अब यह राष्ट्रीयता कैसी? / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती
राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपना काम कर दिया। फलत: उसे निर्वाण-मुक्ति का पूरा हक है। फिर भी, हमारे नेता उसे बरकरार रखना चाहते हैं। मगर इसमें कई अड़चनें हैं, कई खतरे हैं। ब्रिटिश शासन के विरुध्द लड़ने में, गुलामी को उखाड़ फेंकने की बगावत में राष्ट्रीयता अनिवार्य रूप से अपेक्षित थी। सारे राष्ट्र को एक साथ मिल कर लड़ना जो था। समूचे राष्ट्र को गुलामी की कोढ़ मिटानी जो थी। आजाद सभी होना चाहते थे, चाहे सभी वर्गों के अपने-अपने दृष्टिकोण इस मामले में अलग भले ही थे। आजादी का ख्याल हर एक वर्ग का जुदा-जुदा था कि वह कैसी होगी और उसमें हमारे हक क्या होंगे। मगर गुलामी के खिलाफ लड़ना सभी चाहते थे, सबों को मिल कर लड़ने की जरूरत थी। इसलिए राष्ट्रीयता का भूत सबों पर सवार होना अनिवार्य था। परस्पर विरोधी वर्गों का कंधो-से-कंधो भिड़ा कर लड़ना दूसरे रूप में असंभव था। दूसरी शक्ति इन्हें मिला नहीं सकती थी, एक सूत्र में बाँध नहीं सकती थी।
जहाँ इस राष्ट्रीयता से यह फायदा था, तहाँ हानि भी कम न थी। किसान-जमींदार आदि परस्पर विरोधी वर्गों के स्वार्थ-विरोध की स्पष्टता नहीं हो पाती थी। वह विरोध धूमिल और कमजोर नजर आता था। कभी-कभी तो वह लापता-सा हो जाता था। उस पर एक गहरा पर्दा पड़ा जाता था। चूहे और बिल्ली में या बाघ और बकरी में जो वर्ग-द्वेष है, जो स्पष्ट विरोध है, वह सदा स्पष्ट रहता है। कभी धूमिल या अस्पष्ट नहीं होता। मगर ऐसी हालत यहाँ नहीं होती। बाघ कितनी ही कंठी-माला पहने, टीका-चंदन लगाए, ध्यान धारे और खादी पहने, फिर भी बकरी उस पर विश्वास नहीं करती। उसके निकट नहीं जाती। लेकिन खादीधारी एवं जेलयात्री जमींदारों पर किसान का विश्वास हो जाता है कि वह उसकी भलाई करेंगे यह ठोस बात है और इसका एक बड़ा कारण राष्ट्रीयता है। बाघ और बकरी एक साथ मिल कर किसी से लड़ते नहीं । वे एक सभा में बैठ कर प्रस्ताव भी नहीं करते और न लेक्चर देते हैं। मगर कांग्रेस में ये बातें होती हैं। वहाँ जाकरे किसान और जमींदार दोनों ही ये बातें करते हैं ओर यह होता है राष्ट्रीयता के करते। जब तक यह रहती है, वर्ग-विद्वेष और वर्ग-संघर्ष के आधार पर बने आर्थिक प्रोग्राम चलने नहीं पाते। उनमें बाधा पड़ती है। आजादी की लड़ाई छिड़ी कि किसान-जमींदार के बीच चलनेवाला बकाश्त संघर्ष खत्म हुआ, बंद हुआ। उसे बंद करना ही पड़ता था। इसीलिए विवेकी जन सदा कहते आए हैं कि आर्थिक दृष्टि से होनेवाली मोर्चेबंदी के लिए यह राष्ट्रीयता महान अभिशाप है। फलत: आजादी प्राप्त कर के इस राष्ट्रीयता को मार डालने में ही, खत्म करने में ही शोषित-पीड़ित जनता का त्राण है, उद्धार है, कल्याण है।
लेकिन राष्ट्रीय नेताउसी राष्ट्रीयता को कायम रखने में आकाश-पाताल एक करे रहे हैं! इस 'मौर्फिया' को, मोहक मंत्र और जादू को बनाए रखने की कोशिशें भरपूर हो रही हैं। एक ओर डॉक्टर मथाई इस राष्ट्रीयता के सूत्र में लोगों को बाँध रख कर ही लोगों की गरीबी, बीमारी आदि के विरुध्द जेहाद बोलना चाहते हैं। दूसरी ओर, कांग्रेस के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कांग्रेस के अभाव में अराजकता, अंधेरखाता और विशृंखलता का भूत देखते हुए इसी राष्ट्रीयता की शरण लेना और इसे दीर्घ जीवन-दान देना चाहते हैं, जिला रखना चाहते हैं।
मगर जब राष्ट्र के भीतर ही शोषकों के विरुध्द शोषितों को युध्द-घोषणा कर के खून की नदी पार करनी है, तो यहाँ राष्ट्रीयता का अवसर कहाँ? उसकी गुंजाइश कहाँ है? राष्ट्र के भीतर तो शोषक एवं शोषित दोनों ही आ जाते हैं। ऐसी हालत में आमने-सामने लड़नेवाली सेना का वर्गीकरण राष्ट्रीयता के आधार पर कैसे होगा? राष्ट्रीय कांग्रेस शोषकों की न हो कर केवल शोषितों की कैसे होगी? शोषकों की जो छाप कांग्रेस पर लगी है। वह उतरेगी कैसे? मिटेगी कैसे? या कि राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए जो जनसाधारण के दिलों में सत्कार-सम्मान है, उससे अनुचित लाभ उठाने की तैयारी मात्र यह है? लोगों को फाँसकर और बड़ी-बड़ी आशायें दिला कर कांग्रेस के साथ रखने की कोशिश के अलावे यह और कुछ नहीं है। उचित तो था कि सरकार के समर्थकों की एक नई पार्टी बनती। या यों कहिए कि मालदारों की पार्टी बनती और अपना आर्थिक या समाज-सुधार का कार्यक्रम लोगों के सामने रखती, जिसके आधार पर इसकी परीक्षा जनता करती। मगर ऐसा होने में जनता के भड़क जाने का भारी खतरा है। इसीलिए कांग्रेस को ही जिला रखने का भगीरथ प्रयत्न हो रहा है। किसान की भाषा में कह सकते हैं कि जो कांग्रेस आजतक तगड़े बैल के रूप में मौजूद थी, ऐसे बैल के रूप में, जिससे हल खींचने, गाड़ी चलाने और बोझा ढोने का काम लिया जा सकता था─उसे ही आज नांदिया या बसहा बैल के रूप में, रखने की कोशिश हो रही है और होगी। पहला काम तो इसके लिए असंभव है। अब तो यही कहा जाएगा कि यह मान्य है, पूज्य है इसके सामने सर झुकाओ और इसे कुछ दो-वोट दो, चंदा दो। कांग्रेस के नाम पर चुनावों में वोट माँगना और समय-समय पर चंदे माँगना यही दो काम इसका रह जाएगा। लड़ने या और कोई ठोस काम तो इससे अब किसान-मजदूर आदि ले न सकेंगे। यह बात असंभव है।