अभाव से अति / संतोष भाऊवाला
एक लकडहारा नित्य जंगल से लकड़ी काट कर व् उसे बेच कर, किसी तरह कष्ट सह कर, अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था। किसी दिन भर पेट खाना मिलता तो किसी दिन फांके करने पड़ते।
उसकी पत्नी हर रोज उसे ताना मारती थी “क्यों रोज रोज पतली पतली लकड़ियाँ काट कर लाते हो? उनको बेच कर इतना कम पैसा मिलता है कि निर्वाह बहुत मुश्किल से हो पाता है” लेकिन लकडहारा ध्यान न देता था। एक दिन उसकी पत्नी ने कहा कि वह भी जाएगी उसके साथ, जंगल में। दोनों जन लकड़ी काट ही रहे थे कि अचानक पत्नी को थोड़ी दूर पर मोटी मोटी लकड़ियों का पेड़ दिखाई दिया। उसने उस ओर इशारा किया और आगे बढ़ गयी। लगे काटने दोनों जन, खूब मोटी मोटी लकडियाँ। जब उन्हें बेचा बाजार में, ढेर सारा पैसा मिला, जिससे पूरे परिवार का गुजारा आराम से होने लगा। अब यह नित्य का क्रम बन गया।
"जो अपनी सहायता करते है भगवान् भी उनकी सहायता करते है"
अब प्रतिदिन लकडहारा मोटी-मोटी लकडियाँ लाने लगा और उनके हालात सुधरने लगे। धीरे धीरे लकडहारे का लालच दिन पर दिन बढ़ने लगा। जंगल में मोटी-मोटी लकड़ियों के लालच में थोड़ी दूर और थोड़ी दूर, करते करते, वो बहुत आगे जाने लगा। अबकी बार उसे चन्दन की लकड़ी मिली, ख़ुशी से फुला न समाया। घर सम्पति से भरने लगा।
लेकिन इधर पत्नी की रातों की नींद उड़ने लगी और वो दिन पर दिन दुबली होने लगी और दुखी भी रहने लगी। लकडहारे ने पूछा “अब तो हमारे दिन फिर गये है, फिर तुम्हे किस बात की चिंता है? पहले कम कमाता था तो तुम दुखी थी, अब ज्यादा कमाता हूँ तो दुखी हो” तब पत्नी ने कहा कि न तो अति अच्छी है और न ही अभाव। अगर आप ज्यादा और ज्यादा के चक्कर में और आगे जाते जायेंगे तो, किसी दिन जंगली जानवर आपको अपना शिकार न बना ले। यही चिंता मुझे दिन रात खाए जाती है। भगवान् का दिया, अब हमारे पास सब कुछ है। आप ज्यादा आगे ना जाएँ। ये सुन कर लकडहारा हंस दिया और कहा कि बेवकूफ हो तुम, ऐसा कुछ भी नहीं होगा और उसने पत्नी की बात न मानी, हंसी में उड़ा दी।
और फिर एक दिन....... वही हुआ जिसका पत्नी को डर था।