अब क्या कहें / राजा सिंह
पार्वती सुबह होने से बहुत पहले उठ जाती और जल्दी से अपना चौका बरतन करती। फिर शिबू को जगाती उसका नित्य कर्म करवाती। उसे दूध-खाना देती और उसे सरकारी पाठशाला में छोड़ती फिर अपने काम में निकलती। यह सब कार्य वह सुबह सात बजे होने से पहले निपटा लेती थी। दोपहर के बारह बजे जब वह घरों के काम से फारिग होती तो फिर वह शिबू को स्कूल से लेकर घर आती। उसे खिलाने सुलाने के बाद ही वह कुछ अपने पेट में डाल पाती थी। शंकर के जाने के बाद अब उसका ध्येय सिर्फ़ अपने बच्चे के विकास पर केंद्रित था।
अकेली वह मानसिक एवं शारीरिक दर्द से फटी रहती किन्तु ज़रूरते पूरी ना होती। कमरे का किराया उसे सबसे ज़्यादा खलता था। दुख, चिंता एवं एकाकीपन ने उसे समय पूर्व ही जवान से अधेड़ में तबदील कर दिया था। जबकि बमुश्किल अभी उसकी उम्र तीस पार भी ना हुई थी। वह सोचती यह सब उसकी जान ले लेंगे किन्तु शिबू की जिम्मेदारी उसे मरने भी ना देती।
कमरे से बाहर निकलते ही एक अलग तरह का डर उसको चपेट लेता था। उसकी जवानी को निगलने के लिए किस्म-किस्म अजगर होते और डँसने के लिए राहू-केतु उसे घेरने लगते। एक-आध बार तो वह ग्रहण लगने से बुरी तरह बची। जब काम से लौटते सुनसान दोपहरी को राहू-केतु दोनों ने एक साथ उसे दबोच लिया था। वे उसे लेकर अधूरे बने मकान के खंडहर में ले चले थे उसे तार-तार करने। अचानक उसे मोटर-साइकिल में गुजरते इन्स्पेक्टर दिखा। उसने अंतिम अरदास के रूप में गुहार लगाई और उनके गिरफ्त से बच गई। जिन घरों में वह काम करती थी उनके मालिक की वहसी, बदचलन, हवसी निगाहों से बचना असंभव होता जा रहा था। जब वह अकेली होती थी तो उनकी कामुक-ललचाई गिद्ध नोच-शब्दों एवं छुअन की अजीब वितुष्णा जगाती। किन्तु इस तरह से मर्द को ठुकरा देना आसान नहीं था, क्योंकि उसकी पुरअसर जवानी बरकरार थी। वह बेहद परेशान थी इस तरह के दरिंदों की दुनिया से अपने को बचाते। लेकिन कोसा उसे ही जाता, क्योंकि वह निम्न वर्ग की जवान विधवा थी। वह कोसती शंकर को कि इतनी भरी जवानी में उसे विधवा बना कर छोड़ गया। क्योंकि कोई भी यह सुनने को तैयार नहीं था कि उसके मरने में पार्वती का कोई कसूर, गुनाह नहीं है।
शंकर लड़खड़ाती आवाज़ में पुकारता और अजीब तरीके से दरवाज़ा खटखटा रहा था। ‘दरवाजा खोलो...! धप... धप... !’ नशे के कारण ना आवाज़ में दम थी ना खटखटाने में। भीतर उसकी पत्नी पार्वती थकावट से बोझिल बेदम और नित प्रतीक्षा से बेदिल नींद के गहरे आगोश में थी।
वह उसका इंतज़ार करते-करते अभी-अभी सोई है। वह रात-विरात आता, नशे में धुत आता और दोनों तरह के खाने पर टूट पड़ता। बेकार निठल्ला होने के बावजूद वह उसे झेलने के लिए मजबूर है, क्योंकि वह एक छप्पर है-सामाजिकता का। डर यह है कि यह छप्पर उड़ कर दूसरे पर छा ना जाए। उन लोगों में कमोवेश सभी ऐसे ही है। वह घर में देर से आने के विरुद्ध आवाज़ उठाती है तो बुरी तरह पिटकर ख़ामोश हो जाती। कई बार वह दूसरे के घर में बैठने को सोचती, क्योंकि अब भी वह जवान ही थी।... किन्तु उनकी बिरादरी के ज्यादातर मर्द ऐसे ही है और फिर शिबू उसका लड़का है, गैर के पास घोर उपेक्षित होगा। जब वह सुबह अन्य घरों के झूठे बरतन की साफ-सफाई और झाड़ू पोंछा के लिए निकलती है, तो दोपहर 12 बजे तक वही तो शिबू की देखभाल करता है।
अब वह वैसी जवान भी ना रही थी, जैसे वह विवाह के वक़्त थी। तब वह सांवली होने के बावजूद दमकती थी। गाँव का घर शंकर की बुरी संगत कि वजह से छोड़ना पड़ा था। कच्ची दारू और ताड़ी के अत्यधिक नित्य सेवन ने उसे निकम्मा, नकारा और बीमार बना दिया था। खेतिहर मजदूरी मिलनी बंद हो गई थी, जबकि अन्य इतने आदी नहीं हुए थे। तब उसने सुझाया कि शहर चलते है, वहाँ मजदूरी के अच्छे दाम मिलते है। उसने सोचा था कि वहाँ ना ये संगी साथी रहेंगे ना दारू-ताड़ी। शहर में महँगाई बहुत थी। फिर शिबू पेट में आ गया था। अकेले शंकर की मजदूरी से ख़र्च निकलना मुश्किल होता जा रहा था। तब उसने घरों का काम पकड़ लिया था। शिबू के आने के बाद शंकर का काम घटता गया और पार्वती का काम बढ़ता गया। क्योंकि शंकर को यहाँ भी देशी दारू बाजों की कंपनी मुहैया होने लगी थी।
अब कि बार किवाड़ पर की गई चोट, ऐसा लगा कि जैसे किवाड़ टूटकर गिर पड़ेगा और पार्वती पर शंकर। वह जग गई थी किन्तु अलसाई हुई आभास ले रही थी, आश्वस्त हो रही थी कि उसी का दरवाज़ा खटखटाया जा रहा हैं कि और कोई।
“अरे! रुक जा, आती हूँ।“ उसने चीखते-चिल्लाते हुए कहा।
किवाड़ को चीरते हुए पार्वती कि कर्कश आवाज़ उस तक पहुँच गई थी। वह थम-सा गया। उसे अहसास था कि वह ग़लत है। इतनी रात में आना अकारण। वह बोझ है पार्वती और बच्चे पर। वह हर मुनासिब गैर मुनासिब वजह से उन्हें तंग करता रहता था। सिर्फ़ दारू की आपूर्ति के लिए है, वह कुछ मजदूरी कर लिया करता था। वरना घर ख़र्च कैसे चलता है वह बेजार नज़र आता था। कभी तो वह दारू के कारण पार्वती से पैसे छीन कर भी ले जाता था। आज ऐसा ही किया था उसने। बेमतलब के ख्यालों से अपने को झटका दिया और किवाड़ खुलने का इंतज़ार किया।
पहले पार्वती को पता रहता था कि वह कब शराबी बन कर आया है और कब मजदूर? जब वह दुबके हुए घुसता था तब शराब पीकर आया है और चुपके से सोने चल देता था, शर्मिंदा होते हुए। किन्तु शराब की बू पार्वती को छेद जाती थी। वह बिना बोले से खाना परसती और चुपचाप एकटक उसे देखती रहती। उसका खाना, खाट में लेटना और चंद मिनटों में खर्राटे लेकर सो जाना। जिस दिन बिना पीए आता तब शेर कि मानिंद होता और हर बात में नुक्स निकलता खाने में, सोने में, बोलने में, रहने में और रात में।
लेकिन आजकल सब उलट-पुलट गया है। शराबी होने के बावजूद वह उसे चिढ़ाता, खिजाता, चिल्लाता और बे फिजूल की बहस करता और फिर बिना मतलब के मारपीट करता। मजदूरी कम करता शराब ज़्यादा पीता। अब तो दिन में भी पी लेता। वह रोकती-टोकती तो लड़ाई करता और मारता पीटता।
“आ... जा...।“ उसने कुछ रुखाई से कहा। वह दरवाज़े की एक साइड में खड़ी हो गई। वह अभी तक दाँत भींचे खड़ा था। उसे लगा कि उसने जानबूझ कर देर की है।
“आजा...। अब डरता क्यों है ? तेरा क्या ख़्याल है मुझे पता नहीं चलेगा ?” उसने ताना दिया।
“कौन डरता है...?... अपने खसम से कैसे बोलती है ? ज़बान बंद कर!” उसने लड़खड़ाती आवाज़ में चेताया।
“हूँ...।“ पार्वती ने सर हिलाते हुए तंज कसा। जिसे उसने दिए की धुंधले रोशनी में देख लिया।
वह बिफर पड़ा। उसने लात-घूसों से उसे मारना शुरू कर दिया। इसमें वह कई बार ख़ुद गिरा, ख़ुद उठा और फिर मारा। मारते गिरते ख़ुद बेदम हो गया और उसे भी बेदम कर लिटा दिया। शिबू रोने रोते हलकान होकर बेसुध हो गया। फिर एक चीत्कार एवं भीभत्स आवाज़ के साथ ख़ुद बेसुध होकर अपने बिस्तर पर गिर कर सो गया।
उधर पार्वती दरवाज़े पर गुड़ी-मुड़ी अधनंगी बेहोश पड़ी, कुछ चेतना में आई, उठी और तत्काल दरवाज़ा बंद करके अपने लाल पर लपकी। उसे हिलाया उठाया और दूध-पानी पिलाकर फिर सुलाया और लुढ़ककर वही ढेर हो गई।
सुबह वह उसी टाइम में उठी। उसे घर का चौका-वासन करना था। शंकर को उठाकर शिबू को सौपना था। घरों में काम पर जाने का समय हो गया था। उसका पोर पोर दुख रहा था। शरीर कई जगह सूज आया था। खैर यह अक्सर होता रहता था।
उसने वही से देखा। शंकर निश्चल पड़ा था। उसकी ख़ामोशी रहस्यमय थी।
वह पास आई तो चौक उठी। चीख उठी। खून के दरिया में भींगा स्पंदन-हीन पड़ा था। उसके मुंह और नीचे दोनों जगह से खून रिस रहा था। उसका अकडा शरीर कुछ अजब कहानी कह रहा था । कपड़ों और फ़र्श पर खून के कतरे पड़े थे। उसने झकझोरा, हिलाया-डुलाया सीने में मुक्के मार-मार कर होश में लाने की कोशिश की। लेकिन सब निरर्थक था। वह ज़िंदा नहीं था।
वह गश ख़ाकर गिर पड़ी। वक़्त थम-सा गया था। लेकिन शिबू कि चीखती-चिल्लाती रोने की आवाज़ ने माहौल को फिर गरम कर दिया। वह होश में आई । दहशत और ग़म में विलाप करने लगी।
दरवाजे पर फिर रात जैसी दस्तक होने लगी। उसने अपने को समेटा और रोते बिलखते दरवाज़ा खोल दिया। पड़ोसी थे क्या बात है ? पड़ोसी लोग भीतर घुसे और हालत समझा। रात में ज़िंदा था सुबह मर गया। ज़हरीली शराब पीकर आया होगा! पड़ोसी औरतों ने पार्वती और बच्चा सम्हाला और आदमियों ने मृत को श्मशान पहुँचाया, अंतिम क्रिया हेतु...
वह दो मंजिला बहुत बड़ा मकान था, जिसमें कई परिवार बसते थे। उन कई परिवारों में उसके चार घर थे जिसमें पार्वती साफ-सफाई और झाड़ू पोंछा का काम करने आती थी। उन्हीं बसे घरों में सबसे नीचे तले पर एक घर ऐसा भी था जिसमें सिर्फ़ एक मर्द था, राज मिस्त्री महिपाल । वह घर के स्त्रियों वाले सारे काम ख़ुद करता था, साफ-सफाई चौका-बरतन, खाना धोना-सुखाना और नौ बजे काम पर निकल जाता था। वह सोचती चालीस-बयालीस का हो जाने के बाद भी अभी तक कुंवारा है? कैसा मर्द है ये ?
पार्वती सोचती यह घर और मिल जाए तो पैसे की किल्लत ख़तम हो जाए। उसे देखकर बरबस हंसी निकल आती। उसे उसकी बनिया गिरी पर अजीब कोफ्त होती। कंजूस कहीं का?
मिस्त्री भी उसे आते-जाते रोज़ देखता और अपने पहलू में आ गिरने के ख़्वाब सजोने लगता। उसके दिखते ही उसकी आँखों में रंगीन बिजलियाँ मचलने लगती। उसके विषय में उसने सब कुछ पता कर रखा था। किन्तु ज्यादातर काम-वालिया परिवार वालों के यहाँ ही काम करती थी। इसलिए उसकी हिम्मत ना पड़ती थी उसे काम करने हेतु आमंत्रित करने की, परंतु चाहता बहुत था। लेकिन डरता था कि कही कोई बात बुरा लगने में इन्हें देर न लगती थी। किसी की इज़्ज़त उतारने में, यह सब बहुत तेज होती है।
एक दिन पार्वती ने उसे छेड़ दिया, “अरे, मिस्त्री साहब...?” उसकी आवाज़ ने उसे चौका दिया। उसे यक़ीन नहीं आ रहा था...!
वह सचमुच पार्वती ही थी, जो छोटे कद, गठीला बदन और सुन्दर चेहरे की साँवली उदास औरत थी। वह सदैव सूती साड़ी पहनती थी। बाल सदैव कसे बंधे होते थे। आज वह हमेशा की तरह उसकी तरफ़ देखे बिना, बात किये बगैर निकली नहीं थी, बल्कि खड़ी हुई उसी से मुख़ातिब थी।
‘कहिए... ?” उसने बड़ी शराफ़त और मुलामियत से पूछा।
“अपने घर का साफ-सफाई का स्त्रियों वाला काम हमसे करवा लिया करो, कम दाम में कर दूँगी।
“पूरी स्त्री वाला काम करोगी जैसे अपनी घर... वाली?’ उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया। फिर वह पछताया।
उसे बुरा लगा था। महिपाल का जवाब उसे बहुत नागवार गुजरा था और उसे कई प्रश्नों से भर गया था। उसने कुछ नहीं कहा और उसकी तरफ़ बिना देखे, बिना कुछ कहे, वहाँ से चल दी।
इसके बावजूद महिपाल ख़ुश था कि बातों का सिलसिला तो चला। इससे पहले पार्वती बात ही कहाँ करती थी। उससे बात करने के लिए सवाल कुछ ऐसे करने पड़ते थे कि उनका जवाब हाँ या न में हो या सिर्फ़ सिर को ऊपर से नीचे या दायें बाएँ हिलाने से बात बन सके।
अब जब भी मिस्त्री उसे देखता, पूछता, “घर वाली बनोगी?” उसका उत्तर नदारत होता था। वह हर तरह से भूखी-प्यासी होती थी, परंतु वह अपने आप को बचाती और छिपाती थी।
कुछ ही दिन बीते थे कि मिस्त्री काम से वापस लौटते वक़्त उसके क़दम बहके और वह पार्वती के कमरे के सामने खड़ा था। हल्के नशे का सरूर था और अंधेरे में इश्क़ पास में रेंग आया था।
“क्यों आए हो?” उसने दरवाज़ा खोलते ही प्रश्न दाँग दिया। ख़ुद दरवाज़े से एक क़दम पीछे हट गई।
कुछ सोचते हुए, मिस्त्री ने सिगरेट का एक कश लगाया और बाक़ी बचा टुकड़ा नाली के एक तरफ़ फेंक कर भीतर घुस आया। उसे इधर उधर देखने के पूर्व ही पार्वती ने एक कुर्सी उसके सामने सरका दी। वह बदस्तूर खड़ी रही।
“तुम्हारा बेटा कहाँ है...कैसा है ...?”
उसने कोई जवाब नहीं दिया। एक बार पीछे मुड़ कर देखा, जहाँ शिबू सो रहा था।
“तू मान क्यों नहीं जाती ? मजे रहेंगे। मेरी कमाई ही भरपूर रहेगी। तुझे काम-धाम करने की ज़रूरत नहीं रहेगी।“
पार्वती ने जब उसकी तरफ़ चेहरा किया तो आँखें नम थीं। लेकिन आँखों में कई प्रश्न अब भी खटक रहे थे।
“फिर वही ?” उसने कहा, “मैंने कितनी बार कहा है, आजकल इन बातों को कोई नहीं पूछता। सब अपनी दुनिया में मस्त है।
“अभी क्या चाहिए ?” उसने पूछा। उसका मतलब भोजन आदि से था। ख़ुद उसने रात्रि भोज नहीं किया था।
“ऐश करते है और क्या? कुछ पिएगे, खाएगे और मिलेंगे।“ फिर कहनी में कोई ग़लती-सी लगी। वह अपने को दुरुस्त करते हुए बोला, “गप-शप करेंगे!”
उसे फ़िक्र थी तो इस बात कि मिस्त्री उसे फिर ना गढ़ दें। उसने अपने पिछले जीवन में झाँका। अब वैसे जैसे फिर रह सकती है? किसी और ख़तरे कि आगत से उसका बदन कांप उठा, जिसे वही सिर्फ़ जानती थी, कोई दूसरा नहीं।
महिपाल के दिमाग़ में वश अवश आपस में युद्धरत थे और पार्वती के अंदर चारा और लाचारी आपस में टकरा रहे थे। वह और उदास होने लगी फिर उसकी आँखें भीगने लगीं। उसने अपना हाथ बढ़ाया और बाजुओं में लेकर कहा-‘मेरी जान, फ़िक्र ना करो..., मैं हूँ ना !’
पार्वती उसे झटकना चाहती थी, लेकिन कुछ सोचकर एकाएक सिर ऊपर करते हुए बोली, “कुछ मांगूँ दोगे ?”
“क्या मांगती हो ? तुम जो कहोगी मैं दूँगा।“
‘पक्की बात ?”
‘हाँ... हाँ... पक्की बात।‘ उसने कुछ उतावलेपन से कहा।
“तुम मुझे अपने को दे दो।“
‘दे दिया। अब तो आ जाओ।“ उसने पार्वती को खीचना चाहा।
“अभी नहीं... अगली बार पूरी मिलूँगी। शर्त ये है कि जीवन भर साथ निभाओगे?”
महिपाल ने सर हिलाकर कहा, ‘वादा रहा।‘ हँस पड़ा। फिर उसने पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी तरफ़ बढ़ा दिया, ‘लो।‘
‘मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है। मेरे लिए ये सब बेकार है। मुझे साथ चाहिए। ज़िन्दगी भर का।“ उसका मतलब साफ़ था। उसने पार्वती कि तरफ़ देखते हुए कहा, ‘मुझे तुम चाहिए, तो सब कुछ हम दोनों को मिलेगा।‘ वह बाहर निकल गया।
उसके जाते ही पार्वती कुछ और परेशान, उदास हो गई। उसके होंठ भिचें हुए थे और वह थोड़ा-सा हाँफ रही थी। उसका बीता हुआ आलिंगन उसे डंस रहा था। किन्तु उसके वादे पर एतबार आ रहा था। उसकी आमदनी इतनी सीमित थी कमरे का किराया, शिबू की पढ़ाई और खाना-कपड़ा नाकाफी थे। वह मजबूर और लाचार थी उसकी तरफ़ खिचने हेतु। उसमें बग़ावत का जज़्बा दिलों दिमाग़ में छाता जा रहा था-।... अपने मन-मस्तिष्क-शरीर की मालकिन वह ख़ुद है, किसी और का हस्तक्षेप नहीं चाहती।
अगले ही दिन वह शिबू के साथ महिपाल मिस्त्री के घर बैठ गई। उसकी नजरें डरी-गिरी एवं झुकी थीं। किन्तु चेहरे पर दुख और अफ़सोस नहीं था। उसकी कमजोरी थी शिबू, किन्तु उम्मीद थी एक बेहतर ज़िन्दगी की। मिस्त्री के पास हौसला था, पैसा था और जगह थी। उसने उसे ढाढ़स बढ़ाया, साहसी क़दम की तारीफ की और किसी क़िस्म की परवाह न करने कि ताकीद की ।
रात में जब वह महिपाल के साथ भिंच कर लेटती तो शंकर उसके जेहन से ग़ायब रहता। मिस्त्री के पास खर्चने के लिए प्रचुर पैसे होते और वह शराबी नहीं था। वह शिबू का ध्यान रखता और स्कूल छोड़ने जाता। रोज़ रात को पीकर नहीं आता, न गाली देता, न मारता-पीटता। जो उम्र भर अपनी औरत से लगे रहते है, वही असली मर्द की पहचान और खूबसूरती होती है। बाक़ी सूरत का क्या, वह तो व्यक्त के साथ बदलती रहती है।
उसने बाहर के दोनों घर छोड़ दिए थे किन्तु इस बड़े घर के चारों घर नहीं छोड़े थे। हालाँकि वह इन्हें भी छोड़ने को कहता किन्तु उसे अपनी गांठ में भी कुछ पैसे होने चाहिए, यह सोच कर काम करती रही। फिर मिस्त्री ने ज़्यादा एतराज न जताया। उसके पास पैसा था उसे औरत चाहिए थी और औरत को पैसा चाहिए था। दोनों का सामंजस्य बैठ गया।
मिस्त्री ने जिस खूबसूरत तरीके से उसकी ज़िन्दगी की जद्दोजहद एवं गुंडों, मवालियों लोलुप लोगों से बचाया था कि उसके प्रति बेपनाह मोहब्बत और इज़्ज़त बढ़ती जा रही थी। तभी तो मिस्त्री हर सप्ताह-पंद्रह दिनों या महीने में एक आध बार अपने गाँव जाता माँ, भाई बहनों से मिलने तो वह कोई पूछताछ, एतराज न करती। आख़िर उनकी भी जिम्मेदारियाँ है। वह कभी घर में पीता पिलाता खाता तो उसे भी शामिल करता। कुछ दिनों में ही वह उसके अनुकूल हो गई थी।
मिस्त्री के साथ रहते हुए तीन साल में दो बच्चे और हो गए। तीन बच्चे और दो बड़े पाँच का परिवार ख़र्च बढ़े, किन्तु आमदनी वही। अब उसका काम पर जाना अनियमित था, लेकिन शाम-रात की बैठकी और गाँव-घर जाना नियमित था। अब घर ख़र्च के पैसे माँगने पर झिकझिक होने लगी। उस पर कर्ज़ चढ़ गया था। उधारी माँगने वालों से मना करता, बेहयाई पर उतर आता- कुछ नहीं है मेरे पास देने को। उखाड़ लो, बिगाड़ लो, जो उखाड़ना, बिगाड़ना हो मेरा। ठेकेदार, असामी कहते, ‘देना तो पड़ेगा’... ।
एक दिन गाँव जाते समय उसकी चुपके तलाशी ली तो हजारों में रुपये मिले। परंतु लौटने पर जेब खाली थी। वह असमंजस में घिर गई। फिर भी उसने कुछ कहना सुनना उचित ना समझा। वह विवाद से बचना चाहती थी। लेकिन वह अंदर ही अंदर सिमट गई, महिपाल उसके लिए अपरिहार्य बन गया था।
पार्वती समझने की कोशिश करती कि ऐसा क्यों होता है कि जितनी देर पीने-पिलाने, खाते-पीने और वासना का दौर चलता सब कुछ सामान्य-सा लगता फिर सब असमान्य-सा क्यों होने लगता है...? जब वह मिस्त्री से पूछती, ‘कोई और है क्या?’ तो हँसता, कहता कुछ नहीं, खिल्ली उड़ाता। वह मन मसोस के रह जाती। क्या करें ! उसे अपना ही खून होने का संगीत सुनाई देने लगा था।
अब की बार मिस्त्री महिपाल अपने गाँव गया तो वापस अगले दिन क्या, हफ्तों नहीं आया। महीना भी पार हो गया था किन्तु उसका कुछ अता-पता नहीं था। गाँव के कुछ कम लफड़े नहीं होते है? उसने सोचा कहीं मार-पीट लड़ाई-झगड़े में पड़ गया हो? मगर यक़ीन था, आएगा ज़रूर कुछ दिनों में? कमरे का किराया चढ़ गया था। घर-खर्च में उसकी जमा पूजी सब स्वाहा हो गई थी। उधारी में काम चलने लगा था। उसने कई नये-पुराने ठेकेदारों से पूछा, कुछ ना पता चला। कर्ज़ वसूली के लिए आए लोगों से भी पूछा उन्होंने कहा, ‘मुझे घर पता होता तो खींच ना लाते साले को !’
पार्वती में अदम्य साहस, असीम आशा एवं जिजीविषा थी, जो समय के साथ पुख्ता होती जा रही थी। और वही उसकी सबसे बड़ी पूंजी थी। उसके पैन्ट की तलाशी लेते हुए उसे मोहनलाल गंज का बस टिकट मिला। आख़िर में... उसने उसके कभी नशे में हाँके वाक्य, जेहन में मँडराये, ‘बहुत खेती-बड़ी है, अपनी अहियामऊ/अलियामऊ में’ गाँव का सुराग हुआ।
वह सुबह से निकल पड़ी अपने तीनों बच्चों के साथ मिस्त्री को ढूँढने।
दोपहर का समय था। तीनों बच्चे वस्तुतः नाममात्र के पोषित थे। किन्तु पार्वती निपट अन्न-जल रहित थी। सारे सफ़र में कोई रोया नहीं था, क्योंकि वे पिता से मिलने जा रहे थे।
आखिर में उसका घर मिला। दरवाज़ा बंद था। बहुत देर तक खटखटाने पर भी अंदर से कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी।
बहुत देर बाद दरवाज़ा खुला तो सामने एक जर्जर बुढ़िया थी जो संभवतः यह देखने आई थी कि खटखटाने वाले है कि नहीं? उसकी आंखे धूधली थी और सारे चेहरे पर परछाईयों एवं झुर्रियों कि अनवरत श्रंखला थी। वह पहचानने कि कोशिश कर रही थी। बुढ़िया ने कुछ न कहा, न परिचय पूछा, न आने को, न बैठने को। इस पर भी पार्वती अपने गोद में लिए बच्चे के साथ भीतर घुस गई साथ में उसके दोनों पैदल बच्चे भी।
अंदर महिपाल को छोड़कर सब थे। पार्वती ने अपना परिचय दिया- ‘हम मिस्त्री महिपाल की पत्नी और उसके ये तीन बच्चे। एक महीना से ज़्यादा हो गया है गाँव आए थे अभी तक वापस नहीं आए है। उनकी खोज-खबर में आए है। कहाँ है?’
“तो...!... हम कौन हैं ? असल में- मैं हूँ मिस्त्री की असली व्याहता स्त्री। जिन्हें वे सात फेरे डालकर आए थे। ये है पैदा किये उनके दो लड़के, एक लड़की और यह बैठे है मिस्त्री के माता-पिता- इनसे पूछो । उसकी पत्नी सुधा ने माता-पिता की तरफ़ इशारा किया और बच्चों को हाथ पकड़ कर दिखाया... “और हमारी शादी हुए 17 साल हुई गए है। पूरा गाँव गया था, विवाह कराने। कोई से पूछ लो।” उसने फिर मोर्चा खोला, “ हमारे ज़िंदा होते तुम कब, कैसे आ गयी? किसी को पता है...?... उसने फिर लताड़ा, “होंगी तुम कोई शहरी जोक जो मेरे सीधे साधे मनई को अकेला समझ कर चिपक गई होंगी।... ‘बाबू जी, अम्मा जी जानते हो इनको ? उसने माता-पिता और दादी से पूछा।‘ वे हतप्रभ थे। उन्होंने इनकार में सिर हिलाया और खरखरती आवाज़ में चिल्लाए, ‘निकालो इसे।“... वह रुकी नहीं फिर गरजी, ‘जितना खून चूसना था चूस लिया। अब नोच कर निकाल दिया है तो फिर चिपकने ना दूँगी। निकल यहाँ से रंडी.॥ जाने क्या जादू-टोना कर दिया होगा डायन ने !”
“आखिर में वे है कहाँ? वे ही बताएँगे हमें ।“ पार्वती पूरी तरह से अपमानित, प्रताड़ित, आजिज आकर पूछा।
“वे शहर गए है। काम करने 15-बीस दिन में आते है। इधर काफ़ी दिनों से आए नहीं है। हम लोगों को ख़ुद चिंता है, इतने दिनों का नागा कभी नहीं हुआ है।“ मिस्त्री की माँ ने बताया।
“कुछ औरते होती है ऐसी-जो चार दिन ज़िन्दगी के मजे लेती है, गैर मर्द को फसाकर।“ माँ ने का कोसा जारी था।
पार्वती को लकवा मार गया था। वह ठगी गई थी। असली-नकली के भ्रम जाल में उलझती, उसका सर चकरा गया। उसने अपना मुंह दोनों हाथों से छुपा लिया। उसे अस्वीकृति का दंश लगा था और उसकी धुन सुनाई पड़ रही थी, जो ताजिंदगी बजती रहेगी। पार्वती के बच्चे सभी चुप-गुमसुम मूक दर्शक थे। वे सभी भूख-प्यास से बेहाल थे।
दादी बुढ़िया ने पूछा, “अब भी कुछ कहना है?”
“हरदम सुनती ही आ रही हूँ, ज़िन्दगी में! अब क्या कहे ?” दिल-दिमाग को स्थिर हो जाते कहा। उसने अपने बच्चों को समेटा और चल दी।
पार्वती-सभी बेरंग, बैरंग वापस आ गए थे बिना उससे मिले जिसकी खोज में गए थे।