अभिव्यक्ति / कमलेश पाण्डेय

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सीधा-सादा दृश्य है. एक भला-सा दिखता आदमी दिल्ली की चौडी-सी सड़क के किनारे पानादि के खोखे से ठंढे पानी की एक बोतल खरीद कर फुटपाथ पर खडा है. उसके सामने एक रिक्शा रुकता है. सवारी रिक्शेवाले को दस का नोट पकड़ा कर जैसे ही हटती है, वह एकदम कूद कर रिक्शे पर चढ जाता है और पानी की बोतल का सील खोलते हुए रिक्शेवाले से कहता है-जल्दी चल! तेज धूप में पसीने से तरबतर रिक्शेवाला एक बार मुड कर सूखी आँखों से उसके मुंह में बोतल से गिरती धार को देखता है और पैडल पर पैर मार देता है.

पास के बस-स्टॉप पर तीन जोडी मर्मज्ञ आँखें इस दृश्य की तस्वीर उतार कर तीन संवेदनशील हृदयों को भेजती हैं जो आगे उन्हें तीन सर्जक मस्तिष्कों को फारवर्ड कर देते हैं. एक कोमल सा ह्रदय जो है, सो एक उदीयमान युवा कवि का है, दूसरा धीर-गंभीर-सा दिल एक नवांकुर कहानीकार का और तीसरा बेचैन और भभकता हुआ दिल एक व्यंग्यकार का है. शाम को वह सीधा-सादा दृश्य इन प्रखर खरादों पर चढ कर रचना का रूप ले लेता है. चूंकि रिक्शेवाला अपनी सवारी समेत दृश्य के कनवास से बिना कोई अंतिम प्रतिक्रिया दिए निकल भागा है, तीनों अपनी अपनी कल्पनाओं और प्रतिबद्धताओं के आधार पर एक अदद उपसंहार भी रचना में गूंथ देते हैं. आईये, इन तीनों रचना प्रक्रियाओं और इनसे जन्मे उत्पादों की एक झलक देखते हैं:

कहानीकार

कहानीकार इस दृश्य को एक पैनोरमा में यानी सम्पूर्णता में देख रहा है. इस दृश्य को वह एक वृहतर परिदृश्य का टुकड़ा मान कर बरतता है. वह प्योर लिटरेचर का पक्षधर है सो अपनी अभिव्यक्ति को कविता की रोमांटिकता और व्यंग्य के भदेसपन दोनों से बचा कर चलता है. वह एकदम दृश्य की तहों में घुस जाता है और सच्चाई को उधेड़ कर नंगा कर देने का बीडा उठा लेता है. दृश्य को सरसरी निगाह से परख कर ही वह आश्वस्त हो चुका है कि इस पर एक अदद कहानी नहीं तो लघुकथा तो ठुक ही जायेगी. इसलिए सृजन की पीड़ा के दौरान उसकी आँखें नम नहीं होतीं, न वह उत्तेजित होता है, बस ‘मूक अंतरालों’ में शब्द भरने की कवायद में जुट जाता है. वह पहले रिक्शेवाले की संवेदना से अपने तार जोडता है और अपने अवचेतन मन पर उसकी तस्वीर के प्रक्षेपण का जायजा लेता है. फिर वह बड़ी बारीकी से उसके चरित्र के शब्द चित्र का आउटलाइन उकेरता है. तैयारी के इस मोड पर वह दृश्य से जुड़े सामाजिक सरोकारों का आकलन और अपनी रचनाधर्मिता के मूल लक्ष्यों से सामंजस्य बिठाकर कथ्य और भाषा की बुनावट व् शिल्प का निर्धारण कर डालता है. यहाँ वह कहानी में आंचलिकता फेंटने की सम्भावना पर चिंतन करता है, पर रिक्शेवाले को मौन देखकर माहौल को आधुनिक ही रखने का निर्णय लेता है. इस प्रक्रिया के बाद वह गर्मी, प्यास और रिक्शे से जुड़े कुछ निजी भोगे हुए यथार्थों को कल्पना जगत में पुनः जी कर उनसे उपजे संत्रास और द्वंद्व आदि दीगर उपादान बटोरकर रिक्शे वाले की संवेदना पर एक नितांत निजी अभिव्यक्ति के लिए प्रस्तुत हो जाता है. इस विकट ज़द्दोज़हद से उत्पादित पदार्थ कुछ यों है-

प्यास बनाम बोतल

उसकी आँखों में एक शदीद प्यास थी. ये वही आदम प्यास थी जो उसे धरती पर सहरा के ख़ाक छनवा रही थी, एक आदम जिजीविषा. उसके पपड़ीयाये सूखे होंठ फडफडा रहे थे. पेट की धौंकनी ने अंदर कोर-कोर सुखा डाला था. अपने हाड को निचोड़ कर वह वहाँ पंहुचा था और अपने सतत सफर के एक संक्षिप्त पड़ाव पर दो बूंद पानी का हक़दार था. पर वह तो बोतल में सील बंद था और उस आदमी के हाथ में था जो आगे उस पर सवारी करने को था. प्यासा वह आदमी भी था पर कितनी अलग थी उसकी प्यास इस खुली धूप में रिक्शे का हैडल पकडे इस आदमजाद से कि उसको बुझाने का जरिया उसके अपने हाथों में ही था. उधर रिक्शेवाला अभी-अभी मिले दस के नोट को कमीज की जेब में महसूस करता हुआ ये जानता था कि वह नोट इस बोतल-बंद दो घूँट पानी के लिए नहीं, बल्कि रोटी के लिए कमाया गया था. शायद इतने से पानी से उसकी प्यास बुझती भी नहीं, क्योंकि पानी उसकी आँखों तक में सूख चुका था. विडम्बना ये कि उसके जिस्म का पोर-पोर पसीने से भीगा था. पानी की एक धार-सी माथे से बहती उसके निचुड़े हुए पेट से होकर गुठठल पावों तक बह रही थी, पर ये पानी तो उसके अंदर जमा जिजीविषा के पिघलने से रिस रहा था और उसकी प्यास को उलटे और धधका रहा था.

रिक्शे का पैडल घुमाने से पहले उसने, एक बार मुड कर सवारी को देखा. वह बोतल की सील खोल चुका था. धमकाने के से अंदाज़ में उसने कहा, “ अब जल्दी चल, कितनी धूप है.” रिक्शेवाले के पाँव पैडल पर ठिठके रहे. थूक निगल कर तपते गले को तर करने की बेज़ार-सी कोशिश कर उसने पैडल घुमा देने के हौसले को तौला. दो बूँद तो गले में चाहिए ही. उसने उस मौसम में आम तौर पर होने वाले ‘डीहाईडरेशन’ और उससे जुडी बीमारियों के बारे में न पढ़ा था न इस बाबत किसी डॉक्टर की सलाह सुनी थी. उसका जिस्म खुद ही उसे बता देता था कि रोटी और पानी के बगैर अब नहीं चल सकता. उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, हालांकि उसे मालूम था कि म्युन्सीपालटी का बंबा यहाँ से दो फर्लांग दूर उलटी तरफ है और ये भी कि इस वक़्त उसका पानी उबल रहा होगा.

सवारी की अगली घुडकी पर उसने अनायास दायें पैडल पर अपना पूरा भार डाल दिया. रिक्शा एक झटके से चल पड़ा. चक्र में मौजूद गतिज ऊर्जा ने उसके पैरों को घुमाना शुरू कर दिया. वह जैसे एक जोम में आगे बढ़ा. रिक्शे ने पूरी गति पकड ली. वह कुछ गज ही आगे बढ़ा होगा कि उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया. उस काली स्क्रीन पर कुछ तस्वीरें उभरने लगीं. आस-पास एक गाँव उग आया, जहां पोखर था, कुआं था, जिनमें डुबकी लगा-लगा कर वह रोम-रोम की प्यास बुझाने लगा. तभी आसमान से फुहारें पड़ने लगीं. उसने दोनों हथेलियों का ओक बना कर सृष्टि से बरसते अमृत को पीना चाहा, पर अचानक अन्धेरा सम्पूर्ण हो गया. सबकुछ गायब.

आँखें खुलीं तो उसके मुंह में सवारी की पानी की बोतल के आख़िरी दो घूँट फिसल कर अन्दर जा चुके थे. बगल में रिक्शा उलटा पडा था और जिस्म में जगह-जगह से गाढा लाल खून रिस रहा था. होश ने प्यास के अहसास को चरम पर पंहुंचा दिया. उसका जी चाहा कि अपने बदन से बहते लहू को ओक में भर कर अपनी दहकती प्यास को बुझा ले.

कवि

कवि भावुक है. उसका संवेदनशील मन पानी पर एकाग्र होता है.. पानी उसकी आँखों में भी उतर आया है. उसके अंतर्मन में पानी..पानी.. की गुहार सी मच जाती है. पूरे परिदृश्य में से वह पानी को पकडने का प्रयास करता है. उसका पूरा अस्तित्व जलमय हो उठा है. अपने रिक्शेवाले को पानी पिलाने के इरादे से वह पानी पर पिल पड़ता है.

कविता में वह गूढ़ भावार्थ का हामी है. इसे गागर में सागर भरना है. यहां सुभीता है, क्योंकि मसला पानी से ताल्लुक रखता है. वह पहले अपनी गागर गढने के लिए मिट्टी उठाता है. छंदों की गोलाई और सुगढता उसे पसंद नहीं, छंदमुक्त, अनगढ आकार की गागर ही ठीक है. दृश्य को उलट-पुलट कर उसमें से वह दृश्य- अदृश्य जलकण बिनता है, बहती, ढुलकती, छलछलाती, दुबकी या रिसती बूंदों को छानने की उलटी प्रक्रिया से क्षमता भर समेट कर एक महान सत्य को उद्घाटित करने को कलम उठा लेता है.

"पानी"

पानी

कहां हो तुम!

सूखी आँखों के कोरों में छुपे हो

तो फूटते क्यों नहीं धारा-प्रवाह?

छुपे हो क्यों उन स्वेद कणों में,

जो उड़ जाता भाप बन कर

जलते हुए जिस्म से रिसकर

शिराओं में दौड़ते रक्त की बूंदों का

लालिमा विहीन अंश

और भूख से उपजे लार का स्वत्व

जलती सांसों और आहों पर

टपको न बूँद-बूँद

कैद हो क्यों सील-बंद बोतलों में

जो खुद हैं चाँद हथेलियों की गिरफ्त में.

क्यों छोड़ गए तुम

उस सूखे प्याऊ और

तड़पती लू में किसी ठंढी छाँव में

ठंढाते मिट्टी के घड़े को.

पड़े हो नालियों में बजबजाते

या कांधों पर गंदगी का अम्बार लादे

चले जा रहे

किसी कलकल करती नदी को दूषने

रुको, यहाँ एक पड़पड़ाया हुआ कंठ

तरस रहा तुम्हारी एक बूँद को.

हवा में घुल कर उसकी साँसों में घुस जाओ.

या फिर एक बिस्फोट कर निकल आओ

सब सील-बंद बोतलों से

भिगो दो हर प्यास को और मिल जाओ मिट्टी में

दुबारा एक सोते के रूप में फूट पड़ने को.

व्यंग्यकार

व्यंग्यकार वैसा ही है, जैसे आमतौर पर होते हैं- यानी छिद्रान्वेषी. उसे पता है दृश्य में ऐसा कुछ भी उत्तेजक नहीं जिससे कोइ सार्थक कंपन पैदा किया जा सके. इससे ज़ियादा करून दृश्य तो रोज़मर्रा में देखे और नज़रंदाज़ कर दिए जाते हैं पर यही तो चुनौती है. ‘कुछ न’ को पेश कर समाज को झकझोरना ही उसकी अभिव्यक्ति का सार है. वह एक तीरछी मुस्कान के साथ सोचता है कि सब नज़रिए का करिश्मा है और इस सपाट से मामले पर खोजबीन के अंदाज़ में गौर करने लगता है. उसकी रचना और रचना प्रक्रिया आपस में सांठ-गाँठ कर चलते हैं, सो दोनों इकठ्ठे ही दिए जा रहे हैं:

लेबल

सड़क और धूप अपनी जगह पड़े हैं (क्योंकि दृश्य-काल में न सड़क ही टूटी न धूप ही ढली है) बाक़ी है रिक्शा – जिसके उपादान हैंडल, पेडल, चेन और सीट. पिछली सीट पर छप्पर भी है. व्यंग्यकार एक एक पुर्जा चेक कर लेता है. किराए का रिक्शा है–एकदम कसा हुआ. तेज धूप में चमचमाता हुआ भी कह सकते हैं. रहा रिक्शेवाला, सो भी कसा हुआ ही या कहें आम रिक्शेवालों से थोड़ा तंदुरुस्त ही लग रहा है. टी-शर्ट और बरमूडा पैंट पहने है और पाँव में कैनवास के जूते भी हैं. शौकिया नहीं तो मज़बूरी में भी नहीं- कुछ ऐसा भाव है उसके रिक्शा-चालन में. अब बची सवारी- तो वह भी भीड़ से उचक कर रिक्शे पर आ बैठे एक आम-आदमी सा ही है जिसे आजकल ‘मैंगो मैन’ कहने का प्रचलन है. तो क्या निकला इस बेवजह से दृश्य से कि पसीना तो वातानुकूलित दायरों से बाहर खड़े हर आदमी का उतनी ही शिद्दत से बह रहा है. धूप ने व्यंग्यकार समेत किसी से रियायत नहीं कर रखी इस दृश्य में.

दो पल वह प्यास पर ठिठकता है. पानी की उपलब्धि की सम्भावनाओं पर गौर करता हुआ आसमान में बादलों को भी घूर लेता है. ज़ाहिर है पानी कहीं भी नहीं दिखता, प्यास ज़रूर हर आँख में दिखती है. तपती हुई बसों के भीतर से झांकते ढेरों चिपचिपाये चेहरे उसने अभी देखे हैं सो उसे इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगता कि बस से उतर कर रिक्शे पर बैठी सवारी अंतराल में एक पानी की बोतल खरीद ले. उसे पसीने की धार और बोतल से मुंह में गिरती पानी की धार एकाकार नजर आती है. एक तरह का जैविक जल-चक्र – जितना अंदर उतना बाहर. तो क्या पकडे इसमें से व्यंग्यकार. अपनी खोजी नज़र की वह और मुस्तैद करता है.

अचानक उसकी नजर सवारी के हाथ में अटकी बोतल के रैपर पर पडती है. अंतर्राष्ट्रीय लोगो- सौ फीसदी शुद्ध खनिज जल होने का दावा – कीमत के बार-कोड से संपन्न. उसके अंदर गूंजा – प्यास इसमें बंधक है. घड़े से गिरती धार को अंजुरी के जरिये सूखते गले की और मोडकर प्यास बुझाने की परम्परा को धातु के जग-गिलासों ने भी निभा डाला, पर बोतलों पर उस परंपरा का जोर नहीं चलता तो इसके पीछे यही लेबल है. लेबलो ने प्यासों के बीच दरार डाल दी, हालांकि प्यास सबको बराबर ही लगती है आज भी. बोतल की कीमत भी इतनी कि उसमें दो रोटियां आ जाएँ. मुहावरे में ज़रा-सा संशोधन ये कि-“रूखा-सूखा खाय ले या फिर ठंढा पानी ही पीय ले”. व्यंग्यकार अपनी भावुकता को झिडक देता है और उपसंहार की और बढ़ता है.

अब नलके, बम्बे या प्याऊ तो सार्वजनिक होते हैं. बोतल अपनी कीमत पाते ही आपकी अपनी हो जाती है, अपने होटों से लगा लें या जो चाहे करें. अपना रिक्शेवाला जेब में पड़े नोट की गरमी से उत्तेजित अपना निजी तृष्णा-शामक खरीद लाने को तैश में दनदनाता उसी दूकान पर जाता है- जहां से पानी लाकर सवारी उसे चिढाती हुई सी लग रही है. अपने अभी कमाए दस के इकलौते नोट को काउंटर पर बढाते हुए वह सवारी को इस भाव से देखता है कि क्या समझता है तू- मैं भी इसी बाज़ार अर्थव्यवस्था का हिस्सा हूँ.

फिर बोतल की जगह नोट ही वापस लौटाते दुकानदार को यह कहते सुनाता है कि- अबे अठारह रूपये की आती है पानी की बोतल, जा उधर कहीं बम्बे-शम्बे से पी ले पानी.

तो उसे कुछ देर और प्यासा रहना होगा. कम से कम इस वाले फेरे तक. एक आत्मघाती सी ताक़त उसके पैरों में उतर आई. वह कमा कर पीएगा. बोतल में पानी तो वही है, पर सील बंद होने की वजह से उसपर टैक्स भी लगा हुआ है. उसके अंदर का पानी खुला नहीं मिलता. बाज़ार की सीधी-सादी शर्त ये है कि आपकी जेब के नाप की हर चीज़ हर वक्त उपलब्ध है. उसे भी बस थोड़ी-सी और अर्जन शक्ति इकठ्ठी करनी होगी. वह सर हिलाता लौटता है और पेडल पर जोर से पैर हुमचने लगता है. बाज़ार की शर्तों से वाकिफ होकर वह निर्विकार होकर अपने काम में लग गया है. उसकी प्यास कहीं चुपचाप दुबक गयी है.

लेखक का उपसंहार

इन तीनों साहित्यिक शाह्कारों का इस दौर में क्या बना होगा- हम आप जानते हैं. पानी के नाज़ुक मामले पर कवि, कहानी कार और व्यंग्यकार अपना नजरिया पेश कर कर्तव्यबोध से मुक्त हुए. लगे हाथों तीनों ने सर्जनात्मक सुख की अनुभूति भी कर ली. आगे क्या? न तो इंद्र देवता ने पिघल कर बादल बरसा दिए, न ही किसी लोकल नेता ने उस स्थान विशेष पर ठंढे पानी का टैंकर ही भिजवाया. सरकार ने पानी की बोतल पर टैक्स हटाने की कोई घोषणा नहीं की. बस वह दृश्य वहां से हट कर शहर या पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में कोई और आकार लेकर घटने लगा.

पर संयोग क्या-क्या खेल नहीं दिखाते. समाचारों का शिकार करने निकले एक टीवी चैनल-दल ने कैमरा घुमाया तो यही दृश्य उसमें कैद हो गया. शाम को समाचारों की हेडलाइन –“प्यासी दिल्ली तपती गरमी की चपेट में” के साथ चस्पां होकर पूरे देश को दिखा. रिक्शेवाला प्यासी नज़रों से ठंढा पानी गटकती सवारी को घूरता पकड़ा गया. विपक्ष ने तत्परता से आरोप लगाया कि चूंकि सरकार प्यासी दिल्ली को दो बूँद पानी भी मुहैया कराने में असमर्थ है, सो तुरंत त्याग-पत्र दे दे. बोतल के अस्तित्व पर किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की. सरकार ने भी पूरी तत्परता से कैबिनेट की बैठक कर ली और अगली सुबह ही ऐलान कर दिया कि महानगर में कुछ चुनी हुई सडकों पर वाटर कूलर की व्यवस्था कर दी जायेगी. सड़कें चुनी जाने तक तो बरसात हो ही जायेगी.

एक शाम करोड़ों नज़रों से होकर गुजरा ये दृश्य अगले रोज दूसरे किस्म की प्यासों से जुड़े मुद्दों को रास्ता देकर एक और हट गया. तीनों शाहाकारों का हाहाकार भी किन्हीं पन्नों में छप कर दफन हो गया.

कहिये आपको भी कोई अभिव्यक्ति देनी है इस पर?