अब झाँसी नहीं झाँसियों की जरूरत है / सुरेश कुमार मिश्रा

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मरना तो सभी को है लेकिन मरना कोई नहीं चाहता। भोजन सभी को चाहिए लेकिन खेती करना कोई नहीं चाहता। पानी सभी को चाहिए लेकिन पानी बचाना कोई नहीं चाहता। छाया सभी को चाहिए, किन्तु पेड़ लगाना और उसे जिन्दा रखना कोई नहीं चाहता। इसी तरह बहू सभी को चाहिए, पर बेटी बचाना कोई नहीं चाहता। यह पीड़ा ऐसी वैसी नहीं है-कुछ कोख में मारी जाती हैं / कुछ मरण जन्म पर पाती हैं / कुछ अधिकारों से वंचित कर / जीवन भर तड़पायी जाती हैं।

आज वंदनीय नारी जब भी उदास होती है, तब-तब उसका कारण बड़ा ही विकारी होता है। हम भूल जाते हैं कि वह समाज में पूजनीय है, सम्माननीय है। फिर क्यों उसे हम कम आंकने पर मजबूर कर देते हैं? आज तो झांसी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि है। वही लक्ष्मीबाई जिसने अबला से सबला बनना सिखाया। वही लक्ष्मीबाई जिसने दबी-दबाई आवाजों को बुलंद करना सिखाया। वही लक्ष्मीबाई जिसने अन्याय का विरोध करना सिखाया। यह वही देश है जहाँ राम से पहले सीता, कृष्ण से पहले राधा और स्वतंत्रता के समर इतिहास में गांधी से पहले झांसी लक्ष्मीबाई का नाम लिया जाता है। वैसे भारत धीरे-धीरे पुरुष प्रधान समाज के टैग से बाहर निकलकर सम समाज के टैग की ओर बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। यह वही देश है जहाँ अनेक महान वीरांगनाओं यथा-रानी लक्ष्मी बाई, रज़िया सुल्ताना, रानी रुद्रमा देवी, रानी चेनम्मा देवी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि किस तरह न झुकने वाले रूढ़ी समाज को झुकाया जाता है। उसकी जगह दिखायी जाती है। सशक्त नारी समाज से सशक्त समाज बनता है। किसी भी देश की प्रगति तब तक नहीं हो सकती जब तक वहाँ की महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न चलें। सच तो यह कि बेटियाँ हर किसी के भाग्य में नहीं होती हैं, भगवान को जो घर पसंद आता है, वह उसे वहाँ भेज देता है। वह हमारा कल थी, आज है और कल रहेगी। यदि एक पुरष शिक्षित होता है तो वह अपने तक सीमित रह जाता है। यदि नारी शिक्षित होती है तो वह पूरे समाज को शिक्षित करने की क्षमता, संयमता तथा सहनशीलता रखती है। उसका विकास ही देश का विकास है। हमने देश की परिकल्पना भारत माँ के रूप में इसलिए की है क्योंकि नारी का स्थान सर्वोपरि है-तू ही दुर्गा / तू ही काली / तू ही लक्ष्मी / तू ही सरस्वती / तू है माया / तू महामाया / तुझ में यह सृष्टी समाया / नर देव दानव और गन्धर्व / सब को चाहिए तेरा वर / तू है महान, कृपावान और तू ही है भगवान।

समाज रूपी बैलगाड़ी के दो पहिए कहलाने वाले पुरुष व महिला में अंतर नहीं होना चाहिए। दोनों की समानता समाज की प्रगति के परिचायक हैं। कुछ चंद नामों जैसे-इंदिरा गाँधी, प्रतिभा पाटिल, सुस्मिता सेन, सुनीता विलियम्स, रीता फारिया, पी.वी. सिंधु, कादम्बिनि गांगुली, कमलजीत सिंधु, डायना इदुल, मीरा साहिब फातिमा बीबी, लीला सेठ, किरण बेदी, मदर टेरेसा, देविका रानी, मायावती, सुचेता कृपलानी, हरिता कौर देओल, मीरा कुमार, बछेंद्री पाल आदि के ले लेने मात्र से झांसी लक्ष्मीबाई का देखा हुआ सपना पूरा नहीं होगा। इस देश में झाँसी नहीं झाँसियों की ज़रूरत है। समाज में बदलाव की आवश्यकता है। हमारे आदि-ग्रंथों में भी कहा गया है-यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमंते तत्र देवता। अर्थात जहाँ नारियों की पूजा कि जाती है वहाँ देवता निवास करते हैं। यह सब सुनने में अच्छा लगता है। इसे कथनी से करनी में बदलने की आवश्यकता है। माँ, बहन, भाभी, बुआ, चाची, फुआ, दादी, नानी सभी रूपों में प्रेम बरसाने वाली महिलाओं को हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। जिस तरह महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उनका हाथ बंटाया है ठीक उसी तरह पुरुष भी घर परिवार की छोटी-छोटी जिम्मेदारियों में महिलाओं का हाथ बंटाएँ। वे उन्हें आराम करने का अवसर दें, क्योंकि वे भी मनुष्य हैं, यंत्र नहीं। लक्षमीबाई की पुण्यतिथि की सार्थकता मात्र श्रद्धा सुमन चढ़ाने से नहीं मस्तिष्क में बैठी संकीर्ण विचारधारा को बदलने से होगी। लिंगभेद की पीड़ा मिटाने से होगी। हमारे देश की वर्तमान झाँसी संस्कारों को बोने वाली टीचर भी है, हमारा देखभाल करने वाली डॉक्टर भी, सपनों की उड़ान भरती पायलट भी और तथ्यों को पता लगाती शोधार्थी भी। यदि वह ये सब नहीं भी होती, तब भी वह सब कुछ है, आज से नहीं सदियों से वह सब कुछ है इस सृष्ट‍ि की। क्योंकि वह किसी पद पर न भी हो, तो सृजनकर्ता के पद पर सदैव आसीन रहेगी, जब तक यह सृष्ट‍ि है।