अभिनेत्री भूमि पेडनेकर के सौंदर्य का रहस्य / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 अक्तूबर 2019
बुसान फिल्म फेस्टिवल में कोरिया की एक फैशन पत्रिका ने भूमि पेडनेकर को 'फेस ऑफ एशिया' का खिताब दिया। भूमि पेडनेकर पहली भारतीय कलाकार हैं, जिन्हें इस तरह का सम्मान दिया गया। वहां उनकी फिल्म 'डॉली, किट्टी और वो' का प्रदर्शन हुआ। इस फिल्म के भारत में प्रदर्शन की तैयारी की जा रही है। जब भारतीय सितारों की खूबसूरती की बात की जाती है, तब मधुबाला, सुचित्रा सेन, माधुरी दीक्षित नेने और जूही चावला मेहता का जिक्र किया जाता है। 'हैप्पी भाग जाएगी' में तो एक संवाद इस आशय का है कि सभी मधुबाला को चाहते रहे परंतु मधुबाला किसे चाहती थीं। मधुबाला द्वारा शूटिंग का समय नहीं दिए जाने के खिलाफ एक अदालत में मुकदमा दायर हुआ था, जिसमें फिल्म के नायक दिलीप कुमार ने निर्माता के पक्ष में गवाही देते समय स्वीकार किया था कि उन्हें मधुबाला से इश्क है। संभवत: यह परम्परा ही रही है कि हमारे सुपर सितारे हमेशा शक्तिशाली पक्ष के साथ खड़े रहते हैं। जाने वे क्यों हमेशा भयभीत रहते हैं?
बहरहाल, भूमि पेडनेकर मधुबाला या सुचित्रा सेन की तरह सुंदर नहीं हैं परंतु उन्हें 'एशिया का चेहरा' माना गया। भूमि पेडनेकर आम भारतीय महिला की तरह दिखाई देती हैं। वे आपको अपनी पड़ोसन की याद दिलाती हैं। जया बच्चन भी यही प्रभाव उत्पन्न करती रही हैं। भारतीय मध्यम वर्ग की महिला अपनी गृहस्थी की चक्की पीसते-पीसते उसमें पिसती रहती हैं और बकौल इरशाद कामिल 'मैं सारी-सारी रात तकिया करूं' को जीते हुए मरती रहती हैं। या कहें मरते-मरते जीती रहती हैं। कहा जाता है कि लैला सुंदर नहीं थी परंतु उसे मजनू की आंखों से देखें तो वह संसार की सबसे सुंदर स्त्री थीं गोयाकि सौंदर्य देखने वाले की आंख पर निर्भर करता है। बहरहाल, बुसान की फैशन मैग्ज़ीन के संपादक की नज़र में भूमि पेडनेकर एशिया का चेहरा हैं। घर को बुहारती, परिवार का भोजन बनाती, बीमार की सेवा करती गृहिणी का शरीर कविता की तरह घर-आंगन में प्रवाहित नदी की तरह होता है और बकौल शैलेन्द्र वह 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी' रहती है। सौंदर्य स्थिर छाया चित्र नहीं होते हुए चलता-फिरता सार्थक चित्र है। शांताराम की फिल्म 'नवरंग' का कवि नायक अपनी कल्पना की स्त्री के सौंदर्य की प्रशंसा में कविता करता है और लंबे अरसे बाद वह इस यथार्थ से परिचित होता है कि उसकी कल्पना में उतरा चेहरा किसी और का नहीं वरन घूंघट में सदैव कार्यरत उसकी पत्नी का है। राज कपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' का नायक जिसके साथ अभिसार करता है उसका आधा जला चेहरा उसने नहीं देखा है। दरअसल, मर्द उस हिरण की तरह होते हैं, जो उस सुगंध के पीछे ताउम्र भागता रहता है, जो उसकी ही नाभि से आ रही होती है।
विगत कुछ दशकों से सौंदर्य शल्य चिकित्सा विज्ञान ने बहुत प्रगति की है। चपटी नाक सुडौल बनाई जाती है, ओठों में इंजेक्शन लगाकर उन्हें मादक बनाया जाता है परंतु इस प्रक्रिया के साथ यह हिदायत दी जाती है कि इन ओठों का चुंबन नहीं लिया जा सकता गोयाकि ये हाथी के दांत की तरह दिखाने वाले हैं, चूमने वाले नहीं।
चेहरे की शल्य चिकित्सा को 'फेस लिफ्ट' करना कहते हैं। हमारे कुछ उम्रदराज सितारों ने यह कराया है। दरअसल उम्रदराज लोगों के चेहरे पर उभर आई झुर्रियां इक इबारत है, जिसमें उनका अनुभव लिखा होता है। इस तरह चेहरा एक किताब है, जिसे देखना नहीं वरन् पढ़ना होता है। शिवम नायक की तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म 'नाम शबाना' के क्लाइमैक्स में आतंकी अपने चेहरे को शल्य चिकित्सा द्वारा बदलवाने के लिए अस्पताल में भर्ती है। इस तरह का काम वह कई बार कर चुका है, इसलिए ग्यारह मुल्कों की पुलिस उसे पकड़ नहीं पाई थी।
तापसी पन्नू अभिनीत भारतीय गुप्तचर एक मरीज की तरह अस्पताल में भर्ती होकर ऑपरेशन थिएटर में आतंकी का कत्ल करती है। भूमि पेडनेकर का चेहरा एक सामान्य स्त्री का चेहरा है परंतु उनकी सादगी, उनके साधारण होने में ही उनके सौंदर्य का रहस्य छिपा है। उनके द्वारा अभिनीत फिल्मों की टिकट खिड़की पर सफलता प्रियंका चोपड़ा, कैटरीना कैफ और दीपिका पादुकोण से अधिक है।
भूमि पेडनेकर का सौंदर्य देखने वाले को चकाचौंध नहीं करता न ही भयभीत करता है, वे अपने साधारण होने से ही असाधारण दिखती हैं। उसके चेहरे से ऊर्जा प्रवाहित होती है। वह सर्दियों में ताप देता है और गर्मियों में शीतलता प्रदान करता है। नूतन के पति ने 'सूरत व सीरत' नामक फिल्म बनाई थी। फिल्म का संदेश था कि चरित्र ही असली सौंदर्य है। कहा जाता है कि शायर ज़िगर मुरादाबादी पारम्परिक रूप से हैंडसम नहीं माने जाते थे परंतु जब मुशायरे में वे अपना कलाम पढ़ते तो बेहद खूबसूरत लगते थे। मनुष्य की तर्क प्रधान विचारशैली उसके चेहरे को खूबसूरत बना देती है। अशोक कुमार अभिनीत फिल्म 'मेरी सूरत, तेरी आंखें' का नायक बदसूरत माना जाता है और उसका मखौल उड़ाया जाता है। उसकी वेदना को सचिव देव बर्मन और शैलेन्द्र ने अभिव्यक्त किया, 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, इक पल बीता एक युग जैसे।' स्वयं सचिन दा ने कहा था कि इस धुन की प्रेरणा उन्हें काजी नज़रूल इसलाम की रचना से मिली थी।