अब रेलगाड़ी में फिल्म की शूटिंग महंगी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :21 जुलाई 2015
कहते हैं कि कूटनीति का पहला पाठ यह है कि दाएं हाथ को मालूम नहीं होना चाहिए कि बायां हाथ क्या कर रहा है। आजकल इस तरह के दाएं-बाएं बहुत देखने में आ रहे हैं। कुछ समय पूर्व सरकार की एक शाखा ने सुझाव मांगे कि विदेशी फिल्मकारों को भारत में अधिक शूटिंग करने के लिए प्रेरित करने हेतु क्या करना चाहिए। अनेक देशों में निर्माता द्वारा देश में व्यय किए धन का तीस या चालीस प्रतिशत धन उसे लौटा दिया जाता है। फीजी द्वीप में तो निर्माता को सरकारी बैंक में राशि जमाकर, उसी में से खर्च करना होता है और शूटिंग के बाद सरकार पचास प्रतिशत धन उसी खाते में जमा कर देती है। किसी देश में लोकेशन व्यय नहीं देना होता। कनाडा में तो निर्देशक को हेलिकॉप्टर में बैठाकर सारे लोकेशन दिखाए जाते हैं और यह सेवा मुफ्त है। बहरहाल, सरकार ने अपने देश के फिल्मकारों को कोई सहूलियत देने की बात ही नहीं की। मुंबई के उपनगर वरसोवा में लगभग सुनसान से रोड पर शूटिंग के लिए प्रतिदिन एक लाख रुपए देने होते हैं। बहरहाल, ताजा निर्देश यह है कि फिल्मकार को ट्रेन में शूटिंग के लिए पांच लाख रुपए प्रतिदिन देने होंगे। मीटरगेज का भाव अलग है और ए ग्रेड स्टेशन के लिए छोटे शहर के स्टेशन से कम देना होगा तथा गांव में स्टेशन पर शूटिंग मुफ्त रखी गई है, क्योंकि गांवों तक रेलगाड़ी पहुंची ही नहीं है। दाएं हाथ ने पूछा कि विदेशी फिल्मकार को क्या सहूलियत दें और बाएं ने रेल शूटिंग भारतीय फिल्मकार के लिए महंगी कर दी।
इम्तियाज अली की 'जब वी मैट' पहले बन चुकी है, आज बनती तो करीना के मेहनताने से अधिक धन रेलवे को देना पड़ता। 'दुल्हनिया' के दृश्य भी महंगे हो जाते। रोहित शेट्टी की 'चेन्नई एक्सप्रेस' का बजट उसकी आय से अधिक हो जाता। राज कपूर की एक प्रस्तावित फिल्म 'रिश्वत' तो पूरी ही ट्रेन सफर की कथा थी। अब उस पुरानी पटकथा पर जमी हुई धूल साफ करने की आवश्यकता ही नहीं है। राजकुमार हीरानी को भी 'पीके' का रेलवे स्टेशन दृश्य महंगा पड़ता, जिसके पार्श्व में उन्होंने साहिर का 'फिर सुबह होगी' का गीत रखा था, 'आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम, आजकल वह इस तरफ देखता है कम।' कितने दूरदर्शी थे साहिर साहब!
बहरहाल, भारतीय रेलवे व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की जमा जनसंख्या के बराबर लोग भारतीय रेल में सवार होते हैं। गोयाकि पूरा देश ही रेल के पहियों पर चलता है। आज खुशवंत सिंह की 'ट्रेन टू पाकिस्तान' नहीं बनाई जा सकती परंतु यह संभव है कि कोई विदेशी फिल्मकार बनाए तो उसे सेवा मुफ्त मिलेगी। भविष्य में भारतीय मुसाफिर के लिए रेलवे टिकट खरीदना मुश्किल होगा। हम विदेशियों की सूहलियत ध्यान में रख रहे हैं और क्यों न रखें हमारे यहां अतिथि को ईश्वर का रूप माना जाता है। संभवत: इसी महान संकल्प के लिए विदेशी आक्रमण करने वालों का हमने स्वागत किया है।
बहरहाल, आज यह भी याद आ रहा है कि फ्रांस के लुमिअर बंधुओं ने 1895 में चलती-फिरती तस्वीरों का पहला प्रदर्शन किया था तो उसमें भी एक दृश्य रेल के स्टेशन पर आने का था। रेल को केंद्र में रखकर बहुत-सी फिल्में हर देश में बनी हैं। दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना' का ट्रेन डकैती का दृश्य श्रेष्ठतम है। इसके बाद 'शोले' का रेल डकैती दृश्य है। बोनी कपूर की 'रूप की रानी' में रेलवे डकैती का अद्भुत दृश्य था, जिसमें हेलिकॉप्टर से लटककर नायक मालगाड़ी का डिब्बा तोड़कर चोरी करता है। ट्रेन में प्रेम कहानियों की भी शूटिंग हुई है। सुभाष घई की 'विधाता' में दिलीप व शम्मी कपूर रेल चलाने वाले बने हैं और भारतीय क्रिश्चियन समाज की दुविधा गाथा 'जूली' में ओमप्रकाश रेलवे ड्राइवर हैं। एक पूरी फिल्म '27 डाउन' रेल में शूट की गई थी। इतना ही नहीं महान सत्यजीत राय की 'पाथेर पांचाली' में गांव के बच्चे ट्रेन देखने के लिए कई मील पैदल चलकर जाते हैं और 'अपूर संसार' में बच्चे अपू को ट्रेन ट्रैक के पास सस्ते में कमरा मिलता है और उसकी आवाजों से वह ऊब जाता है गोयाकि बचपन का कौतुक जवानी में सिरदर्द साबित होता है। मेरे मित्र प्रोफेसर केसी शाह का परिवार दशकों तक स्टेशन के निकट रहा अत: जब वे इंदौर के राज मोहल्ले में से तो उन्हें ट्रेन की आवाजों के बिना नींद नहीं आती थी तो ट्रेन की आवाजों का कैसेट सुनकर सोते थे। दरअसल, भारत के सामूहिक अवचेतन में ट्रेन एक सपने की तरह रही है। अब वे अनेक स्टेशनों की नवसज्जा के बाद इतनी महंगी होने वाली है कि डराने वाला सपना बन जाएगी। भारत का पहला रैप गीत अशोक कुमार ने गाया था, 'रेलगाड़ी..रेलगाड़ी छुकछुक छुकछुक' फिल्म थी 'आशीर्वाद!'