अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / जयप्रकाश चौकसे

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अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
प्रकाशन तिथि : 16 जुलाई 2020


आदर्श व्यवस्था यह रही कि परिवार का मुखिया महीने के खर्च का ब्यौरा बनाता है व अन्य सदस्य चादर देख पैर पसारते हैं। बदलाव यह हुआ कि अपनी आय मुखिया को सौंपते समय व्यक्तिगत मांग पत्र प्रस्तुत किया गया। ऐसे मांग पत्र पर ही सवार हो, अराजकता व्यवस्था में प्रवेश करती है। कालांतर में गणतंत्र व्यवस्था अराजकता का मुखौटा बनती है। गणतंत्र व्यवस्था में यूं सेंधमारी जाती है, धर्मांधता को साधन बनाया जाता है। व्यावसायिक घराने भी परिवार जैसे संचालित होते हैं। व्यवसाय विस्तार के लिए कॉरपोरेट व्यवस्था आई। इसमें जनता को शेयर खरीदने का मौका मिला व अवाम की भागीदारी हुई। आम जनता की रूचि और स्वार्थ केवल लाभांश कमाने तक सीमित रहा, उन्होंने लाभ कमाने के साधन पर विचार नहीं किया।

कॉरपोरेट प्रबंधन ने सत्ता में बने रहने के लिए अनैतिक साधन अपनाए। कागजी लाभ का छलावा भी रचा । पूरी व्यवस्था प्रस्तुत है, फिल्म ‘गुरु’ में। आश्चर्य यह है कि इस फिल्म में पूंजी निवेश भी उसी व्यक्ति ने किया, जिसके साधनों का खुलासा फिल्म में है। यह एक सोची-समझी चाल थी, यह दिखाने के लिए कि वे अपने विरोध को भी पनपने का अवसर देते हैं। ऐसे अराजकता ने स्वयं को गणतांत्रिक होने का दिखावा किया। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म में अभिषेक बच्चन व ऐश्वर्या का अभिनय व प्रेम रसायन भी सामने आया। कॉरपोरेट संस्कृति की जंगल घास भी सर्वत्र फैली। आम आदमी की विचार शैली में भी यह प्रविष्ट हुई। दो कॉरपोरेट्स के बीच की प्रतिद्वंद्विता तीव्र हुई व औद्योगिक जासूसी विधा विकसित हुई साथ ही प्रतिद्वंदी की गुप्त सूचनाएं जुटाने का काम हुआ। फिल्म ‘त्रिशूल’ में यह विवरण प्रस्तुत है। बिपाशा बसु अभिनीत फिल्म ‘कॉरपोरेट’ में बिपाशा प्रतिद्वंदी कंपनी के अफसर की योजना चुरा लेती है। प्रतिद्वंद्वी के प्रोडक्ट के बाजार में आने के पहले उसी तरह का प्रोडक्ट बाजार में फैला दिया गया व उसे भारी घाटा लगा। उपमन्यु के उपन्यास ‘ऑगस्ट रिक्वीम’ में भी युवा आईएएस का द्वंद्व प्रस्तुत है। आश्चर्यजनक है कि औद्योगिक कॉरपोरेट की तर्ज पर अपराध कॉरपोरेट का भी विकास हुआ, राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘कंपनी’में यह विवरण है। सरकार के काम अफसरों द्वारा होते हैं। अफसर का अमला उसके आदेश मानता है। अधिकारी अपने अधीन लोगों के कार्य पर गुप्त रपट देता है, जिस आधार पर पदोन्नति व बर्खास्तगी भी होती है। इस तरह आला अफसर के पास एक कोड़ा होता है, जिस पर कर्मचारी नाच दिखाता है। अंग्रेजों के 200 वर्ष के शासन में कभी भी 30,000 से अधिक गोरे भारत में नहीं रहे। उनकी व्यवस्था ऐसी थी कि 30 हजार, 30 करोड़ को अपना गुलाम बनाए रखते थे। उसी दौर में अफसर प्रशिक्षण संस्था आईएफएस का विकास हुआ, जिसके मूल को कायम रख हमने उसे आईएएस का नाम मात्र ही दिया। इस व्यवस्था में प्रशिक्षित अफसर समाज की रचना को, ग्रामीण व कस्बाई समाज को समझता नहीं वह तो एक छोटे गमले में अंकुरित पौधों को गिनकर इसी आधार पर जिले की फसल का आकलन मुख्यालय को भेजता है। इसी आधार पर आंकड़ों का फरेब खेला जाता है। क्षोभजनक यह है कि कृषि प्रधान भारत में कोल्ड स्टोरेज व्यवस्था का विकास नहीं हुआ। हर वर्ष आकस्मिक वर्षा से हजारों टन खुले में रखा अनाज नष्ट होता है। व्यवस्था की एक कमजोरी है कि नीति निर्माण में अधिकतम को शामिल नहीं किया जाता व आत्मकेंद्रित व्यवस्था क्रियान्वयन नहीं होने देती। व्यवस्था एक ऊंचे टीले पर बैठकर रियायतों की वर्षा करती है और हवा रियायतों को लेकर उस जगह बैठती है, जहां उसकी जरूरत नहीं। सतत कमी बनाए हुए सत्ता में बने रहा जाता है। फिल्म उद्योग में ‘न्यू क्रिएटर्स’ और ‘बांबे टॉकीज’ पहले बने कॉरपोरेट्स थे। वर्तमान के फिल्म कॉरपोरेट्स सामाजिक सोदेश्यता वाली फिल्मों से अधिक ध्यान, लाभ कमाने पर देता है। इस संदर्भ में दुष्यंत कुमार याद आते हैं, ‘अब तो बदल दो इस तालाब का पानी, यह फूल मुरझाने लगे हैं।’