही नहीं।

दुकान पर पहुँचकर, भीड़ देखते ही लाला हरदेव प्रसाद की हिम्मत पस्त हो गई। लाइन में लगे तो ज्यादा देर खड़ा नहीं हुआ गया। हार कर वहीं बैठ गए। सहसा, पीछे से जबरदस्त धक्का आया और पीछे की सारी भीड़ उन पर गिर पड़ी। लाइन टूट गई और वह लाइन से बाहर जा पड़े। दोबारा अपनी जगह लेने लगे तो हल्ला मच गया, “ऐ बुड्ढ़े! कहाँ से घुस रहा है ? पीछे जा।”


वह गिड़गिड़ाए। अपनी सफाई पेश की। कुछ लोगों के कहने पर वह फिर से अपनी जगह पा सके।

जिस समय राशन लेकर निकले, सूरज सिर के ऊपर पहुँच चुका था। सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। सिर्फ़ चाय पी कर ही निकले थे। इसलिए लग रहा था, जैसे शरीर में जान ही न रही हो।

जैसे-तैसे बोझा बांधकर, किसी से सिर पर रखवाया और चल दिए।

अभी कुछ ही दूर चले थे कि हिम्मत जवाब दे गई। आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। कदम आगे बढ़ाते तो ऐसा लगता, जैसे अंधेरे में पांव रख रहे हों। इससे पहले कि चकराकर गिर पड़े, उन्होंने बोझा एक ओर पटका और धम्म् से नीचे बैठ गए। काफी देर तक हाँफते रहे। दोनों हाथों से सिर को थामे, नीचे ज़मीन की ओर आँखें किए रहे। सांसें कुछ सामान्य हुईं तो उन्हें गोकुलदास की याद हो आई अकस्मात्। गोकुलदास की एक-एक बात उनके दिमाग में दौड़ने लगी। उसकी हर बात सही और सत्य प्रतीत होने लगी। आज अगर गोकुलदास जीवित होते तो वह उससे ज़रूर कहते, “गाकुलदास, तुम सच कहते थे। बिलकुल सत्य!”

एकाएक, उन्हें स्वयं पर गुस्सा हो आया। आखिर, उन्होंने स्वयं को इतनी दयनीय स्थिति में लाकर क्यों खड़ा किया हुआ है ?... क्यों वह चुपचाप सह जाते हैं सबकुछ ?... क्यों नहीं प्रतिरोध करते ?...अपनी इस नारकीय स्थिति के लिए वह कहीं न कहीं खुद भी जिम्मेदार हैं।

आखिर, वह भी हाड़-मांस के बने हैं। उन्हें भी दुख-सुख की अनुभूति होती है। वह बहू से कह सकते थे, ‘तबीयत खराब है। छुट्टी वाले दिन मोहन स्वयं ले आएगा। या फिर रिक्शा के पैसे दे दो, ले आऊँगा।’ इसमें झिझक की क्या बात थी ? सहने की भी एक सीमा होती है!

कुछ देर वहीं बैठे-बैठे बुदबुदाते रहे गुस्से में। एकाएक, उनकी नज़र सामने से आती हुई खाली रिक्शा पर गई। उन्होंने एकदम से निर्णय लिया और हाथ देकर रिक्शा रुकवाया।

“बी-वन चलोगे ?”

“चलेंगे।” बोझे को रिक्शा में रखते हुए रिक्शावाला बोला, “पांच रुपया होगा।”

“हाँ-हाँ, दिला देंगे।... तुम चलो तो।” झल्लाये हुए स्वर में उन्होंने कहा और रिक्शा में बैठ गए।