अभाव, खुशहाली और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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अभाव, खुशहाली और सिनेमा
प्रकाशन तिथि : 01 मार्च 2013


क्या आम आदमी बजट द्वारा लाभान्वित होकर अधिक संख्या में फिल्में देखेगा? क्या आम जीवन की खुशहाली बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों से ज्ञात होती है। क्या दुख और अभाव के दिनों में मनोरंजन उद्योग की कमर टूट जाती है? मनोरंजन उद्योग का बजट से उपरोक्त संबंध है, साथ ही भांति-भांति के कर से भी वह दबा है। मसलन रॉ-स्टाक को आयात करते समय कर दिया जाता है और उस पर बनी फिल्म को प्रदर्शन के समय पॉजिटिव पर प्रिंट किया जाता है, जिस पर भी आयात कर है। मनोरंजन उद्योग के सितारों की रईसी के किस्से इतने प्रचारित हैं कि उनके कारण इस उद्योग के प्रति कोई हमदर्दी नहीं दिखाई जा सकती, परंतु फिल्म उद्योग में मजदूर भी हैं, जूनियर कलाकार भी हैं। यह भी सच है कि उद्योग को करों में दी गई रियायत उद्योग के मजदूरों को कोई लाभ नहीं पहुंचाती। दरअसल गरीब को दिया धन उस तक पहुंचता ही नहीं, जिसके कारण अब सीधे उसके बैंक खाते में रकम जमा करने का काम किया जा रहा है।

मनोरंजन उद्योग को प्रांतीय सरकारें लाभ पहुंचा सकती हैं। मनोरंजन पर कर लगाना अनैतिक है। गुलामी के दिनों यह कर बारह प्रतिशत था, परंतु आजादी के बाद कुछ प्रांतों में यह १५० प्रतिशत हो गया था, परंतु विगत कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में सुधार हुआ है और कुछ प्रांतों ने मनोरंजन कर समाप्त कर दिया है।

कुछ लोगों का ख्याल है कि मनोरंजन उद्योग, शराब का व्यवसाय और शरीर बेचने के व्यवसाय पर आर्थिक मंदी और अभावों से फर्क नहीं पड़ता। गम की अवस्था में शराबनोशी गम गलत करने के नाम पर होती है और खुशहाली के दिनों में उत्सव मनाने के नाम पर। कुछ लोग साहस और उमंग बढ़ाने के लिए शराब पीते हैं, जबकि मेडिकल तथ्य यह है कि वह नैराश्य को जन्म देती है। हमारे देश में सिनेमा भी नशे की तरह रचा गया है और आदतन 'सिनेमाखोर' कड़की या खुशहाल दोनों ही दशाओं में फिल्म देखता है। अभिव्यक्ति के एक महान माध्यम को हमने नशे में बदल दिया है।

इस मुद्दे का एक पक्ष यह है कि मनुष्य स्वभावत: पलायनवादी है। वह हकीकत झेल नहीं पाता। अत: कुछ घंटे मायावी संसार में अपने को खो देना चाहता है, जबकि साहित्य स्वयं को खोजने में सहायता करता है। सिनेमा का उद्देश्य भी यही होना चाहिए था। इंटरनेट के दीवाने लोग भी यथार्थ से भागकर वैकल्पिक संसार में खो जाना चाहते हैं। पलायनवादी प्रवृत्ति अन्य स्तरों पर भी काम करती है। युद्ध के तांडव में मनुष्य परिवार की याद में खो जाता है। 'ऑल क्वायर ऑन वेस्टर्न फ्रंट' में एक तितली को निहारते हुए सैनिक अपनी सुरक्षित खंदक के बाहर आ जाता है और उसे गोली लग जाती है। युद्ध मनुष्य पर थोपे जाते हैं, वह तो तितली के रंगों में खोना चाहता है।

भारत की आर्थिक खाई के कारण एक छोटा-सा वर्ग है, जिसका जीवन महंगाई से अछूता है, उसे बजट से फर्क नहीं पड़ता और यह वर्ग मनोरंजन की तलाश में हमेशा रहता है। जिस विराट वर्ग के जीवन में बजट से फर्क पड़ता है, उस वर्ग को सिनेमा देखना कभी-कभी ही नसीब होता है। आज देश में उन सब क्षेत्रों में बहार है, जिनमें बजट और महंगाई से अप्रभावित रहने वाला छोटा-सा वर्ग रुचि रखता है। हमने देश के रेगिस्तान में हरियाली का छोटा-सा टापू रचा है। इस टापू पर रहने वाले मुतमईन हैं कि वे महफूज हैं, परंतु वे लहरों के पागलपन को नहीं जानते।

सिनेमा युवा दर्शक वर्ग के आधार पर टिका है। बाजार ने युवा वर्ग को सबसे बड़े ग्राहक के रूप में स्थापित कर दिया है, जिसका प्रभाव हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। युवा वय को सिक्के में बदलने वाले बाजार और विज्ञापन दुनिया को सलाम। उनके इस प्रयास से एकांगी विकास का दोषपूर्ण मॉडल सारे राजनीतिक दलों का मैनीफेस्टो बन गया है। विकास के ध्वज अब धर्म के ध्वज का स्थान ले रहे हैं और इसी ध्वज पर लहराने वाले विकास ने आर्थिक खाई को गहरा किया है। इसका सारांश यह है कि नशे ही एक-दूसरे का स्थान ले रहे हैं। युवा मिथ का टूटना संभव नहीं है। यह वर्ग सिनेमा का नहीं, सितारों का दीवाना है और सितारों के अवाम में पागलपन की वृद्धि सिने अर्थशास्त्र के सनकीपन के अनुकूल है।

एक दौर में आम आदमी के अभावों पर रची फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल होती थीं। उस दौर में गरम कोट, जागते रहो, आवाज, फुटपाथ इत्यादि सफल रही हैं। चार्ली चैपलिन का सिनेमा तो अभावों से जूझते और संघर्ष में मुस्कराते आम आदमी का ही सिनेमा था। आज सिनेमा सुपर हीरो का सिनेमा है और अभावग्रस्त नायक की कल्पना नहीं की जा सकती। जिस आपसी अविश्वास और नफरत के दौर ने पूरे देश को विराट सिनेमाघर में बदल दिया है, उस दौर की विसंगतियां उसे अवास्तविक बना देती हैं और बजट राष्ट्रीय हकीकत को हीं, एक राजनीतिक अफसाने को जन्म देता है।