अभिमन्यु की जीत / राजेन्द्र वर्मा
सवेरे दस का समय। शहर के पुराने मोहल्ले और नयी कालोनी के बीच नदी के पुल पर से रोज़ाना की तरह लोग एक-दूसरे को अनदेखा करते हुए दफ़्तर और बाज़ार भाग रहे थे।
अचानक दो-तीन आवाज़ें आयीं-अरे देखो, कोई कूद रहा है! अ-र-र-र-र ... कूद गया!
स्थानीय मल्लाहों की सहायता से पुलिस ने लाश निकलवायी। तमाशबीन भीड़ में से एक ने पहचान की, "अरे! ये तो प्रकाश बाबू हैं। यहीं नगर निगम में थे... अभी परसों ही तो इनसे मिला था। ... अच्छे-भले तो थे। ऐसा क्यों किया?"
किसी की संवेदना फूट पड़ी, "अरे ज़रूर कोई बात रही होगी, वरना ऐसे कोई आसानी से अपनी जान गँवाता है!"
एकाएक अन्य प्रकार का स्वर उभरा, "यह नगर निगम में था न! किया होगा लाखों का घपला! कैसे हज़म करता? रिटायरमेंट के करीब होगा ही, सोचता होगा-और कितना जियेगा? ... एक दिन तो मरना ही है। बेइज्जती से तो बचा! घरवाले मौज़ करेंगे, सो अलग! आपको क्या पता, आजकल लोग कितने कैलकुलेटिव हो गये हैं!"
जिस व्यक्ति ने मृतक की पहचान की थी, प्रतिरोध किया, "आप अपनी लगाये हुए हैं। आदमी मर गया तब भी... उफ़! कुछ तो लिहाज कीजिए। आपको क्या मालूम इनके बारे में? ...कभी एक पैसा रिश्वत नहीं ली, जबकि ऐसी जगह थे कि लाखों कमा सकते थे। बाबूगिरी की सूखी तनख़्वाह में काट दी ज़िंदगी! फंड क पैसा निकालकर लड़्की की शादी की, लड़्के को इंजीनियरिंग करायी, लेकिन नौकरी नहीं दिला पाये। कर्ज़ में डूब गये थे बेचारे! ... लेकिन इस तरह कोई जान देता है भला!"
"चले, इसकी जगह लड़के को नौकरी तो मिल जायेगी। मरना बेकार नहीं जायेगा बेचारे का।" किसी की ठंडी आह निकली थी।